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बुधवार, मई 27, 2020

प्रकृति के सान्निध्य में सरल जीवन जीने का सन्देश देती कविताएँ

कविता-संग्रह - युग से युग तक
कवि - राजकुमार निजात
प्रकाशन - बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृष्ठ - 124
कीमत - ₹150/-
राजकुमार निजात कृत कविता-संग्रह "युग से युग तक" बोधि प्रकाशन से सितंबर 2018 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में 101 कविताएँ हैं, जिन्हें कवि ने छह दिनों की अल्पावधि में सृजित किया है। कवि ने प्रकृति और जीवन से जुड़े सजीव-निर्जीव अवयवों जैसे - नदी, पहाड़, सूरज, आसमान, कुआँ, वृक्ष, परिंद, बच्चा, शिक्षक, दादी, स्कूल, घण्टी, रास्ता आदि के माध्यम से अपनी कविताएँ कही हैं। वह परिंदों से, सूरज से, आसमान से बातचीत करता है।
    कवि को नदी माँ तुल्य लगती है। जंगल में बहती नदी अकेलेपन के कारण उदास है और कवि के गले लगकर रोती है। नाराज होने पर कभी वह बात नहीं करती, लेकिन कवि उसे उदारवादी कहता है। पहाड़ की घाटियाँ मौन चाहती हैं। कवि को वृक्ष कविताएँ लगते हैं। कवि इससे आगे बढ़कर कहता है-
"जहाँ-जहाँ जीवन होता है / वहाँ होती है /
कविताएँ ही कविताएँ" (पृ. - 29)
आँगन के पेड़ पर परिंदों का बैठना स्वर्ग की झलक देता है। परिंदों के पास जाकर चिंताएँ छूट जाती हैं। वह चाहता है कि परिंदे किसी मंदिर के पुजारी होते। कुआँ पनिहारिन के इंतजार में बूढ़ा हो गया है, कवि उससे किस्से सुनना चाहता है।  कुआँ सबको ठंडा जल पिलाकर अपनी प्यास बुझाता है। बारिश की फुहारें हमें बच्चा बना देती हैं।  कवि प्रकृति के जैसे हो जाने का संदेश देता है। प्रकृति के अवयव नंगे हैं, लेकिन पवित्र होने के कारण बुरे नहीं लगते जबकि हमारे विचार, हमारी भावनाएँ अपवित्र हैं इसलिए हमारा नंगापन हमें शर्मसार करता है। प्रकृति प्रेम को परिभाषित भी करती है। आकाश कवि को अपनी और झांकता नज़र आता है, वह नियम कायदे क्यों भुला दिए, इस बारे में सवाल करता है। आसमान जांबाज बनने की बात करता है। वह कहता है कि माँगने से कुछ नहीं मिलता। सूरज अवकाश की परिभाषा पूछता है। सूरज उसे निरूत्तर कर देता है। सूरज के माध्यम से शक्ति का सही उपयोग बताया गया है। बारिश न होने के हालातों को भी चित्रित किया गया है।
      बदलाव प्रकृति का नियम है, लेकिन हर बदलाव अच्छा हो यह ज़रूरी नहीं। आज के दौर में भी बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जो प्राचीन काल से अच्छा कदापि नहीं कहा जा सकता। कवि ने इस बदलाव को अनेक रूप में देखा है। कवि के अनुसार इक्कीसवीं सदी में तकनीक तो बढ़ी है मगर मन का विकास अवरुद्ध हो गया है। वह बरसों पहले के गाँव वालों के व्यवहार को याद करता है और पाता है कि समय बदलने के साथ गाँव बदल गया है, गाँव में महानगर उग आया है। कवि को गाँव शहर की गंदी बस्ती-सा लगता है। चौपालों के बदलते व्यवहार को भी रेखांकित किया गया है। युद्ध का तरीका भी बदल गया है, लेकिन-
"तलवारें या बारूद /  युद्ध नहीं करते /
युद्ध करता है / आदमी का दिमाग" (पृ. - 60)
पढ़ाई के तरीके बदले हैं, लेकिन कवि का झुकाव तख्तियों, बरते, स्लेट की तरफ ही है। उस दौर में अध्यापक गुरु होते थे और वह प्रेम, सौहार्द का दौर था। कवि स्कूल के आगे सिर झुकाने का पक्षधर है, क्योंकि इसी के चलते हमारा माथा ऊँचा हुआ है।
       कवि शिक्षक के महत्त्व को भी दिखाता है-
"अध्यापक केवल / अध्यापक ही नहीं होता /
वह मार्गदर्शक भी होता है / वह संस्कृति पोषक होता है /
और संस्कार पोषक भी" (पृ. - 108)
शिक्षक बच्चे का सर्वांगीण विकास करता है। वह वंदनीय है। कवि उसे दिव्य किताब कहता है। वह गुरु पर विश्वास करने की बात करता है, उसे याद रखने को कहता है।
        गाँव कवि के अंदर बसता है, इसलिए वह आज भी नीम के पेड़ के नीचे बैठकर खाना खाना, ट्यूबवैल का पानी पीना, नहर पर नहाना चाहता है। वह बच्चों जैसे मस्ती भरे जीवन का आकांक्षी है। भीड़ से दूर खेतों, खलिहानों, बागों की ओर जाना चाहता है। उसकी चाहत है कि प्रकृति नियम बदल लें। वह सूरज को छूना, चाँद पर घूमना चाहता है। वह हवा से बातें करता है और कहता है-
"तुम भी देखना / हवा से बात करके कभी /
वे तुम्हें बताएँगी / ज़िंदगी के /
नए-नए अबूझ मायने" (पृ. - 45)
       कवि को बच्चे प्रकृति के खिलौने लगते हैं। बच्चों की मुस्कान क्यों प्यारी लगती है, कवि इसको जान गया है। बच्चे सबको प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं और सभी से प्यार पाते हैं, बड़े उनके पालनहार बन जाते हैं। बच्चों का बिन बताए घर से निकल जाना घर वालों को परेशान भी करता है। बच्चे जिज्ञासु होते हैं, जागरूक रहते हैं। बच्चों की प्रार्थनाएँ कुदरत को भी भाती हैं। बच्चों के साथ भेदभाव सबसे बड़ा गुनाह है। बच्चे एक दिन देश के निर्माता बन जाएंगे। वह बच्चों को खेलने देने के पक्ष में है। बच्चे जब खेलते हैं तो वे सब कुछ भूल जाते हैं। बच्चे जब वयस्क हो जाते हैं तो वे पके फलों की तरह रसीले हो जाते हैं।
     जीवन की कड़वी सच्चाइयों को भी इस संग्रह में बयान किया गया है। रिश्ते अब बोझ हो गए हैं। हम झूठ-मूठ की मुस्कान ओढ़े हाल-चाल पूछते-बताते हैं। कवि को दिनचर्या युद्ध की तरह लगती है। चार रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। वह लिखता है-
"कुछ दिन भूखे रखकर / भूख को जीकर देखना /
कभी प्यासे रहकर / प्यास के भीतर उतर जाना" (पृ. - 85)
कवि माँगकर खाने का विरोधी है। वह लेबर कॉलोनी के लोगों की पीड़ा को समझता है। मौत के तांडव पर चुप्पी साधे बैठे लोगों से वह पूछता है -
"तुम कब विचलित होते हो / तुम्हारी आँखें कब नम होती हैं" (पृ. - 86)
फुटपाथ पर दुकान लगाने वाले को सबसे अधिक जुझारू मानता है। वह भीड़ के अत्याचार से डरता है। गलियों में सामान बेचने वाले कहीं लुटेरे न हों, यह सोच भी उसे डराती है। विश्वासघाती एनाकोंडा, मगरमच्छ से भी ज्यादा डरावने हैं। इसके साथ ही उसने विश्वास का महत्त्व बताया है। जब हमारे भीतर विश्वास टूटता है, तब हम अपने आप से डरने लगते हैं। कवि कहता है कि पशु को अबोध नहीं समझना चाहिए और उससे मित्रता निभानी चाहिए।
       समय के तीनों रूपों पर विचार किया है। आदमी का अतीत उसके साथ चलता है, इतिहास आदमी को आईना दिखाकर नंगा कर देता है। कवि के अनुसार अतीत को भूलना नहीं चाहिए, साथ ही इसकी चिंता भी नहीं करनी चाहिए। कवि ने वर्तमान में जीने का संदेश दिया है। वर्तमान के बारे में कहा है-
"वर्तमान दखल नहीं देता / भविष्य की गतिविधि पर /
न ही यह विगत में झाँकता है" (पृ. - 119)
कवि के अनुसार जीवन, समय, दिशा, सच, जमीन-आसमान सबका संविधान है। जो खुद को समय से जोड़ लेता है, समय उसे मित्र बना लेता है। हम महज यात्री हैं। कोई भी यात्रा अंतिम नहीं होती। रास्ते भेदभाव नहीं करते और न ही अपने ऊपर चलने वालों को रोकते हैं।
       झूठ और सच बोलने पर विचार किया गया है। झूठ बोलकर हम अपने ही भीतर अकेले पड़ जाते हैं। जो सच को पहचानते हैं, सच उन्हें कभी धोखा नहीं देता। नेता जब देश के प्रति वफादारी की शपथ भूल जाते हैं, तो जनता उन्हें बदल देती है। कवि ने पैसे वालों के दंभ को दिखाया है। उसके अनुसार घण्टी अनुशासन सिखाती है। स्वतंत्रता के साथ फर्ज भी होते हैं। भाषा और मौन की तुलना करते हुए मौन को श्रेष्ठ बताया है।
      कवि 'मैं एक सृष्टि' कहकर खुद को सृष्टि के कण-कण में पाता है। वह हर अर्चना, इबादत, अरदास करने वाले के पास होता है। उसे पन्ने धरती, हर्फ फसल लगते हैं और वह खुद किसान बन जाता है। कविता के बारे में वह लिखता है-
"कविता केवल / कविता नहीं होती /
वह एक घर होती है / जिसकी पंक्तियाँ होती हैं /
घर के छोटे-बड़े /सदस्यों की तरह" (पृ. - 24)
     प्रकृति के अवयवों के माध्यम से कविता कहने के कारण मानवीकरण अलंकार का भरपूर प्रयोग हुआ है। अनेक प्रतीक बाँधे गए हैं। उपमा, रूपक, अनुप्रास आदि अलंकारों का भी प्रयोग हुआ है। विरोधाभास अलंकार का एक उदाहरण-
"कुआँ बुझाता है / अपनी प्यास /
पिलाकर सबको ठंडा जल" (पृ. - 32)
    भाषा सरल और सहज है। वर्णनात्मक, संवादात्मक, तुलनात्मक, आत्मकथात्मक आदि शैलियों को अपनाया गया है। कहीं-कहीं उपदेशात्मकता भी है, यथा -
"समय को कभी / अपमानित न करें /
देखना समय तुम्हें निश्चय ही / एक दिन महान बना देगा" (पृ. - 82)
  संक्षेप में, कवि प्रकृति के सान्निध्य में रहकर साफ-सुधरा जीवन जीने का हिमायती है और इसी को उसने अपनी कविताओं में अभिव्यक्त किया है।
©दिलबागसिंह विर्क

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