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मंगलवार, अगस्त 06, 2019

विशाल अनुभव से निकले मोतियों का संग्रह


दोहा-संग्रह - दोहों के दीप 
दोहाकार - लखविन्द्र सिंह बाजवा 
प्रकाशक - तस्वीर प्रकाशन, कालांवाली 
कीमत - 150 /-
पृष्ठ - 102 ( सजिल्द ) 
हरियाणा पंजाबी साहित्य आकादमी के संत तरन सिंह वहमी पुरस्कार से सम्मानित और पंजाबी में अनेक खंडकाव्य, महाकाव्य, मुक्तक काव्य और गद्य विधाओं की 15 पुस्तकों के रचयिता श्री लखविन्द्र सिंह बाजवा का हिंदी की पुस्तक के रूप में यह पहला प्रयास है और उन्होंने इसके लिए चुना है हिंदी की सर्वोतम विधा दोहे को | दोहे अपने लघु आकार और मारक क्षमता के लिए जाने जाते हैं | बाजवा जी ने अपने अनुभव के विशाल भंडार से दोहों के मोती इस संग्रह में पिरोये हैं |

          एक सजग साहित्यकार समाज को देखता है, समाज की बुराइयों का चित्रण करता है और यथासंभव सुझाव भी देता है | बाजवा जी इस संग्रह में इन सभी बातों को बखूबी निभाते हैं | उन्होंने समाज में व्यापत हालातों और बुराइयों का बड़ा सटीक चित्रण किया है | वे कलयुगी मानव के बारे में बताते हैं, दरिंदों की प्रकृति से अवगत कराते हैं | समाज में भ्रष्टाचार का बोलबाला है | धन कमाने के लिए अनैतिक कार्य करने से लोगों को कोई हिचक नहीं | नेता भ्रष्ट हैं, तो जनता भी कम नहीं वह वोट बेचकर लोकतंत्र का अपमान करती है | देश में चमचा तन्त्र फैला हुआ है | देहवाद हावी हो चुका है और इसके लिए नर-नारी दोनों समान रूप से उत्तरदायी हैं -
नग्न नचाते नारियाँ, देत कला का नाम
पैसा लेते लालची, कामी देते दाम |
भारतीय समाज में नारी की दशा शोचनीय है | बाजवा जी ने इसे भी अपने दोहों का विषय बनाया है | नारी की दशा का चित्रण करते हुए वे लिखते हैं -
कच्छा धोए मर्द का, सासू की सलवार
फिर भी लटकी शीश पर, रहती है तलवार |
समाज में दहेज़ का बोलबाला है | नारी की दशा के साथ वे बेटी के महत्त्व को भी ब्यान करते हैं | बेटी दो घरों को संवारती है, इसलिए वह अधिक महत्त्वपूर्ण है लेकिन वे बेटे-बेटी को समान मानने की भी बात करते हैं क्योंकि इसी से परिवार सुंदर बनता है –
बेटी चंपा जानिए, बेटा जान गुलाब
घर फुलवारी महकती, दोनों से नायब |
आज के दौर में परिवार बिखर रहे हैं और युवा पीढ़ी इसके लिए दोषी है | आज की सन्तान अपने माँ-बाप को मूर्ख तक कह देती है | समाज से भाईचारा नदारद है | भाईचारा बनाए रखने की सिर्फ बातें होती हैं, असल में इन्हें अपनाया नहीं जाता –
भाई से झगड़ा करे, हमसाए से बैर
लोगों को कहता फिरे, सदा रहो निरबैर |
स्वार्थ का बोलबाला है, लोग चलती गाड़ी के साथी हैं | सेवा कहलाने वाले रोजगार अब व्यवसाय बन चुके हैं | शिक्षा का बाज़ारीकरण हो गया है, डॉक्टर यमदूत बने हुए हैं | समाज में नशे की बाढ़ से कवि दुखी है, सरकार के रविये से असंतुष्ट है | उसे लगता है कि सरकार भिखमंगों को जन्म दे रही है | बाल मजदूरी के रहते विकास बेमानी है | सरकार के साथ-साथ जनता भी दोषी है | वह देश की बजाए विदेश को महत्त्व देती है | लोग प्रेम से रहना भूल गए हैं | एकता में ताकत है, प्रेम से सम्मान मिलता है, लेकिन लोग आपस में लड़-मर रहे हैं –
झुण्ड बांस का प्रेम से, रहता जीवत लाख
जब आपस में भिड गया, जलकर हुआ राख |
धर्म के दिखावे पर भी उन्होंने प्रहार किया है | वे आडम्बरों के विरोधी हैं –
चोंच डुबाई काग ने, पीया गंगा नीर
वाणी मीठी ना हुई, हुआ न पाक शरीर |
धर्म स्थान के नाम पर लोगों ने सडकों की जमीन पर कब्जा जमा रखा है | एक गाँव में एक ही धर्म के अनेक पूजा स्थल उन्हें अखरते हैं | धर्म के नाम पर क़ानून का मजाक उड़ाया जाना उन्हें दुखी करता है –
कैसा है कानून ये, जिसके पाँव न एक 
धर्मों के आगे सदा, देता घुटने टेक |
धर्मान्धता का जहर फैला हुआ है और नस्लवाद दावानल जैसा है |
          वे कलाकारों की बाढ़ पर लेखनी चलाते हैं, तो ‘ लिखता जाता पुस्तकें, पन्ना पढ़े न एक ’ कहकर आजकल के साहित्यकार पर कटाक्ष करते हैं | यहाँ उट-पटांग लिखने वाला शायर हो जाता है, पैसे देकर सम्मान हासिल कर लेता है | उन्हें लगता है कि मूर्ख को ज्ञान देना भैंस के आगे बीन बजाना, खर के आगे बांसुरी बजाना या फिर चट्टान पर बारिश होने जैसा है | मूर्खता के कारण ही ठगी का बाज़ार गर्म है | पढ़े-लिखे लोग अनपढ़ों से ठगे जाते हैं | अन्धविश्वास और अफवाहों का बोलबाला है - 
अफवाहें हैं फैलती, पवन वेग चहुँ कूट
चूहे का तो शाम तक, बन जाता है ऊँट |
ताकतवर लोगों का दबदबा है, जिससे तमाम पुरानी कहावतें अर्थहीन हो गई हैं –
अकल बड़ी या भैंस ये, बनी कहावत खूब
लाठी वाला ले गया, अकल मरी है डूब |
           सोशल मिडिया के आधुनिक समाज पर प्रभाव को भी कवि ने बड़ी बारीकी से देखा है और व्हाट्स-अप और फेसबुक के क्रियाकलापों को दोहों का विषय बनाया है | फेसबुक पर फर्जी आई-डी बनाकर चैटिंग करना, लाईक, कमेन्ट की चाह, टैगिंग की प्रवृति उनके दोहों के विषय बने हैं | प्रेमियों में पहले जैसी पवित्रता नहीं रही | वासना की प्रधानता है और यह वासना कीर्ति नाशक है –
उपज सुनामी काम की, मन झकझोर हिलाए
सौ बरसों की कीरती, पल में ख़ाक मिलाए |
           बच्चों के बस्तों का बोझ बढ़ना, बच्चों का गर्मी की छुट्टियों में ननिहाल जाना और छुट्टियों की समाप्ति पर स्कूलों के खुलने के चित्र उनके दोहों में समाए हुए हैं | उनके दोहों में ऐसे मजदूरों के चित्र हैं जो मेहनत करके ख़ुश हैं जबकि धनी वर्ग चिंता से ग्रस्त है | वे भीख को बुरा और मेहनत को अच्छा कहते हैं | गाँव के चित्र हैं, गाँव की माटी का जिक्र है | पक्षियों का वात्सल्य भाव है | प्रकृति का चित्रण है –
धरती को मिलने चला, अंबर संध्या काल
देकर उसको भेंट में, सूरज रूपी लाल |
वे नीम, शीशम, पीपल, दाख, आंवल, अर्जुन, अनार आदि के गुण बताते हैं | स्वस्थ रहने के उपाय बताते हैं तो उस खानपान का जिक्र भी करते हैं जो हमें बीमार कर रहा है | वे प्रकृति से सीख लेने का सुझाव देते हैं –
बेरी से तू सीख ले, करना परोपकार
देती मीठे बेर है, सह पत्थर की मार |
आजादी के संघर्ष के चित्र हैं, शहीदों को नमन है | गुरु का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है | वे जीवन की नश्वरता की भी बात करते हैं -
बचपन यौवन सब गया, बीत गया मधुमास
पतझड़ आई उम्र की, मन हो रहा उदास |
              एक सजग साहित्यकार के रूप में फ़ैल रहे प्रदूषण पर उनकी कड़ी नजर रही है | ओजोन परत के पतले होने का उन्हें दुःख है | कवि के अनुसार कुदरत के क्रोधित होने का कारण उससे की जा रही छेडछाड ही है | जल पीयूष तुल्य है, लेकिन हमने इसे जहर बना दिया है | त्योहारों में भी खूब प्रदूषण होता है | विकास ने भी प्रदूषण को बढावा दिया है | विकास अपना दुष्प्रभाव दिखा रहा है |
          बाजवा जी कृषि व्यवसाय से सीधे जुड़े हुए व्यक्ति हैं, इसलिए किसान की समस्याएं और परिस्थितियों का वर्णन बड़ी सजीवता से उनके काव्य में उतरा है | मौसम की मार किसान को सबसे अधिक पड़ती है, इसलिए खेती बहुधा मेहनत से ज्यादा किस्मत का रूप धारण कर लेती है -  
मौसम बिगड़ा देखकर, हुआ उदास किसान
पक्की फसलें खेत में, मुट्ठी में है जान |
मौसम का अलग-अलग व्यक्तियों पर अलग प्रभाव भी उन्होंने दिखाया है –
सावन मौज अमीर को, खाए पूड़े खीर
निर्धन की मुश्किल बनी, छत से टपके नीर |
किसान के आत्महत्या करने की पीड़ा उनके काव्य में है लेकिन वे किसान की गलतियों को भी बेपर्दा करते हैं | शादी और मुकद्दमों पर खर्चे, नशे का प्रयोग किसान की बुरी दशा के लिए जिम्मेदार है | किसान प्रकृति को बिगाड़ने में लगा है | वह फसलों पर जहरीले रसायनों का प्रयोग करता है | उसने मित्र कीटों और पक्षियों को मारकर अपने पैरों पर ख़ुद कुल्हाड़ी मारी है | उनके प्रतीक भी कृषि जगत से प्रभावित हैं –
दाती ज्यों मजदूर की, काटे कनक प्लाट
ऐसे चंदा चौथ का, रहा अँधेरा काट |
         कवि ने अच्छा जीवन जीने के सुझाव भी दिए हैं | उनके अनुसार ज़िंदगी मृगतृष्णा है और संयमपूर्वक जीवन ही उत्तम है | वे बचत को महत्त्व देते है और निष्काम भाव से कर्म करने की सलाह देते हैं | वे कहते हैं कि ख्वाहिशों की बजाए चंचल मन को मारो | यह दुनिया महज विश्राम स्थली है | उनकी सलाह है -
बेशक उड़ो आकाश में, छोड़ो नहीं जमीन
अपने कभी न भूलना, हो गैरों में लीन |
         प्रत्येक साहित्यकार के सामने समाज को लेकर, जीवन को लेकर उच्च लक्ष्य होता है और उसी को सामने रखते हुए वह साहित्य सृजन करता है | बाजवा जी ने साहित्य सृजन के पीछे निहित अपने उद्देश्य को भी बखूबी ब्यान किया है -
चाहत है देखूँ सदा, रौशन यार जहान
दीप जलाए बाजवा, चलते बीच तूफान |
अपने दोहों में वे रसों को पिरोकर कुदरत का इजहार करना चाहते हैं -
दोहा सुंदर-सा बने, भरकर रस शिंगार
इस कुदरत के रूप का, खूब करो इजहार |
इस संग्रह को पढ़ते हुए उनका यह दोहा उचित ही प्रतीत होता है -
दोहों के मोती जड़े, ज्ञान बहर से तोल
मैंने दी है आपको, भेंट एक अनमोल |
        लखविंदर सिंह बाजवा जी का यह दोहा-संग्रह हिंदी साहित्य को समृद्ध करेगा, मुझे ऐसा पूर्ण विश्वास है |
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पुस्तक की भूमिका के रूप में लिखा गया आलेख 
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दिलबाग सिंह विर्क
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4 टिप्‍पणियां:

विद्या सरन ने कहा…

Bahut hi sundar samiksha ki hai aapne. Aabhar.
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Unknown ने कहा…

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