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शुक्रवार, अप्रैल 30, 2021

भूमिका - गीता दोहावली ( दिलबागसिंह विर्क )

श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय संस्कृति का अनूठा ग्रंथ है, जो विश्व के ज्ञाननिधि में एक अमूल्य चिंतामणि रत्न रूप में प्रकाशमान है। यह साहित्य सागर में अमृत कुंभ है, जिसमें कर्म-भक्ति-ज्ञान रूप में जीवनामृत भरा है। साथ ही यह एक सर्वांगसुंदर योगशास्त्र भी है। योग इसलिए कि यह शास्त्र परमपिता से जुड़ने की कला बताता है। श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा अनुपमेय शास्त्र है, जिसकी महिमा अपार है, अपरिमित है। इसके यथार्थ का वर्णन कोई नहीं कर सकता। शेष, महेश, गणेश भी इसकी महिमा को पूरी तरह से बखान नहीं कर सके, फिर मनुष्य तो अंशमात्र है। विद्वानों ने इसे अब तक अनेकाधिक कोटियों में रखा है - यह धर्म-ग्रंथ नहीं है, यह एक दर्शन है, एक रहस्यमयी ग्रंथ है, वेदों का सार-संग्रह है, यह सर्वशास्त्रमय है, यह गीतोपनिषद है, साक्षात भगवान की दिव्य-वाणी है आदि- आदि। निस्संदेह विश्व की अनेक भाषाओं में, अनेक गीता भाष्य प्राप्त हैं। इस ग्रंथ को देश-विदेशों के अनेक पूज्य संतों, मर्मज्ञ विद्वानों एवं गीता मनीषियों ने इसके हृदयकोश में क्या ज्ञानोपदेश भरा है, उसको उन्होंने अपने-अपने ढंग से समझाने का सफल प्रयास किया है, किंतु विदेशों में ही नहीं, अपितु भारत में भी कोई पूर्ण रूप से प्रामाणिक संस्करण मिलना असंभव ही प्रतीत होता है। हाँ, इतना निश्चित रूप से अवश्य कहा जा सकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता एक सार्वभौमिक, सार्वकालिक, कल्याणकारी एवं जीवन के हर क्षेत्र में मार्गदर्शन की क्षमता रखनेवाला अत्यंत ही अद्भुत ग्रंथ है, जो असीम सत्ता के साथ जोड़े रखकर, निष्काम, निरपेक्ष और फल की इच्छा किए बिना, अपने क्रियाकलाप करते रहने का संदेश देता है।

      श्रीमद्भगवद्गीता मनस्वी दिलबागसिंह विर्क की "गीता दोहावली" पुस्तक की पांडुलिपि अवलोकनार्थ मेरे समक्ष है। भारत के सत्त्वगुणी महान विद्वान, महात्मा, जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का भाष्य प्राप्त होता है। उनसे पूर्व भी किंहीं विद्वानों ने भाष्य किया, ऐसा आदि शंकराचार्य के कार्य से विदित होता है, किंतु इन्हीं के भाष्य को प्रथम माना जाता है। संत शिरोमणि बाबा नामदेव ने भी भक्ति योग को आधार मानकर अपने आराध्य विट्ठल भगवान की स्तुति लिखी है और संत ज्ञानेश्वर ने तो पूरी गीता का मराठी भाषा में काव्य-भाष्य रूप दिया है, जो आज तक प्रसिद्ध है। आधुनिककालिक विद्वानों एवं मनीषियों ने भी श्रीमद्भगवद्गीता पर अपनी लेखनी का चमत्कार प्रदर्शित किया है, उनमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, विनोबा भावे आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। रविंद्रनाथ टैगोर ने भी कुछ पद बांग्ला भाषा में लिखे, जो 'गीतांजलि' नाम से प्रसिद्ध हैं। बाद में, प्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं कवि आइंस्टाइन ने गीतांजलि का अंग्रेज़ी अनुवाद किया, जिस पर टैगोर को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी श्रीमद्भगवद्गीता का भाष्य अंग्रेज़ी में किया। श्रीमद्भगवद्गीता के इस लोक-कल्याणकारी अवदान और विश्व मान्य महत्ता को दृष्टि-पथ में रखकर, गीता प्रेस ने भी अनेक छोटे-बड़े संस्करण तथा विस्तृत टीकाएँ प्रकाशित की हैं, जिनमें ब्रह्मलीन जयदयाल गोयंदका द्वारा प्रणीत 'तत्त्व विवेचनी' टीका अन्यतम है। रासबिहारी पांडेय ने श्रीमद्भगवद्गीता नाम से इसका हिंदी दोहों में अनुवाद करके इस दिशा में अनूठा प्रयास किया है।

    दोहा हिंदी काव्य की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्राचीनतम विधा है। अपभ्रंश, प्राकृत, पाली, खड़ी बोली भाषाओं से लेकर हिंदी तक इसकी धारा अविछिन्न गति से प्रवाहित होती है। भक्तिकाल में कबीर, नानक, दादू, मलूकदास आदि अनेक संतों ने अपनी अनुभूतियों को दोहे के माध्यम से ही व्यक्त किया है। तुलसी, जायसी, रहीम और बिहारी की लेखनी का स्पर्श पाकर अनुभूति की गहराई के साथ-साथ उसने अपार लोकप्रियता प्राप्त की। वर्तमान में, वेदों में 'गायत्री' और लौकिक संस्कृत में 'अनुष्टुप' छंद की जो लोकप्रियता तथा सरलता दर्ज है, वही हिंदी में 'दोहा' छंद की है। वेद के अंग व्याकरण को जहाँ मुख माना गया है, वहाँ छंद को पाद बताया है। वेद का सबसे छोटा छंद 24 वर्णों व तीन चरणों का 'गायत्री' छंद है, इस 24 वर्णों वाले गायत्री छंद से लौकिक छंद 'अनुष्टुप' ( जिसमें 8 वर्णों के चार चरण होते हैं) प्रचलन में आया। अनुष्टुप वार्णिक छंद है, जिसमें 8 × 4 = 32 वर्णों का विधान है। छंद शास्त्र के आदि प्रवर्तक पिंगल ऋषि ने अनुष्टुप के लक्षण निश्चित करते समय लिखा है, "अनुष्टुप में पाँचवां वर्ण चारों चरणों में लघु (ह्रस्व), दूसरे और चौथे चरण में सातवाँ वर्ण भी लघु और प्रत्येक चरण में छठा वर्ण गुरु है। यहाँ यही संकेत सुखद आश्चर्य है कि यदि अनुष्टुप को मात्राबद्ध किया जाए, तो इसके विषम ( 1,3 ) चरण में तेरह मात्रा तथा सम चरण (2,4) में ग्यारह मात्राएँ प्रायः मिलती हैं; रामायण, महाभारत तथा श्रीमद्भगवद्गीता के अधिकांश श्लोक अनुष्टुप छंद में ही है।

      जायसी ने प्रथम बार चौपाई चंद्रमणियों में हीरकवत दोहे का प्रयोग कर मुक्त काव्य को नवीनता प्रदान की। इसी का अनुकरण श्री तुलसी ने रामचरितमानस में भी किया। हिंदी साहित्य में जिस प्रकार हम भाषा विकास क्रम संस्कृत - प्राकृत - पालि - अपभ्रंश - ब्रज, खड़ी बोली से हिंदी की ओर गतिशील हुए, उसी भाँति कबीर, रहीम, जायसी, बिहारी की भाषाएँ। वस्तुतः इसी प्रकार 'दोहा' भी हमारे जीवन में वेदों के समय से गायत्री - अनुष्टुप से प्रविष्ट होता हुआ उर्दू तथा हिंदी में 'सत्यं-शिवं-सुंदरं' की संकल्पना के साथ प्रस्तुत हो रहा है। दोहा सतसई की परंपरा को आगे बढ़ाते, वर्तमान में अनेकाधिक नाम दर्ज़ हैं, किंतु 'गीता दोहावली' के रूप में गीता उपासक दिलबागसिंह विर्क से अन्यंत्र विरला ही है। पिछले दशक से हिंदी में दोहा लेखन की बाढ़-सी आई है, किंतु 'दोहावली' दुर्लभ रूप में दृष्टव्य है। यह दोहे की लोकप्रियता का एक अकाट्य प्रमाण है। वर्तमान परिवेश में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, प्रकृति-सौंदर्य आदि अनेक दोहावली मिल सकती हैं, किंतु दिलबागसिंह विर्क विरचित 'गीता दोहावली' विषयक विशेष प्रस्तुतिकरण नहीं। फिर प्रकृत दोहावली में दोहा संदर्भ में गहनतम अनुसंधानात्मक आलेख एक नवोन्मेषकारी प्रयोग रूप में चरितार्थ होना श्लाघनीय कृत्य है। इस प्रकार दोहा परंपरा को समृद्धि प्रदान करती प्रकृत दोहावली अनंत, अमूल्य दोहा रूप में जड़ित 621 दोहे संग्रहीत हैं। संस्कृत भाषा के न जानने वाले जन के लिए यह पुस्तक सरल, सहज व क्लिष्ट शब्द-अर्थ सहित, हिंदी भाषा में गीता ज्ञान को और भी अधिक सरलीकृत कर प्रस्तुत होती है। इसमें ज्ञान-भक्ति- कर्म और योग की अपूर्व एकता के साथ आशावाद का निराला निरूपण समाहित है, कर्त्तव्य कर्म का उच्चतम प्रोत्साहन है,भक्ति-भाव का सर्वोत्तम वर्णन, ज्ञान की गंगा-सी धार तथा योग की चेतना है।

     कविवर ने, आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण ने अपने मित्र अथवा भक्त अर्जुन को जो भगवद्गीता का उपदेश अठारह अध्यायों अथवा वार्ता रूप में दिया था, उस दृष्टि से प्रकृत दोहावली यथारूप अनुपम दृष्टव्य है। इस महान ग्रंथ के यथार्थ रूप का माध्यम बना है, कविवर का 'दोहा' छंद। जिस प्रकार आत्मा अजर, अमर है, वैसे ही गीता वाणी अमर है। यह सीधी शून्य में जाकर, वहाँ स्थायी बनी रहती है। शायद यही कारण इस कृति की रचना का बना है। कविवर के शून्य में विराजमान श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद की दिव्य-ध्वनि मुखरित हो क़लमबद्ध हुई है। इस कृति में सभी अध्यायों को पृथक-पृथक कर, श्लोकों को दोहा छंद में रचा गया है। लगता है कविवर के अनुभव यंत्रणाओं के लंबे दौर से गुजरकर एक भावातीत पूर्ण तल्लीनता से उस अगोचर के साथ जुड़े हैं। यह तल्लीनता इन्हें आस्था में उद्भूत एक समर्पण की भावना से जोड़ती है, न कि टूटने की कमज़ोरी से, जिसकी अभिव्यक्ति इनके दोहों में देखी जा सकती है -

ज्ञानयोग तूने सुना, आगे सुन अब कर्म

कर्म ज़रूरी है सदा, समझो इसका मर्म।

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अंतर्यामी में रहा, जिसका भी विश्वास

पकड़ूँ उसका हाथ मैं, न टूटने दूँ आस।

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नाश हुआ जब धर्म का, लेता हूँ अवतार

मैं अविनाशी रूप हूँ, धरूँ देह साकार।

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यह निश्चित ही इनकी चेतना का विकास कहा जा सकता है। ये आत्मीय क्षण कभी-कभी स्वयं रचनाकार की अनुभावना की पकड़ में नहीं आते, किंतु यह उसकी दार्शनिक बनने की प्रक्रिया ही होती है -

संशय में डूबे रहें, जो दें श्रद्धा छोड़

वे कुछ भी पाते नहीं, बस है यही निचोड़।

तमाम कवि / लेखकों का यह एक सत्य रहा है कि जब वह सिद्धि की ओर जाता है, तो अनायास दर्शन में उसकी अभिव्यक्ति अथवा संवेदना प्रणीत होने लगती है, किंतु कविवर दिलबागसिंह विर्क अपनी यौवनावस्था में ही सिद्धि प्राप्त करते दिखाई देते हैं, अन्यथा इतने गूढ़ ग्रंथ के अंतस में झाँकना और इसके काँचनमणि प्रकाश की किरणों को क़लमबद्ध करना, इतना सहज कार्य नहीं है। वास्तव में कवि ने बड़े शांत और स्निग्ध- भाव से सभी न्यूनताओं और संभावनाओं को अभिव्यक्त किया है।

    अतः कविवर दिलबागसिंह विर्क विराट की ओर उन्मुख होकर, अपनी तथा मानवता की तलाश करते दृष्टिगत होते हैं। ऐसा लगता है जैसे मानव मन अज्ञात क्षणों की सत्ता से साक्षात्कार करना चाहता है। दोहे एक नए क्षितिज को छूते हैं तथा कवि का एक सर्वदा परिवर्तित रूप परिलक्षित होता है। प्रत्येक श्लोक को 'परिचय' के रूप में गढ़ा गया है। आज का मनुष्य जहाँ भी किसी परब्रह्म अथवा परमात्मा की प्रार्थना, वंदना अथवा मंगलाचरण को पढ़ता है, तो उसके मन में अनेक प्रश्न उठते हैं कि यह 'ब्रह्म क्या है?' अगोचर, अज्ञात तथा अनिर्वचनीय से आज सहज संतोष नहीं मिलता। कवि ने इन दोहों मे उस ब्रह्म रूप को कर्म-ज्ञान-भक्ति और योग के माध्यम से ब्रह्म-वाणी को मूर्त बनाने की सफल कोशिश की है। अतः प्रकृत 'गीता दोहावली' को श्रीकृष्ण-अर्जुन वार्ता का पुनर्जन्म कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। अतः गीता को समझने के लिए निश्चय ही सरल भाषा, लोकप्रिय विधा का प्रयोग अपेक्षित है, जिसका कविवर ने पूरी निष्ठा और ईमानदारी से निर्वहन किया है। मुझे आशा है, इस पुस्तक से अधिकाधिक जन लाभ लेंगे। यह पुस्तक विद्वानों में ख्याति प्राप्त करेगी। निःसंदेह गीता के द्वारा मानवता को उपदेश देनेवाले परमात्मा ने अपनी करुणा कविवर पर न्योछावर की है। कवि के इस सद्प्रयास के लिए मैं अभिनंदन करता हूँ तथा शुभकामनाओं सहित, मंगलमय जीवन की मुहुर्मुहुः कामना करता हूँ। इति शुभम।

शुभेच्छु

डॉ. अशोक कुमार मंगलेश

आलोचक एवं कवि

अध्यक्ष, निर्मला स्मृति साहित्यिक समिति

चरखी दादरी, हरियाणा

मो. - 81999-29206


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