शरतचंद्र का उपन्यास बिराज बहू विराज के दुखों की गाथा है । पति के कोई काम न करने का दुःख उठाती है विराज । ननद को दिए गए दहेज़ और अकाल के कारण आई गरीबी का दुःख उठाती है विराज । सतीत्व में सावित्री से प्रतिस्पर्द्धा करने को उत्सुक विराज सतीत्व से लड़खड़ा जरूर जाती है लेकिन पतित होने से पूर्व ही वह खुद को संभाल लेती है और अंत में पति के पास रहते हुए वैसी ही मृत्यु को प्राप्त होती है जैसी कि विराज के अनुसार एक सती को मिलनी चाहिए ।