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शुक्रवार, अप्रैल 30, 2021

भूमिका - गीता दोहावली ( दिलबागसिंह विर्क )

श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय संस्कृति का अनूठा ग्रंथ है, जो विश्व के ज्ञाननिधि में एक अमूल्य चिंतामणि रत्न रूप में प्रकाशमान है। यह साहित्य सागर में अमृत कुंभ है, जिसमें कर्म-भक्ति-ज्ञान रूप में जीवनामृत भरा है। साथ ही यह एक सर्वांगसुंदर योगशास्त्र भी है। योग इसलिए कि यह शास्त्र परमपिता से जुड़ने की कला बताता है। श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा अनुपमेय शास्त्र है, जिसकी महिमा अपार है, अपरिमित है। इसके यथार्थ का वर्णन कोई नहीं कर सकता। शेष, महेश, गणेश भी इसकी महिमा को पूरी तरह से बखान नहीं कर सके, फिर मनुष्य तो अंशमात्र है। विद्वानों ने इसे अब तक अनेकाधिक कोटियों में रखा है - यह धर्म-ग्रंथ नहीं है, यह एक दर्शन है, एक रहस्यमयी ग्रंथ है, वेदों का सार-संग्रह है, यह सर्वशास्त्रमय है, यह गीतोपनिषद है, साक्षात भगवान की दिव्य-वाणी है आदि- आदि। निस्संदेह विश्व की अनेक भाषाओं में, अनेक गीता भाष्य प्राप्त हैं। इस ग्रंथ को देश-विदेशों के अनेक पूज्य संतों, मर्मज्ञ विद्वानों एवं गीता मनीषियों ने इसके हृदयकोश में क्या ज्ञानोपदेश भरा है, उसको उन्होंने अपने-अपने ढंग से समझाने का सफल प्रयास किया है, किंतु विदेशों में ही नहीं, अपितु भारत में भी कोई पूर्ण रूप से प्रामाणिक संस्करण मिलना असंभव ही प्रतीत होता है। हाँ, इतना निश्चित रूप से अवश्य कहा जा सकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता एक सार्वभौमिक, सार्वकालिक, कल्याणकारी एवं जीवन के हर क्षेत्र में मार्गदर्शन की क्षमता रखनेवाला अत्यंत ही अद्भुत ग्रंथ है, जो असीम सत्ता के साथ जोड़े रखकर, निष्काम, निरपेक्ष और फल की इच्छा किए बिना, अपने क्रियाकलाप करते रहने का संदेश देता है।

      श्रीमद्भगवद्गीता मनस्वी दिलबागसिंह विर्क की "गीता दोहावली" पुस्तक की पांडुलिपि अवलोकनार्थ मेरे समक्ष है। भारत के सत्त्वगुणी महान विद्वान, महात्मा, जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का भाष्य प्राप्त होता है। उनसे पूर्व भी किंहीं विद्वानों ने भाष्य किया, ऐसा आदि शंकराचार्य के कार्य से विदित होता है, किंतु इन्हीं के भाष्य को प्रथम माना जाता है। संत शिरोमणि बाबा नामदेव ने भी भक्ति योग को आधार मानकर अपने आराध्य विट्ठल भगवान की स्तुति लिखी है और संत ज्ञानेश्वर ने तो पूरी गीता का मराठी भाषा में काव्य-भाष्य रूप दिया है, जो आज तक प्रसिद्ध है। आधुनिककालिक विद्वानों एवं मनीषियों ने भी श्रीमद्भगवद्गीता पर अपनी लेखनी का चमत्कार प्रदर्शित किया है, उनमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, विनोबा भावे आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। रविंद्रनाथ टैगोर ने भी कुछ पद बांग्ला भाषा में लिखे, जो 'गीतांजलि' नाम से प्रसिद्ध हैं। बाद में, प्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं कवि आइंस्टाइन ने गीतांजलि का अंग्रेज़ी अनुवाद किया, जिस पर टैगोर को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी श्रीमद्भगवद्गीता का भाष्य अंग्रेज़ी में किया। श्रीमद्भगवद्गीता के इस लोक-कल्याणकारी अवदान और विश्व मान्य महत्ता को दृष्टि-पथ में रखकर, गीता प्रेस ने भी अनेक छोटे-बड़े संस्करण तथा विस्तृत टीकाएँ प्रकाशित की हैं, जिनमें ब्रह्मलीन जयदयाल गोयंदका द्वारा प्रणीत 'तत्त्व विवेचनी' टीका अन्यतम है। रासबिहारी पांडेय ने श्रीमद्भगवद्गीता नाम से इसका हिंदी दोहों में अनुवाद करके इस दिशा में अनूठा प्रयास किया है।

    दोहा हिंदी काव्य की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्राचीनतम विधा है। अपभ्रंश, प्राकृत, पाली, खड़ी बोली भाषाओं से लेकर हिंदी तक इसकी धारा अविछिन्न गति से प्रवाहित होती है। भक्तिकाल में कबीर, नानक, दादू, मलूकदास आदि अनेक संतों ने अपनी अनुभूतियों को दोहे के माध्यम से ही व्यक्त किया है। तुलसी, जायसी, रहीम और बिहारी की लेखनी का स्पर्श पाकर अनुभूति की गहराई के साथ-साथ उसने अपार लोकप्रियता प्राप्त की। वर्तमान में, वेदों में 'गायत्री' और लौकिक संस्कृत में 'अनुष्टुप' छंद की जो लोकप्रियता तथा सरलता दर्ज है, वही हिंदी में 'दोहा' छंद की है। वेद के अंग व्याकरण को जहाँ मुख माना गया है, वहाँ छंद को पाद बताया है। वेद का सबसे छोटा छंद 24 वर्णों व तीन चरणों का 'गायत्री' छंद है, इस 24 वर्णों वाले गायत्री छंद से लौकिक छंद 'अनुष्टुप' ( जिसमें 8 वर्णों के चार चरण होते हैं) प्रचलन में आया। अनुष्टुप वार्णिक छंद है, जिसमें 8 × 4 = 32 वर्णों का विधान है। छंद शास्त्र के आदि प्रवर्तक पिंगल ऋषि ने अनुष्टुप के लक्षण निश्चित करते समय लिखा है, "अनुष्टुप में पाँचवां वर्ण चारों चरणों में लघु (ह्रस्व), दूसरे और चौथे चरण में सातवाँ वर्ण भी लघु और प्रत्येक चरण में छठा वर्ण गुरु है। यहाँ यही संकेत सुखद आश्चर्य है कि यदि अनुष्टुप को मात्राबद्ध किया जाए, तो इसके विषम ( 1,3 ) चरण में तेरह मात्रा तथा सम चरण (2,4) में ग्यारह मात्राएँ प्रायः मिलती हैं; रामायण, महाभारत तथा श्रीमद्भगवद्गीता के अधिकांश श्लोक अनुष्टुप छंद में ही है।

      जायसी ने प्रथम बार चौपाई चंद्रमणियों में हीरकवत दोहे का प्रयोग कर मुक्त काव्य को नवीनता प्रदान की। इसी का अनुकरण श्री तुलसी ने रामचरितमानस में भी किया। हिंदी साहित्य में जिस प्रकार हम भाषा विकास क्रम संस्कृत - प्राकृत - पालि - अपभ्रंश - ब्रज, खड़ी बोली से हिंदी की ओर गतिशील हुए, उसी भाँति कबीर, रहीम, जायसी, बिहारी की भाषाएँ। वस्तुतः इसी प्रकार 'दोहा' भी हमारे जीवन में वेदों के समय से गायत्री - अनुष्टुप से प्रविष्ट होता हुआ उर्दू तथा हिंदी में 'सत्यं-शिवं-सुंदरं' की संकल्पना के साथ प्रस्तुत हो रहा है। दोहा सतसई की परंपरा को आगे बढ़ाते, वर्तमान में अनेकाधिक नाम दर्ज़ हैं, किंतु 'गीता दोहावली' के रूप में गीता उपासक दिलबागसिंह विर्क से अन्यंत्र विरला ही है। पिछले दशक से हिंदी में दोहा लेखन की बाढ़-सी आई है, किंतु 'दोहावली' दुर्लभ रूप में दृष्टव्य है। यह दोहे की लोकप्रियता का एक अकाट्य प्रमाण है। वर्तमान परिवेश में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, प्रकृति-सौंदर्य आदि अनेक दोहावली मिल सकती हैं, किंतु दिलबागसिंह विर्क विरचित 'गीता दोहावली' विषयक विशेष प्रस्तुतिकरण नहीं। फिर प्रकृत दोहावली में दोहा संदर्भ में गहनतम अनुसंधानात्मक आलेख एक नवोन्मेषकारी प्रयोग रूप में चरितार्थ होना श्लाघनीय कृत्य है। इस प्रकार दोहा परंपरा को समृद्धि प्रदान करती प्रकृत दोहावली अनंत, अमूल्य दोहा रूप में जड़ित 621 दोहे संग्रहीत हैं। संस्कृत भाषा के न जानने वाले जन के लिए यह पुस्तक सरल, सहज व क्लिष्ट शब्द-अर्थ सहित, हिंदी भाषा में गीता ज्ञान को और भी अधिक सरलीकृत कर प्रस्तुत होती है। इसमें ज्ञान-भक्ति- कर्म और योग की अपूर्व एकता के साथ आशावाद का निराला निरूपण समाहित है, कर्त्तव्य कर्म का उच्चतम प्रोत्साहन है,भक्ति-भाव का सर्वोत्तम वर्णन, ज्ञान की गंगा-सी धार तथा योग की चेतना है।

     कविवर ने, आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण ने अपने मित्र अथवा भक्त अर्जुन को जो भगवद्गीता का उपदेश अठारह अध्यायों अथवा वार्ता रूप में दिया था, उस दृष्टि से प्रकृत दोहावली यथारूप अनुपम दृष्टव्य है। इस महान ग्रंथ के यथार्थ रूप का माध्यम बना है, कविवर का 'दोहा' छंद। जिस प्रकार आत्मा अजर, अमर है, वैसे ही गीता वाणी अमर है। यह सीधी शून्य में जाकर, वहाँ स्थायी बनी रहती है। शायद यही कारण इस कृति की रचना का बना है। कविवर के शून्य में विराजमान श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद की दिव्य-ध्वनि मुखरित हो क़लमबद्ध हुई है। इस कृति में सभी अध्यायों को पृथक-पृथक कर, श्लोकों को दोहा छंद में रचा गया है। लगता है कविवर के अनुभव यंत्रणाओं के लंबे दौर से गुजरकर एक भावातीत पूर्ण तल्लीनता से उस अगोचर के साथ जुड़े हैं। यह तल्लीनता इन्हें आस्था में उद्भूत एक समर्पण की भावना से जोड़ती है, न कि टूटने की कमज़ोरी से, जिसकी अभिव्यक्ति इनके दोहों में देखी जा सकती है -

ज्ञानयोग तूने सुना, आगे सुन अब कर्म

कर्म ज़रूरी है सदा, समझो इसका मर्म।

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अंतर्यामी में रहा, जिसका भी विश्वास

पकड़ूँ उसका हाथ मैं, न टूटने दूँ आस।

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नाश हुआ जब धर्म का, लेता हूँ अवतार

मैं अविनाशी रूप हूँ, धरूँ देह साकार।

 ●  ●  ●

यह निश्चित ही इनकी चेतना का विकास कहा जा सकता है। ये आत्मीय क्षण कभी-कभी स्वयं रचनाकार की अनुभावना की पकड़ में नहीं आते, किंतु यह उसकी दार्शनिक बनने की प्रक्रिया ही होती है -

संशय में डूबे रहें, जो दें श्रद्धा छोड़

वे कुछ भी पाते नहीं, बस है यही निचोड़।

तमाम कवि / लेखकों का यह एक सत्य रहा है कि जब वह सिद्धि की ओर जाता है, तो अनायास दर्शन में उसकी अभिव्यक्ति अथवा संवेदना प्रणीत होने लगती है, किंतु कविवर दिलबागसिंह विर्क अपनी यौवनावस्था में ही सिद्धि प्राप्त करते दिखाई देते हैं, अन्यथा इतने गूढ़ ग्रंथ के अंतस में झाँकना और इसके काँचनमणि प्रकाश की किरणों को क़लमबद्ध करना, इतना सहज कार्य नहीं है। वास्तव में कवि ने बड़े शांत और स्निग्ध- भाव से सभी न्यूनताओं और संभावनाओं को अभिव्यक्त किया है।

    अतः कविवर दिलबागसिंह विर्क विराट की ओर उन्मुख होकर, अपनी तथा मानवता की तलाश करते दृष्टिगत होते हैं। ऐसा लगता है जैसे मानव मन अज्ञात क्षणों की सत्ता से साक्षात्कार करना चाहता है। दोहे एक नए क्षितिज को छूते हैं तथा कवि का एक सर्वदा परिवर्तित रूप परिलक्षित होता है। प्रत्येक श्लोक को 'परिचय' के रूप में गढ़ा गया है। आज का मनुष्य जहाँ भी किसी परब्रह्म अथवा परमात्मा की प्रार्थना, वंदना अथवा मंगलाचरण को पढ़ता है, तो उसके मन में अनेक प्रश्न उठते हैं कि यह 'ब्रह्म क्या है?' अगोचर, अज्ञात तथा अनिर्वचनीय से आज सहज संतोष नहीं मिलता। कवि ने इन दोहों मे उस ब्रह्म रूप को कर्म-ज्ञान-भक्ति और योग के माध्यम से ब्रह्म-वाणी को मूर्त बनाने की सफल कोशिश की है। अतः प्रकृत 'गीता दोहावली' को श्रीकृष्ण-अर्जुन वार्ता का पुनर्जन्म कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। अतः गीता को समझने के लिए निश्चय ही सरल भाषा, लोकप्रिय विधा का प्रयोग अपेक्षित है, जिसका कविवर ने पूरी निष्ठा और ईमानदारी से निर्वहन किया है। मुझे आशा है, इस पुस्तक से अधिकाधिक जन लाभ लेंगे। यह पुस्तक विद्वानों में ख्याति प्राप्त करेगी। निःसंदेह गीता के द्वारा मानवता को उपदेश देनेवाले परमात्मा ने अपनी करुणा कविवर पर न्योछावर की है। कवि के इस सद्प्रयास के लिए मैं अभिनंदन करता हूँ तथा शुभकामनाओं सहित, मंगलमय जीवन की मुहुर्मुहुः कामना करता हूँ। इति शुभम।

शुभेच्छु

डॉ. अशोक कुमार मंगलेश

आलोचक एवं कवि

अध्यक्ष, निर्मला स्मृति साहित्यिक समिति

चरखी दादरी, हरियाणा

मो. - 81999-29206


शुक्रवार, मार्च 26, 2021

अतीत गौरवमयी मानते हुए सुंदर भविष्य की कल्पना करती कविताएँ

कविता-संग्रह - कैसे भूलूँ तेरा अहसान
कवि - बलबीर सिंह वर्मा
प्रकाशक - मोनिका प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ - 152
कीमत - ₹400/-
हरियाणा साहित्य अकादमी की अनुदान योजना के अंतर्गत वर्ष 2018 के लिए चयनित बलबीर सिंह वर्मा की पुस्तक "कैसे भूलूँ तेरा अहसान" का प्रकाशन मोनिका प्रकाशन, दिल्ली से 2021 में हुआ है। प्रकाशन की दृष्टि से यह उनकी दूसरी कृति है, लेकिन रचना कर्म की दृष्टि से यह उनकी पहली कृति है। इस संग्रह में 88 रचनाएँ हैं, जिसकी शुरूआत माँ शारदे का वंदन करते हुए की है। इसके अतिरिक्त भी कुछ भक्तिपरक कविताएँ कवि ने रची हैं। वह शिव, कृष्ण की महिमा का गान करता है। कृष्ण को पुनः आकर सुदर्शन चक्र चलाने के लिए कहा गया है। मीरा की भक्ति को दिखाया गया है। 

शुक्रवार, मार्च 05, 2021

पतनोन्मुख समाज का चित्रण करता कविता-संग्रह

कविता-संग्रह - डूबी सच की पतवार
कवि - राकेशकुमार जैन

प्रकाशक - मोनिका प्रकाशन, दिल्ली

क़ीमत - ₹400/-

पृष्ठ - 136

"पहला प्रयास" कविता-संग्रह के साथ साहित्य के क्षेत्र में कदम रख चुके राकेशकुमार जैनबन्धु का सही अर्थों में पहला प्रयास कहे जाने वाले कविता-संग्रह की पांडुलिपि मेरे हाथ में है। इसे द्वितीय प्रयास इसलिए बनना पड़ा क्योंकि इसको अकादमी की अनुदान योजना के अंतर्गत भेजा गया था और परिणाम आने से पूर्व कवि के पास एक संग्रह की सामग्री तैयार हो गई, जिसे उसने प्रकाशित करवा लिया। अनुदान योजना भले ही लेखकों को पुस्तक प्रकाशित करवाने हेतु आर्थिक मदद देने के लिए है, लेकिन इसके साथ-साथ यह योजना यह भी इंगित करती है कि रचनाकार का स्तर साहित्यिक कहा जाने योग्य है। इस दृष्टि से यहाँ अकादमी का कार्य सराहनीय है, वहीं राकेश बधाई के पात्र हैं कि वे अब अकादमी द्वारा स्वीकृति प्राप्त कवियों की श्रेणी में आ गए हैं।

           यहाँ तक इस पांडुलिपि का सवाल है, इसमें 90 कविताएँ हैं। संग्रह का शीर्षक बताता है कि कवि की नजर सच के डूबने की तरफ गई है। आज के हालात चिंतनीय कहे जा सकते हैं क्योंकि सच हार रहा है, सभ्यता और संस्कृति पतन की ओर बढ़ रही है। शिक्षा दुकान बन गई है। कवि की पैनी नजर इन पर पड़ती है। भूल गया नैतिकता, मर गया जमीर, डूबी सच की पतवार, सपना या सच, नई गीता, संस्कार सब मिट गए, रिश्ते हुए तार-तार, प्रण, नशा कुछ काम न आया, ज़िंदगी करती इशारे, भटका देश का युवा आदि कविताओं में कवि इसी दशा का चित्रण करता है। ये कविताएँ आज के इंसान का सटीक चित्रण करती हैं। कवि ने खुद को भी इसमें शामिल किया है -

"रिश्ते-नाते तोड़कर / मैं बन गया अमीर /

भूल गया हूँ सब कुछ / मेरा मर गया जमीर"

कवि का खुद को शामिल करना इशारा है कि बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हम सभी पतन के लिए कहीं-न-कहीं जिम्मेदार हैं। भले ही हम दूसरे पर अंगुली उठाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लें, लेकिन वास्तव में निर्दोष हम भी नहीं। हमारे कारण ही झूठ, फरेब, अन्याय, अत्याचार बढ़ रहा है। कवि लिखता है -

"झूठ है मजबूत बड़ा / डूबी सच की पतवार"

          कवि किसान, गरीब, विधवा, वृद्ध, कन्या सभी के दुखों को भी देखता है। करदे तू कल्याण, मैं हूँ विश्वशक्ति, फुटपाथ, माँ के अश्रु, देखी अनाथ की पीर, वृद्धाश्रम, विधवा का दुख, फिर भी जन्म लूंगी, दुखी अम्मा, किसान की दास्तां, मैं गरीब, दबा कुचला, आम आदमी, अभागी माँ आदि कविताएँ इन्हीं विषयों से संबंधित हैं। भटके युवा का चित्रण भी उसकी कविताओं में मिलता है। कवि ने यहाँ दीन-दुखियों की दशा का चित्रण किया है, वहीं आशावादी सोच को भी दिखाया है। वह बच्चों को मॉं-बाप की सेवा करने का संदेश देते हुए कहता है-

"मत भूल वो अवतार हैं / तेरे वो जीर्णोद्धार हैं /

छू लो माँ-बाप के चरण / वे तेरे स्वर्गद्वार हैं"

वह ज़िंदगी को इम्तिहान बताता है। उसका मानना है कि मंजिल पाना आसान नहीं, लेकिन इसे पाया जा सकता है। वह हौसला देते हुए लिखता है -

"नाकामियों को देखकर दिल मत उदास कर /

कुछ कामयाबी के दिन तो याद कर /

क्या वो तेरी सफलता नहीं" 

पैसा-पैसा करने वाले से सवाल करता है -

"क्या यही तेरा वजूद है?" 

वह संस्कार बचाए रखने की बात करता है। खून-पसीने की रोटी कमाने का संदेश देता है। ऐसे पात्र का चित्रण करता है, बुरा करने के बाद जिसकी आत्मा जागती है। वह सद्कर्मों को मोक्ष का द्वार कहता है। धार्मिक पाखंडों की बजाए दीन दुखी की मदद करने की बात करता है। वह चेतावनी भी देता है-

"होगी प्रलय / पड़ेगा सूखा / मरेगा हर प्राणी /

जैसे-जैसे धरती पर / पाप बढ़ेगा"

       कवि मैं के रूप में अपनी कविताओं में शामिल है और वह अपनी कामना जाहिर करता हुआ हर दृष्टि से श्रेष्ठ होना चाहता है। वह ईश्वर को भी याद करता है। वह उसकी वंदना भी करता है और उससे आशीर्वाद भी माँगता है। वह उसे याद करते रहने की बात कहता है। 

       पौराणिक प्रसंगों को लेकर भी अनेक कविताएँ हैं, यथा - लंका में अंगद, शिव-पार्वती बन्धन, सीता हरण, चीर हरण आदि। 'छीन लो हक' कविता में प्राचीन प्रसंगों से लेकर आधुनिक दौर तक नारी की दशा बताते हुए मातृशक्ति को प्रेरित करता हुआ लिखता है -

"माँगने से न मिलें / एकजुट हो /

छीन लो हक" 

वह फौजी की तमन्ना का बयान करता है, हिंदी की दशा का हाल बताता है, माँ भारती को रणचंडी, काली बताता है।

        प्रकृति के वर्णन में कवि का मन खूब रमा है। छाई खुशियाँ चहुँ ओर, पॉलीहाउस में कैद, आँखे तरस जाएँगी, घटा घनघोर छा रे, घनघोर घटा, निखरा रूप और यौवन, संवाद, समुद्र का जल, सुधा, शातिर चोर, कुदरत, भोर हो आई, चाँद-चाँदनी का पहरा, धन्य है माली, धरा और मेघ, हवा, पानी की बूँद, पक्षी मेरे धन, कैसे होगी गुजारी, अपूर्व सौंदर्य आदि कविताओं में प्रकृति चित्रण को आधार बनाया है। इन कविताओं में कहीं पर प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन है, कहीं खुद को प्रकृति का अंग मानकर प्रकृति के दुख को बयां किया है और कहीं प्रकृति के सहारे से अन्य प्रसंगों को उठाया है। पक्षियों के संवाद के माध्यम से बदल रही स्थितियों को दिखाया गया है। प्रदूषण का वर्णन है। धरती की बेबसी का बयान है, लेकिन वह कहती है-

"फिर भी मैं खड़ी स्थिर / धरा जो हूँ /

सब मुझ पर निर्भर"

आधुनिकता के प्रभाव को भी इन कविताओं के माध्यम से स्पष्ट किया गया है और मानव जात को स्वार्थी बताया गया है, लेकिन कवि की दृष्टि में किसान महान है, तभी चाँद कहता है-

"पिलाऊँ सुधा पालनहार को / युगों-युगों रहे जो अमर" 

       शिल्प पक्ष से इन कविताओं में कवि ने शाब्दिक चमत्कार पर ध्यान दिया है। यथा -

"घर मेरे घृत घट पड़े / बरसन का बहाना बना"

अनुप्रास का भरपूर प्रयोग है। तत्सम शब्दों का भी खूब प्रयोग हुआ है। प्रकृति चित्रण करते हुए मानवीकरण के उदाहरण मिलते हैं। कविताएँ मुक्त छंद में हैं, लेकिन तुकांत का प्रयोग भी है। वर्णनात्मक के साथ-साथ आत्मकथात्मक शैली का खूब प्रयोग हुआ है। 

        संक्षेप में, हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकुला से अनुदान प्राप्त इस पांडुलिपि के प्रकाश्नोपरांत साहित्य जगत में भरपूर स्वागत होगा, ऐसी मुझे आशा है। कवि निरन्तर सृजन करता हुआ श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कृतियाँ साहित्य जगत को दे, यही मेरी कामना है। 

दिलबागसिंह विर्क

95415-21947

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