पुस्तक - सफल एवं स्वस्थ जीवन के सात गुरुमंत्र
लेखक - डॉ. पुष्प कुमार शर्मा
प्रकाशन - आधार प्रकाशन, पंचकूला
पृष्ठ - 119
कीमत - ₹200/-
दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोईजैसे अहसान उतारता है कोई।
गुलजार का यह शे'र बहुत से लोगों के जीवन के प्रति नज़रिये को बयां करता है। ज्यादातर लोग ज़िन्दगी जीने की बजाए दिन काटने में विश्वास रखते हैं, जबकि ज़िन्दगी का असली मज़ा जीने में है। जीने की कला सिखाने के लिए अनेक विद्वानों, महापुरुषों ने प्रयास किये हैं। आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित डॉ. पुष्पकुमार शर्मा की पुस्तक "सफल एवं स्वस्थ जीवन के सात गुरुमंत्र" इसी दिशा में एक प्रयास है। इस पुस्तक में 10 अध्याय हैं, जिनमें से पहले सात अध्याय एक-एक मंत्र के रूप में हैं। इन अध्य्यायों से पूर्व लेखक ने अपनी बात भी कही है।
अपनी बात में लेखक कहता है कि उसे पुस्तकों से ज्यादा अनुभव लोगों से मिला है और इसी अनुभव के आधार पर वह कहता है -
"हम वास्तव में सुनते नहीं हैं, यही कारण है कि हमारा ज्ञान या तो सैद्धांतिक रह जाता है या केवल किताबी; उसमें अनुभव या व्यवहार का पुट नहीं लगता।" (पृ. - 9 )
हम सीखना भी नहीं चाहते -
"जानने-समझने में एक पारदर्शी पर्दा है, जो हमें पता नहीं चलता। 'हम जानते हैं' कहकर हम अपने सारे दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर लेते हैं और जो कुछ जानते हैं, उसे समझने की सीढ़ी चढ़ते ही नहीं।" (पृ. - 10)
लेखक समस्या की जड़ दोहरेपन में देखता है -
"सुख की इसी अभिलाषा से हमें बार-बार अपने संचालक को बदलना पड़ता है और इसी में जीवन की संपूर्णता का अहसास हम करते रहते हैं। कभी हम शरीर को संचालक की भूमिका देते हैं और कभी मन को कहते हैं कि सारथी बनकर हमारी यात्रा पूरी करवाना। समस्या का मूल यही दोहरा संचालन है।" (पृ. - 11)
इसका हल वह गीता में देखता है -
"मनुष्य के तन और मन का संयोग होते ही समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाती हैं। संयोग का अर्थ अनुपूरता से है, एक-दूसरे के संचालक नहीं बल्कि एक रूप में ही एक ही संचालक।" (पृ. - 11 )
लेखक नकारात्मकता को छोड़ सकारात्मकता को अपनाने को कहता है और एक सरल सिद्धांत देता है -
"बस सरल-सा एक सिद्धांत है, हमें अपनी सोच को अपने शरीर से जोड़ना है।" (पृ. - 11)
लेखक के अनुसार मन की अपनी भाषा है और हम अपने मन को समझ नहीं पाते। मन के कारण तन को भुगतना पड़ता है। हम हिम्मत नहीं रख पाते। लेखक आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए ही सात सूत्र देता है। उसका मानना है कि ये सूत्र नए नहीं लेकिन -
"पुनः-पुनः दोहराने से बातें पुख्ता होती हैं।" (पृ. - 12 )
इस पुस्तक का पहला गुरुमंत्र है, "खुलकर बोलें - भावनाओं को दबाएं नहीं"। इस अध्याय की शुरूआत वह ओशो की एक विधि से करता है। इस विधि के अनुसार -
"मनुष्य को कभी-कभी किसी एकांत कोने में या एकांत स्थान पर चले जाना चाहिए और फिर जोर-शोर से अनाप-शनाप कुछ भी बोला जाना चाहिए।" (पृ. - 15)
यह विधि मन को शांत करती है। लेकिन इसका प्रभाव धीरे-धीरे दिखता है -
"प्रारंभ में चमत्कार नहीं होगा, केवल प्रभाव होगा परन्तु अंतिम परिणाम किसी चमत्कार से कम नहीं होगा।" (पृ. - 23 )
लेखक के अनुसार अक्सर लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाते। दमित भावनाएं अनेक बीमारियों को जन्म देती हैं। हम फ़िल्म, नाटक, उपन्यास आदि से भी इसलिए जुड़ते हैं कि उनके पात्र हमारी भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेखक कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करता है कि जो अपने गुस्से को रिलीव नहीं कर पाते उनकी स्थिति कैसी होती है। इसलिए वह बीमारी का इलाज करते समय मरीज के मन में उतरकर देखने की बात करता है। लेकिन न डॉक्टर के पास समय है, न मरीज अपने मन की बात खोलकर बताता है। लेखक अभिव्यक्ति पर बल देता है। दबी हुई भावनाएँ एक प्रकार की ऊर्जा हैं और इनका सकारात्मक प्रयोग किया जा सकता है। वह लिखता है -
"खुलकर बोलें और फिर देखें आपके जीवन का रंग किस प्रकार सकारात्मक हो जाता है, किस प्रकार आपके हाथ में आपके स्वास्थ्य की एक कुंजी लग जाती है।" (पृ. - 24)
दूसरा गुरुमंत्र है, "निर्णय लें"। लेखक के अनुसार यह बड़ी मामूली-सी बात लगती है, लेकिन वास्तव में है नहीं -
"निर्णय लेने में हम सदा हिचकिचाते ही हैं। यही दुविधा हमारे रास्ते का रोड़ा है। यही दुविधा की स्थिति हमें अस्वस्थ कर देती है, हमारी सोच को प्रभावित करती है और हम असफल हो जाते हैं।" (पृ. - 25)
वे निर्णय न ले पाने के प्रभाव को उदाहरणों से स्पष्ट करते हैं। लेखक एक सरल विधि बताता है -
"नकारात्मक और सकारात्मक विचारों के बीच सेतु बनाना ही निर्णय है।" (पृ. - 31)
निर्णय लेने के लिए तटस्थ भाव बेहद ज़रूरी है। लेखक के अनुसार नकारात्मक ऊर्जा तेजी से बढ़ती है, जबकि सकारात्मक ऊर्जा बढ़ने के लिए समय लेती है। ऐसे में हमें विवेक का प्रयोग करके दोनों के बीच संतुलन स्थापित करना होता है। लेखक विश्लेषण पर बल देता है -
"मनुष्य को कम-से-कम सोने के पूर्व कुछ क्षण दिनभर की भावनाओं का विश्लेषण करना चाहिए। अपनी अच्छी-बुरी बातों का मूल्यांकन करना चाहिये।" (पृ. - 28)
विश्लेषण के अभाव में हम अपनी धारणा को ही निर्णय मान लेते हैं। हम केवल अपना स्वार्थ देखते हैं। इसके लिए लेखक कहता है -
"सबसे बेहतर दृष्टि तो वही हो सकती है, जब हम अपनी भावनाओं की, अपनी सोच की जांच दूसरे की दृष्टि से करें।" (पृ. - 29)
तीसरा गुरुमंत्र है, "समाधान ढूँढे - यह आपके आसपास ही है"। लेखक के अनुसार -
"हमारा पूरा जीवन समस्याएं बनाने, उन्हें ढूँढने, या उन्हें आपस में जोड़ने या फिर उनमें उलझने में ही गुजर जाता है।" (पृ. - 34)
इससे भी आगे वह कहता है -
"जीवन समस्या का ही दूसरा नाम है आम आदमी के लिए।" (पृ. - 34)
लेखक समस्याओं को महत्त्वपूर्ण मानता है, क्योंकि यही हमें जीवंत रखती हैं, लेकिन ये हमें बीमार भी करती हैं। इसका उपाय यही है कि समस्याओं का समाधान ढूँढा जाए। हमें अपने समस्यापरक दृष्टिकोण को बदलकर इसे समाधानपरक बनाना होगा। लेखक दृष्टिकोण कैसे बनता है, इस बारे में भी बताता है। दृष्टिकोण के निर्माण में संस्कार, वातावरण, ज्ञान का स्तर, अनुभव, अहं का स्तर, इच्छाशक्ति, ग्रहण और धारण की क्षमता का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
चौथा गुरुमंत्र है, "दिखावा न करें - जैसा है वैसा ही ठीक है"। इस अध्याय में लेखक कहता है -
"सभी दिखावा करते हैं परंतु डिग्री या मात्रा का फर्क है।" (पृ. - 51)
उसके अनुसार कुछ मामलों में यह ज़रूरी घटक है, परन्तु इसे जीवन का अंग नहीं बनाया जाना चाहिए। 'दिखावा क्या है?' इस बारे में भी स्पष्ट किया गया है -
"जो है उससे कहीं ज्यादा दिखाना ही 'दिखावे' के रूप धारण कर लेता है।" (पृ. - 43 )
दिखावा क्यों किया जाता है, इस पर विचार किया गया है और इसका परिणाम दिखाया गया है -
"हम सही व्यक्तित्व में ढलने के बजाए एक नकली व्यक्तित्व लेकर जीवन जीने लगते हैं।" (पृ. - 49)
'स्वीकार करना सीखें" पाँचवाँ गुरुमंत्र है। लेखक के अनुसार हम फायदा देखकर स्वीकार करते हैं, लेकिन वास्तव में यह बेहद महत्त्वपूर्ण है। स्वीकारना तभी संभव है, जब हम अपने अहं को छोड़ेंगे। समर्पण से ही यह संभव है। परिवर्तन के डर से भी लोग स्वीकार नहीं करते। लेखक के अनुसार -
"स्वीकार करना एक बहुत बड़ा गुण है अपने विशाल हृदय का परिचय देने के लिए। यह गुण उदारता का ही एक पहलू है क्योंकि जो उदार होगा वो ही तो स्वीकार करेगा, वरना तो सारे दरवाजे बंद कर बैठा रहेगा।" (पृ. - 52)
'स्वीकारना क्या है?' इसे भी स्पष्ट किया गया है। लेखक कई बिंदु बताता है, अपने से अलग किसी का अस्तित्व स्वीकारना, परिवर्तन को स्वीकारना, स्थितियों को समझना और स्वीकारना, स्वयं को स्वीकारना और स्वीकारने को स्वीकार करना। स्पेस देना भी स्वीकार करना ही है -
"स्वीकार करने का अर्थ यह भी है कि हम अपने साथ-साथ किसी और के लिए भी 'स्पेस' पैदा कर रहे हैं। बस सफलता का यही मन्त्र है - आप अपना 'स्पेस' पैदा करें, स्वीकारें, दूसरे के लिए अपने आप स्पेस स्वीकार होता जाएगा।" (पृ. -62-63)
स्वीकार करने के लिए भीतर तटस्थ भाव लाना बेहद ज़रूरी है। लेखक बीमारियों का कारण बताते हुए कहता है -
"हमारी सारी समस्याएं हमारी सारी बीमारियाँ द्वंद्व के कारण ही होती हैं। मानसिक द्वंद्व हम अपने आपसे करते हैं, बहुत बुरी तरह से करते हैं। यही द्वंद्व हम स्थितियों से करते हैं व्यक्तियों से करते हैं, समाज से करते हैं, अपने संबंधों से करते हैं। और इसी द्वंद्व का ही परिणाम होता है कि हम जुड़ते-टूटते रहते हैं। मानसिक रूप से लगातार अपने आपसे लड़ते रहते हैं और परिणाम होता है मन के साथ-साथ तन की बीमारी।" (पृ. - 57)
तटस्थ भाव भीतर के द्वंद्व को पिघला देता है। तटस्थ होना इसलिए भी ज़रूरी है कि हम स्व-केंद्रित हैं। लेखक के अनुसार -
"हम यह मानकर चलते है कि हम हैं तो सब हैं, जबकि होता वास्तव में उल्टा ही है। सब है तो हम हैं। हमारा अस्तित्व ही साथ में होता है।" (पृ. - 56-57)
लेखक का मानना है कि हम खुद पर विश्वास नहीं करते और ज्यादातर लोग हीन भावना से ग्रस्त हैं। तुलनात्मक दृष्टि से देखना हमारी कमजोरी है। लेखक कहता है कि हम जैसे हैं खुद को वैसा स्वीकार करना चाहिए। हमारे बाद ही दुनिया हमें स्वीकारेगी जबकि हम खुद को बिना स्वीकारे चाहते हैं कि लोग हमें स्वीकार करें, अहमियत दें, जो संभव नहीं। स्वीकारने को स्वीकार करना एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। वह निष्कर्ष निकलता है -
"अपने आपको, परिवार को, परिवार के सदस्यों को, माँ-बाप को, पुत्र-पुत्रियों को, पत्नी या पति को, भाई-बहन को, संगी-साथियों को, सहेलियों को, परिचितों व समाज को, सामाजिक नियमों को, कार्यालय को, कार्य को, सुख को, दुःख को, हँसी को, रोने को, सफलता को, असफलता को - अर्थात जीवन के हर पहलू को यदि हम यथावत स्वीकार करने की आदत डालें तो सच कहता हूँ आपको किसी भी सलाहकार की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, किसी के मार्गदर्शन के लिए आपको मोहताज नहीं होना पड़ेगा, किसी डॉक्टर के पास नहीं जाना होगा।" (पृ. - 63)
छठा गुरुमंत्र है, "विश्वास करें और विश्वास दें"। लेखक ने विश्वास को महत्त्वपूर्ण माना है, साथ ही वह कहता है कि आज विश्वास की बहुत कमी है। हम खुद पर भी विश्वास नहीं करते, जो विश्वास करते हैं वे सफल होते हैं। हम खुद पर विश्वास क्यों नहीं करते इसके कई बिंदु लेखक बताता है - आत्मविश्वास की कमी, अनिर्णय की स्थिति, अन्यों पर विश्वास नहीं, अपनी कमियों को ढंकने का प्रयास और अहं।
लेखक के अनुसार अपने आप पर विश्वास करना बेहद जरूरी है और इसका दूसरा पक्ष है विश्वास देना। हम अनेक कारणों के चलते विश्वास दे नहीं पाते। ये कारण हैं - अपना हित, अपनी सुविधा, खंडित विश्वास का अनुभव, अकारण ही बस यूँ ही, परस्पर अविश्वास और स्वभावगत। लेखक के अनुसार विश्वास सकारात्मक ऊर्जा पैदा करता है, जिससे आत्मविश्वास पैदा होता है और सफलता मिलती है।
अंतिम अर्थात सातवाँ गुरुमंत्र है, "उदास न हों - निराशा को दुश्मन मानो"। निराशा के प्रभाव के बारे में लेखक एक उक्ति कहता है -
"रोते हुए जाओ तो मरे हुए की खबर लाओ" (पृ. - 83)
वह अपनी बात को और स्पष्ट करता है -
"निराशा से सिर्फ निराशा ही पैदा होती रहती है। धीरे-धीरे यह निराशा का भाव अवसाद पैदा कर देता है और हम अपने ही निराशा के जाल में फंसकर रह जाते हैं। सफलता से कोसों दूर।" (पृ. - 83)
निराशा का प्रभाव सिर्फ व्यक्ति विशेष तक सीमित न रहकर पूरे परिवेश पर पड़ता है। निराशा और उदासी को जुड़ा हुआ मानते हुए लेखक इनकी उत्पत्ति के बारे में बताता है -
"निराशा और उदासी एक-दूसरे से जुड़े हुए या यूँ कहें कि एक-दूसरे के पूरक हैं। हमारी आशाओं के अनुकूल न होने से, हमारी इच्छाओं की पूर्ति न होने से, हमारी अपेक्षाएं टूट जाने से निराशा का भाव उभरता है और इसी भाव से जब हम कुछ करना चाहते हैं तो कोई राह दिखलायी न पड़ने से हमें उदासी घेर लेती है।" (पृ. - 78)
निराशा इच्छित न मिलने से होती है और इच्छित क्यों नहीं मिलता, उस बारे में लेखक कुछ बिंदु बताता है - आत्मविश्वास की कमी, स्वीकार करने की झिझक, प्रयासों में अधूरापन और संतुलन की कमी।लेखक के अनुसार हम अधूरेपन से काम करते हैं, दूसरों को दोषी ठहराते हैं। उसके अनुसार निराशा कोई समाधान नहीं, अपितु यह हमें नकारात्मकता से भर देती है। वह निराशा से लड़ने का तरीका बताता है -
"हमें अपने भीतर लगातार इस प्रकार के दीप जलाते रहना होगा ताकि हमारा पूरा जीवन सकारात्मक बने और हमें लगातार आशावादी बनाये रखे। यही है निराशा से लड़ने का सबसे कारगर हथियार।" (पृ. - 80)
निराशा से पार पाने के लिए वह कुछ कदम उठाने को कहता है - निराशा के कारणों का पता लगाना, अपनी कमजोरियों से उबरना, मजबूत इच्छाशक्ति पैदा करना, आत्मविश्वास के साथ कार्य करना, भावनात्मक नियंत्रण करना और असफलता को पचाना।
इन सात गुरुमंत्रों के बाद पुस्तक में तीन अन्य अध्याय हैं। पहला है, 'सफलता और स्वास्थ्य'। इस अध्याय में वह स्वस्थ रहने के लिए शुद्धता, सकारात्मकता पर बल देता है। सकारात्मकता सफलता के लिए भी बेहद ज़रूरी है। सफलता के लिए वह कहता है -
"सफलता के लिए जरूरी है इस बात को समझना कि जितना हमें सफल होना है उतना ही हमें अपने आपको नए रूप में ढालना है।" (पृ. - 92)
सफलता और स्वास्थ्य का आपस में गहरा संबन्ध है। असफलता से बाहर निकलने के लिए वह चार उपाय बताता है - अच्छा श्रोता बनना पड़ेगा, दूसरों को महत्त्व देना, वो ही बोलें जो दूसरों को अच्छा लगे और सराहना करें, पीठ थपथपाएँ।
अगला अध्याय है, 'छोटी बातों के बड़े काम'। ये छोटी बातें हैं - 10 मिनट टहलें और हंसें, शांत बैठें कुछ देर, सात घण्टे की नींद लें, जीवन में तीन उ ( उद्देश्य, ऊर्जा, उत्साह) पालें, खेलें, पढ़ें कुछ भी, ज़रूरत से थोड़ा ज्यादा पानी पिएं, पेड़-पौधों पर लगा खाएं, प्लांट में बना नहीं, भारी नाश्ता, उचित खाना, हल्का रात्रि भोज, प्रार्थना करें, जागृत आँखों से सपने देखें, हँसे - ठहाके लगाएं, रोज कम-से-कम तीन व्यक्तियों को मुस्कान दें, गप्पबाज़ी से बचें, नकारात्मक विचारों को टालें, बच्चों और बुजुर्गों के बीच समय बिताएं, घृणा न करें, कभी-कभी अपने आपको गंभीरता से न लें, भूतकाल को भूलें - न याद करें, न याद दिलाएं, जीवन से सबक लेना चाहिए, असहमति के साथ सहमत हों, तुलना न करें, भूतकाल से संधि करें - वर्तमान को जियें, दोस्त बनाएं, क्षमा करना सीखें, दूसरे क्या सोचते हैं - यह मत सोचो, स्थितियाँ बदलती हैं - अच्छी हों या बुरी, जो अनुपयोगी है उसे हटा दें, ईर्ष्या न करें, बेहतर तो अभी आना है, तत्पर रहना होगा, अपनी सीमाओं का सम्मान करें, अंतर्मन खुश रखें, सही चीजें ही करें, अपने परिवार से जुड़ें बातें करें, सबसे बेहतर दें और प्रयास करें, अनुपालन करें। लेखक के अनुसार इन बातों का महत्त्व गुरुमंत्रों के लिए भी है। वह कहता है -
"इस अध्याय में दी गई छोटी-छोटी बातों को भी हम सिद्ध करना प्रारंभ कर दें तो उन गुरुमंत्रों को हासिल करना बहुत ही आसान हो जाएगा।" (पृ. - 115)
'अंतिम अध्याय' में लेखक मानता है कि मनुष्य भय से संचालित होता है, हालांकि उसके अनुसार सम्मान से अनुशासित होना ज्यादातर बेहतर है। वह तन को स्थूल और मन को सूक्ष्म मानते हुए कहता है कि सूक्ष्म की अहमियत अधिक होती है।
"मन को साधने से बहुत कुछ अपने आप सध जाता है।" I
लेखक स्वीकार करता है कि इस पुस्तक में दिए गुरुमंत्र नए नहीं, वे इसी जीवन से लिये हुए हैं और मन से जुड़े हुए हैं। अनुशासन मन को नियंत्रित करने की पहली सीढ़ी है। दूसरी सीढ़ी नियंत्रक होना, तीसरी सीढ़ी स्वीकार करना है। स्वयं का दृष्टिकोण सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
"यदि दृष्टिकोण सकारत्मक है तो मन भी हमें सकारात्मकता की तरफ ही ले जाएगा।" (पृ. - 118)
लेखक के अनुसार उसका जोर तन की बजाए मन पर है। मन को साधने के लिए लेखक ने सात गुरुमंत्रों और कई छोटी दिखने वाली महत्त्वपूर्ण बातों को सामने रखा है। पुस्तक की भाषा-शैली बहुत रोचक भले ही न हो, लेकिन यह उबाऊ कदापि नहीं हैं। लेखक ने अपने अनुभवों से, उदाहरणों से इसे सरस बनाने का प्रयास किया है। इन बातों को पढ़कर, जीवन में लागू करके जीवन के प्रति दृष्टिकोण को सकारात्मक बनाया जा सकता है और सकारात्मकता स्वास्थ्य और सफलता लाएगी, ऐसा लेखक को विश्वास है।
©दिलबागसिंह विर्क
2 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर समीक्षा
बहुत अच्छी समीक्षा ।
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