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बुधवार, मई 06, 2020

समाज के उजले और कुरूप पक्ष को दिखाती लघुकथाएँ

लघुकथा-संग्रह - तो दिशु ऐसे कहता
लघुकथाकार - रूप देवगुण
प्रकाशक - सुकीर्ति प्रकाशन
पृष्ठ - 95
कीमत - ₹150/-
2012 में सुकीर्ति प्रकाशन से प्रकाशित लघुकथा-संग्रह "तो दिशु ऐसे कहता" रूप देवगुण जी का चौथा लघुकथा-संग्रह है। इस संग्रह की लघुकथाओं के माध्यम से लेखक ने समाज के उजले पक्ष को भी दिखाया है और कुरूप पक्ष को भी। कुरूप पक्ष को लेकर लेखक ने कहीं-कहीं सिर्फ स्थिति का चित्रण मात्र किया है, और कहीं-कहीं कटाक्ष किया है। कुछ लघुकथाओं में लेखक रास्ता भी दिखाता है।
         इस संग्रह में रिश्तों को लेकर अनेक लघुकथाएँ हैं। दादा, पिता, पुत्र, पौत्र, पौत्री, बहू को लेकर लघुकथाएँ है। 'अच्छे संस्कार' लघुकथा यहाँ अन्न की बर्बादी न करने का संदेश देती है, वहीं एक आदर्श बहू को भी दिखाती है। 'कर्त्तव्य' लघुकथा आदर्श पौत्र को भी दिखाती है, साथ ही दादा जी के पौत्र प्रेम को भी। "स्वर्ग जैसा घर" लघुकथा में घर के आदर्श बुजुर्ग को दिखाया है। "ज़िन्दगी भर" लघुकथा एक भावुक बेटे को दिखाती है। हम बड़े तो, बड़े काम का आदमी, सार्थक, ऐसा लगा, उसकी बाँहों में सकारत्मक सोच को दर्शाती लघुकथाएँ हैं। 'करवट' बताती है कि दूसरों का ख्याल रखना आनन्द की अनुभूति देता है। 'हम बड़े तो' लघुकथा भारतीय संस्कृति की बात भी करती है और नई पीढ़ी को भी दिखाती है। 'राहत' लघुकथा में दिखाया गया है कि समझदारी से बुरी स्थिति को संभाला जा सकता है। कुछ लघुकथाएँ कुरूप पक्ष को भी चित्रित करती हैं। 'ज़िंदगी का सच' लघुकथा में दिखाया गया है कि पिता को जितनी चिंता बच्चों की रहती है, बच्चों को उतनी चिंता पिता की नहीं होती। यहाँ तक कि पत्नी का व्यवहार भी डॉ. राजेश को निराश करता है। 'लौट आया है' लघुकथा भी पत्नी के पति के मन मुताबिक चटनी न बनाने को लेकर माँ और पत्नी के अंतर को दिखाती है। 'न कोई अब' लघुकथा भी पिता के प्रति पुत्र और पुत्रवधू की लापरवाही को दिखाती है। 'इसे समझो' की यह पंक्ति बहुत कुछ कहती है -
"पत्नी, बच्चे तथा माँ-बाप में बहुत अंतर होता है।" ( पृ. 48 )
पुराना, ठंडक लघुकथाएँ ए. सी. लगवाने को लेकर बेटों के व्यवहार को दिखाती हैं। हालांकि 'ठंडक' लघुकथा का स्वप्न आदर्श पात्र है। 'क्यों नहीं' में बहू की बात रामनाथ को निराश करती है। 'अब वह माँ' लघुकथा बेटों और बहू के व्यवहार को दिखाती है। सुधांशु का यह कथन आज के युग का सच है -
"वह औरत कभी तीनों की माँ थी, अब वह माँ किसी की भी नहीं।" ( पृ. - 74 ) 
'हालत' लघुकथा बताती है कि आजकल घरों में बुजर्गों की हालात पालतू पशुओं से भी बदतर है। 'परिभाषा' लघुकथा जन्मदिन के समय पिता की उपेक्षा को दिखाती है। 'बहुत बहुत खुश' लघुकथा में लेखक बताता है कि बड़ों का सम्मान कैसे किया जाना चाहिए, लेकिन हालात ये हैं कि समय पर रोटी मिल जाना ही खुशी का कारण बन जाता है। 
          जब सगे बेटे बात नहीं सुनते, ऐसे में भतीजे क्या सुनेंगे और जब वह विदेश में रह रहे हों तो रिश्ते और भी खोखले हो जाते हैं। 'किधर' भी एक भतीजे के व्यवहार को दिखाती लघुकथा है। 'निष्कर्ष' लघुकथा में एक वृद्ध दम्पति के बीच व्याप्त चुप्पी देखकर लेखक निष्कर्ष निकालता है कि वे अब जीना नहीं चाहते। 'आँखे नम' लघुकथा बताती है कि जीवनसाथी का क्या महत्त्व है। जीवन साथी भले बुरा ही हो, लेकिन उसका चला जाना बड़ा दुखदायी होता है। 'पर…' लघुकथा बताती है कि पत्नी की मृत्यु के बाद पति अपने दोस्तों को चाय के बारे इस तरीके से पूछता है कि सामने वाला इंकार कर दे।
           मानव स्वभाव को दिखाती अनेक लघुकथाएँ इस संग्रह में हैं। 'कमी' लघुकथा पुत्री की मृत्यु पर पिता की पीड़ा को उजागर करती है। पिता का विलाप बड़ा स्वाभाविक बन पड़ा है। 'जीवन भर' लघुकथा में भी पिता के दुख को दिखाया है। 'बदतर' में गुस्से की स्थिति को दिखाया गया है। 'भाई-भाई से' लघुकथा परिवार के बिखराव पर लेखक की दृष्टि दिखाती है। वह कहता है -
"कितनी बुरी बात है कि बड़े होकर भाई-भाई से अलग हो जाते हैं।" ( पृ. - 72 )
'एक माँ, दूसरी माँ' लघुकथा में साक्षी टिटहरी के परिवार के लिए पानी और चूरी लाती है। लेखक को लगता है -
"शायद एक माँ ही, दूसरी माँ के वात्सल्य को समझ सकती है।" ( पृ. - 70 ) 
टिटहरी के माध्यम से माँ के दुख और उम्मीद के महत्त्व को दिखाती लघुकथा है, 'जीते हैं सब'। 
           बाल मनोविज्ञान को लेकर भी लघुकथाएँ इस संग्रह में हैं। बच्चे जो देखते हैं, उसी के अनुसार उनकी सोच बनती है। पुस्तक का शीर्षक जिस लघुकथा पर आधारित है, वह भी बच्चे की सोच को दिखाता है। 'तो दिशु ऐसे कहता' लघुकथा में भाइयों के बीच हुए बंटबारे का बच्चे पर पड़ते प्रभाव को दिखाया गया है। 'लेकिन वह' लघुकथा में बच्चे के पिल्ले से प्रेम को दिखाया गया है। बच्चे साफ-दिल होते हैं और वे सीधी बात करते हैं। उनकी इस छवि को उजागर करती है लघुकथा है 'आँखों के सामने'। 'नदारद' लघुकथा दिखाती है कि कैसे जिम्मेदारियां बच्चों को बड़ा बना देती हैं। 
           शगुन और गिफ्ट के कारण आजकल रिश्ते, दोस्ती प्रभावित हो रही है, लेखक ने इसे अपनी लघुकथाओं का विषय बनाया है। शगुन, भोजन तो, एक बार तो, किरण, नो शगुन और गिफ्ट, एक वक्त का भोजन, आशीर्वाद लघुकथाएँ शगुन परम्परा को लेकर हैं। 'दिखावा' लघुकथा बताती है कि मेल-जोल में होते खर्चे के कारण आजकल लोगों ने मिलना-जुलना कम कर दिया है। लेखक शगुन की परंपरा को बुरा मानता है और इसके कुरूप पक्ष को लघुकथाओं के माध्यम से दिखाता है। कुछ लघुकथाएँ इससे मुक्ति की बात करती हैं। 'किरण' लघुकथा में महत्त्वपूर्ण संदेश दिया गया है। नो शगुन और गिफ्ट की परंपरा आज बेहद ज़रूरी है। 'एक वक्त का भोजन' लघुकथा भी शगुन न देने की बात करती है। इसमें लड़की के जन्म पर रात्रिभोज दिखाकर लेखक ने बदल रहे समाज को भी दिखाया है और अभी तक मौजूद परम्परावादी सोच वाले लोगों को भी। 'आशीर्वाद' लघुकथा में शगुन के माध्यम से कहा गया है कि लोगों को पैसे से तोलना उचित नहीं। 
            इस संग्रह में प्राइवेट विद्यालयों से संबंधित लघुकथाएँ हैं और इनमें लेखक ने अच्छे बुरे दोनों पहलुओं को लिया है। प्राइवेट विद्यालयों के संचालकों की सोच को दिखाती लघुकथा है 'लक्ष्मी'। इसमें पात्र का नाम लक्ष्मी बड़ा प्रतीकात्मक है। प्राइवेट विद्यलयों में लक्ष्मी को सरस्वती से अधिक महत्त्व दिया जाता है, वहीं 'माली' लघुकथा एक आदर्श प्रिंसिपल को दिखाती है। 
            शिक्षक-शिष्य पर भी अनेक लघुकथाएँ हैं। 'ईश्वर आपको' एक आदर्श शिष्य को दिखाती है। गुरु का प्रभाव शिष्यों पर पड़ता है। गुरु जैसा होगा, शिष्य भी वैसे ही होंगे। लेखक ने दोनों पहलुओं को दिखाया है। 'नहीं तो क्या' एक अच्छे शिक्षक के प्रभाव को भी स्पष्ट करती है, जबकि शिक्षक के बुरे प्रभाव को दिखाती लघुकथा है, 'पूरे पैसे'।
           लंबे अरसे से लेखन कार्य से जुड़े होने के नाते लेखन में क्या-क्या चलता है, इसकी जानकारी उनको होना स्वाभाविक है और ये बातें लघुकथा का विषय बनी हैं। लघुकथा 'जबरदस्त ब्याज' लेखकों के सम्मानित होने के कड़वे सच पर करारा प्रहार करती है। लघुकथा 'भाड़ में जाए' समीक्षा के सच को दिखाती है। 'छोड़ो परे' में साहित्यकारों की विमोचन को लेकर सोच दिखाई गई है। 'पर समझा करो' लघुकथा लेखकों के पुस्तकों के प्रति व्यवहार को दिखाती है। अधिकांशतः प्रेमपूर्वक दी गई पुस्तकों का हश्र ऐसा ही तो होता है। लेखन में ही नहीं, सम्मान में हर जगह भाई भतीजावाद का बोलबाला है। इसे विषय पर आधारित है लघुकथा 'बस वे'। 'बड़ा ओहदेदार' लघुकथा भी सम्मान करने के विषय को लेकर है। सम्मान उसी का किया जाता है, जिससे कुछ मिलने की संभावना हो। 'समय' लघुकथा में मुख्य अतिथि की चापलूसी और साहित्यकार की उपेक्षा को लेकर लिखी गई है। 'समझे' लघुकथा में एक कवि अन्य कवियों के बारे में कड़वा सच बताता है, हालांकि इस लघुकथा का असली विषय शराब है। 
            जीवन से जुड़े अन्य अनेक विषयों पर लेखक की कलम चली है। मजबूरी, राज़ लघुकथाएँ मजदूर वर्ग की मजबूरी को बड़ी खूबसूरती से चित्रित करती हैं। "हैसियत' लघुकथा अलग-अलग आमदनी वालों के खर्च को लेकर लिखी गई है। 'हैरान था राकेश सेठ' लघुकथा बताती है कि हैसियत के अनुसार फल को क्वालिटी चुनी जाती है। 'दर्द भरी आवाज़' लघुकथा में शराबी की पत्नी की बेचारगी दिखाई गई है, लेकिन फार्म में पिता का नाम न लिखकर वह क्रांतिकारी कार्य करती है, जबकि अभी तक भी पति को परमेश्वर मानने की परंपरा है, लेकिन बदलाव हो रहा है और इसी बदलाव को लघुकथा में बड़ी सुंदरता से इंगित किया गया है। 'पता नहीं क्यों' लोगों के दोहरे चरित्र को दिखाती लघुकथा है। 'मीठा-कडुवा' लोगों के दिखावटी व्यवहार को दिखाती है। 'इससे कहीं ऊपर' लघुकथा भी दोहरे व्यक्तित्व को दिखाती है, हालांकि इसमें हिंदी भाषा के प्रति लोगों के नज़रिये को मुख्य विषय बनाया गया है। 'हिंदी दिवस' को लेकर एक अन्य लघुकथा है, 'किंतु यह क्या'। इस लघुकथा में स्पष्ट किया गया है कि अखबार वालों के लिए आपका काम महत्त्वपूर्ण नहीं, वे सिर्फ नेताओं की खबरें प्रकाशित करते हैं। 'घुटन' लघुकथा में कवियों के वार्तालाप द्वारा महानगरीय संस्कृति पर प्रहार किया गया है। 'महानगर की पॉलिसी' भी इसी विषय को लेकर है। 'दुर्गंध' भ्रष्ट तंत्र को दिखाती है। 'इतना छोटा' छोटी सोच को दिखाती लघुकथा है। 'सचमुच' लघुकथा मृतक के ग्यारहवें पर मृतक के प्रति कोई संवेदना न होने पर व्यंग्य करती है। "ज़रूरी काम" लघुकथा भी हमारी संवेदनहीनता को दिखाती है। 'लक्षण' लघुकथा का विषय मजदूर है, लेकिन यह क्लर्क  की कार्यशैली पर व्यंग्य करती है। "कौन पूछता है अब" लघुकथा क्लर्क के व्यवहार को दिखाती है, साथ ही यह आज की उस दशा का सटीक चित्रण करती है, जिसमें आम आदमी को कोई नहीं पूछता। इनके विपरीत 'खाट' लघुकथा एक मेहनती कर्मचारी को दिखाती है, साथ ही सन्देश देती है कि आलस से आदमी बीमार हो सकता है। 'हजूम के सामने' मदद के नकारात्मक पहलू को दिखाती है। दरअसल मदद बुरी नहीं, लेकिन मदद करके अखबारों में समाचार लगवाना गरीब की गरीबी का मजाक उड़ाना है।
          'शायद' लघुकथा बताती है कि वर्तमान में मित्र जरूरत के समय काम नहीं आते। 'कहाँ से सीख ली' लघुकथा भी दोस्त की असलियत को दिखाती है। इनके विपरीत 'चमक' लघुकथा बताती है कि अच्छे दोस्त भले कम हो गए हों, लेकिन हैं ज़रूर। 'जान गए हो न आप' लघुकथा में पुस्तक भेजने के माध्यम से दोस्ती और सम्मानीय व्यक्ति के अंतर को दिखाया गया है। 'आकाशदीप' लघुकथा में राजनीति और धर्म के बुरे रूप को दिखाकर इनमें बदलाव करने की सोच को दिखाया है। 'देश प्रेम' लघुकथा बताती है कि देश प्रेम क्या है। 'ऐसे दिन' बदल रहे समय पर दुख जाहिर करती है। 'जीवन की सार्थकता' लघुकथा ने जीवनशैली के महत्त्व को दिखाया है-
"जीवन मे मज़ा न लो, आनन्द लो - यही जीवन की सार्थकता है।" (पृ. - 81)
         यूँ तो हर लघुकथा के लिए अंत बेहद महत्त्वपूर्ण होता है, लेकिन व्यंग्य प्रधान लघुकथाओं में अंत का अत्यधिक महत्त्व है। इसे पंच लाइन भी कहा जाता है। इस संग्रह की अनेक लघुकथाओं में इसका बड़ा सुंदर प्रयोग हुआ है। अंतिम वाक्य के कारण लघुकथाएँ अलग ही प्रभाव छोड़ती दिखती हैं। मोबाइल के प्रयोग और घर वालों के व्यवहार को दिखाने के बाद अंत इस पंक्ति से किया जाता है -
"मोबाइल ज़िंदगी के सच से कितना रू-ब-रू करवाता है।" डॉ. राजेश ने निष्कर्ष निकाला।" (पृ. - 23 )
यह निष्कर्ष आज के युग का कड़वा सच है। हमारी संवेदनहीता की दिखाने के लिए लेखक बच्चे से कहलवाता है -
"बोलना क्या है, आज तो पिकनिक का सचमुच मज़ा आ गया, रमेश ने झूमते हुए कहा।" ( पृ. - 30 )  
इस वाक्य से पूर्व लघुकथा में महज यात्रा का वर्णन था, लेकिन अंतिम पंच से इसमें गहरा अर्थ भर जाता है। जिन लघुकथाओं में व्यंग्य नहीं, वहाँ भी अंत के कारण लघुकथाएँ शानदार बन पड़ी हैं। 
"शायद बुज़ुर्गों से ही बनता है घर स्वर्ग।" (पृ. - 36 ) 
यह अंतिम पंक्ति लघुकथा की जान है। 
       लघुकथा कहने के लिए लेखक ने अनेक विधियों को अपनाया है। कहीं-कहीं संवाद से विषय को आगे बढ़ाया गया है, तो कहीं वर्णन के द्वारा। भाषा सहज, सरल और पात्रानुकूल है। संक्षेप में, सभी लघुकथाएँ प्रभवशाली बन पड़ी हैं, जिनके लिए लेखक बधाई का पात्र है।
©दिलबागसिंह विर्क

1 टिप्पणी:

कविता रावत ने कहा…

लघु कथा संग्रह 'तो दिशु ऐसे कहता' को पढ़ने के लिए उत्सुकता जगाती सार्थक समीक्षा प्रस्तुति
लघुकथाकार - रूप देवगुण जी को हार्दिक बधाई और आपका समीक्षा प्रस्तुति हेतु धन्यववाद!

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