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रविवार, मई 03, 2020

मसाले और सालन में लिपटी कहानियाँ

कहानी-संग्रह - नमक स्वादानुसार
लेखक - निखिल सचान
प्रकाशक - हिन्द-युग्म
पृष्ठ - 165
कीमत - ₹120/-
कहानी-संग्रह 'नमक स्वादानुसार' का पहला संस्करण 2013 में हिन्द-युग्म, दिल्ली से प्रकाशित हुआ और यह निखिल सचान का पहला कहानी-संग्रह है। इसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, जो इसकी लोकप्रियता का सूचक है। हिन्द-युग्म नई हिंदी आंदोलन का ध्वजवाहक है और इसके अंतर्गत इसके अनेक लेखक हिंदी साहित्य में नामी लेखक का खिताब लिए हुए हैं, लेकिन जिस नई हिंदी की वकालत की जा रही है, उसे स्वीकार किया जाना चाहिए या नहीं, यह पाठक को तय करना है। नई हिंदी का एक प्रयोग तो रोमन लिपि का प्रयोग है, जो देवनागरी लिपि के लिए खतरा कहा जा सकता है और दूसरा प्रयोग है गालियों की भरमार। इस संग्रह में रोमन लिपि का प्रयोग भी हुआ है, और अशिष्ट भाषा का भरपूर प्रयोग भी, हालांकि रोमन लिपि का प्रयोग एक विशेष पात्र को प्रस्तुत करने के दृष्टिकोण से स्वीकार किया जा सकता है, फिर भी वह हिंदी के सामान्य पाठक के काम का नहीं।

         यह सच है कि साहित्य समाज का दर्पण है, लेकिन साहित्य के ऊपर कुछ दायित्व भी है। जैसा पढ़ा जाएगा, वैसा बोला जाएगा। 'फट गई' शब्द को उदाहरण के रूप में लिया जाता है। क्या फट गई? यह कहने की ज़रूरत नहीं और यह शब्द अब विज्ञापन में आ गया और इसे बोला जा रहा है लड़कियों द्वारा। अब ये शब्द हर लड़के-लड़की की जुबान पर होगा। ये समाज के एक हिस्से का सच था, जिसे दिखाकर समाज के हर हिस्से में फैला दिया गया। इसका दोषी कौन? अगर साहित्यकार भाषा को दूषित करने पर उतर आया तो भाषा को बचाएगा कौन? 'नमक स्वादानुसार' में लेखक की भाषा पाठक को बाँधती है, इसमें कोई शक नहीं, लेकिन तब बेहद निराशा होती है, जब वह लिखता है-
"सुबु का चेहरा उतर गया था। नानू उसे एक ज़माने से जानता था। सुबु जब भी निरुत्तर होता था तो वो गाँड़ खुजाने लगता था। नानू ने चैक किया, उसकी उँगलियाँ ख़ाकी पैंट खुरच रही थीं।" (पृ. - 16)
'गाँड़ खुजाने' का प्रयोग जबरदस्ती हुआ है। भाषा का स्तर आगे जाकर और भी गिरता है-
"अगर बारीकी से देखा जाए तो कोठे पर आने वाले लोगों को दो जमातों में बाँटा जा सकता है- एक वो जो रोशनी जलाकर सेक्स करना पसंद करते हैं और दूसरे वो जो रोशनी बुझाकर 'करना' पसंद करते हैं। आप वेल एजुकेटेड हैं तो 'करना' कह लीजिए नहीं तो 'चोदना' कह लीजिए।" (पृ. - 51)
यहाँ भी भाषा का बेहूदा प्रयोग हुआ है, साथ ही अनावश्यक भी। अंतिम वाक्य से पहले ही बात पूर्ण हो रही है, लेकिन लेखक का उद्देश्य कुछ और है। इसी भाषा के द्वारा वह लेखक वर्ग का भी मजाक उड़ाता है-
"दल्ला कहता था कि ये साले रायटर लोग घने चूतिया होते हैं। कुछ और चोदा जाता नहीं है तो क़लम से बस काग़ज़ चोदा करते हैं। जिससे कुछ नहीं बना जाता वो रायटर बन जाता है। बंबई में ऐसे रायटर दिन के छत्तीस आते हैं और बहत्तर लौटते हैं। इनकी ज़िंदगी निकल जाती है चाँद का चूतड़ घिसते-घिसते।" (पृ. - 58)
चूतिया, फट गई, घण्टा आदि अनेक शब्द हैं, जो आज की नई पीढ़ी की जुबान पर हैं और जिनकी जुबान पर नहीं उनकी जुबान पर चढ़ाने के लिए फिल्मों से होते हुए ये साहित्य में आ चुके हैं। यह कहानी-संग्रह भी उसी परिपाटी का पालन कर रहा है। 'फट गई' शब्द का प्रयोग सुबु-ननू भी करते हैं, हीरो का नायक भी-
"माँ क़सम! आज जान डाल देंगे रोल में और अगर जान डाल नहीं पाए तो जान निकाल ज़रूर देंगे। ये देख रहे हैं - 'जहर की शीशी'! ऐसा ओरिजनल काम करेंगे कि फट लेगी उन सबकी।" (पृ. - 46)
बच्चों के वार्तालाप को देखिए-
"'अबे तू चूतिया है।' - नानू ने कहा
'तू महा-चूतिया है।' - सुबु ने कहा।" (पृ. - 17)
संभवतः यह उसी प्रकार की योजना है, जिस प्रकार फिल्मों में मसाला भरा जाता है। इस बारे में वह 'टोपाज' कहानी में लिखता भी है-
"फिल्में और किताबें, लिटरेचर नहीं रह गई हैं बल्कि एक मार्केटिंग एक्सरसाइज हो गई हैं।" (पृ. - 89)
इसी संदर्भ में वह चेतन भगत का जिक्र भी करता है। कहानी 'टोपाज' का प्रमुख पात्र भी बेस्ट सेलर है मगर वह दो कौड़ी का साहित्य लिख रहा है। कहानीकार दो कौड़ी का साहित्य लिखने के लिए नहीं आया, इसे जानते हुए भी वह खुद को बेस्ट सेलर बनने के तरीके आजमाने से रोक नहीं पाया और जगह-जगह पर मसाला भरने का काम कर बैठा। मसाला भरने का काम सिर्फ गालियों से ही नहीं किया गया, अपितु कुछ प्रसंग जबरदस्ती जोड़े गए लगते हैं-
"काकू अभी भी नींद के आगे-पीछे भाग रहा था, लेकिन नींद आज काकू से ख़फ़ा-ख़फ़ा थी। थक-हार कर काकू, माँ और डैडू के कमरे में चला गया। बिस्तर पर माँ और डैडू थे। माँ डैडू के नीचे थीं। डैडू माँ के ऊपर। माँ के 'कराहने' की आवाज़ आ रही थी।" (पृ. - 72)
कुछ उक्तियाँ भी ऐसी कही गई, जिन्हें कहने के लिए कहा गया-
"दिन भर जादू की दुनिया में हिलोरें लेकर दोनों जब घर लौटे थे तो ऐसे भाव-विभोर जैसे कि सुहागरात की अगली सुबह आदमी और औरत भाव-विभोर पाए जाते हैं।" (पृ. - 27)
लेखक ने मसाला भरने की बात को खुद स्वीकार भी किया है और इसका जिम्मेदार वह मर्द पाठकों को ठहराता है-
"मर्द इंसिस्ट करते हैं कि कहानी को लीनियर ही रखा जाए और उसमें जहाँ पर अधिक ज़ोर देने की ज़रूरत है, वहाँ थोड़ा-सा रुककर, बात को ज़रूरी मसाले और सालन में लपेट कर समझाया-सुनाया जाए।" ( पृ. - 131)
     यह आरोप मिथ्या भी नहीं, जब पाठक इसे पढ़ रहा है और लेखक प्रसिद्ध हो रहा है तो वह रुकेगा क्यों, लेकिन साहित्य के विद्यार्थी को साहित्य के बारे में चिंता ज़रूर करनी चाहिए। यहाँ तक कहानियों की बात है, इस संग्रह में 9 कहानियाँ हैं। पहली कहानी 'परवाज़' बाल मनोविज्ञान से संबंधित है। बच्चे के कृत्यों को बड़ी बारीकी से विश्लेषित किया गया है-
"नानू ने रेल की पटरी पर जो सिक्का रखा था, वो चुंबक बन चुका था।" (पृ. - 13)
इस कहानी में दो बालपात्र हैं - नानू और सुबु। टी.वी. पर देखा और कॉमिक्स में पढ़ा सच मानते हैं। जादू पर उन्हें भरपूर विश्वास है। जादूगर झूठ बोलकर उनके विश्वास को बरकरार रखता है। इस कहानी को कहने के लिए लेखक ने सात उपविषय बनाए हैं। बच्चों को लेकर इसी शैली में कही गई कहानी है, 'साफे वाला साफ़ा लाया'। छुट्टन इसका प्रमुख पात्र है, जिसे छोटे भाऊ का खिताब दिया जाता है। छोटा भाऊ बनने पर भी उसका डर नहीं निकलता, हालांकि वह छोटा भाऊ बनने की भरपूर कोशिश करता है। मूलतः इस कहानी का विषय सिर्फ़ बच्चों का चित्रण न होकर हिन्दू-मुस्लिम विवाद और मंदिर वहीं बनाएँगे का नारा देकर लोगों को भड़काने की दशा को दिखाना है- 
"ये देश हरे और सफ़ेद रंग का देश नहीं है, बल्कि ये देश भगवा रंग का देश है। तैयार रहो… मंदिर यही बनाएँगे।" (पृ. - 125)
भगवे रंग के प्रभाव को भी दिखाया गया है-
"भगवा साफ़ा, बाँधते ही, आदमी को भीड़ के बाक़ी लोगों से अलग बना देता था और बाक़ी लोगों को समझ आ जाता था कि आख़िर अब किसकी नक़ल करनी है। आदमी, आदमी कम और रंग ज़्यादा हो गया था और रंग, रंग कम और ढंग ज़्यादा।" (पृ. - 126)
इसके लिए धर्म का भी सहारा लिया जाता है-
"ख़ुद तुम्हारे भगवान ने कहा है कि धर्म की लड़ाई में जीते और जिए तो धरती तुम्हारे नाम और मारे गए तो आसमान तुम्हारे नाम। और जो लड़ा ही नहीं उसका नाम नामर्द।" (पृ. - 126)
हालांकि सच कुछ और है-
"कोई किसी का मंदिर नहीं तोड़ा था। कहीं कोई मंदिर नहीं था।" (पृ. - 122)
नेता लोग छोटे बच्चों को भी नहीं छोड़ते और इसी संदर्भ में भाऊ साहब छोटे भाऊ को तैयार करते हैं। कहानी का अंत बड़ा प्रतीकात्मक है-
"मोती की कोई जात नहीं होती। मोती का कोई धर्म नहीं होता। इसीलिए मोती बेशकीमती होता है।" (पृ. - 128)
इस कहानी में छोटे बच्चों की दशा और उनके बड़े बनने की निशानी को भी बड़ी खूबसूरती से दर्शाया गया है-
"छोटे बच्चे टट्टी-पेशाब तो रोक सकते हैं, लेकिन हँसी रोकना उनके लिए नामुमकिन होता है। जब उनमें धीरे-धीरे हँसी रोकने की क़ाबिलियत आ जाए तो समझ लो कि बच्चे बड़े हो गए हैं।"
छुट्टन भी बड़े होने की राह पर है, लेकिन उसकी माँ उसे वक्त से पहले बड़ा होने से रोक लेती है। बच्चे से संबंधित एक अन्य कहानी है - 'पीली पेंसिल'। यह कहानी चारित्रिक कहानी कही जा सकती है। इसमें दस वर्षीय बालक काकू के चरित्र को उभारा गया है। उसके मन में उठते विचारों को दिखाया गया। 'टोपाज' भी एक चरित्र प्रधान कहानी है, जिसमें कहानीकार केशव ठाकुर की अंतिम पुस्तक की पांडुलिपि प्रकाशक के पास आई है। वह डायरीनुमा पुस्तक है, जिसे वह पढ़कर सुनाता है और कुछ अपनी तरफ से जोड़ता है। वह कहता है-
"मैं अब थोड़ा क्रोनोलॉजी में बात कहता हूँ और केशव से परिचित करवाता हूँ। फिर गुड्डू की बात होगी। इधर-उधर से बातें उठाकर ही कहूँगा, बीच-बीच में उसकी डायरी के हिस्से रखूँगा और उसमें लिखी केशव की ज़िंदगी के ब्यौरे से चुरा-चुराकर भी किस्से रखूँगा लेकिन इत्मीनान रखिए कहानी खत्म होते-होते आपको कोई शिकायत नहीं रहेगी और वो सारी बातें एक लाइन में जुड़कर कहानी बन जाएँगी।" (पृ. - 87)
इस कहानी के 11 भाग हैं और उपर्युक्त बात टिक्कू चौथे भाग की शुरूआत में कहता है। 10वें भाग की शुरूआत में वह फिर कहता है -
"उम्मीद करता हूँ कि अब ये सारा रैंडमनेस और केयौस कहानी की शक्ल लेता दिख रहा होगा।" (पृ. - 108)
कहानी के पहले तीन भाग केशव, गुड्डू और जैसमीन के बारे में बताते भर हैं। फिर इसे कहानी के रूप में कहा जाता है। यह केशव के चरित्र चित्रण को लेकर लिखी गई है, लेकिन इसमें गुड्डू की कहानी ज्यादा स्पष्ट है। गुड्डू केशव के लिए महत्त्वपूर्ण है, यह भी समझ आता है, लेकिन केशव ऐसा क्यों है? का उत्तर नहीं मिलता, हालांकि केशव कैसा है, यह विस्तार से बताया गया है। गुड्डू और केशव शराब पीकर बातें करते हैं, तो शराब की महिमा का बखान है-
"दारू पीकर कैसे भी दो लोग एक लेवल पर हो जाते हैं। अमीर-ग़रीब, नेता-जनता, शिकार और क़ातिल, ख़ुद और ख़ुदा सब।" (पृ. - 92)
कहानी में नौकरी के लिए रिश्वत के प्रसंग को भी उठाया है-
"फिर विशिष्ट बी.टी.सी. करके टीचर बनने के लिए फार्म भरा लेकिन उसमें वो लोग दो लाख रुपये माँग रहे थे।" (पृ. - 97)
कहानी में कहीं-कहीं ज़रूरत से अधिक विस्तार है, यथा भगवान को लेकर लम्बी चर्चा है। गणित के ज्ञान को कहानी में फिट किया गया है।
       'सुहागरात' आदमी के मनोविज्ञान को समझाती कहानी है, हालांकि इस कहानी में लेखक का दखल काफी अधिक है। कहानी में देवकी की दो सुहागरातों का वर्णन है। पहली सुहागरात सत्यप्रकाश के माध्यम से पुरुष की उस सोच को दिखाती है, जिसमें वह कहता तो है कि औरत अपनी पिछली ज़िन्दगी का सच बता दे, लेकिन सच सुनने पर सह नहीं पाता। लेखक ने सत्यप्रकाश नाम रखकर उसके जिस प्रकार के चरित्र की व्याख्या की है, सत्यप्रकाश को उसके विपरीत दिखाया है। तीन-तीन लड़कियों से दोस्ती रखने वाला, तीसरी लड़की से सारी हदें पार करने वाला सुहागरात के दिन इतनी हड़बड़ी में नहीं होना चाहिए, हालांकि उस जैसे प्रोग्रेसिव थिंकिंग वाले की थिंकिंग वैसी ही होती है, जैसी की सत्यप्रकाश की है। दूसरी सुहागरात में देविका कुछ ज़्यादा ही आक्रामक है और ऐसी आक्रामकता का नुकसान नहीं होता यह राहुल की शराफत है। अंत में लेखक राहुल और सत्यप्रकाश की तुलना करता है। इस कहानी में पुरुष के चरित्र पर लेखक विचार करता है-
"बस ये समझ लो कि यदि पुरुष का ईगो हर्ट हो गई तो उसे शांत करना बहुत ज़रूरी है, नहीं तो मर्द वैसे ही तड़पता रहता है, जैसे बिच्छू के काट लेने पर एक छोटा बच्चा।" (पृ. - 136)
इंसानी फ़ितरत पर भी विचार किया गया है-
"चूँकि इंसान अपनी फ़ितरत से ही फिसल पड़ने वाला जीव है, इसलिए उसे बाँधा जाना बहुत ज़रूरी है।" (पृ. - 130)
      'हीरो' कहानी मुम्बई के एक स्ट्रगलर की कहानी है, हालांकि वो अपने को स्ट्रलगर नहीं मानता। पूरी कहानी में उसकी भाव-भंगिमाएँ हैं, फिल्मों दृश्यों का वर्णन है और अंत में इसे यह कहकर जीवन से जोड़ा गया-
"ये फिल्मी इंडस्ट्री और हमारी ज़िंदगी दोनों एक-सी ही तो है। दोनों में हम लोग सेंटर में आने के लिए तरसते रहते हैं। लाइमलाइट में आने के लिए। साइड के किरदारों को कोई नोटिस भी नहीं करता। शर्मा जी इस बात से परेशान रहते हैं कि वर्मा जी का लौंडा फ़र्स्ट आ गया और उनका लड़का एग्ज़ाम में सेकेंड ही रह गया।" (पृ. - 47)
लेखक यह भी स्पष्ट करता है कि फिल्मी बातें जीवन में स्वीकार्य नहीं होती। यह कहानी तकनीक के आगमन पर रोजगार पर पड़ने वाले प्रभाव को भी दिखाती है-
"अच्छा-खासा काम चलता था उसका, लेकिन फिर धीरे-धीरे कम्प्यूटर आ गया साला...कम्प्यूटर्रs और कल का छोकरा बटन दबा-दबा के वो कलाकारी करने लगे जो मेरा बाप इतनी मेहनत लगा के करता था।" (पृ. - 41)
इस कहानी में कुछ बातें ऐसी भी हैं जो तार्किक नहीं लगती-
"खड़े होने के पोश्चर और कप पकड़ने के अंदाज़ से एकबारगी तो ऐसा लगा कि गोया ख़ुद अमिताभ बच्चन बैठे हुए हैं।" (पृ. - 37)
अमिताभ बच्चन भी खड़े होते तो ज्यादा ठीक रहता। हालांकि इस पूरे विवरण के बाद लेखक कोष्टक में लिखता है - 
"हो सके तो ये बात किसी को बताइएगा नहीं" (पृ. - 37)
यह पंक्ति भी ज्यादा प्रासंगिक नहीं, अपितु यह तो कहानी की गंभीरता का मजाक ही उड़ाती है।   
हीरो और लोगों के संवाद में हीरो के पिता का जिक्र आता है- 
" 'आजकल कौन-सी फ़िल्म कर रहा है तुम्हारा बाप?' - किसी ने हाथ जोड़े हुए पूछा।
'आजकल? हुँह, आजकल कुछ नहीं कर रहा।" (पृ - 41)
यह संवाद यही अर्थ देता है कि उसका पिता जिंदा है, लेकिन अगले ही पृष्ठ पर कहा जाता है-
"हाँ! मर गया।" (पृ. - 42)
पिछले पृष्ठ पर ही इसे स्पष्ट करना ज्यादा प्रासंगिक था, लेकिन लेखक को मृत्यु की सूचना देने से पहले हिट फिल्म के फार्मूले को जोड़ना था, इसलिए इस तथ्य को लटकाया गया। 
कान के संदर्भ में कहा गया है-
"इंसानी कान एक ऐसे दरबान की तरह होता है जो हैसियत, औकात और मौक़े के हिसाब से सिर्फ़ चुनिदा लोगों को अंदर आने की इजाज़त देता है।" (पृ. - 44)
'लोगों' की अपेक्षा 'लोगों के शब्दों' होता तो ज्यादा स्वाभाविक होता, लेकिन संभवतः लेखक का ध्यान चमत्कार उत्पन्न करने पर है, और ऐसे में उससे कहीं-कहीं चूक हुई है, लेकिन हर बार चूक हुई हो ऐसा भी नहीं, कई बार सुंदर उक्तियाँ भी बन पड़ी हैं-
"सवाल उसके आगे ऐसे इकट्ठा कर के रख दिए गए थे जैसे एक के ऊपर एक, चार ब्रेड टोस्ट गरम करके रख दिए गए हों।" (पृ. - 39)
      'मुग़ालते' कहानी एक वेश्या की कहानी है, जो वेश्या खुद सुनाती है। वह अलग-अलग प्रकार के ग्राहकों के बारे में बताती है, लेकिन कहानी का मुख्य भाग एक लेखक का वर्णन है, जो वेश्या के बारे में लिखने हेतु उसके पास आता है और सच्चा प्यार कर बैठता है। यह कहानी वेश्यावृत्ति पर अपनी राय भी रखती है-
"असल में न तवायफें होती हैं, न ही वेश्याएँ। असल में सिर्फ़ रंडियाँ होती हैं। इसी तरह, असल में न ही कोठे होते हैं, न ही वेश्याघर। असल में सिर्फ़ नालियाँ होती हैं। नालियाँ इसलिए बनाई जाती हैं ताकि घरों की गंदगी उफ़न-उफ़न कर शरीफ़ लोगों के आँगन में फैल जाए। असल में सिर्फ़ गटर होते हैं। ताकि समाज साफ़-सुथरा दिखाई दे और जितना हो सके, चमकता रहे।" (पृ. - 57)
इस कहानी में तवायफ का रोशनी से होते हुए नंगी चीजों के बारे में सोचना विषय से भटकाव लगता है, लेकिन यह भटकाव ज्यादा लम्बा नहीं है। 'विद्रोह' कहानी आज़ादी के दौर में एक असफल प्रेम की कहानी है और असफल प्रेमी जो आत्महत्या करने जा रहा है, विद्रोही हो जाता है। कहानी तुलना पर आधारित है। एक तरफ़ माणिक है, जो गालिब की शायरी को जीता है, तो दूसरी तरफ उसका बड़का भाई जो देशभक्त है। ग़ालिब के अशआर दिए गए हैं। कम्युनिज्म, समाजवाद पर भी विचार है। लड़की के माध्यम से कहा गया है-
"आज के समय में पूँजीवाद को तो नकारा जा सकता है, लेकिन 'पूँजीपति' को अनदेखा नहीं किया जा सकता।" (पृ. - 150)
अंतिम कहानी 'बाजरे का रोटला, टट्टी और गन्ने की ठूँठ' बच्चों की टट्टी को लेकर रची गई कहानी है, जो आर्थिक स्थिति को बयान करती है। सूखे लौंडे के पिता नहीं है और माँ दिलावर से संबन्ध बनाकर रोटी का जुगाड़ करती है।
      कहानियों में लेखक की मौजूदगी भी है। कहीं किसी पात्र के रूप में तो कहीं वह सीधे ही कहानी में उतर जाता है-
"लड़कपने में, मैं भी तमाम बार ऐसे मोड़ पर फँस कर निरुत्तर हो चुका हूँ। दरअसल इसे 'डेड एंड' कहते हैं। क्योंकि इसके आगे कोई तरीक़ा काम नहीं करता और सामने वाले को हार मान लेनी पड़ती है।" (पृ. - 17)
     कहानियों में अनेक चीजों के सुंदर चित्रण मिलते हैं। लड़कपन के बारे में कहा गया है-
"लड़कपन का मानना-न-मानना भी अजीब होता है। मानो तो भूत-प्रेत असली, न मानो तो देवता भी नकली। पत्थर की मूरत, बेजान-सी सूरत। दिल लग जाए तो माटी में भी स्वाद, न लगे तो दाल-भात बे-स्वाद।" (पृ. - 20)
छोटे बच्चे के सोने की दशा को दिखाया है-
"वो धनुष की तरह सोया हुआ था और प्रत्यंचा की तरह उसने चादर को खींचा हुआ था, प्रत्यंचा का एक सिरा पैरों के बीच फँसा हुआ था और दूसरा हथेली की मुट्ठी में बिंध गया था।" (पृ. - 122)
फिल्मी प्रभाव को दिखाया है-
"अब माहौल संजीदा हो चुका था। वैसा ही संजीदा जैसे करन-अर्जुन में शाहरुख़ और सलमान के मरने पर सारा माहौल ग़मगीन हो गया था। वैसा ही संजीदा जैसे शोले के क्लाइमैक्स में अमिताभ को गोली लगने पर पूरा-का-पूरा सिनेमाघर संजीदा हो गया था। हीरो लगभग उतना दुखी नज़र आ रहा था जितना मदर इंडिया में सुनील दत्त को गोली से उड़ा देने पर नरगिस नज़र आ रही थीं और उतना ही टूटा हुआ लग रहा था जितना आनन्द में राजेश खन्ना की मौत पर अमिताभ बच्चन लग रहा था।" (पृ. - 43)
हँसी के अलग-अलग चित्र हैं। गुड्डू की हँसी-
"वो ऐसे हँसता था जैसे कि बस टोंटी खुल गई हो और अब जो कुछ अंदर ज़ब्त था, बाहर आ जाएगा।" (पृ. - 99)
छुट्टन की माँ की हँसी-
"हँसी ऐसे छूटी जैसे कपड़े के ढेर के नीचे से चूहा छूटा हो।" (पृ. - 121)
हैरानी, डर और सिहरन को दिखाया है-
"कभी-कभी हैरानी डर से बड़ी होकर कौतूहल बन जाती थी और कभी-कभी डर हैरानी से बड़ा होकर सिहरन बन जाता है।" (पृ - 125)
कहानियों के बारे में कहा गया है-
"कहानियाँ तभी लम्बी होती हैं जब उसके किरदार थोड़े से बेवकूफ़ाना हों।" (पृ. - 141)
      चरित्र-चित्रण के लिए लेखक ने कई विधियों को अपनाकर पात्रों को भली प्रकार से उभारा है। 'परवाज' कहानी में बच्चों का चरित्र चित्रण बड़ा स्वाभाविक बन पड़ा है। सुबु की हैरानी की दशा-
"सुबु का चेहरा आश्चर्य से एक इंच चौड़ा हो गया, भौंहे कानों तक तन गई और वह वही हरक़त करने लगा जो वो अक्सर हैरानियत में करता था। थूंक गटकते हुए उसने पूछा।" (पृ. - 15)
नानू की चालाकी का वर्णन-
"नानू ने चालाकी से 'बाई-गॉड' की जगह 'बाई-गोट' की क़सम बोल दिया। वो हमेशा ही ये चालाकी करता था।" (पृ. - 15)
नानू को समझने के लिए यह पंक्तियाँ बेहद महत्त्वपूर्ण हैं-
"अब ये ऐसा नाजुक मौक़ा था जहाँ पर नानू को रोक पाना मुश्किल था। वो कॉमिक्स खाता था और कॉमिक्स ही पीता था।" (पृ. -16)
दोनों बालकों की दशा का सटीक चित्रण के लिए लेखक ने मिथिहास के प्रसंगों का भी सहारा लिया है-
"दोनों ऐसे रोते थे जैसे ब्रज की गोपियाँ। किसी भी उद्धव का कलेजा उन दोनों को देखकर डोल ही जाता।" (पृ. - 32)
लहजे में आए परिवर्तन को भी दिखाया गया है-
"सवाल विद्रोह के साथ पूछा गया था और ख़त्म कारुण्य के चरम पर हुआ।" (पृ. - 32) 
केशव के बारे में टिक्कू के वक्तव्य महत्त्वपूर्ण हैं -
"केशव एक पेसिमिस्ट था। ज्यादातर इंसानों को पसंद नहीं कर पाता था।" (पृ. - 77)
"केशव को दुनिया में हर दूसरी चीज़ घटिया ही लगती है।" (पृ. - 85)
केशव खुद अपने बारे में बताता  है-
"तीन लड़कियों ने हमको इसी बात के लिए छोड़ दिया था कि हम उनसे बात तो खूब करते थे लेकिन उनको समझते नहीं थे। फिर एक ने इसलिए छोड़ दिया था क्योंकि हमारे पास उसके लिए वक़्त नहीं होता था और जब होता भी था तो हम उससे फ़िल्मों और कहानियों के बारे में ही बात करते रहते थे।" (पृ. - 93)
गुड्डू के आगमन के बाद केशव के व्यवहार में आए परिवर्तन को भी दिखाया गया है-
"तुम्हारे आने से केशव बदल गया है। केशव ने बड़े दिनों के बाद मेरे लिए रोमैंटिक कविता भी लिखी है। नहीं तो अभी तक तो बस मरने-लुटने-पिसने वाली पेसिमिस्ट बातें ही लिखता था।" (पृ. -110)
टिक्कू की उक्ति गुड्डू के स्वभाव को स्पष्ट करती है-
"अक्सर गुड्डू से वजह पूछना बेकार होता था। वो बस कह देता था। आकाशवाणी की तरह।" (पृ. - 97)
लेखक भाऊ साहब के बारे में बताता है-
"भाऊ साहेब के बारे में कहा जाता था कि उनकी शक्ल, अदायगी, सूरत और सूरत हू-ब-हू जंगली बाघ से मिलती-जुलती थी। बोलना शुरू करते थे तो ऐसा लगता था कि कोई जादूगर अपनी सम्मोहन विद्या का प्रदर्शन का रहा है।" (पृ. - 115)
तुलना के द्वारा भी चरित्र-चित्रण किया गया है-
"मार्क्स कुछ कहता तो पूरी-की-पूरी भीड़ सोचने पर विवश हो जाती थी, लेकिन जब ये मुई कुछ भी कहती थी तो पूरी-की-पूरी भीड़ सोचना ही छोड़ देती।" (पृ. - 146)
पुस्तक में बहुत सारी महत्त्वपूर्ण उक्तियाँ हैं, जो कहानियों को रोचक बनाती हैं, यथा-
"वापस मिली दोस्ती पुरानी दोस्ती से ज़्यादा मीठी होती है।" (पृ. - 18)
"ज़रूरत में जो 'ज़रूर' आए वही भगवान।" (पृ. - 30)
"अमीर का प्यार और ग़रीब का प्यार एक बराबर थोड़े ही होता है।" (पृ. - 93)
     कहानी कहने के लिए वर्णनात्मक, आत्मकथात्मक, संवादात्मक शैली को प्रमुख रूप से अपनाया गया है। कहीं-कहीं भूमिका भी बाँधी गई है, तो कही-कहीं लोकप्रचलित कहानियों का सहारा लिया गया है। कथानक को उपविषयों में भी बाँटा गया है। देशज, विदेशज शब्दावली का भरपूर प्रयोग है। जिनमें से ज्यादातर शब्द तो वे हैं, जो आम बोलचाल में शामिल हो गए हैं, लेकिन कुछ ऐसे शब्द भी हैं, कहीं-कहीं उर्दू शब्दों का गलत प्रयोग भी हुआ है, यथा- लव्ज़, लोग़।
कहावतों का नवीनीकरण किया गया है-
"हर साल यहाँ हज़ारों लोग बस सूटकेस और मुँह उठाकर बंबई चले आते हैं।" (पृ. - 43)
    भाषा का अशिष्ट प्रयोग अगर न होता तो इस संग्रह की भाषा को सुंदर कहा जाता, लेकिन अब इसे मसालेदार कहना ज्यादा उचित है। क्षेत्रीय शब्दावली का प्रयोग भी सिर्फ पात्रों से हो तो ज्यादा उचित है क्योंकि हिंदी के लेखक को हिंदी भाषा बोलनी चाहिए, कानपुरी बोली नहीं। हाँ, पात्र से पात्रानुकूल बोली बुलवाई जा सकती है। पुस्तक का शीर्षक किसी कहानी से संबंधित नहीं। हालांकि 'परवाज' कहानी में ये शब्द आते हैं-
"इससे पहले कि सुबु उसको अजूबा और अपनी फाइट की कहानी में एक चुटकी झूठ और दो चुटकी नमक, स्वादानुसार मिलाकर सुनाता, नानू ने उसे अपना चुंबक दिखाया।" (पृ. - 14)
इसी पर कहानी-संग्रह का नाम शायद न हो। यह शैली, भाषा आदि के रूप में वो साझा तत्व हो सकता है जो कहानी को रोचक बनाने के लिए प्रयुक्त किया गया है। कहानीकार के पास कहानी कहने की अद्भुत कला है, लेकिन भाषा के साफ-सुथरे प्रयोग से इसे और निखारा जा सकता है।
©दिलबागसिंह विर्क

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