आकर्षित होकर लोग प्रेम की ओर ही बढ़ेंगे, यह जरूरी नहीं | कई बार यह आकर्षण वासना को भी जन्म देता है | इस वासना का शिकार कई बार दोनों पक्ष होते हैं तो कभी कोई एक | यह वासनाजनित आकर्षण अक्सर पवित्र दोस्ती को कलुषित कर देता है | दोस्ती को पवित्र रिश्ता माना जाता है या यूँ कहें कि रिश्तों से भी पवित्र होती है दोस्ती, लेकिन दोस्त बनाना जितना आसान है, दोस्ती निभाना उतना ही मुश्किल है | खासकर आधुनिक दौर में जब विपरीत लिंगी दोस्त बन जाते हैं, तब इस रिश्ते की पवित्रता बनाए रखना बड़ी मुश्किल चुनौती होती है |
शुभान्शु सीधा-सादा व्यक्ति है, काम से काम रखता है | नाटक को समर्पित है, लेकिन दिव्या कई बार उसे परेशान देखती है | जब वह इस परेशानी का कारण जानना चाहती है तो वह कहता है कि घर बाहर की बातें उसके शौक के बीच दीवार बनकर खड़ी हो जाती हैं | ऐसे समय वह या तो रोना चाहता है या अपना दर्द किसी को सुनाना चाहता है | रोना कमजोरी की निशानी है और किसी का दर्द कोई सुनता नहीं | इस पर दिव्या कहती है–
“ मैं सुनूंगी आपके दर्द को | ”
दिव्या का यह कहना आकर्षण का परिणाम है, क्योंकि वह शुभान्शु की दोस्ती चाहती है | इसके बाद वे दोस्त बन जाते हैं, लेकिन दिव्या का एक कथन शुभान्शु को इस दोस्ती का गलत अर्थ निकालने को प्रेरित करता है | दरअसल दिव्या भावों में बहकर कह उठती है –
“ एक बात कहूँ सर ! अगर मेरे विवाह से पूर्व आप मेरे जीवन में आ जाते तो मैं आपसे ही विवाह करवाती | ”
आकर्षण में बंधी दिव्या का यह कथन सिर्फ उसकी भावुकता को दर्शाता है, लेकिन शुभान्शु इसे प्रणय निवेदन समझ बैठता है | इस घटना के बाद वह काम पर कम ध्यान देता है और ज्यादा से ज्यादा दिव्या के साथ रहना चाहता है | वासना उस पर हावी हो जाती है | वह अब दिव्या के पति का स्थान पाने को लालायित है | दिव्या पछताती है और शुभान्शु को आगाह करती है-
“ सर ! आप यह क्या कह रहे हो | आप स्वयं तो गिर ही रहे हैं, मुझे भी पतन की ओर जाने के लिए विवश कर रहे हो | मैं सच कहती हूँ कि मैं आपको बहुत चाहती हूँ | आप मेरे आदर्श हैं, किन्तु याद रखिएगा मेरी भावनाओं में आप चाहे छाए रहो, किन्तु यह देह तो मेरे पति की ही है | ”
यहाँ भी स्पष्ट है कि दिव्या शुभान्शु के प्रति आकर्षित है, लेकिन उसका खुद पर नियन्त्रण है | वह वासना को खुद पर हावी नहीं होने देती, लेकिन शुभान्शु ऐसा नहीं कर पाता | लेखक दोनों कि मनोस्थितियों का चित्रण भी करता है | दोनों की सोच अलग-अलग होने के कारण दिखाए गए हैं | दिव्या महानगर से आई है और शुभान्शु कस्बे से है | महानगरों में आधुनिकता ने पहले पाँव पसारे, इसलिए दिव्या खुले विचारों की है, जबकि कस्बे में आधुनिकता उस स्तर की नहीं, शायद इसी कारण वह दिव्या को गलत समझ बैठता है | उसकी दीवानगी उसके कार्य को प्रभावित करती है |
“ शुभान्शु पर तो एक ही नशा छाया हुआ था | उस नशे के कारण वह न अपनी पत्नी, न बेटी, न दिव्या के पति को देख पाता था | उसे तो सिर्फ दिव्या ही दिव्या दिखाई देती थी | ”
शुभान्शु इन दिनों नाटक लिख रहा है | इस नाटक का आधार उन दोनों के भीतर घटी घटनाएं हैं, लेकिन उसे अंत नहीं सूझ रहा | वह नाटक दिव्या को सुनाने लगता है | कहीं-कहीं दिव्या वाह ! वाह ! कर उठती है, तो कहीं कुछ वार्तालाप उसे अच्छे नहीं लगते क्योंकि शुभान्शु ने नायक को अत्यधिक कामुक दिखाया है | दिव्या कोई अंत नहीं सुझाती, अपितु पीठ करके खड़ी हो जाती है | कामावेश में आकर शुभान्शु दिव्या को पीछे से आलिंगनबद्ध कर लेता है और कहता है कि नाटक का अंत ऐसा ही होगा , लेकिन दिव्या उसके बाहुपाश से अलग होकर कहती है –
“ नहीं सर ! आपके नाटक का अंत नायिका के इन शब्दों के साथ होगा कि जिसे रिश्ते की पहचान न हो, उससे किसी प्रकार के रिश्ते जोड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए | ”
लेखक सिर्फ शुभान्शु के वासनाजनित आकर्षण को ही नहीं दिखाता, अपितु कहानी के अंत द्वारा बताता है कि वासना रिश्तों को तोड़ देती है |
वासना को दिखाती एक अन्य कहानी है – ‘ अवलम्ब ’ | हालाँकि इसमें ‘ रिश्ते की पहचान ’ कहानी से मात्रागत भेद है | यहाँ वासना उस स्तर तक नहीं पहुँचती, जिससे रिश्ते टूट जाएँ | एक विवाहित स्त्री जो अपने पति को पसंद नहीं करती, वह जब किसी पर पुरुष की तरफ आकर्षित होगी तो उसका बहक जाना स्वाभाविक है | कहानी ऐसे संकेत भी देती है –
“ उन दिनों जीवन में एक नशा-सा छा गया था | जी करता था, किसी न किसी बहाने, दर्पण के होते हुए और दर्पण के न होते हुए भी बंधन मुझे दिखाई देता रहे |”
बंधन भी उसका साथ देता दिखता है –
“ इस दुविधा में जीते हुए भी पता नहीं क्यों तुमसे एक मिनट भी परे होने को जी नहीं करता है | यह तुमने क्या कर दिया है, मुक्ति !’और यह कहकर उसने मेरे दोनों हाथों को अपने हाथों में जकड़ लिया था | ”
ऐसे संकेत देने के बाद भी लेखक इन्हें आगे नहीं बढ़ने देता | संभवतः लेखक का व्यक्तित्व उन्हें ऐसा करने से रोकता है | पाठक गलत न समझ जाएँ, इसलिए वह बंधन से कहलवाता है –
“ मैंने तुम्हें चाहा, शायद यह सहज आकर्षण था, मेरी जवानी की एक लालसा थी, किन्तु तुम्हारा मुझे चाहना क्या तुम्हारी एक आवश्यकता नहीं थी ? मन की बातों के आदान-प्रदान के सिवा और हमने किया भी क्या है ? हम आज भी पवित्र हैं | हमने किसी का कुछ बिगाड़ा तो नहीं | ”
इस कहानी में तीन पात्रों बंधन, मुक्ति और दिशा के वक्तव्य हैं | सबसे पहले मुक्ति अपना पक्ष रखती है | उसका विवाह एक कुरूप व्यक्ति से होता है, जो उससे लगभग बीस वर्ष बड़ा है | जब बारात आती है, तभी उसे बताया जाता है -
“ क्या तुम जानती हो ? वह कैसा है ? क्या तुमने यह जानने की भी कोशिश की है ? वह तो तुम से लगभग बीस वर्ष बड़ा है, कुरूप है, कुछ भी नहीं है वह, मुक्ति !यह सब कुछ तुम्हारे साथ क्या हुआ ?”
मुक्ति सब्र कर जाती है | वह सोचती है कि शायद उनका स्वभाव अच्छा हो | उसका मानना है –
“ सुंदर मन कहीं अधिक कीमती और अच्छा होता है | ”
लेकिन उसकी इस उम्मीद पर भी पानी फिर जाता है –
“ मैंने दर्पण के भीतर केवल वासना, उग्रता, उपेक्षा तथा घमंड की दरारें देखी थीं | - उसको अपने पैतृक सम्पति पर घमंड था | उसने कभी भी मुझे प्यार के दो शब्दनहीं कहे थे | मुझे केवल वासना-पूर्ति का साधन समझा था | मेरी सदा उपेक्षा की थी | मुझे ऐसा लगता था, जैसे मैं कोई बिकी हुई वस्तु हूँ, जिसका वह मनमर्ज़ी से इस्तेमाल कर सकता था | ”
ऐसे में वह दुखी है, लेकिन बंधन के उसके जीवन में आने से उसके हालात बदल जाते हैं | बंधन के पहले दर्शन ही आकर्षण पैदा करते हैं –
“ उस दिन पड़ोस में आए उस अनजाने व्यक्ति को देखकर मन को कुछ राहत-सी मिली थी | ऐसा लगता था जैसे मेरे ऊसर मन में कहीं कोई पानी का स्रोत फूट पड़ा हो | पता नहीं क्यों, कई बार किसी को केवल देखने मात्र से जीवन की सार्थकता के कुछ चिह्न दिखाई देने लग जाते हैं | उस दिन से मुझे मेरी गली का वातावरण बहुत अच्छा लगने लगा था | ”
धीरे-धीरे उनका मेल-जोल बढ़ता है | बंधन उसे नाम लेकर पुकारने लगता है | बंधन उसकी प्रशंसा करता तो उसे अच्छा लगता है | वह बंधन और दर्पण की तुलना करती तो बंधन को बेहतर पाती |
“ दर्पण में जहाँ कमियाँ ही कमियाँ थी, वहाँ बंधन बहुत-सी विशेषताएँ लिए हुए था | मैंने भीतर-ही-भीतर बंधन को जीना प्रारंभ कर दिया था | यद्यपि दर्पण का अस्तित्व कभी-कभी मेरे मन में भय का संचार कर देता था, किन्तु फिर भी बंधन के साथ जीने की लालसा के सम्मुख वह मुझे नगण्य-सा लगता था | ”
मुक्ति की ऐसी सोच उसके मन में व्याप्त वासना को ही इंगित करती है, लेकिन यह वासना अपना रंग दिखाती इससे पहले ही वे अलग हो जाते हैं | जब बंधन को उसका शहर छोड़कर जाना होता है तो वह छटपटा उठती है | वह कहती है कि तुम्हारे बगैर मैं कैसे जीऊँगी, लेकिन उससे ज़िन्दा रहने का वायदा लेकर बंधन चला जाता है | पत्र-व्यवहार भी कुछ समय बाद बंद हो जाता है, लेकिन मुक्ति के लिए बंधन के साथ गुरे पल ही अवलम्ब बनते हैं |
बंधन भी अपना पक्ष रखता है | उसे मुक्ति की तरफ अपना आकर्षित होना या तो जवानी का कारण लगता है या फिर पिछले जन्म का नाता | वह सोचता है -
“ कभी-कभी बिस्तर पर पड़े-पड़े मैं सोचा करता था कि कॉलेज में इतनी लडकियाँ हैं, मैं उनकी ओर आकर्षित क्यों नहीं हुआ | एक विवाहित स्त्री के प्रति यह आकर्षण क्यों ? किन्तु यह अचानक अपने आप ही हो गया था | ”
वह बहाने से उसके घर जाता है, रोज नमस्ते बुलाता है, उसके पति से दोस्ती गांठता है, हालांकि पति से दोस्ती करके पत्नी से निकटता करना उसे गलत लगता है, लेकिन वह विवश है और यह विवशता है आकर्षण | बंधन द्वारा अपनाए गए हथकंडे बताते हैं कि इस आकर्षण में वासना का भी पुट है | इसी वासना के चलते ही वह मुक्ति के साथ भाग जाने की बात सोचता है, लेकिन यह वासना फलीभूत नहीं हो पाती क्योंकि बंधन को उसके पिता ले जाते हैं | लेखक ने इस कहानी में आकर्षण को वासना बनने से बचाने के लिए दिशा नामक पात्र की सृजना की है | दिशा मुक्ति के घर में किराये पर रहती है, वह भी बंधन की तरफ आकर्षित है, लेकिन उसे मुक्ति और बंधन का सच भी मालूम हो जाता है, इसलिए वह बंधन की तरफ कदम नहीं बढाती क्योंकि उसे यह मुक्ति के साथ विश्वासघात लगता है | लेकिन बंधन के अपने शहर लौट जाने के बाद वह उसे कलकत्ता में मिलती है और उसे समझाती है –
“ बंधन ! तुम्हारी सही दिशा मैं ही हूँ | मुक्ति से मुक्ति पाने में ही तुम्हारा भला है | ”
दिशा के प्रयासों से बंधन मुक्ति से दूर हो जाता है और उससे विवाह कर लेता है, लेकिन उनके विवाह की खबर मुक्ति को नहीं दी जाती | दिशा विवाह के बाद भी बंधन को मुक्ति को पत्र लिखने से नहीं रोकती, हालांकि बंधन खुद ही पत्र व्यवहार बंद कर देता है | दिशा चाहती है कि कभी वे तीनों इकट्ठे बैठकर चाय पियें, जो संभव नहीं |
यह कहानी सहज आकर्षण और वासनाजनित आकर्षण के दो पलड़ों पर झूलती रहती है | लेखक आकर्षण को वासना का शिकार होने से बचा लेता है, लेकिन बंधन और मुक्ति का संबंध सिर्फ आकर्षण नहीं है |
दैहिक आकर्षण और प्रेम में देह के खेल को बयान करती एक अन्य कहानी है – ‘ कितने प्रश्न ’ अनुराग अपनी पत्नी सुरेखा के साथ उसके अंकल के घर दार्जलिंग जाता है | अंकल की बेटी अमिता एक चुलबुली लड़की है | अमिता की बातें, उसकी गतिविधियाँ अनुराग के मन में हिल्लोरें उठाती हैं |
“ वह बोली,” तो फिर जल्दी करो, जल्दी उठो |” इतना कहकर उसने अपने हाथों से मेरे हाथों को पकडकर मुझे उठाना चाहा | आज पहली बार मैंने देखा कि एक रूपसी निर्भीकता से मुझे अपनी ओर खींच रही थी | ”
अमिता का व्यवहार उसके चुलबुलेपन को दर्शाता है, लेकिन अनुराग के मन की वासना साफ़ झलकती है | वह शादी-शुदा है, समझदार है, साली के इस व्यवहार को गलत सोचना उसकी वासना है | उसकी यही वासना अमिता की हर हरकत के मनमाने अर्थ लगाने की आज़ादी देती है | लेखक ने कई स्थानों पर अनुराग के मन में उठती हिल्लोरों को दिखाया है | यह हिल्लोरें दैहिक आकर्षण का परिणाम है | इस दैहिक आकर्षण में डूबा वह सोचता है–
“ काश ! मेरा विवाह अमिता से हो जाता | ”
हालांकि वह खुद को समझाता भी है –
“ पत्नी, पत्नी है और साली, साली | साली के लिए ऐसी बातें सोचना अपवित्रता है |”
अमिता का चुलबुलापन कई बार हद से आगे बढ़ता दिखाया गया है और इससे यह कहा जा सकता है कि वह खुद चाहती है कि अनुराग उसके बारे में सोचे | एक घटना यह है –
“ सुबह-सुबह वह मेरे पास चाय लेकर आई | आकर कहने लगी,“ एक बात आपसे कहनी है, लेकिन आपके कान में ” यह कहकर वह मेरे बिल्कुल निकट आ गई |फिर जो कुछ उसने मेरे कान में कहा, सुनकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई | उसने कहा,“ जीजा जी, मैं आपके साथ जा रही हूँ | क्या आपको अच्छा लगेगा |” ”
इस घटना में भी साली के नाते जीजा से की गई हल्की-फुलकी शरारत का पुट अधिक है | लेकिन ऐसा नहीं है कि अमिता में वासना नहीं उपजती, लेकिन उसकी वासना लेखक ने अन्य घटना के माध्यम से दिखाई है, और वह अनुराग के प्रति नहीं है |
अनुराग कविता लिख लेता है, और अमिता कवियों की भांति प्रकृति को निहारती और महसूस करती है | अनुराग की चुप्पी से वह महसूस करती है कि उसके जीजा जी कभी प्यार में पड़े हैं और उनका प्रेम अवश्य लैला-मजनूँ-सा होगा तभी वे इस कद्र चुप्प हैं | वह कहती है –
“ देखो जीजा जी, व्यक्ति को लैला-मजनूँ वाला प्रेम नहीं करना चाहिए | वे एक-दूसरे के लिए पागल हो गए थे | प्रेम तो कॉफ़ी हाउस वाला अच्छा है | साथ-साथ बैठें, कुछ कहें, कुछ पीएँ, हंसे-खेलें, मिलें-जुलें और फिर जहाँ तक हो सके निभाएं भी | न भी निभा पाएं तो यह सोचें कि वह समय कितना सुख का था और उन क्षणों को कभी-कभी याद कर लिया करें | ”
अमिता का यह नज़रिया बताता है कि वह प्रेम के प्रति गंभीर नहीं, अपितु उसके लिए प्रेम महज मौज-मस्ती है | कहानी का अंत इसको सिद्ध करता है | अमिता ने भी प्रेम किया है और प्रेम में देह का खेल खेला है | वापसी के समय अनुराग और उसकी पत्नी को सिलीगुड़ी अमिता के भाई से मिलने जाना है | अमिता भी साथ हो लेती है | रास्ते में अमिता का सहपाठी उमेश मिलता है | उमेश ही उसका प्रेमी है | अनुराग को इसका आभास होता है, तो वह यह बात अमिता की भाभी को बताना चाहता है, लेकिन वहाँ जाकर पता चलता है कि अमिता की भाभी को अमिता की प्रेम कहानी का पता है | वह अनुराग को कहती है कि जल्द ही अमिता की शादी करेंगे और उन्हें बुलाएंगे, लेकिन उन्हें नहीं बुलाया जाता | शादी गुप-चुप तरीके से होती है | कारण अमिता अनुराग के बच्चे की माँ बनने वाली थी | यह अमिता की मौज-मस्ती वाली सोच का ही परिणाम है और अक्सर ऐसी गलतियाँ भारी पड़ती हैं, भले ही इस कहानी का अंत ऐसी कोई दुखद घटना को नहीं दिखाता | यह कहानी वासना का त्रिकोण है, अनुराग की वासना अमिता को देखकर जागृत होती है और अमिता की वासना का संबंध उमेश से है | ऐसे वासनाजनित आकर्षण के उदाहरण समाज में आम व्याप्त हैं |
वासनाजनित आकर्षण की ये तीनों कहानियां अलग-अलग ढंग से वासना को दिखाती हैं | लेखक ने सिर्फ़ वासना का वर्णन ही नहीं किया अपितु उन कारणों को भी उभारा है, जिनके कारण वासना पैदा होती है, यथा दिव्या के वाक्य का शुभांशु गलत अर्थ लगाता है, मुक्ति अनमेल विवाह की शिकार है, पति से असंतुष्ट है और अमिता के आधुनिक ख्याल अनुराग को विचलित करते हैं, लेकिन लेखक की सफलता इस बात में है कि वासना के प्रदर्शन के बावजूद कहानियां अमर्यादित नहीं होती | लेखक ने ऐसी परिस्थितियों का निर्माण किया है कि एक पात्र, दूसरे पात्र पर लगाम लगाए रखता है | ‘ पहचान रिश्ते की ’ कहानी में शुभांशु की वासना दिव्या के प्रति है, लेकिन दिव्या सुलझी हुई नारी है और वह शुभांशु को एक हद से आगे नहीं बढ़ने देती | ‘ अवलम्ब ’ में बंधन और मुक्ति वासना की जकड़न में जकड़े हुए हैं, हालांकि वे एक सीमा से आगे नहीं बढ़ते, लेकिन ऐसे तमाम कारण मौजूद हैं, जो उन्हें किसी भी समय भटका सकते हैं | उन्हें दूर भी किया जाता है | कई बार दूरी ही आग में घी डालती है, लेकिन इस कहानी में ऐसा कुछ नहीं होता क्योंकि दिशा नामक नारी पात्र के कारण बंधन इस वासनाजनित बंधन से मुक्ति पाता है | ‘ कितने प्रश्न ’ में अनुराग के भीतर वासना जगती है, लेकिन उसका खुद पर नियन्त्रण है | अमिता की अनुराग के प्रति वासना अनुराग के हवा न देने से उभरती नहीं और उसका उमेश से वासनाजनित प्रेम गौण कथा है |
इन कथानकों में परिस्थितियों के द्वारा रोचकता पैदा की जाती है | पात्रों के मन का विश्लेषण मिलता है | संवाद और परिस्थितियों के द्वारा वासना को उभारा जाता है और तभी बड़ी चतुराई से कथानक को मोड़ दिया जाता है | इस मोड़ से पाठक खुद को ठगा हुआ महसूस नहीं करता, अपितु कहानी के अंत के बारे में सोचने को मजबूर होता है | ‘ पहचान रिश्ते की ’ में दिव्या का अंतिम वाक्य पाठकों के मन पर सीधा प्रहार करता है | ‘ कितने प्रश्न ’ का अंत अनेक प्रकार के प्रश्न छोड़ जाता है, जबकि अवलम्ब में वह सोचता है कि दिशा के बिना यह कहानी किधर जा सकती थी | ये कहानियां जीवन के उन पलों का अनुभव भी करवाती हैं, जब कोई व्यक्ति फिसलते-फिसलते बच जाता है | इन तीनों कहानियों में सभी पात्रों को उनके गुण-दोषों के साथ प्रस्तुत किया गया है | ऐसे पात्र जीवन में सहज मिलते हैं या यूँ कहा जा सकता है कि ऐसे बहकाने वाले पल प्रत्येक आदमी के जीवन में कभी-न-कभी आते हैं | इन कहानियों में वासना की उत्पत्ति के जो कारण दिखाए गए हैं, वो जीवन में घटित होते हैं, ऐसी परिस्थितियाँ आम मिल जाती हैं | ये कहानियां यह दिखाने में सफल रहती हैं कि वासना जीवन का अंग है और इसका घटना स्वाभाविक है, लेकिन महानता इससे उबरने में है, इसमें डूबने में नहीं |
दिलबागसिंह विर्क
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