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बुधवार, मार्च 08, 2017

रिश्तों और संबंधों की कहानियाँ

अनाम रिश्ते

रिश्ते सिर्फ खून के ही नहीं होते | कुछ रिश्ते खून से बाहर भी होते हैं | खून से बाहर के रिश्ते अक्सर खून के रिश्तों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, क्योंकि खून के रिश्ते चुनने का अधिकार आपको नहीं होता, लेकिन खून से बाहर के रिश्ते आप खुद चुनते हैं | आमतौर पर हर रिश्ते का नाम होता है, लेकिन कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिनका कोई नाम नहीं होता | ये अनाम रिश्ते अनाम होते हुए भी कुछ ऐसी बात रखते हैं कि इन्हें रिश्ते कहा जाता है | इनमें प्रेम भले ही गुमनाम रूप में बहता है, लेकिन इनमें प्रेम होता अवश्य है, क्योंकि बिना प्रेम के कोई रिश्ता, रिश्ता हो ही नहीं सकता, खासकर ऐसा रिश्ता जिसे चुनने, छोड़ने का अधिकार आपको हर वक्त है | प्रेम के जिस रूप को कोई नाम न दिया जा सके, जिसे किसी परिभाषा में न बांधा जा सके, प्रेम का वो रूप जिन रिश्तों में बहता है, उन्हें अनाम रिश्ते कहा जाता है और ऐसे अनाम रिश्ते बहुधा नाम वाले रिश्तों से कहीं अधिक बेहतर और कहीं अधिक पवित्र होते हैं | ‘ वेदना का चक्रव्यूह ’ ऐसे ही अनाम रिश्ते की कहानी है | यह रिश्ता है यामिनी और प्रकाश के दरम्यान |

यामिनी फिर सोचने लगी – आखिर प्रकाश उसके जीवन में क्यों आया | इस घर को वह अपना घर क्यों समझ बैठा है | आखिर वह हमारा क्या लगता है, लेकिन क्या कुछ लगना ही लगना होता है | क्या बिना लगे व्यक्ति किसी का कुछ नहीं लगता |
लेकिन समाज अक्सर ऐसे अनाम रिश्तों को शक की नजर से देखता है – 
ऐसे लोगों को क्या कहा जाए जो उसके साथ भी प्रकाश का उलटा ही रिश्ता जोड़ने के प्रयत्न में लगे रहते हैं | सोमेश की ही बात ले लो ! वह प्रकाश को कह रहा था – तुम हर रोज़ इनके घर जाते हो | तुम्हें अंधत्व का फायदा नहीं उठाना चाहिए |
अनाम रिश्ते के प्रति अविश्वास सिर्फ़ बाहरी हो, ऐसा नहीं | यामिनी खुद भी कई तरीकों से सोचती है | कभी उसे लगता है कि उसकी बेटी जवान है और प्रकाश भी जवान है | प्रकाश उसकी बेटी को बहन न कहकर, उसके नाम से पुकारता है, लेकिन प्रकाश का व्यवहार यामिनी के मन में उठे प्रश्नों का उत्तर है | वह सोचती है – 
जिनके घर जवान लड़की होती है, क्या उनके घर कोई जवान लड़का नहीं आ सकता ? अगर आता है तो क्या बुरी नज़रें लेकर ही आता है ?
यामिनी का संशकित मन पति की मौजूदगी में प्रकाश के साथ बैठने पर भी शंका करता है, क्योंकि होते भले वे तीनों हैं, लेकिन आँखें तो दो के ही पास हैं | प्रकाश के साथ हंसने पर भी उसका दिल प्रश्न उठता है | प्रकाश भी दफ्तर में बदनाम होता है | ऐसे में उसके मन में आता है कि वह प्रकाश से कहे – 
मत आया करो, प्रकाश ! तुम काहे को हमारे लिए बदनाम होते हो |
लेकिन वह नहीं कहती, क्योंकि वह न सिर्फ उसकी सहायता करता है, बल्कि वह उसके आशाहीन जीवन की आशा है | कहानी का अंत यामिनी के मन की इसी स्थिति को दर्शाता है – 
यामिनी सोचने लगी – कौन आया है ? शायद प्रकाश ही आया होगा | बाहर के अन्धकार से लड़ती झगड़ती वह सांकल खोलने के लिए सहमे कदमों से आगे बढ़ी, इस आशा के साथ कि शायद प्रकाश का आभास पाकर अँधेरी घाटी का उबाऊ सफर तय करते समय राहत की कुछ साँसे मिल सकें |
यामिनी के मन में उठे तरह-तरह के सवाल बाहरी माहौल की देन हैं, अन्यथा ऐसी कोई घटना नहीं, जिससे यह कहा जा सके कि यामिनी और प्रकाश, दोनों में से किसी के मन में खोट है | यामिनी हालातों की मारी है | उसका पति सूरज अचानक अंधत्व का शिकार हो जाता है | सूरज का महकमा. साथी कर्मचारी, पड़ोसी सिर्फ़ दिखावे की सहानुभूति दिखाते हैं | ऐसे में कोई नि:स्वार्थ भाव से उनका साथ निभाता है, तो वह है – प्रकाश | प्रकाश ऐसा क्यों करता है, इस सन्दर्भ में प्रकाश का उत्तर है – 
करता हूँ, इसलिए करता हूँ | ” 
सूरज के साथ अपने संबंधों को वह यूँ दर्शाता है – 
ये सूरज हैं, मैं इनका प्रकाश हूँ | सूरज के साथ प्रकाश नहीं रहेगा तो और कौन रहेगा |
सूरज भी प्रकाश का साथ चाहता है, उसका इन्तजार करता है | सूरज को प्रकाश से कोई एतराज हो या यामिनी-प्रकाश को लेकर उसके मन में कोई संदेह हो, ऐसे कहीं नहीं दिखाया गया, ऐसे में इस अनाम रिश्ते में वासना की बू कहीं नहीं आती | यामिनी का जीवन वेदना के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है | प्रकाश उसे इस चक्रव्यूह से निकाल तो नहीं सकता, लेकिन वह उसकी वेदना में ख़ुशी के पल मिलाने का प्रयास जरूर करता है, हालांकि शंकालु समाज उनके रिश्ते पर प्रश्न चिह्न लगाता है, मगर प्रकाश को कोई परवाह नहीं | यामिनी भले कभी-कभी डरती है, लेकिन उसकी सोच भी यही है – 
व्यक्ति को स्वयं ठीक होना चाहिए | अगर वह ठीक है, तो उसे किसी की परवाह नहीं करनी चाहिए |
यही वो भावना है, जो अनाम रिश्तों को न सिर्फ पैदा करती है, बल्कि उसकी पवित्रता को भी बनाए रखती है | 
  यह कहानी यहाँ अनाम रिश्ते के महत्त्व को दिखाती है, वहीं समाज के इस रिश्ते के प्रति नज़रिये को भी ब्यान करती है | यामिनी पति के अंधत्व के कारण क़ुदरत की मार सह रही है | इस मुश्किल के समय एक दोस्त सहायता के लिए हाथ बढ़ाता है तो समाज फब्तियाँ कसता है | ये सभी बातें पीड़ादायक हैं | यामिनी वेदना के इसी चक्रव्यूह में फँसी हुई है | लेखक ने यामिनी के मन की उथुल-पुथल को बड़ी सुन्दरता से उकेरा है | इससे न सिर्फ़ यामिनी का चरित्र उद्घाटित होता है, अपितु कथानक में रोचकता भी आती है | यामिनी की सोच और यादें कथानक को गति देती हैं | ‘ लोग क्या कहेंगे ’ – जो हर वक्त इस बात को सोचते रहते हैं, वे जी नहीं पाते | जीने के लिए बेपरवाही ज़रूरी है, साथ ही ख़ुद का ठीक होना भी | यह कहानी इसी संदेश को सफलतापूर्वक प्रेषित करती है |  

सामाजिक रिश्ते  

रिश्तों की श्रृंखला में सामाजिक रिश्तों का भी अपना महत्त्व है | समाज में अनेक रिश्ते ऐसे होते हैं, जिनमें खून का संबंध नहीं होता है, लेकिन रिश्तों की सफलता-असफलता सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर काफी निर्भर करती है | कई बार लोग भावुक होकर रिश्ते बना तो लेते हैं, लेकिन पोखर और सागर का अंतर इनमें बाधा बनता है | ‘ पोखर देखे सागर को ’ कहानी में चिन्तन और एकता के संबंध में भी यही होता है | चिन्तन गरीब क्लर्क का बेटा है, जबकि एकता अमीर व्यापारी की बेटी है | दोनों पडोसी हैं | बचपन से ही एकता चिन्तन को भैया कहकर बुलाती है | वह उसे घर भी ले जाती है | एकता के पिता को चिन्तन पसंद नहीं, लेकिन माँ कोई एतराज नहीं जताती, इसी कारण एकता पिता के घर पर रहते हुए उसके साथ नहीं खेलती | चिन्तन पढ़ाई में होशियार है, इसलिए एकता की माँ उसे पढाई में एकता की मदद करने के लिए कहती है | बड़े होने पर भी यही प्रेम भाव चलता रहता है, लेकिन चिन्तन के मन में प्रश्न उठने शुरू हो गए हैं – 
अगर तुम मुझे अपना भाई मानती हो तो फिर अपने पापा के सामने मिलने से क्यों डरती हो ?
इसके बाद जब एकता यह प्रश्न पिता के सामने उठाती है, तो उसे चिन्तन से मिलने की छूट मिल जाती है | इंटर पास करते ही एकता की शादी तय कर दी जाती है | चिन्तन एकता की शादी में खूब काम करता है, लेकिन उसकी हैसियत सिर्फ नौकर जैसी है | शादी के बाद वह एकता और उसके पति को अपने घर भोजन करवाना चाहता है, लेकिन एकता का पति इंकार कर देता है | आर्थिक अंतर तब चिन्तन को अखरता है – 
गली में खड़े होकर उसने पहले एकता के महलनुमा घर को और फिर अपने किराए पर लिए हुए एक छोटे से कमरे को देखा था और महसूस किया था कि छोटा-सा कमरा इतनी बड़ी अट्टालिका का कभी भी मुकाबला नहीं कर सकता और तब उसे एकता के पति का उसके यहाँ भोजन न करने का कारण समझ में आ गया था |
इसके बाद नौकरी मिल जाने के कारण चिन्तन घर बदल लेता है | उसका विवाह भी हो जाता है | विवाह का कार्ड वह एकता को भेजता है, लेकिन एकता नहीं आती, सिर्फ बधाई संदेश आता है | एकता जब मायके आती है, तो वह चिन्तन और उसकी पत्नी को बुलाती है, लेकिन जिस प्रकार का स्वागत वहाँ होता है, वह चिन्तन को अखरता है | 
उसे लगा, जैसे उसकी हैसियत के अनुसार ही उसका स्वागत किया गया है | उसे इस बात की हैरानगी हुई थी कि इस तुच्छ स्वागत को लेकर एकता भी कुछ न बोली थी |
एकता शुरू-शुरू में मायके आते ही उसे बुलाती थी | धीरे-धीरे कुछ दिनों बाद बुलाने लगी | इस कहानी की शुरूआत हितेंद्र बाबू के नौकर के चिन्तन के घर ये संदेश लाने से होती है – 
एकता दीदी आई हुई है | आपको उन्होंने घर पर बुलाया है |
नौकर से पता चलता है कि एकता चार-पांच रोज पहले आई है | चिन्तन इसीलिए तुरंत न जाकर शाम को आने की बात करता है | इसके बाद फ्लैश बैक तकनीक के सहारे पुरानी कहानी कही जाती है | कहानी के अंत में कहानी उसी जगह लौट आती है | आज वह पूछना चाहता है कि उनके बीच आई दूरी का कारण क्या है ? जब वह एकता के घर जाता है, तो एकता बाहर जाने की तैयारी में है | वह साथ बैठकर चाय तो पीती है, लेकिन तुरंत बाद फिल्म देखने चली जाती है | चिन्तन जो पूछना चाहता था, वह पूछ नहीं पाया, लेकिन उसे उत्तर मिल गया है | यह कहानी चिन्तन और एकता के बीच स्नेह के बंधन को लेकर बुनी गई है, लेकिन सामाजिक और आर्थिक स्तर का अंतर दिनो-दिन उनके प्रेम पर हावी होता जाता है | हैसियत प्रेम का गला घोंट देती है | 
इस कहानी में लेखक ने अमीर और गरीब वर्ग का प्रतिनिधित्व करते दो परिवारों को दिखाया है | कोई भी वर्ग कितना भी बुरा क्यों न हो, उसके सभी लोग बुरे नहीं होते | एकता का झुकाव अगर बालपन का झुकाव या बालपन के दिनों में लिए फ़ैसले को निभाने का प्रयास मात्र मान लिया जाए, तो भी एकता की माँ अमीरों में गरीबों के प्रति नफ़रत न रखने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व करती है और इस बिंदु से यह कहानी विशेष है | एकता में भी अमीरी के अहंकार की बू नहीं आती, लेकिन वह एक स्त्री है और भारतीय समाज में स्त्रियों को पति के पीछे चलना पड़ता है | उसका पति गरीब चिंतन के घर नहीं जाता, संभवतः वह एकता को भी चितन से मेल-मिलाप रखने से रोकता हो, इस दृष्टि से एकता को दोषी ठहाराना भी उचित नहीं | एकता और चिन्तन दोनों परिस्थितियों के शिकार हैं | असमान परिस्थितियाँ प्रमी-प्रेमिका को ही नहीं, अपितु मुँह बोले भाई-बहन की निकटता भी नहीं स्वीकार करती | इस कहानी का शीर्षक प्रतीकात्मक है | पोखर और सागर का मिलन संभव नहीं | लेखक ने भारतीय समाज के इस कुरूप पहलू को बड़ी सुन्दरता से ब्यान किया है |   

दाम्पत्य संबंध 

प्रेम का अन्य रूप दिखाई देता है, पति-पत्नी में | पति-पत्नी जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं और यह गाड़ी तभी दौड़ सकती है, जब इसके दोनों पहियों में तालमेल हो, संतुलन हो और इस तालमेल के लिए प्रेम और विश्वास का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है | पति-पत्नी का प्रेम हालांकि प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम जैसा नहीं होता, रोज की उलझनों से उनमें किच-किच भी चलती रहती है, लेकिन प्रेम ही वो बंधन होता है जिससे वे बंधे होते हैं और जो दम्पति प्रेम की डोरी से बंधी नहीं होती, उसमें दोनों लोग देर-सवेर अलग-अलग रास्ते अपना लेते हैं | रूप देवगुण की कहानियों में दम्पतियों के प्रेम के कई चित्र मिलते हैं | ‘ आकाश ’ और ‘ फरमाइशें ’ इस दृष्टि से प्रमुख कहानियाँ हैं, हालांकि कथानक की दृष्टि से ये दोनों आपस में अलग-अलग हैं और इसीलिए ये दो अलग-अलग चित्र हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं |
  आकाश ’ एक पारम्परिक पति की कहानी है | भारतीय समाज में पति अपने आप को पत्नी से अधिक महत्त्वपूर्ण मानता है | पत्नी का कार्य घर की चारदीवारी की भीतर रहना है | पत्नी का नौकरीपेशा होना उसे स्वीकार नहीं और न ही वह घरेलू कामों में पत्नी की मदद को उचित समझता है | यह सोच अब भले धीरे-धीरे बदल रही है, लेकिन इस सोच का अंत हो गया हो, ऐसा भी नहीं है | रवि इसी प्रकार का पति है | उसकी पत्नी पढ़ी-लिखी है, लेकिन वह उससे नौकरी करवाना उचित नहीं समझता | उसकी यह सोच छह वर्ष तक बरकार रहती है और इसमें परिवर्तन होता है सुजीतकुमार की मित्रता से | सुजीत के घर की खुशहाली उसे अपनी सोच बदलने को कहती है | सुजीत के प्रयास से उसकी पत्नी नौकरी करने लगती है | रवि भले ही पत्नी के नौकरी करने को मान्यता दे देता है, लेकिन पुरुष घर के काम में औरत की मदद करेगा, यह बात उसे नहीं जंचती | उसकी सोच में घरेलू कार्य सिर्फ औरतों का काम है | 
  शशि ऑफिस का काम भी करती है और घर का भी | दो बच्चे हैं, जिनकी अपनी मांगें हैं | ऐसे में शशि का चिड़चिड़ा होना स्वाभाविक है – 
सुबह नाश्ते के समय प्राय: रवि और शशि की लड़ाई हो जाती | रवि बटिया परांठों का शौक़ीन था, किन्तु कई बार उसे सादी रोटी ही आचार के साथ खानी पड़ती थी |उस समय रवि तो अभी इतना ही कहता था कि यह क्या ले आई, सिर्फ रोटी, किन्तु उधर से शशि उबल पड़ती थी, ‘ मैं क्या करूं, सुबह पांच बजे से उठी हुई हूँ और भीकाम करने होते हैं | इतने ही परांठों के शौक़ीन हो तो उठकर गोभी रगड़ दी होती | रजाई में पड़े-पड़े हुक्म देते रहते हो | कभी थोड़ा-बहुत घर का काम कर दिया करो |’ ” 
शशि के चिड़चिड़े स्वभाव का खामियाजा उनके बच्चों मेघ और ज्योत्स्ना को भी भुगतना पड़ता है, लेकिन घर के इस हालात के पीछे प्रेम का अभाव हो, ऐसा नहीं है, बल्कि यह संस्कारों का परिणाम है | पुरुष होने का अहम् है, जो अनजाने ही रवि पर हावी है | शशि के काम का कहने पर उसका अहम् जाग जाता उठता है |
मुझसे यह गुलामी नहीं होती कि तुम्हारा कहना मानता फिरूं | ” 
रवि के व्यवहार का असर मेघ पर भी पड़ता है | शशि उसे कहा करती है – 
तू भी अपने पिता पर ही गया है |
रवि घर पर शांत माहौल चाहता है | ऐसे में नौकरानी उसे इसका हल दिखती है, क्योंकि उसी शहर में रहने वाली बहन के आने पर शशि का काम हल्का हो जाता है और वह उन दिनों खुश रहती है | ऐसे में नौकरानी रखकर माहौल को सुखमय बनाया जा सकता है, लेकिन शशि को यह स्वीकार नहीं – 
नौकरानियों से घर नहीं चला करते | फिर हम कौन-से अमीर आदमी हैं | मेरे आधे पैसे तो इधर ही चले जाएंगे | इससे अच्छा है कि मुझसे नौकरी ही न करवाओ |
रवि का नौकरानी रखने का सुझाव रवि के मन में शशि के प्रति प्रेम को ही दर्शाता है | वह शशि का बोझ हल्का करना चाहता है, मगर खुद करना उसे उचित नहीं लगता | 
  जैसे उसने पत्नी को छह वर्ष नौकरी नहीं करने दी, वैसे ही कई वर्षों तक वह उसकी मदद नहीं करता | आर्थिक ज़रूरतें ‘ औरतों को नौकरी नहीं करनी चाहिए ’ के संस्कार को बदल देती है, तो शशि के चिड़चिड़े स्वभाव के कारण घर में फैली अशांति ‘ पुरुषों को घर पर काम नहीं करना चाहिए ’ के संस्कार को बदल देती है | 
  रवि का अपने संस्कारों से ऊपर उठना बड़ी बात है, क्योंकि अक्सर लोग उम्र भर ऐसा नहीं कर पाते | रवि कर पाता है, इसके पीछे शशि के प्रति प्रेम है | रुकावट सिर्फ अहम् की थी और जैसे ही अहम् गिरता है, प्रेम विराजमान हो जाता है | लेखक ने कहानी का अंत प्रतीकात्मक ढंग से किया है –
उसी समय सामने वाली पुरानी हवेली के एक टूटे हुए रोशनदान में से कबूतर, कबूतरी का एक जोड़ा अपने पंख फड़फड़ाकर उड़ गया और आकाश में बहुत दूर तक साथ-साथ उड़ता रहा | वे दोनों उनको तब तक देखते रहे, जब तक वे आँखों से ओझल न हो गए |” 
लेखक इस दृश्य के माध्यम से संदेश देता है कि प्रेम ही वो तत्त्व है, जिससे आकाश को छुआ जा सकता है |
  दम्पति के संबंधों को दिखाती एक अन्य कहानी है – ‘ फरमाइशें ’ | प्रो. शुक्ला और नीति विरोधाभासी स्वभाव के हैं | शुक्ला जीवन को भरपूर जीने में विश्वास रखते हैं, जबकि नीति की सोच ऐसी नहीं | उसे अपने पति से अनेक शिकायतें हैं | नीति प्राइवेट स्कूल में नौकरों करती है | प्रो. साहब को काफी छुट्टियां मिलती हैं और जिस दिन जाना होता है, उस दिन भी तीन-चार घंटे | नीति जब तक स्कूल में रहती है, तब तक खुश रहती है | घर आते ही उसकी परेशानियां बढ़ जाती हैं | शुक्ला साहब उससे चिपके रहते हैं, जो उसे पसंद नहीं | शुक्ला का अलार्म लगाना उसे पसंद नहीं, क्योंकि वह देर तक सोना चाहती है | मि. शुक्ला की फरमाइशें उसे परेशान करती हैं | खाने की आदतों को लेकर दोनों विरोधाभासी हैं – 
मैं कहती हूँ, ‘ आदमी को जो मिले, खा लेना चाहिए | नखरे नहीं करने चाहिए |’ उनका विचार है, मनमर्जी से खाना ही तो खाना है | हम कोई पशु थोड़े ही हैं जो चारा सामने फैंका जाए, उसे निगल लें | यही तो पशु और इंसान में अंतर है | ” 
शुक्ला का रसोई में आना भी नीति को पसंद नहीं – 
आप बाहर जाइएगा ! मर्दों का रसोई से क्या काम ? मैं काम करते थकती हूँ या नहीं, कम से कम आपके बोर भाषणों से थक जाती हूँ |
शुक्ला साहब को खबरें पढ़कर सुनाने में आनन्द मिलता है, जो नीति को पसंद नहीं | नीति को देर रात तक नॉवल पढ़ने का शौक है, जो शुक्ला को पसंद नहीं –
सो जाओ यार ! क्या नॉवल पढ़ती रहती हो | आदमी को सुबह जल्दी उठना चाहिए |
रविवार के दिन शुक्ला का अपने दोस्तों को बुलाना नीति को पसंद नहीं, क्योंकि 
छुट्टी कौन-सी रोज-रोज आती है | कम-से-कम उस दिन तो आराम करना ही चाहिए | ”  
शुक्ला खर्चीले स्वभाव का है | वेतन मिलते ही वह उसे बाज़ार लेकर जाता है, खूब खरीददारी करवाता है, अपने लिए भी खरीदता है | गर्मियों में पहाड़ पर घूमने जाता है, जबकि नीति बचत की पक्षधर है | वह कहती है - 
फिजूलखर्ची की यह आदत मुझे अच्छी नहीं लगती |
दोनों के विरोधाभासी विचारों को यूँ दिखाया गया है – 
मैं इन्हें कई बार कह चुकी हूँ, ‘ कुछ पैसे जोड़ लो, भविष्य में काम आएगा |’ हर बार इनका एक ही उत्तर होता है, ‘ऊपर वाला दे रहा है, खाओ पियो मौज करो | भविष्य किसने देखा है ? वर्तमान ही सब कुछ है |’
पति की आदतों से तंग होकर वह भगवान से प्रार्थना करती है कि इनका तबादला हो जाए और यह प्रार्थना सुन ली जाती है | इसके बाद शुक्ला के व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है | वह गम-सुम-सा हो जाता है | फरमाइशें बंद हो जाती हैं और आखिर जाने की घड़ी भी आ जाती है | पति के जाने के बाद नीति को अब पति की अहमियत का अहसास होता है – 
उस शाम को ज्यों ही मैं रसोईघर में गई तो न जाने क्यों, मैं जोर-जोर से रो उठी | किसके लिए भोजन बनाऊं, जब कोई खाने वाला ही नहीं, जब कोई कुछ कहने वाला ही नहीं, जब कोई सराहना या निंदा करने वाला ही नहीं | पता नहीं क्यों, उस समय मेरे भीतर एक प्रश्न उभर उठा था, ‘ क्या कभी पत्नी अपने लिए रोटी बनाती है ?’ ‘ नहीं वह हमेशा अपने पति, अपने परिवार के लिए खाना बनाती है |’
और ऐसी दशा में वह कह उठती है – 
लौट आओ, प्रोफेसर शुक्ला !
नीति शनिवार तक बस वक्त काटती है | उनके आने का बेसब्री से इन्तजार करती है और आने पर कह उठती है -
देखो मैं आपकी हर फरमाइश पूरी करूँगी और कभी नहीं कहूँगी कि आपकी ट्रांसफर हो जाए | आप लौट आओ | आप आ जाओ | मैं आपके बगैर नहीं रह सकती |
डिम लाईट में शुक्ला भी सुबक पड़ते हैं | दूरी उस प्रेम को उभार देती है, जो मौजूद तो था लेकिन जिसका अहसास उन्हें नहीं था | दाम्पत्य संबंधों में अक्सर ऐसा ही होता है | ऐसे मौके न आने पर लगता है जैसे पति-पत्नी में कोई प्यार नहीं और वे जीवन को बस घसीट रहे हैं | जीवन में ऐसे मौक़ा का आना बेहद जरूरी है | लेखक की ये दोनों कहानियाँ पति-पत्नी में छुपे प्यार को उद्घाटित करती हैं | 
  दाम्पत्य संबंधों की इन दोनों कहानियों में प्रेम उद्घाटन का तरीका अलग-अलग है | एक में अहम् रुकावट है, तो दूसरे में पत्नी को पति की जीवन-शैली पसंद नहीं | दोनों कहानियों में पहले उस पक्ष को उभारा गया है, जिससे पति-पत्नी में प्रेम का झरना फूटने से रुक रहा है | रवि में पति होने का अहम् है, और उसका अहम् उसके क्रिया-कलापों में झलकता है, जिससे शशि दुखी होती है | प्रो. शुक्ल का खर्चीला होना, मिलनसार होना नीति को पसंद नहीं | घर में होती किच-किच रवि को बदलने के लिए प्रेरित करती है और प्रो. शुक्ल का तबादला नीति को झकझोरता है | लेखक ने कथानक में मोड़ लाकर कथानक को चरम तक पहुँचाया है | विपरीत परिस्थितियों से पात्रों के चरित्र और अधिक उभरे हैं | ‘ आदमी का स्वभाव बदल सकता है ’ लेखक इस मत में विश्वास रखता है | कहानियों में पात्रों के स्वभाव को बदली हुई परिस्थितियों के द्वारा बदला जाता है, लेकिन यह बदलाव बनावटी न होकर बड़ा स्वाभाविक है | चरित्र-चित्रण की दृष्टि से ये दोनों कहानियाँ महत्त्वपूर्ण हैं | साथ ही ये सफल दाम्पत्य का सूत्र भी प्रदान करती हैं |

अन्य पारिवारिक संबंध

परिवार में पति-पत्नी के अतिरिक्त माँ-बाप का सन्तान से संबंध, भाई-बहन, सास-बहू आदि अनेक रिश्ते होते हैं | इन रिश्तों में भी प्रेम की धाराएं बहती हैं | ‘ अनचाहे ’, ‘ कुल्फी वाला ’, ‘ गोद ’ इन्हीं संबंधों में पाए जाने वाले प्रेम को दिखाती हुई कहानियाँ हैं | 
                        ‘ अनचाहे ’ महानगरीय जीवन में एक छत के नीचे रह रहे परिवार के लोगों के एक-दूसरे से न मिल पाने की व्यथा को प्रकट करती कहानी है | इस परिवार में तीन सदस्य हैं – इला, हितेश और स्वाती | स्वाती हितेश की बहन है और इला पत्नी | हितेश और इला नौकरी करते हैं जबकि स्वाती घर पर रहती है | इस कहानी में भी पति-पत्नी हैं, लेकिन यह उनके दाम्पत्य जीवन की कहानी नहीं | हितेश सुबह दस बजे निकल जाता है और रात को ग्यारह बजे लौटता है | स्वाती सुबह सात बजे निकल जाती है और शाम को छह बजे लौटती है | भाई-बहन का मेल नहीं हो पता है | स्वाती कहती है – 
भाभी, हमारी भी क्या जिंदगी है | हम भाई-बहन आज सात दिन के बाद मिलने जा रहे हैं | जब मैं जाती हूँ तो ये सोए होते हैं और जब ये आते हैं तो मुझे नींद आ जाती है | एक ही छत के नीचे रहने वाले हम दोनों बातचीत करने के लिए कितना तरस जाते हैं | ऐसा लगता है कि जैसे हम बेजान खिलौने हैं | कोई हममें चाबी भर देता है और हम अनचाहे इधर-उधर घूमने पर विवश हो जाते हैं | ”    
इला भी इसी संताप को झेलती है – 
ऐसे भीड़-भडक्के वाले महानगर बम्बई में रहते हुए भी वह अपने आपको बहुत अकेला महसूस करती थी | वह सारा दिन कमरे में बंद रहती थी | इतने अधिक पड़ोसी होते हुए भी कोई किसी को पूछने वाला नहीं था | हर घर के दरवाजे बंद रहते थे | ”  
परिवार के तीनों सदस्य परिस्थितियों के आगे विवश हैं, लेकिन प्रेम का धागा उन्हें बांधे हुए है | इस प्रेम का प्रदर्शन प्रत्यक्ष रूप से कहानी में नहीं, लेकिन इसे सर्वत्र देखा जा सकता है-
इला ने चाय पीते-पीते एक मैगजीन को ले उसके पन्ने उलटने आरंभ कर दिए | स्वाती ने उससे मैगजीन छीनते हुए कहा, ‘ भाभी, कम से कम आज तो मैगजीन न पढ़ो | कुछ इधर-उधर की बातें सुनाओ |’ ” 
यह दृश्य ननद-भाभी के प्रेम को ही दिखाता है | इससे पूर्व जब सुबह इला उठती है तो वह अपनी ननद और पति को जगाना नहीं चाहती, क्योंकि आज ही उन्हें फुर्सत है, ऐसे में उन्हें जी भर सो लेना चाहिए, लेकिन भीतर से वह चाहती है कि वे उठें, उससे बातें करें और जब स्वाती की आवाज उसे सुनाई देती है तो उसके भीतर ख़ुशी की लहर उमड़ पड़ती है | ननद के जागने पर होने वाली ख़ुशी उन दोनों के बीच के प्रेम को ही दर्शाती है |
  इला घर में दिन भर अकेली रहती है और ऐसे में उसकी मानसिक दशा कैसी होगी स्वाती इससे भली-भांति परिचित है | दूसरे के दुःख को समझना प्रेम की निशानी है | स्वाती हितेश को झकझोरकर उठाती है | दोनों भाई-बहन गप्पें मारते हैं | इला उन दोनों की पसंद के प्याज के पकोड़े तल कर लाती है | दूसरे के पसंद का ख्याल रखना भी प्रेम को ही प्रदर्शित करता है |
  हितेश को आज भी सेठ के यहाँ जाना है, लेकिन वह इला से वायदा करता है कि वह चार बजे तक लौट आएगा और उसे चौपाटी पर ले जाएगा, लेकिन वह अपने वायदे की रक्षा नहीं कर पाता | इसका कारण प्रेम का अभाव नहीं अपितु विवशता है | यह विवशता महानगर की देन है | इस विवशता के कारण भले ही वे तीनों एक-साथ बैठकर हंसते-खेलते जीवन नहीं जी पाते, लेकिन वे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, उनमें लगाव है, प्रेम है | इस कहानी का अंत इला की उदासी से होता है | महानगरीय जीवन उसे उदास करता है, लेकिन यह उदासी प्रेम के झरने को सुखा नहीं पाती | लेखक ने इस कहानी के माध्यम से यहाँ परिवार की विवशता को दिखाया है, वहीं यह भी बताया है कि अगर प्रेम है तो विवशता के बावजूद विश्वास बना रहता है | रिश्ते बरकरार रहते हैं |  
पारिवारिक रिश्तों में सबसे महत्त्वपूर्ण रिश्ता है, माँ-बेटे का | इस रिश्ते को दिखाती कहानी है – ‘ कुल्फी वाला ’ | यह कुल्फी वाला लड़का है – दलीप | वह चपड़ासी का बेटा है | पढने में होशियार है, लेकिन दुर्भाग्य की मार उस पर पड़ती है | एक्सीडैंट में पिता की मृत्यु हो जाती है | घर कैसे चलेगा, यह यक्ष प्रश्न सामने प्रस्तुत हो जाता है | पिता जी जी जिस ऑफिसर के अधीन कार्य करते थे, उसकी पत्नी दलीप की माँ से कहती है – 
देखो ! पेंशन से तुम्हारा कुछ नहीं बनेगा | यह क्वार्टर भी तुम्हें छोड़ना पड़ेगा | तुम मेरी मानो, मेरे घर बर्तन मांजने का काम करना शुरू कर दो | मैं कुछ और घरों में भी तुम्हें काम दिलवा दूँगी | ”  
दलीप को अपने पिता की बात याद आ जाती है –
औरत का घर में ही रहना अच्छा है | मर्द का काम है कमाना, घर में पैसे लाना |” 
अब घर का बड़ा मर्द दलीप है और वह इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए तैयार है, लेकिन एक माँ कैसे इसे स्वीकार कर सकती है, इसलिए वह खुद काम करने को तैयार है – 
नहीं बेटे ! मैं बर्तन मांज लूंगी किन्तु तेरी नन्ही-सी जान को मैं तकलीफ नहीं होने दूँगी | तुम्हारे दिन खाने-पीने, पढ़ने-खेलने के हैं, काम करने के नहीं |
लेकिन स्वाभिमानी दलीप को यह मंजूर नहीं | वह एक तरफ कुल्फियां बेचना शुरू करता है, तो दूसरी तरफ सांध्य कॉलेज में दाखिला लेकर अपनी पढ़ाई भी जारी रखता है | 
  यह कहानी यहाँ कर्म के महत्त्व पर प्रकाश डालती है, वहीं बेटे के त्याग को भी दर्शाती है | माँ तो माँ होती है | मुनव्वर राणा के शब्दों में - 
लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती 
बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती |
  माँ इसी लिए अनमोल है, वह बेटों के लिए सदा दुआएं ही करती है | माँ का महत्त्व उसके लिए और बढ़ जाता है, जिसके सिर से माँ का साया उठ जाता है | जिसने माँ को होश संभालने से पहले ही खो दिया हो, वो तो सदा तडपता है माँ के लिए | ‘ गोद ’ कहानी का नायक भी ऐसा ही अभागा है | माँ का प्यार उसे नहीं मिलता | उसने तो माँ की शक्ल भी नहीं देखी, इसलिए उसे अपने पिता पर खीज आती है कि वे कम-से-कम माँ का एक चित्र तो खिंचवा सकते थे | जिस समय माँ की मृत्यु होती है उस समय पिता जी की उम्र 35 वर्ष थी | वे सिर्फ इसलिए दूसरी शादी नहीं करते, क्योंकि वे अपने सुखों के लिए बेटे के सुखों को बलि नहीं दे सकते | नायक को उसकी दादी और पिता पालते हैं, लेकिन नायक को लगता है – 
माँ की बराबरी कोई नहीं कर सकता, न पिता जी कर सकते है, न दादी | माँ तो माँ है | उसके अभाव को कोई अन्य पूरा नहीं कर सकता | ” 
हालांकि यह कहानी दादी-पौत्र के प्यार की कहानी है, लेकिन माँ को लेकर नायक बार-बार सोचता है | दादी को अपने अन्य बेटों के पास भी जाना होता है | उसे यह बात अखरती है, लेकिन जब उसे इसका कारण पता चलता है तो उसे समझ आती है – 
माँ सबके लिए एक जैसी होती है | हरेक के दुःख-दर्द को समझती है | ” 
वह दादी की गोद में सिर रखकर सोता था | दादी उसके सिर पर हाथ फेरकर दुआएं देती थी, उस दृश्य को लेकर वह सोचता है – 
आज मैं सोचता हूँ कि अगर मैं माँ की गोद में सोता तो क्या वहाँ भी इतना ही आनन्द आता | इस प्रश्न का उत्तर मैं अब तक अपने आप से नहीं पा सका हूँ | वैसे भी जब माँ का प्यार ही नहीं मिला तो फिर दोनों की तुलना मैं कैसे कर सकता हूँ |
उसे यह लगता है कि दादी का प्यार माँ के प्यार की बराबरी नहीं कर सकता, फिर भी वह सोचता है – 
दादी भी तो किसी की माँ है |
उसके एक चाचा के विवाह के बाद दादी ज्यादा समय उसके पास रहने लगी है | नायक अब रोटी पकाना सीख गया है | दादी को कम दिखाई देता है, इसलिए उससे रोटी जल जाती है | नायक कहता है कि वह खुद रोटी पका लेगा, लेकिन दादी को यह स्वीकार नहीं – 
जब तुम्हारा विवाह होगा तो मैं अपने आप ही यह काम छोड़ दूँगी | उस समय तुम मेरी सेवा करना | अभी वक्त नहीं | ” 
नायक का विवाह हो जाता है | दादी बहुत बूढी हो गई है | उसको लकवा हो जाता है | अंतिम सांस वह पौत्र की गोद में लेना चाहती है –
‘ बेटा जरा मुझे अपना सिर तुम्हारी गोद में रख लेने दो |’ मैंने वैसे ही किया | उसका सिर अपनी गोद में रख लिया | पत्नी चाय बनाकर ले आई | मैंने कहा, ‘ दादी चाय पी लो ! गर्म-गर्म है |’ उधर से कोई उत्तर न पाकर मैंने जो उनको हिलाया तो देखा कि वह हमें छोड़कर जा चुकी थी | उस समय न जाने क्यों, मुझे रोना नहीं आया | बस बार-बार मेरे मन में यही प्रश्न उठते रहे कि बच्चों को तो गोद की आवश्यकता होती है, पर क्या दादी जैसे बुजुर्ग भी उसे पाने के लिए उतने ही इच्छुक होते हैं ? क्या इनको भी मेरी गोद में सिर रखकर उतना ही सुकून मिला होगा जितना मुझे उसकी गोद में रखकर मिला करता था | ”  
लेखक ने इस कहानी में दादी-पौत्र के प्यार को तो दर्शाया ही है, यह भी दिखाया है कि बुढ़ापे में बुजुर्ग भी प्यार के आकांक्षी होते हैं और यह प्यार उन्हें मिलना ही चाहिए क्योंकि यह उनका हक है | 
  पारिवारिक संबंधों पर आधारित इन तीनों कहानियों में लेखक ने चरित्र-चित्रण के बल पर कथानक को गति दी है | ‘ अनचाहे ’ के तीनों पात्र महानगरीय जीवन की चक्की में पिस रहे हैं और महंगाई के दौर में इससे छुटकारा संभव नहीं, लेकिन ये तीनों पात्र एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हैं, यही समझ परिवार को परिवार बनाती है | परिस्थितियाँ खलनायक की भूमिका निभाती हैं, अंत भी सुखद नहीं, लेकिन प्यार का बना रहना, दूसरों की मजबूरी के गलत अर्थ न निकालना इस कहानी की विशेषता है, जो परिस्थितियों रूपी खलनायक को जीतने नहीं देती | ‘ कुल्फी वाला ’ स्वाभिमानी बेटे के चरित्र को उभारती हुई कहानी है, साथ ही यह कर्म के महत्त्व को स्थापित करती है | ‘ गोद ’ में माँ की कमी पर बेटा किस-किस प्रकार से सोचता है, उसे दिखाया गया है | पिता का बलिदान, दादी का प्यार भी माँ की कमी को पूरा नहीं कर पाता, क्योंकि माँ तो माँ होती है, लेकिन माँ के महत्त्व के साथ-साथ यह कहानी दादी-पौत्र के संबंधों पर भी आधारित है | ये तीनों कहानियों रिश्तों के उजले पक्ष का वर्णन करने में सफल रहती हैं |   

दिलबागसिंह विर्क 

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

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