प्रेम के अनेक रूप हैं, लेकिन प्रेम शब्द आते ही हमारे ध्यान में प्रेमी-प्रेमिका का चित्र उभरता है | प्रेम के अन्य रूप इस विशुद्ध रूप से उसी प्रकार भिन्न हैं, जैसे भक्ति और वात्सल्य, श्रृंगार रस का अंग होते हुए भी इससे अलग हैं | यह विशुद्ध प्रेम सिर्फ़ अपने प्रियतम को देखता है | दुनिया की उसे कोई परवाह नहीं होती | ऐसा एकनिष्ठ प्रेम बहुधा समाज को स्वीकार नहीं होता, जिससे ऐसे प्रेम में दुःख मिलते हैं | लेखक इन दुखों को देखकर ऐसे प्रेम के बारे में सोचता है, जिसमें व्यक्तिगत प्रेम की भावना न हो |
‘ सबके लिए ’ कहानी इसी ताने-बाने को लेकर बुनी गई है | इस कहानी का मूल विषय सबके लिए प्रेम और एक के लिए प्रेम का तुलनात्मक अध्ययन है, लेखक सबके लिए प्रेम को एक से प्रेम से श्रेष्ठ सिद्ध करता है | लेखक प्रेम के उस उदात्त रूप का वर्णन करता है, जो झरने की तरह निरंतर बहता रहता है | सामान्यत: प्रेम के इस रूप को जीवन-दर्शन बनाना आम व्यक्ति के लिए संभव नहीं | हाँ, सिद्ध पुरुष इसे अपनाते हैं | क्योंकि सिद्ध पुरुष भी आदमी ही होते हैं, ऐसे में ऐसे प्रेम की झलक सामान्य आदमी में भी दिख जाती है, या यह कहें कि प्रेम का यह उदात्त रूप कभी-कभी हर आदमी में झलकता है, लेकिन यह स्थायी नहीं होता है | आम आदमी के प्रेम के बारे में तो यही कहा जाता है कि प्रेम एक से होता है, एक बार होता है | कोई भी प्रेमी अपने प्रेम में किसी दूसरे के प्रवेश को स्वीकार नहीं करता है |
प्रेम का यह सामान्य रूप कितना भी सात्विक क्यों न हो, वह आकर्षण पर आधारित होता है | दूसरे पर निर्भर होने के कारण ही इस प्रेम में दुःख मिलते हैं, जबकि प्रेम का उदात्त रूप स्वयं पर निर्भर होने के कारण सदैव सुखदायी होता है | ‘ सबके लिए ’ कहानी में दो पात्र – प्रेम और तरुण – प्रेम करते हैं | तरुण का प्रेम, प्रेम का उदात्त रूप है, जबकि प्रेम का प्रेम एकनिष्ठ है | दोनों एम. ए. के विद्यार्थी हैं | भाषण प्रतियोगिताओं में भाग लेने अलग-अलग जगहों पर जाते हैं और उनके साथ जाती हैं – सुनयना और सरिता | प्रेम सुनयना के प्रति आकर्षित है | तरुण प्रेम और सुनयना को करीब लाने में मदद करता है | यहाँ वह सुनयना के दिल में प्रेम के प्रति प्रेम जगाता है, वहीं सरिता को खुद के प्रति सिर्फ दोस्ती का भाव जगाने के लिए कहता है | दोस्ती की मांग बताती है कि तरुण के दिल में प्यार के अंकुर हैं, लेकिन वह इस अंकुर को सबके लिए प्रेम के रूप में विकसित करना चाहता है | वह एकनिष्ठ प्रेम का समर्थक नहीं | अपने स्वभाव से वह इस ओर इशारा करता है –
“ मेरी आदत है कि मैं लड़कियों को ज्यादा महत्त्व नहीं देता | ठीक है, अगर वे बात करती हैं तो अच्छी बात है | अगर नहीं करना चाहतीं तो लाख न करें | न मैं उनसे नफ़रत करता हूँ और न ही बहुत प्यार |”
बहुत प्यार करना ही एकनिष्ठ प्यार है, क्योंकि ऐसे में ही कोई आशिक पागल-सा हो जाता है | नफ़रत न करना और प्यार का भाव रखना प्रेम का उदात्त रूप है | तरुण में यही भाव है, इसके विपरीत प्रेम सुनयना को एकनिष्ठ प्रेम करता है, उसका नाम जपता है | प्रेमी अक्सर नैनों से ही बातें करते हैं | बिहारी भी लिखते हैं –
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात
भरै भौन मैं करत है, नैनहु ही सब बात |
लेखक ने इसका बड़ा सजीव वर्णन किया है –
“ वह मुझे देखती रही और मैं उसे देखता रहा, बस इससे परे भी कुछ रह जाता है क्या ? ”
एकनिष्ठ प्रेम में पड़े लोगों की दशा किसी से छुपती नहीं | रहीम ने इसके बारे में लिखा है –
खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान
रहिमन दाबे ना दबै, जानत सकल जहान |
प्रेम और सुनयना पर भी प्रेम का जादू सिर चढ़कर बोलता है | दीवानगी की इसी दशा के कारण उनकी भाषण कला गायब हो गई है –
“ वे बीच-बीच में कुछ भूल भी जाते थे | लगता था कि वे जीवन की असली पटरी से उतर गए हैं, कुछ लड़खड़ा रहे हैं | ”
ग़ालिब ने इश्क़ के बारे में लिखा है –
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के |
यह प्रेम, प्रेम को भी निकम्मा कर रहा है | प्रेम की दशा –
“ फिर वही कमरा | वही मैं | कमरा वैसा का वैसा था | मुझमें भी कोई परिवर्तन नहीं आया था, पर प्रेम प्रेम-रस में डूबकर एक नया रंग पा चुका था | वह अब बोलता बहुत कम था, सोचता अधिक था | मैंने सोचा कि प्रेम जी महाराज अब इस लोक के निकम्मे प्राणी बनते जा रहे हैं | ”
ऐसे प्रेमी अपने प्रियतम के बिना एक पल भी नहीं गुजार सकते | प्रेम की दशा भी ऐसी ही है | वह अब सुनयना का था और इधर-उधर लाश बनकर घूमता है | प्रेम स्वीकार करता है –
“ मुझे क्या हो गया है, मैं स्वयं नहीं जानता किन्तु तरुण, मैं सुनयना के बगैर एक क्षण भी नहीं रह सकता | ”
तरुण अपने दोस्त को उसका प्यार हासिल करवाने के लिए प्रयास करता है, लेकिन सुनयना के पिता को यह संबंध मंजूर नहीं | इसका परिणाम वही होता है, जो आमतौर पर प्रेम में हारे प्रेमियों का होता है –
“ तब मैंने देखा प्रेम की ओर, जो छूटे शहर की ओर देखता जा रहा था | उसकी आँखें भर आई थीं | शहर पीछे हट गया था | खेत आ गए थे, किन्तु वह अब भीउधर ही नजरें किए हुए था, जैसे उसे अब भी लग रहा हो कि सुनयना दौड़ती हुई अवश्य आएगी | ”
प्रेम की यह दशा हँसमुख तरुण को भी परेशान करती है | तरुण की यह परेशानी उस समय दुःख में बदल जाती है, जब वह चाय लेने जाता है, पीछे से गाड़ी से चल पड़ती है | वह किसी और डिब्बे में चढ़ जाता है, लेकिन थोड़ी दूरी पर जब गाडी रुकती है तो पाता है कि प्रेम गाड़ी के नीचे आकर अपनी जान दे चुका है | इस कहानी में प्रेम के विशुद्ध रूप का स्वाभाविक चित्रण है, लेकिन इसका अंत इस कहानी को तुलनात्मक रूप देता है | कहानी के अंत में तरुण सोचता है –
“ प्रेम रुकने के लिए क्यों, बढ़ने के लिए क्यों न हो | प्रेम जलने के लिए क्यों, बढ़ने-फूलने के लिए क्यों न हो ? प्रेम रूक्षता के लिए क्यों, ताजगी के लिए क्यों न हो | प्रेम मृत्यु के लिए क्यों, जीवन के लिए क्यों न हो | ”
तरुण निष्कर्ष पर पहुंचता है कि प्रेम का उदात रूप ही श्रेष्ठ है | किसी भी लेखक के लिए एकनिष्ठ प्रेम का चित्रण आसान है, बजाए कि प्रेम के उदात्त रूप के, लेकिन रूप देवगुण जी इसमें भी सफल रहते हैं | तरुण के व्यवहार, उसकी सोच से लेखक यह चित्रण करने में सफल होता है | विशुद्ध प्रेम को भी उन्होंने प्रेम और सुनयना के माध्यम से शानदार तरीके से उभारा है | प्रेम की अभिव्यक्ति को लेकर प्रेम की झिझक और प्रेम का गुप-चुप तरीके से इजहार कथानक को रोचकता प्रदान करता है | सुनयना के पिता का इंकार कथानक को शिखर की और लेकर जाता है | कहानी का दुखांत स्वाभाविक बन पड़ा है | कथानक को गति देने के लिए तरुण का पात्र बेहद महत्त्वपूर्ण है | कॉलेज जीवन के प्यार और हालातों का चित्रण करने में भी लेखक सफल रहा है | लेखक सात्विक प्रेम के महत्त्व को स्थापित करने के अपने उद्देश्य में सफल रहता है, लेकिन यह उद्देश्य थोपा हुआ न होकर सहजता से आया है | प्रेम की मृत्यु खुद पाठक को वही सोचने के लिए विवश करती है, जिन शब्दों से इस कहानी का अंत होता है |
( क्रमश: )
दिलबागसिंह विर्क
1 टिप्पणी:
आकर्षक प्रेमांश ।
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