कहानी का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना मानवीय जीवन, क्योंकि कहानी मानवीय स्वभाव का हिस्सा है | हर आदमी किसी-न-किसी रूप में कहानी सुनता और सुनाता है | जीवन की हर घटना कहानी का विषय बनती है, ऐसे में प्रेम, जो जीवन का अहम् हिस्सा है, कहानियों से अलग कैसे रह सकता है | प्रेम क्या है ?, इसके बारे में सबका अपना-अपना नज़रिया है | प्रेम के समर्थन में बड़े-बड़े दावे भी किए जाते हैं, और प्रेम को लेकर ही तलवारें भी खिंचती हैं, ऑनर किलिंग होती है | इसके संकुचित और विस्तृत अर्थ समाज में सदा से साथ-साथ व्याप्त रहे हैं | प्रेम को भले किन्हीं भी अर्थों में व्यक्त किया जाए, प्रेम के बारे में यह निश्चित है कि इसके बिना समाज का निर्माण हो ही नहीं सकता; मानव समाज ही नहीं, पशुओं के दल भी इसी भाव पर एकत्र रहते हैं | आखिर ऐसा क्या है प्रेम में ? क्या यह एक-दूसरे की ज़रूरतों की पूर्ति का माध्यम है ?
यूँ तो ज़रूरतों ने ही रिश्तों का निर्माण किया होगा और रिश्तों का आपसी जुड़ाव प्रेम कहलाया होगा, लेकिन प्रेम इससे कहीं अधिक है | यूँ भी कहा जा सकता है कि ज़रूरतों पर आधारित प्रेम, प्रेम का कुरूप पक्ष है, उजला पक्ष नहीं | कबीर ने प्रेम मार्ग की बड़ी सुंदर परिभाषा दी है –
प्रेम गली अति साँकरी, ता मैं दो न समाहिं
प्रेम समर्पण का दूसरा नाम है | जब तक तू और मैं का भेद विद्यमान है, प्रेम संभव नहीं | प्रेम की गली में तू और मैं एकाकार होकर ही निकल सकते हैं | कबीर की यह उक्ति भले ही आत्मा-परमात्मा के संदर्भ में है, लेकिन जीवन में भी ऐसा ही होता है | जब भी मैं यानी अहम् को छोड़कर दूसरे को महत्त्व दिया जाता है, दूसरे को अपना ही हिस्सा माना जाता है, तभी प्रेम घटित होता है | यह प्रेम हर रिश्ते में संभव है, उन रिश्तों में भी जिन्हें समाज कोई नाम नहीं दे पाता | प्रेम की बस एक ही शर्त है – समर्पण |
प्रेम की शुरूआत आकर्षण से होती है | जब यह आकर्षण विपरीत लिंगियों में होता है, तो इसे वासना या कामवासना कहा जाता है | ओशो प्रेम की उत्पत्ति इसी कामवासना से मानते हैं –
“ कामवासना से जन्म होता है प्रेम का, लेकिन कामवासना पर कोई रुक जाए तो प्रेम का कभी जन्म न होगा | कीचड़ से जन्म होना है कमल का, लेकिन कीचड़ कीचड़ भी रह सकती है, कोई मजबूरी नहीं कि कमल हो |”
साधारण जीवन का प्रेम सामान्यत: कमल नहीं बन पाता, क्योंकि प्रेम में मांग का कोई स्थान नहीं, प्रेम में प्रेमी से कोई अपेक्षा नहीं की जाती | साधारण जन प्रेम तो कर लेते हैं, लेकिन अपेक्षा की आदत से छुटकारा नहीं पा सकते, इसलिए लौकिक प्रेम दुःख देता है | ओशो कहते हैं –
“ तुम्हारा प्रेम तो अहंकार की सजावट है | तुम प्रेम में दूसरे को वस्तु बना डालते हो | तुम्हारे प्रेम की चेष्टा में दूसरे की मालकियत है | तुम चाहते हो, तुम जिसे प्रेम करो, वह तुम्हारी मुट्ठी में बंद हो, तुम मालिक हो जाओ | दूसरा भी यही चाहता है | तुम्हारे प्रेम में प्रेम के नाम पर मालकियत का संघर्ष चलता है |”
यह मालकियत का संघर्ष दुःख देता है | प्रेम का वासना तक रुक जाना प्रेम को अपवित्र करता है, कलंकित करता है | प्रेम से दुःख मिले या सुख, प्रेम पवित्र रहे या अपवित्र, इसका अस्तित्व मिट नहीं सकता | यह माँ-बाप, भाई-बहन, दोस्त से प्रेम, प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम, जीव-जन्तुओं से प्रेम, राष्ट्र से प्रेम, मातृभूमि से प्रेम, लौकिक प्रेम, अलौकिक प्रेम आदि अनेक रूपों में आमरण मनुष्य के साथ रहता है, और जब भी साहित्य का सृजन होता है, यह उसमें अनिवार्यत: शामिल होता है | ( क्रमश: )
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1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर।
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