BE PROUD TO BE AN INDIAN

बुधवार, जून 10, 2020

साहित्य में अपनी खनक छोड़ती शायरी

पुस्तक - आज के प्रसिद्ध शायर अमीर कज़लबाश
संपादक - कन्हैयालाल नन्दन
प्रकाशक - राजपाल
पृष्ठ - 160
कीमत - ₹150/-
"क्या किसी दौर में ऐसा भी हुआ है यारो
आईना देख के हर शख्स डरा है यारो।"
आईना सच को सच कहता है और इसलिए आज का दौर आईने से, आईना दिखानेवालों से डरता है। शायर से बढ़कर आईना दिखानेवाला कौन होगा। अमीर कज़लबाश ऐसा ही शायर है, जिसकी शायरी के केंद्र में आईना है। यह बात दावे के साथ कही जा सकती है 'राजपाल' प्रकाशन से प्रकाशित कन्हैयालाल नन्दन द्वारा संपादित पुस्तक "आज के प्रसिद्ध शायर अमीर क़जलबाश" को पढ़कर। आईने को अनेक रूपों में उनके अशआर में देखा जा सकता है। वह ख़ुद भी आईने से भयभीत हो जाता है-
"जब भी अपने चेहरे को आईना दिखाता हूँ
कौन है न जाने वो, किस से खौफ खाता हूँ।"
आईने ने उसे लहूलुहान भी किया है -
"सुबह मेरे माथे पर इस क़दर लहू कैसा
रात मेरे चेहरे पर आईना गिरा होगा।"
उसे लगता है कि वह खुद के गम में शामिल नहीं, इसलिए उसे आईना नहीं देखना चाहिए -
"मेरे ही ग़म में मेरी ही शिरकत नहीं रही
आईना सामने है बसारत (देखने की सलाहियत) नहीं रही।"
आईने में उसका चेहरा नहीं है -
"न जाने किसने ये आईना रूबरू रक्खा
ये क्या हुआ कि न मैं हूँ, न चेहरा मेरा।"
वह आईना बदलने को भी कहता हूं-
"इक और आईना बदल
ये भी मेरा चेहरा नहीं।"
हालांकि आईना उसने देखना है, क्योंकि वह अपनी पहचान जानना चाहता है -
"मेरी पहचान है क्या, मेरा पता दे मुझको
कोई आईना अगर है तो दिखा दे मुझको।"
पहचान सिर्फ शायर ने नहीं खोई, अपितु हर कोई अपनी पहचान खो चुका है। हमारे चेहरों पर बनावटी चेहरे सज गए हैं -
"तेरे चेहरे पर किसी और की सूरत होगी
आईना देखने वाले तुझे हैरत होगी।"
बनावटी चेहरों का सामना करने पर, असलियत से रूबरू होने पर शर्मिंदगी स्वाभाविक है-
"हमारे रूबरू गर आईना हो
बड़ी शर्मिंदगी का सामना हो।"
कुछ आईने गर्द से भरे हुए है, शायर की नज़र से वे भी नहीं बचते -
"छुपा जाता है चेहरा ज़िंदगी का
इस आईने पे इतनी गर्द क्यों है?"
कुछ आईनों पे गर्द रहने का समर्थन वह खुद करता है -
"इन आईनों पर गर्द ही रहने दो दोस्तो
जिन आईनों के वास्ते सूरत नहीं रही।"
वह ज़िन्दगी को भी आईना देखने का मशविरा देता है -
"ज़िंदगी तू मेरी हैरानी न देख
ख़ुद ही आईना उठाकर देख ले।"
आईने को वह ज़िन्दगी का सुखद पहलू भी मानता है -
"ज़िंदगी संगदिल सही लेकिन
आईना भी इसी चटान में है।"
वह खुद को धूप का आईना कहता है -
"धूप का आईना हूँ मैं यारो
किन दरख़्तों का आसरा ढूँढूँ।"
वह लोगों को आगाह करता है -
"मेरे पैकर की तरह तुम भी बिखर जाओगे
आईना सामने आएगा तो डर जाओगे।"
शायर कहता है कि वह आईने की तरह सवाल पूछेगा -
"समझ रहे हैं सभी लोग जाने क्या उसको
मैं एक रोज़ दिखाऊँगा आईना उसको।"
जब सवालों के आईने सामने किये जाएँगे तो अपने, अपने नहीं रहेंगे -
"अपनों की दीद को भी तरस जाएगी नज़र
आईना-ए-सवाल अगर रू-ब-रू करें।"
हर किसी की कोशिश है कि आईने के सामने आने से बचा जाए -
"नज़र बचा के हर इक राहरौ गुज़रता है
पड़ा है जैसे सरेराह आईना ऐ दोस्त।"
आईने से बचने का एक तरीका ये भी है -
"बंद आँखें किए बैठा है कोई
हर तरफ़ आईनेखाने हैं बहुत।"
आईना दिखाना एक जुर्म है, शायर इसे जानता है-
"एक आईना सरे-राह लिये बैठा हूँ
जुर्म ऐसा है कि हर शख़्स सज़ा दी मुझको।"
        आईने के माध्यम से ज़िन्दगी को देखने के अतिरिक्त शायर समाज के कड़वे सच को अपनी गज़लों में कहता है। उसे हर शख्स मुजरिम नजर आता है -
"आज के दौर में हर शख्स है मुजरिम यारो
आज के दौर में किस-किस को सज़ा दी जाए।"
जिसे आज सज़ा देने का हक मिला है वह भी तो गुनहगार ही हैं -
"जो पेश-पेश रहा हर गुनाह में यारो!
तलब किया है उसी ने गुनहगारों को।"
शायर जब अपने चारों ओर देखता है तो उसे हालात अच्छे नहीं लगते-
"कहीं सलीब कहीं कर्बला नज़र आए
जिधर निगाह उठे ज़ख़्म-सा नज़र आए।"
चारों तरफ खौफ का माहौल है -
"दिलों में था ये किसका डर दोस्तो
न सोया कोई रात भर दोस्तो।"
अविश्वास के दौर में हर कोई साथ वाले से डरा हुआ है -
"बहुत डर है हमें इक दूसरे से
हमारा शहर शब भर जागता है।"
अविश्वास के दौर में चुप्पियाँ भी भयभीत करती हैं -
"किसी के बारे में अब कोई कुछ नहीं कहता
तमाम शहर में खौफ़ो- हरास (डर और त्रास) मिलता है।"
हालातों का असर मौसम पर भी है -
"हरी शाखों का साया ज़र्द क्यों है
ये मौसम इस क़दर बेदर्द क्यों है।"
प्रकृति भी साथ नहीं दे रही -
"दम घुटा जा रहा है इक इक का
बच के चलने लगी हवा सबसे।"
ऐसा नहीं है कि दुनिया को दुखों से मुक्ति दिलाने के प्रयास नहीं हुए। अनेक नबी, पैगम्बर, सन्त, महात्मा हुए लेकिन उनकी कोशिशें नाकाफी रही-
"कई चाँद सूरज फ़रोजां (रोशन) हुए
मगर ये ज़मीं अब भी बेनूर है।"
      शायर को लगता है कि ज़िन्दगी में धोखा है। यहाँ कोई अपना नहीं है। हालांकि अपनेपन का दिखावा करने वाले बहुत हो सकते हैं, लेकिन वास्तव में कोई भी अपना नहीं -
"इस भरी बस्ती में अपना कौन है
उसने जब सोचा तो तन्हा हो गया।"
कौन साथी है, इस बारे में शायर सवाल करता है-
"कौन है तेरा हमख्याल अबके
मुख्तसर है मेरा सवाल अबके।"
लोगों का एक काम आप में बुराइयाँ ढूंढना भी है। वे अपनी बुराइयाँ भी सामने वाले में ढूँढ़ते हैं-
"मेरे पड़ोस में ऐसे भी लोग बसते हैं
जो मुझमें ढूँढ़ रहे हैं बुराइयाँ अपनी।"
टाँग खिंचाई यहाँ आम है। किसी को आगे बढ़ते देखकर पूरी कायनात टांग-खिंचाई पर उतर आती है -
"फिर अनगिनत है तीर जमीं की कमान पर
देखा गया है इक परिंद आसमान पर।"
दूसरों का सामना आसान है बनिस्बत अपनों के, इसलिए वह लिखता है -
"वह दुश्मनों का हर इक वार सह चुका था मगर
फिर उसके बाद करना था अपनों का सामना उसको।"
अपने के धोखों के चलते साफ दिखने वाले रास्ते साफ नहीं होते -
"खबर न थी उसे इन खोखली ज़मीनों की
वह सिर्फ़ राह को हमवार देखकर ख़ुश था।"
अक्सर यहां दुश्मन दोस्तों में छुपे रहते हैं-
हर क़दम पे नाकामी, हर क़दम पे मरहूमी
ग़ालिबन कोई दुश्मन दोस्तों में शामिल है।"
नकाबों के दौर में किसी की पहचान असली नहीं-
"घर पे छोड़ आए हैं लोग अपनी पहचानें
रास्ते में हर चेहरा अजनबी-सा पाता हूँ।"
शायद यही कारण है कि लोग अपने दुख को प्रकट करना नहीं चाहते। दुख, मुसीबत ने आदमी को खामोश कर दिया है -
"जिसको देखो वही है चुपचाप-सा
जैसे हर शख़्स इम्तहान में है।"
वे अपने गमों, आँसुओं को छुपाकर जीते हैं -
"तुम्हारे शहर में कुछ लोग इस तरह भी जिये
किसी ने जख्म छुपाए, किसी ने होंठ सिये।"
सहानुभूति पाकर भले कुछ लोग फूट पड़ते हैं, मगर शुरूआत में वे भी खुद को ठीक बताते हैं-
"वह पहले तो कहता रहा ठीक हूँ
फिर इक रोज़ आँसू बहाने लगा।"
         बाहरी रूप से लोग खुश है, मगर भीतर पीड़ा है, अवसाद है-
"सजा तो लिए हमने दीवारों-दर
उदासी अभी तक मकानों में है।"
महफ़िलों में कहकहे लगाने वाले एकांत पाते ही दिल का गुबार निकालते हैं -
"जो महफ़िलों में लगाता है कहकहे यारो
कोई न हो तो बहुत बदहवास मिलता है।"
      जीवन परिवर्तनशील है। यहाँ कोई भी सदा ताकतवर नहीं रह पाता। परिस्थितियाँ बदल जाती हैं -
"कल वो मांझी भी था, पतवार भी था, कश्ती भी
आज एक एक से कहता है - बचा लो मुझको।"
संसार गुणी व्यक्ति को भी पहचान नहीं पाता। लोग आपकी कद्र आपके जाने के बाद करते हैं, यह हर दौर के मसीहा के साथ हुआ है -
"कल पुकारेंगे उसे लोग मसीहा कहकर
आज हर शख़्स के हाथों में हैं पत्थर कितने।"
       खुद्दार लोगों को सदा मुसीबतों का सामना करना पड़ता है -
"आँखें खुली हुई हैं तो मंज़र भी आएगा
कंधों पे तेरे सर है तो पत्थर भी आएगा।"
लेकिन वह खुद्दार होने को कहता है -
"दुनिया से झुककर मत मिल
रिश्तों में हमवारी रख।"
हालांकि उसका मानना है कि वर्तमान दौर में कोई भी सुकरात बनने को तैयार नहीं -
'ज़हर का प्याला है कब से सामने
आज के सुकरात को क्या हो गया।"
शायर भोलेपन, मासूमियत का पक्षधर है, तभी वह कहता है -
"जानलेवा बहुत है बाख़बरी
खुद को थोड़ा-सा बेख़बर रखना।"
लेकिन सजगता के नाते वह खबर रखने, नज़र रखने की सलाह भी देता है-
"चार जानिब कड़ी नजर रखना
फ़सल पकने को है ख़बर रखना।"
एहतियात के तौर पर दीयों को संभालकर रखने की बात करता है-
"रात उस घर में कल भी आएगी
घर में रखना कोई दीया महफ़ूज़।"
कहते हैं बोलना तभी चाहिए जब बोलना ज़रूरी हो। शायर बोलने के संबन्ध में कहता है -
"सोच समझकर बातें कर
लफ़्ज़ों में तहदारी (अर्थगर्भिता) रख।"
वह अपने भीतर झाँकने की सलाह देता है -
"इक पल अपनी आँखें मूँद
इक पल अपने अंदर देख।"
हालांकि भीतर झाँकना आसान नहीं और यह सबके लिए सुखदायी भी नहीं होता। भीतर झांककर ही हम अपने कुरूप पहलू को देख सकते हैं-
"बहुत उदास था वह ख़ुद को रूबरू पाकर
हुआ हो पहले पहल अपना सामना जैसे।"
       जीवन के कड़वे सच को दिखाने के बावजूद वह निराशावादी नहीं। वह कहता है-
"शायद आ जाए कोई लौट के जानेवाला
इक दिया आस की चौखट पे जलाकर देखो।"
वह ख्वाब देखने का पक्षधर है-
"खाली घर तो बुरा-सा लगता है
ख़्वाब आँखों में कोई भर रखना।"
बुरे हालात सामने पाकर वह घबराता नहीं, अपितु उसे अपनी कोशिशों पर यकीन है-
"अँधेरे भी हैं सामने सफ़-ब-सफ़
हमारा भी हर बार भरपूर है।"
वह किसी दैवीय सहायता की बजाए ख़ुद प्रयास करने का पक्षधर है -
"ज़मीं पर हो, अपनी हिफाज़त करो
ख़ुदा तो मियाँ आसमानों में है।"
     अमीर कज़लबाश की शायरी अधिकांशतः जीवन के कुरूप पक्ष को दिखाती है, प्यार के रंग इसमें कम ही हैं, लेकिन यह प्यार के रंग से पूरी तरह खाली भी नहीं। शायर जीने के लिए एक रोग पालने को कहता है-
"पाल ले इक रोग नादां ज़िंदगी के वास्ते
सिर्फ़ सेहत के सहारे ज़िंदगी कटती नहीं।"
प्यार से बढ़कर रोग और क्या होगा। प्यार के इसी रोग के कुछ पहलुओं पर शायर की नज़र गई है। मुस्कराहट उसके हौसले बढ़ाती है-
"मुझको देखेगा मुस्करा देगा
वह मेरा हौसला बढ़ा देगा।"
हालांकि वह जानता है कि उससे इसकी कीमत वसूली जाएगी -
"और सब कुछ रखेगा अपने पास
मेरे होंठों को इल्तजा देगा।"
लोग बड़ी जल्दी अफसाने गढ़ लेते हैं, खासकर जब इश्क की संभावना मौजूद हो-
"नीची नज़र से मुझको न देख
गढ़ लेंगे अफ़साने लोग।"
प्यार है तो बेवफाई भी होगी, लेकिन शायर ने इसे अलग तरीके से बयान किया है, यह चोर की दाढ़ी में तिनके की तरह है-
"किसी की बेवफ़ाई का गिला था
न जाने आप क्यों शरमा रहे हैं।"
नाजुक ख्याली भी अमीर की शायरी में देखने को मिलती है। एक बच्चे की ज़िद को वह बड़ी खूबसूरती से बयां करता है-
"हर शाम एक मसला है घर-घर के वास्ते
बच्चा बज़िद है चाँद को छूकर भी आएगा।"
      शायर खुद को संबोधित करते हुए अनेक अशआर कहता है। ये अशआर उसके जीवन-दर्शन को बयां करते हैं। वह खुद को समाज हित के लिए बचाए हुए है-
"वो सरफिरी हवा थी सम्हलना पड़ा मुझे
मैं आखिरी चिराग़ था जलना पड़ा मुझे।"
उसे अपनी कोशिशों पर भरोसा है-
"मेरे जुनूँ का नतीज़ा ज़रूर निकलेगा
इसी सियाह समंदर से नूर निकलेगा।"
इस भरोसे का कारण है-
"मैं निकला हूँ सर पे कफ़न बाँधकर
ये बाज़ी यक़ीनन मेरे हाथ है।"
वह मुश्किल हालातों से घबराता नहीं-
"लोग जिस हाल में मरने की दुआ करते हैं
मैंने उस हाल में जीने की क़सम खाई है।"
वह सच बोलने में यकीन रखता है, हालांकि उसे इसे कीमत का पता है-
"बड़ा बेशकीमत है सच बोलना
मेरे सर पे लाखों का इनआम है।"
      जीवन संघर्ष में उसका रास्ता आसान रहा हो ऐसा नहीं कहा जा सकता है-
"अपने बदन के ज़ख़्म कहाँ तक छुपाएँ हम
बोसीदा (पुराना) पैरहन है, कहाँ तक रफ़ू करें।"
दुखों के सूरज ने उसे दरया से सहरा कर दिया है-
"क़तरा-क़तरा इक सूरज पी गया मुझे यारो
कल मैं एक दरया था और आज सहरा हूँ।"
ज़िंदगी अमृत पिलाए, ऐसा कम ही होता है, शायर को भी इसने जहर ही पिलाया है-
"नए फरेब, नए हादसे, नए अहबाब
ये जहर हमने कई बार ज़िंदगी में पिये।"
लोग भले ही उसे राह का दीपक कहें, लेकिन शायर को वह जलना लगता है-
"जल रहा हूँ सदियों से अपनी आग में यारो
लोग ये समझते हैं, रास्ता दिखाता हूँ।"
जो लोग उसे दर्द देने वाले हैं, वही उससे सहानुभूति जताते हुए दर्द देने वाले के बारे में उससे पूछते हैं-
"मेरे बदन में दर्द के खंजर उतारकर
फिर पूछते फिरो कि गुनहगार कौन था।"
हालांकि शायर को लगता है कि उसे मारने वालों को भी उसके मरने का अफसोस है, इसलिए वह कहता है-
"कत्ल हो तो मेरा-सा, मौत हो तो मेरी-सी
मेरे सोगवारों में आज मेरा क़ातिल है।"
   शायर को पता है कि उसके जाने के बाद उसकी क़द्र ज़रूर होगी-
"मुझे भी मेरे बाद ढूँढेंगे लोग
ज़माने की हालत बदस्तूर है।"
वह खुद्दार है-
"खुद अपनी निगाहों में हार सकता था
मैं चाहता तो किसी को पुकार सकता था।"
हालांकि निराशा उसे घेरती है-
"मैं थक के गिरने ही वाला हूँ उसके क़दमों पर
मेरी नफ़ी (इंकार) मेरा अस्बात (स्वीकार) होने वाली है।
उसे लगता है कि उसकी मेहनत का फल उसे न मिलकर दूसरों को मिलेगा-
"मेरी मेहनत का सिला लेगा कोई
फल मैं तोड़ूंगा, उठा लेगा कोई।"
वह महसूस करता है कि उसका ख़ुदा उससे खुश नहीं-
"अब और किसको बताऊँ कि मुझ पे क्या गुज़री
मुझे तो मेरा ख़ुदा भी उदास मिलता है।"
वह ख़ुद भी अपना साथ नहीं दे पाता-
"जहाँ-जहाँ मुझे अपनी बड़ी जरूरत थी
वहीं से खुद से बिछड़ना था नागुज़ीर (आवश्यक) मेरा।"
वह जिससे लड़ता है, वह उसका खुद का ही वुजूद है, इसलिए जीतने की उसे खुशी नहीं-
"कौन था अपने मक़ाबिल जाने किससे जंग थी
फ़तह पाकर भी न जाने क्यों हमें दुख-सा हुआ।"
हालातों को अपने पक्ष में पाकर भी उसे किस्मत का डर है-
"इक इक मौज समंदर की है पतवार अपनी
अब भी हम पार न उतरे तो क़िस्मत होगी।"
वह खुद की तुलना शीशे के घर से करता है-
"एक शीशे की इमारत हूँ मैं
टूट जाने के बहाने हैं बहुत।"
वह अपने दोस्तों को आगाह भी करता है-
"मुझे फिर न ता'मीर कर पाओगे
गिराओ न शीशे का घर दोस्तो।"
वह अपने आप से रूठ जाता है, हालांकि उसे पता है कि मनाने वाला कोई नहीं है-
"जैसे कोई पूछेगा क्यों उदास बैठे हो
मैं कभी-कभी खुद से ऐसे रूठ जाता हूँ।"
निराशा के इन पलों के होते हुए भी वह हताश नहीं। वह आशावादी है। ज़िन्दगी तब तक जीने लायक है, जब तक जीने की उमंग है, जब तक आपके भीतर खुशी मौजूद है। शायर के भीतर जीने की उमंग कायम है। वह कहता है-
"दिल में बेनाम-सी ख़ुशी है अभी
ज़िन्दगी मेरे काम की है अभी।"
वह जिंदादिल है और इसी जिंदादिली के चलते जहर को भी हँसकर पीने का पक्षधर है। सुकरात ने खुशी-खुशी जहर पीया, मीरा ने खुशी-खुशी जहर पीया। सच की राह पर, प्रेम की राह पर चलने वाला हर शख्स जहर को हँसकर स्वीकार करता है, शायर भी इसी श्रेणी में खुद को रखता है। वह खुद को उन-सा न मानकर उनको खुद-सा मानता है-
"वह भी मुझ-सा है कि इसके हाथ में
ज़हर का प्याला है लेकिन शाद है।"
    शायरी का एक दूसरा पहलू फक्कड़पन और फकीरी है। शायर खुद को फकीर कहता है-
"शहरयारों को पनाहें न मिलें
हम फ़कीरों को ठिकाने हैं बहुत।"
फकीरी और आध्यात्मिकता की बात करें तो खुद की तलाश सबसे पहले की जाती है। शायर भी इस दिशा में काम करता है। खुद को पाना, खुद की पहचान कभी भी आसान नहीं होती। पहली स्थिति यही है-
"मैं ढूँढ़ आया हूँ ख़ुद को हजूमे-शहर में भी
पता नहीं है मेरे घर में भी 'अमीर' मेरा।"
उसे आस है कि वह खुद को तलाश लाएगा-
"मैं ख़ुद को ढूँढ़ के लाऊँगा एक दिन ख़ुद ही
ख़ुदा करे मेरे मिलने की मुझको आस रहे।"
ख़ुद से मिलकर ही ख़ुदा से मिला जा सकता है, इसलिए वह ख़ुदा से मिलने की बजाए खुद से मिलने का हुनर मांगता है-
"तुझसे मिलने की तमन्ना है बहुत
ख़ुद से मिलने का हुनर दे मुझको।"
     एक सजग शायर को साहित्य के हालातों पर विचार करना चाहिए। अंग्रेजी को छोड़कर शेष भाषाओं के रचनाकारों की स्थिति अच्छी नहीं। एक शायर के हालात कैसे हैं, इस पर वह कहता है-
"शे'र सुना और भूखा मर
इस खिदमत को जारी रख।"
अपने लेखन के बारे में वह कहता है-
"मेरे अल्फ़ाज़ वही हैं लेकिन
मेरा मफ़हूम ( अर्थ) जुदा है सबसे।
       अमीर ने उर्दू शब्दावली का भरपूर प्रयोग किया है, जो इस विधा के अनुसार स्वाभाविक ही है। उनकी शायरी में शब्दों का चमत्कारिक प्रयोग भी देखने को मिलता है-
"मेरे सिवा कोई पहुँचा तो हो गया सैराब ( सराबोर)
मेरे करीब इक ऐसा सराब (मृगतृष्णा) बहता है।"
अमीर क़जलबाश की शायरी साहित्य में अपना विशेष स्थान रखती है और इसके चलते अमीर का नाम है। शायर को खुद भी इसका पता है, तभी तो वह कहता है-
"जर्रों में रहगुजर के चमक छोड़ जाऊँगा
पहचान अपनी दूर तलक छोड़ जाऊँगा।
ख़ामोशियों की मौत गवारा नहीं मुझे
शीशा हूँ टूटकर खनक छोड़ जाऊँगा।"
©दिलबागसिंह विर्क

3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज गुरुवार (11-06-2020) को     "बाँटो कुछ उपहार"      पर भी है।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

कविता रावत ने कहा…

बड़ी खूबसूरती से आईना दिखाया है शायर ने
हार्दिक शुभकामनाएं

Subodh Sinha ने कहा…

"तुझसे मिलने की तमन्ना है बहुत
ख़ुद से मिलने का हुनर दे मुझको।" ... क्या खूब कहा है .. अमीर जी जैसे शायर से अपनी समीक्षा के बहाने रूबरू कराने के लिए शुक्रिया .. आईना पर बहुत कुछ कहा है शायर ने ...

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