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बुधवार, जून 17, 2020

प्रकृति के सान्निध्य में रची गई कविताएँ


कविता-संग्रह - पहाड़ के बादल अभिनय करते हैं
कवि - डॉ. रूप देवगुण
प्रकाशक - राज पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
पृष्ठ - 76
कीमत - ₹100/-

राज पब्लिशिंग हाउस दिल्ली से 2008 में प्रकाशित 'पहाड़ के बादल अभिनय करते हैं', 'रूप देवगुण' का आठवाँ कविता-संग्रह है, जिसमें मध्यम आकार की 37 कविताएँ हैं। सभी कविताएँ प्रकृति से जुड़ी हुई हैं। सिर्फ एक कविता दो दोस्तों से संबंधित है। इसमें दो दोस्तों की बातचीत है और कवि कहता है कि हमें दूसरे को बोलने का मौका देना चाहिए। इस कविता में  वाणी को गड़गड़ाहट और बारिश जैसा कहकर कवि ने प्रकृति से जोड़ा है।

     शेष कविताओं में पहाड़ प्रमुखता से हैं। पहाड़ की कविताओं में कवि अपने दोस्त को संबोधित करते हुए कविताएँ कहता है। पहाड़ पर जाकर उसके भीतर अनेक ख्याल उठते हैं, उन्हें कहने के लिए उसे उसकी कमी महसूस होती है, कवि यहाँ खुद को साधारण मानव मानते हुए कहता है-
"मैं तो एक साधारण प्राणी था / जिसे मन की बातें /
कहने के लिए / किसी और की / 
आवश्यकता होती है" (पृ. - 18)
वह अपने दोस्त को कहता है कि पहाड़ पर चढ़ने के लिए बस चालक-सी चौकसी, बादल की लगन और चरवाहे की मेहनत को अपने भीतर रखना ज़रूरी है। पहाड़ के वर्णन के साथ-साथ वह उससे अनेक प्रश्न करता है, वह पूछता है कि क्या तुमने पहाड़ के कुलियों और किसान के जीवन की कठिनाई को देखा है? क्या पहाड़ पर आधी रात को नियंता के दर्शन का आभास हुआ है? वह पहाड़ी सौंदर्य को देखकर भावों में बह जाता है और तब कविता उपजती है, वह पूछता है क्या तुम्हारे साथ भी ऐसा ही हुआ है या तुमने वहाँ जाकर सिर्फ कॉफी और डोसे का ही स्वाद चखा, जो अपने शहर में भी मिल सकता था। पहाड़ पर गए दोस्त को वह कहता है कि पहाड़ के बादल अभिनय करते हुए भाई, पिता, दोस्त, प्रेमी बन जाते हैं। वह कहता है-
"तुम भी उन्हें देखकर आओगे /
आकर बतलाना / तुम्हें वे कैसे लगे" (पृ. - 43)
पहाड़ पर थकावट के बावजूद वह फिर चल पड़ता है क्योंकि उसे झरना, पक्षी, बादल, वृक्ष, लकड़ियों का गट्ठर उठाए चलती औरतें प्रेरित करती हैं और वह इन्हें अपने भीतर न सिर्फ महसूस करता है, अपितु उसने जीवन का रहस्य सुलझा लिया है। ऊपर चढ़ने के संदर्भ में ही वह बाहर के सहारों की अपेक्षा भीतर के अवलम्ब को अधिक बेहतर पाता है। वापसी पर पहाड़ी पर खिला फूल, वृक्ष पर बैठे पक्षी, पहाड़, बादल उसे अलविदा कहने आते हैं। उन्हीं के माध्यम से कवि प्रकृति के हो रहे दोहन को दिखाता है और खुद प्रकृति और मानव के संबंधों में पड़ी दरार को महसूस करता है। पहाड़ आजकल उस प्रकार एकांत स्थान नहीं रहे, जैसे कभी हुआ करते थे। कवि के दोस्त ने कहा था कि पहाड़ पर जाकर कुछ लिखना पर पहाड़ पर भी भीड़ है, इसलिए वह लिख नहीं पाता, लेकिन दोस्त की बात उसकी मौजूदगी का अहसास भी दिलाती है।  पहाड़ पर जब वह दोस्त के साथ होता है तो दोनों की तुलना को लेकर कविताएँ लिखता है। दोस्त और अपने चढ़ने के ढंग को लेकर वह भागमभाग की शैली की बजाए ज़िन्दगी को मस्ती से जीने का संदेश देता है। 
    पहाड़ों के अतिरिक्त कवि समुद्र, बारिश, आँधी को लेकर भी कविताएँ लिखता है। समुद्र की लहर कवि को बिटिया-सी लगती है, जिससे सब खेलना चाहते हैं, लेकिन समुद्र उसे दमे के मरीज-सा लगता है। वह समुद्र से बातचीत भी करता है। समुद्र उसके साथ आना चाहता है, तो कवि उसे कैमरे में कैद कर लेता है। उसके ज्वार-भाटे को देखकर वह कह उठता है-
"लगता है / समुद्र तुम बहुत दुखी हो / 
तुम्हारे मन की तृष्णाएँ / तुम्हें जीने नहीं देती" (पृ. - 44)
कवि ने समुद्र को मुंबई में देखा होगा। मुंबई प्रवास के दौरान बारिश को लेकर उसने कई कविताएँ लिखी हैं। इन कविताओं में महानगरीय जीवन के दर्शन भी होते हैं। महानगर में कोई बरसात में नहाता नहीं, लोग बरसात का आनन्द नहीं लेते, यह जीवन के प्रति उदासी को दिखाता है। कवि कहता है-
"शायद महानगर की इस व्यस्तता ने /
मनुष्य को कर दिया है दूर / प्रकृति की गोद से" (पृ. - 57)
महानगर का चित्रण करते हुए वह बताता है कि यूँ तो मानव निर्मित बिजलियाँ भी आकाश का भ्रम पैदा करती हैं, लेकिन प्रकृति द्वारा निर्मित आकाश ही स्थायी है। उसने बरसात द्वारा अपने मूल स्थान के प्रति लगाव को भी दिखाया है। मुंबई की बरसात देखकर जब वह अपने इलाके का हाल जानना चाहता है तो रेत की बरसात होने का उत्तर पाता है और ठंडक के बावजूद खुद को लू की लपटों में जलते पाता है। 
         सर्दी की बरसात के तीन दिन तीन कविताओं में बाँधे गए हैं। पहले दिन बरसात का स्वागत हुआ है, लेकिन सब चुप हैं। दूसरे दिन प्रकृति झूमने लगी है। बादल भी तैर रहे हैं। तीसरे दिन बादल विदाई ले गए हैं। बरसात और आँधी एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। आँधी और बारिश को देखकर वह खुद के भीतर उठती भावों की आँधी और आँसुओ की बारिश को देखता है। आँसू उसे वैसे ही शांत कर देते हैं जैसे बारिश आँधी को। आँधी में खड़ा वृक्ष कवि को अपना रूप लगता है, जो दुखों, चिंताओं से घिरा है और प्रेमिका बरसात की तरह है, जिसके आते ही जीवन में उत्सव जग उठता है। कवि को आँधी कभी भिखारिन की तरह लगती है, तो कभी वह बिगड़ैल बेटी जैसी जो मायके वालों और ससुराल वालों, दोनों को अशांत कर देती है। आँधी के अलग-अलग रंगों को दिखाया है और काले रंग को बुरा कहा है। इस रंग की आँधी भी विकराल होती है और यह हमारे भीतर भी जब आ जाता है तो हम स्वार्थी हो जाते है।  कवि आँधी की तुलना उस व्यक्ति से करता है जो खुशहाल जीवन को रेत के टिब्बे में बदल दे, ऐसे में आँधी कैसे अच्छी लग सकती है। 
     कवि प्रकृति के अन्य तत्त्वों हवा, पेड़, बादल, सूरज को भी कविता का विषय बनाता है। उसको हवा और पेड़ दादा-पोती लगते हैं, जिसमें शरारती पोती दादा को तंग करती है। सूर्य की बादल के आगे एक नहीं चलती, इसका गुस्सा वह धरती पर निकालता है। कवि कभी-कभी प्रकृति से भी बातें करता है और प्रकृति के सान्निध्य में खुद को स्वतंत्र महसूस करता है, लेकिन उसे दिन भर दुनियादारी निभानी है, यह बात उसे डराती है। कभी कवि को पहाड़ और बादल आपस में बातें करते लगते हैं, वह उनकी बातों का अंदाज़ा लगाता है कि सृजन की शुरूआत ऐसे ही हुई होगी। 
        संग्रह में दो लघु कविताएँ हैं, जो बड़ी मारक क्षमता लिए हुए हैं। पीले पड़ते वृक्ष को देखकर कवि रिश्तों की ठंडक को देखता है। आत्मप्रशंसा को पीले पत्ते कहकर दूसरों की प्रशंसा रूपी फूल खिलाने की बात करता है। 
        संक्षेप में, संग्रह की कविताएँ प्रकृति के सान्निध्य में रची गई महसूस होती हैं। पहाड़ पर जाकर, समुद्र के किनारे खड़े होकर, मुंबई के किसी पाँचवे माले पर बैठकर बरसात को देखते हुए कवि जो सोचता है, उसे सरल, सहज भाषा में इन कविताओं में पिरोया गया है। 
©दिलबागसिंह सिंह विर्क


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