कवि - ज्ञानप्रकाश पीयूष
प्रकाशक - बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृष्ठ - 136
कीमत - ₹150/-
परमात्मा, जीव, संसार, समाज, नैतिकता, जीवन शैली आदि तमाम विषयों पर चिंतन मनन करते हुए ज्ञानप्रकाश पीयूष जी ने जिस कृति की सृजना की है, वो है "पीयूष सतसई"। बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित यह सतसई सात अध्यायों में विभक्त है। प्रत्येक अध्याय में 100 दोहे हैं। अध्यायों का वर्गीकरण विषयानुसार तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रत्येक अध्याय में सभी विषयों पर दोहे रचे गए हैं।
इस कृति के पहले अध्याय का नाम है, "कवि सत के दरबार में"। इस अध्याय में कवि भगवान के दरबार में बख्शीश माँगता है। उसने माँ शारदे से प्रार्थना भी की है। वे उनसे विवेक का वरदान माँगते हैं। माँ का आशीर्वाद लेने के उपरांत वे गुरु महिमा का बखान करते हैं। संतों ने बताया है कि गुरु देवों से बड़े हैं। पीयूष जी लिखते हैं -
"गुरुवर शब्द प्रकाश हैं, करें तिमिर का नाश
सूखे जीवन बाग में, ला देते मधुमास।" (पृ. - 26)
पुस्तक को भी वे गुरु रूप मानते हैं और इसको भी नमन करते हैं। पुस्तक की महिमा का बखान करते हुए वे लिखते हैं -
"पुस्तक में गुण बहुत हैं, निर्मल करे विचार
तम हरती अज्ञान का, देती जन्म सुधार।" (पृ. - 27)
वे गीता के पावन ज्ञान की बात करते हैं। गीता के कर्म के उपदेश की बात करते हैं। उनके अनुसार कर्महीन व्यक्ति दुख भोगता है। अच्छे कर्म से वह इज्जत पाता है और ओछी करनी से उसका नामो-निशान मिट जाता है। वे दया धर्म की राह चलने को कहते हैं, इससे मनुज भगवान रूप हो जाता है। सज्जन के बारे में वे लिखते हैं -
"चोरी, निंदा, छल, कपट, ये जीवन के दाग
पर निंदा के राग को, सज्जन देते त्याग।" ( पृ. - 32 )
कवि पेड़ों से, नदियों से, चाँद से सीखने की बात कहता है। वे विनम्रता के पक्षधर हैं -
"पाकर दौलत जगत में, करें नहीं अभिमान
विनम्रता के घाट पर, मिलता है सम्मान।" (पृ. - 38)
उनके अनुसार मानव जन्म अमूल्य है, यह रत्नों की खान है। वे प्रेम के महत्त्व को प्रतिपादित करते हैं -
"प्रेम मिलाए राम से, प्रेम बड़ा अनमोल
शबरी से पूछो जरा, दिव्य प्रेम का मोल।" ( पृ. -30 )
बिना प्रेम की ज़िंदगी उन्हें ऐसी लगती है, जैसे हरियल पेड़ के सूखे हों सब पात। उनके अनुसार नफरत जग का नाश करती है।
कवि संसार को क्षणभंगुर और जीव को सनातन सत्य कहता है। जीव भगवान का अंश है, यह बात वे याद रखने को कहते हैं। वह अद्वैतवादी दर्शन को अपनाते हुए लिखता है -
"तू भी ब्रह्म स्वरूप है, मैं भी ब्रह्म स्वरूप
जग भी ब्रह्म स्वरूप है, सब ईश्वर के रूप।" (पृ. - 38)
वे नर-मादा को भी एक समान मानते हैं। सुख से ज़िन्दगी जीना सबका अधिकार है। जीवन उन्हें चंदन वृक्ष सा लगता है और वे शान से जीने की बात करते हैं।
इस अध्याय में कवि ने भारत की महिमा का भी बखान किया है। देश में राजतंत्र विदा हो चुका है और इसकी जगह गणतंत्र ने ले ली है। इस देश में सूरज कभी अस्त नहीं होता। देश की मिट्टी पावन है। इस महिमा वर्णन के साथ ही वे कुछ बुराइयों की तरफ भी इशारा करते हैं, जिसमें कट्टरपंथी सोच मानव को लहूलुहान कर रही है। हंसों के संसार पर बाज हावी हो गए हैं। अर्थ प्रधान युग में निर्धन बेप्रीत है। उनका संदेश यही है -
"जब तक चलती सांस है, करें प्रेम भरपूर
जीवन उत्सव-सा बने, आनन पर हो नूर।" ( पृ. - 38)
सतसई का दूसरा अध्याय है, "जीवन की नव डाल पर"। इस अध्याय में वे उन बातों को प्रभु पर छोड़ देने को कहते हैं, जो हमारे वश में नहीं, इसके लिए वे द्रोपदी का उदाहरण देते हैं। उनका मानना है कि कर्मों के अनुसार फल मिलता है। वे हिंसा को अपकर्म कहते हैं, हिंसा से हिंसा बढ़ती है । उनके अनुसार आज राजनीति दूषित हो गई है, इसलिए वे फुटपाथ को राजपथ से श्रेष्ठ बताते हैं।
नारी की व्यथा भी इस अध्याय में प्रकट की गई है। उनके अनुसार नारी न भोग्य है, न अबला है। वह ममतामयी है। खुद भगवान अनुसुइया की गोद में खेलते हैं। वे लिखते हैं -
"नारी का सम्मान है, खुद अपना सम्मान
उसके अनुपम अंश से, निर्मित सकल जहान।" ( पृ. - 43 )
वे प्रकृति का चित्रण भी करते हैं। सूर्य के उत्तरायण में जाने से प्रकाश बढ़ने लगा है। पतझड़ में वे जीवन-दर्शन को देखते हैं-
"पत्ता टूटा डाल से, बिल्कुल नहीं उदास
जीवन रस बन कर पुनः, नव पल्लव में वास।" (पृ - 44)
वे बढ़ते प्रदूषण से चिंतित हैं, पवित्र गंगा तक दूषित हो गई है। वे वृक्षों को मित्र बताते हैं, खुले में शौच न जाने का संदेश देते हैं। कूड़ा बीनने वालों के महत्त्व को प्रतिपादित करते हैं।
समाज में फैली बुराइयों को भी उनकी पारखी नज़र देखती है। समाज में भ्रष्टाचार है, घोटाले हैं, रिश्वतखोरी है, नशा है और इनसे जीवन प्रभावित हो रहा है। देश की न्याय व्यवस्था पर प्रहार करते हुए वे लिखते हैं -
"न्याय कहीं मिलता नहीं, सत्य सहे आघात
सत्य कथन की वजह से, विष पीते सुकरात।" ( पृ. - 54)
वे साहस को जीवन मन्त्र मानते हैं, शहीदों को बारम्बार प्रणाम करते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें वेद-कुरान का ज्ञान नहीं, लेकिन इतना भान है कि जीव भगवान का अंश है। वे ज्ञानी जन को परिभाषित करते हैं -
"ज्ञानी जन की रीत यह, चले सत्य के साथ
मन में उज्ज्वल भावना, शुभ कर्मों के हाथ।" ( पृ. - 49)
उनके अनुसार कविता प्रेम की धारा है, जो सबको जोड़कर रखती है। डाल पर बैठा पंछी भी प्रेम का संदेश लाया है। वे आदमी को निष्ठुरता त्यागने को कहते हैं -
"इतने निष्ठुर मत बनो, दया धर्म लो पाल
मानवता के पथ चलो, हथियारों को डाल।" ( पृ. - 52)
उनका संदेश है -
"अपना दर्पण साफ रख, मत चढ़ने दे धूल
जीवन में आंनद के, नित्य खिलेंगे फूल।" (पृ. - 46 )
सतसई का तीसरा अध्याय है, "मोती-मोती चुन लिए"। इस अध्याय में वे भगतसिंह को नमन करते हुए उसकी महिमा का बखान करते हैं। उनके अनुसार संकट में पुरुषार्थ से ही नैया पार लगती है। जब समय प्रतिकूल हो तो धैर्य धारण करना चाहिए।
आजकल राजनीति हावी हो गई है, जिससे मानवता त्रस्त है। मानव प्यार से वंचित है, इसलिए संसार दुखी है। वे कहते हैं कि जीवन अनमोल है। तनाव से दुख फैलता है। उनके अनुसार बच्चे का विज्ञान सरल है, वह प्रेम पथिक है।
वे अधिकार पाने के लिए कर्त्तव्य पालन पर बल देते हैं। तलवार की बजाए सूई के पक्षधर हैं। उनके अनुसार मासूमों की आह में अंगार छुपे हुए हैं। विकास की आँधी में संवाद मौन हो गया है। वे मोबाइल के गुण-अवगुण बताते हैं। लोगों पर चैटिंग का भूत सवार है। अच्छा चिकित्सक भगवान है, जबकि लालची शैतान। वे कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध पर लेखनी चलाते हुए लिखते हैं -
"जीवन को धूमिल किया, किया कलंकित खूब
कन्या मारी कोख में, जरा न मानी ऊब।" ( पृ. - 65 )
उनकी कलम भूखमरी, बेकारी, महँगाई, आरक्षण, बलात्कार, तन्त्र-मन्त्र जैसी बुराइयों पर भी चलती है। वे होली, वैशाखी जैसे त्योहारों, खाटू श्याम जी आदि पर भी दोहों की सृजना करते हैं। वे भारत की महानता इसी में मानते हैं कि यहाँ खूब त्योहार मनाए जाते हैं और ये त्योहार परिजन मिलकर मनाते हैं। वे मातृभूति की वंदना करते हुए कहते हैं -
"जिस रज में पैदा हुए, उस पर है अभिमान
तिलक लगाएँ शीश पर, गाएँ गौरव गान।" ( पृ. - 69 )
वे राष्ट्रभाषा हिन्दी के महत्त्व को समझते हैं और इसकी वैज्ञानिकता का वर्णन करते हैं। वे भारत को अंग्रेजी की दासता से मुक्त देखना चाहते हैं, क्योंकि हिंदी ही देश की सच्ची पहचान है। वे लिखते हैं -
"हिंदी ही आधार है, है संस्कृति का मूल
इस भाषा के ज्ञान से, खिले राष्ट्र का फूल।" ( पृ. - 63 )
उनके अनुसार काल बड़ा बलवान है। वे धर्म में दिखावे के विरोधी हैं। उनका मानना है -
"आँख चाहिए ज्ञान की, कर्म चाहिए हाथ
मन में सुंदर भावना, मिलकर चलना साथ।" ( पृ. - 60 )
वे कबीर की पंक्ति "बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख" का समर्थन "माँगे मिले न भीख भी, सहसा मिलती खीर" कहकर करते हैं। मानव को उसकी दुर्बलताएँ नष्ट कर देती हैं, इस बारे में वे लिखते हैं -
"काम-क्रोध मद लोभ ये, दुश्मन नर के खास
चिंगारी ये आग की, जीवन सूखी घास।" ( पृ. - 62)
उनकी मान्यता है, कि जीवन के खेत को शुभ कर्मों से सींचने से ही ये हरा रहेगा। हंस आनंद के मोती चुगता है। उनका मत है कि कुदरत के कार्यों में व्यवधान नहीं डालना चाहिए। वे संदेश देते हैं -
"देह और संसार का, अल्प समय का साथ
ऐसी करनी कर चलें, जगत नवाए माथ।" ( पृ. - 59 )
सतसई का चौथा अध्याय है, " खट पट इस संसार की"। इस अध्याय में कवि ने बेटी को घर की शान बताया है। नारी भले ही सदियों से विपदाओं की दास रही है, लेकिन वह पावन फूल है। कवि ने बहन-भाई के प्यार को भी दिखाया है। वह श्रम को जीवन का आधार मानता है। शांति और सद्भाव का संदेश देता है। भारत के उत्कर्ष की बात करता है। सैटेलाइट, ब्राडबैंड के क्षेत्र में भारत ने इतिहास रचा है। कवि गाँव को महत्वपूर्ण मानते हुए लिखता है -
"गाँवों में है सादगी, आपस में है प्यार
हँसती-गाती ज़िंदगी, करती बहुत दुलार।" ( पृ. -76 )
कवि योग और प्राणायाम को महत्त्वपूर्ण मानता है और इसे दिनचर्या में लागू करने की सलाह देता है। कवि का मानना है कि मानव सर्व समर्थ है। वह उसे कहता है -
"देख अँधेरा जगत का, मत बदलो निज चाल
दीप जला कर राह पर, रहना नित ख़ुशहाल।" ( पृ. - 75 )
कवि गुरु नानक की सीख मनुष्य को याद दिलाता है, माफ करने का महत्त्व समझाता है, ईर्ष्या-द्वेष त्यागने की सलाह देता है, सात्विक भोजन करने को कहता है। वह महापुरुष के बारे में लिखता है -
"महापुरुष डरते नहीं, करते हैं संघर्ष
पाते उत्तम कर्म से, जीवन में उत्कर्ष।" ( पृ. - 78 )
साथ ही वह बदलते हुए परिवेश को भी दिखाता है। आजकल पानी बिकने लगा है, चावल प्लास्टिक के आने लगे हैं। कवि मीठा बोलने, भाईचारे को अपनाने का उपदेश देता है। उसके अनुसार जो मनुज उदार है उसे कोटि नमन है। प्रेम अनमोल है। जिसमें सास माँ समान हो, वह घर स्वर्ग समान है।
कवि राजनीति को छोड़कर सेवा पर ध्यान देने की बात करता है। काम, क्रोध को जीतकर सत्य की राह चलने को कहता है। वह सन्देश देता है -
"सहज सरल है जिंदगी, मोती जैसी आब
सबको समझो आप-सा, जीवन है नायाब।" ( पृ. - 80 )
सतसई का पाँचवां अध्याय है, "धूप-छाँव की ज़िंदगी"। कवि धूप-छाँव सी ज़िन्दगी को अनुभव करके देखने की बात करता है। जीवन सुंदर बाग है और प्रेम मनोरम फूल। जीवन एक प्रवाह है, वह गटर भी हो सकता है और मंगल दात भी। कवि का मानना है कि करनी के बल से ईश्वर से मेल संभव है। वह राम-रहीम को एक मानता है और सबको उसकी सन्तान। वह कहता है कि हर जगह राम रमा हुआ है, कहीं भी शैतान नहीं। आदमी अपने गुणों के कारण ईश्वर का रूप है, लेकिन कामुक होकर वह नाश को प्राप्त होता है। परमात्मा हर जगह है, वह मनुष्य को जगाते हुए कहता है -
"तिल में जैसे तेल है, लकड़ी में ज्यों आग
गगन समीर निवास है, साँई तुझ में जाग।" ( पृ. - 99 )
कवि ने कबीर, रविदास पर भी दोहे लिखे हैं और बाह्यडम्बरों को त्यागने की बात कही है। हिंसा को पाप कहा है, हत्या, द्वेष को अभिशाप। दया को धर्म का मूल बताया है। मानव सेवा से मन के प्रसून खिलते हैं। उनके अनुसार पाप का घड़ा फूटता है, भले ही देर लगे।
कवि ऐसी शिक्षा का पक्षधर है, जो सोई हुई प्रतिभा को जगा सके, मनुष्य को स्वावलंबी बनाए और सेवा सत्कार के गुण पैदा करे। कवि कुर्सी पाने के लिए निंदा को हथियार बनाने को उचित नहीं समझता। चुनाव के समय वह वोटर को सजग रहने की बात कहता है। वह देश प्रेम की बात करता है। धोखे से सिर काटने को वीरता नहीं मानता। लिव-रिलेशन और समलैंगिकता को बुरा कहता है। सच्चे इंसान को वह इस दोहे से परिभाषित करता है -
"जो अपनी किस्मत लिखे, वह सच्चा इंसान
पर्वत को भी साध ले, कर ले देव समान।" ( पृ. - 102 )
कवि के अनुसार संसार मोह-माया के द्वार पर खड़ा है। सच का सूरज जब उगता है तो वह तम के पहाड़ को उखाड़ फैंकता है। कवि का मानना है कि मालिक को देखकर कुत्ता भी उदास होकर कूँ-कूँ करता है। ज़िन्दगी के बारे में कवि का नज़रिया इस प्रकार है -
"बात-बात पर रूठती, कर सोलह श्रृंगार
बड़ी हठीली ज़िन्दगी, करती है तक़रार।" ( पृ. - 93 )
सतसई का छठा अध्याय है, "सत्य खड़ा है सामने"। कवि ने इस अध्याय में राम, लक्ष्मण, सीता, भरत, शबरी, चन्द्रगुप्त, चाणक्य, विवेकानंद पर दोहे रचे हैं। उनके अनुसार होनी टलती नहीं। वे दागी होते आश्रमों पर चिंता व्यक्त करते हैं। उन्होंने भोग में लीन स्वार्थी मनुज को दिखाया है। समाज में हो रहे दुष्कर्मों का वर्णन किया है। महँगाई, प्रदूषण आदि विषयों पर कलम चलाई है। कवि का मानना है कि जीव भगवान का अंश है और वह अपनी करनी के बल पर ईश्वर से मेल कर सकता है, लेकिन मोह ने उसकी बुद्धि का नाश कर दिया है। उनका मानना है कि यदि मन में संतोष हो, तो लोभ पास नहीं फटकता।
उनके अनुसार भूखे को भोजन-जल देना कुंभ स्नान जैसा है। उनके अनुसार धर्म की परिभाषा निम्न है -
"दुख ना देओ जीव को, यही धर्म का सार
सेवा करके जीत लो, मन के विषय विकार।" ( पृ. - 112 )
प्यार का मिलना ईश्वर का उपहार है। टूटे रिश्ते जोड़ना मानव का काम है। सच्चे मित्र के बारे में वे लिखते हैं -
"कठिन समय में साथ दे, वह सच्चा है मीत
मन हल्का करता सदा, ज्यों मधुरिल संगीत।" ( पृ. - 118 )
कवि गीता के उपदेश को याद दिलाता है। भारत की नदियों और भारत की महानता का बखान करता है। सलमान खान को बेल मिलने के प्रसंग को उठाता है। दूषित मन को घातक रोग बताता है। द्वेषाग्नि से विश्वास का अंत हो जाता है। रीति-रिवाजों पर वह लिखता है -
"हर युग में हैं बदलते, कुछ तो रीति-रिवाज
उपयोगी उपयोग में, शेष बचे पर गाज।" ( पृ - 111 )
कवि के अनुसार भारत एक अनुपम देश है। शिक्षा जीवन द्वार पर जलता हुआ चिराग है। धरती पेड़ों की सौगात माँगती है। हमारे ऊपर मात-पिता और गुरु का कर्ज है। वे कल की चिंता छोड़ कर आज पर ध्यान लगाने को कहते हैं। उनके अनुसार प्रेम हमारी शक्ति है। वे कहते हैं -
"जन-जन का कल्याण हो, जन सेवा अविराम
प्यार मुहब्बत नेह से, हो जीवन अभिराम।" ( पृ. - 107 )
सतसई का अंतिम अध्याय है, "पावन मिट्टी राष्ट्र की"। इसमें वे राष्ट्र के बारे में लिखते हैं -
"पावन मिट्टी राष्ट्र की, कण-कण में अनुराग
गंगा, यमुना, नर्मदा, खेलें फसलें फाग।" ( पृ. - 126 )
उनके अनुसार राजनीति ने भारत को बदहाल कर दिया है। देश में न्याय की अर्थी उठ गई है। लोग पव्वे की कीमत पर मत बेच देते हैं। वे लोगों को वोट की कीमत पहचानने को कहते हैं, वोट देते समय जाति-धर्म न देखने की बात करते हैं। शांतिपूर्ण मतदान हो, प्रजातन्त्र की जीत हो, उनकी यही कामना है। उनको गर्व है कि राजा-रंक की वोट एक समान है।
उन्होंने पुलवामा हमले को अपने दोहों का विषय बनाया है। वे जन्नत पाने के लिए नर-संहार करने वालों पर तंज कसते हैं। अम्बेडकर को याद करते हैं। आम आदमी की जरूरतों पर लिखते हैं -
"रोटी वस्त्र मकान की, है सबको दरकार
वंचित इनसे क्यों रहें, ये जीवन आधार।" ( पृ. - 126 )
वे पीड़ित जन की वेदना हरने की बात कहते हैं। उत्तम नर की रीत बताते हैं। भक्त शिरोमणि रविदास की महिमा का गान करते हैं, राम नाम का महत्त्व दिखाते हैं। शिव महिमा गाते हैं। नारी का महत्त्व प्रतिपादित करते हैं। वे मानव को महज माटी का पुतला मानने को तैयार नहीं -
"माटी का पुतला नहीं, मनुज चेतना पुंज
उसके पास विवेक है, सद्गुण रूप निकुंज।" ( पृ. - 131 )
हमारे पुरखे हमें सत्य, हिंसा, प्यार का मार्ग देकर गए हैं। कवि मानव का कल्याण चाहता है। वह कहता है -
"मानवता वह वृक्ष है, जिसकी शीत बयार
आएगा जो शरण में, पाएगा वह प्यार।" ( पृ. - 122 )
पीयूष जी ने बड़ी कुशलता के साथ दोहे कहे हैं। दोहों में छंदगत कमियां नाममात्र हैं। भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार है, जिससे दोहे सुंदर बन पड़े हैं। उनकी उपमाएँ आकर्षक हैं। रूपक का सुंदर प्रयोग हुआ है। एक उदाहरण देखिए -
"मन का कुंजर डोलता, सब कुछ करे तबाह
अंकुश संयम का उसे, लाता सीधी राह।" ( पृ. - 61 )
दोहों में गेयता का गुण विद्यमान है, इसलिए वे सहज ही जुबान पर चढ़ जाते हैं।
संक्षेप में, "पीयूष सतसई" सतसई काव्य परम्परा की महत्वपूर्ण कृति सिद्ध होगी, ऐसी आशा ही नहीं, अपितु पूर्ण विश्वास है। ज्ञानप्रकाश पीयूष जी इसके लिए बधाई के पात्र हैं।
©दिलबागसिंह विर्क
87085-46183
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