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बुधवार, फ़रवरी 26, 2020

जीवन के सहज उपलब्ध विषयों पर रची गई लघुकथाएँ

लघुकथा-संग्रह – तुमने मुझको झिड़का क्यों नहीं
लघुकथाकार – रूप देवगुण
प्रकाशक – सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल
कीमत – 250/-
पृष्ठ – 80 ( सजिल्द )
सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल से प्रकाशित रूप देवगुण जी के लघुकथा-संग्रह "तुमने मुझे झिड़का क्यों नहीं" में 69 लघुकथाएँ हैं। यह संग्रह पांच भागों में विभक्त है। संग्रह का विभाजन विषय वस्तु को लेकर किया गया है, इसलिए कहा जा सकता है कि मोटे रूप से इस संग्रह में विषयों के पांच वर्ग हैं।

            भाग एक में घर और बाहर की 36 लघुकथाएँ हैं। घर के सामान्य घटनाक्रम और घर से बाहर की घटनाएँ इन लघुकथाओं का विषय बनी हैं। घर के सदस्य एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, एक दूसरे को सहारा देते हैं, यह लघुकथाओं में दिखाया गया है। 'अब बोलो…' लघुकथा में राजेश चाहता है कि उसका पिता आम खरीदकर लाए, क्योंकि आम बहुत महँगे हैं। वह इनके खराब होने की बात भी कहता है, लेकिन अजय कहता है कि वह आम खरीदेगा ही, क्योंकि आम उसकी पत्नी को बहुत पसंद हैं। 'बहुत अधिक प्यार' पिता के पुत्र प्रेम को दिखाती है। 'आँखे डबडबा आई' पुत्र के पिता के प्रति प्रेम को दिखाती है। 'गर्म भोजन' लघुकथा में पुत्रवधू की व्यवहार कुशलता को दिखाया है, जिसे देखकर ससुर धन्य हो जाता है। 'खिलखिला कर' लघुकथा भी इसी विषय से संबंधित है। 'पर फिर भी' लघुकथा में केशव पत्नी और बहू के बनाए खाने की तारीफ करता है, इसलिए उसे ज्यादा खाना पड़ता है। 'मुस्कराहट' लघुकथा में डॉ. रमन अपनी पत्नी डॉ. राधिका की घरेलू कार्यों में मदद करता है। 'आँसू' लघुकथा बहन-भाई के प्रेम को दिखाती है। भारतीय संस्कृति घर के सदस्यों को ही इज्जत देना नहीं सिखाती, अपितु यह तो नौकर-नौकरानियों को भी इज्जत देने की बात कहती है, यही दिखाया गया है, लघुकथा 'यह है हमारी…' में। 'प्रतिरूप' लघुकथा में दोस्त के बेटे से दोस्त जैसा व्यवहार पाकर रामनन्दन धन्य हो जाते हैं। 'कितने पैसे' लघुकथा एक आदर्श शिष्य को दिखाती है। 'विवाह स्थल पर' तुलना पर आधारित है। मि. अर्जुन का पुत्र विवाह में उसके साथ नहीं रहता, जबकि यश का बेटा उसके साथ रहता, खाता है।
            पुत्र प्यारे होते हैं, लेकिन पौत्र पुत्र से भी ज्यादा प्यार होते हैं। इस बारे में कहा जाता है "मूल से ब्याज प्यार" इसी कारण पौत्रों का रौब-दाब बढ़ जाता है। लेखक ने इसे लेकर भी लघुकथाएँ लिखी हैं। 'दादा जी बेचारे' दिखाती है कि दबंग व्यक्ति भी पौत्रों के आगे बेबस हो जाता है। 'हुक्म' भी पोतों के महत्त्व को दिखाती है। यह उक्ति सत्य ही है -
"पोता-पोती प्रार्थना नहीं, हुक्म किया करते हैं।" ( पृ. - 18 )
            घर, परिवार महत्त्वपूर्ण हैं। लेखक ने इसे सिद्ध करती हुई अनेक लघुकथाएँ इस संग्रह में रखी हैं। 'फर्क' लघुकथा परिवार के महत्त्व को दर्शाती है। माँ का यह कथन अटल सत्य है -
"बेटा जहाँ परिवार हो, वहाँ रौनक हो हो, कोई फर्क नहीं पड़ता।" (पृ. - 21 )
'फिर भी' लघुकथा में अलका कहती है कि घर से दूर आकर वह खुश है क्योंकि यहाँ घरवालों के लिए बनाने-पकाने की चिंता नहीं, लेकिन अगले ही पल वह कह उठती है -
"अंकल, बेटों की बहुत याद रही है और इनकी भी।" ( पृ. - 19 )
'परिभाषा' लघुकथा घर की परिभाषा यूँ बताती है
"पति-पत्नी का आपसी प्रेम और बच्चों की फरमाइशें - क्या यह घर की परिभाषा तो नहीं?' ( पृ. – 40 )
'मौसम' लघुकथा में घर में उगने वाली भिंडियों को विषय बनाया गया है। भले ही भिंडियाँ कम उतरती हैं, लेकिन इसकी चर्चा रस पैदा करती है, जो बहुत महत्त्व रखती है।
            पत्नी की मृत्यु के बाद पति को क्या समस्याएं आएँगी यह भी लघुकथाओं का विषय बना है। 'बहुत साल' लघुकथा में गौरव अपनी पत्नी को कहता है कि वह उसे चाय बनाना सिखा दे, ताकि उसके बाद वह खुद चाय बना सके। 'जलने की मुद्रा में' पत्नी यह चिंता जाहिर करती है कि मेरी मृत्य के बाद तुम्हारा क्या होगा। 'आगे से…' लघुकथा में पत्नी की पति के प्रति चिंता तो है ही, साथ ही उसके बिना वह कैसे रहेगी यह चिंता भी और इसी का डर दिखाकर वह पति को परहेज रखने को कहती है। जीवन-साथी के चले जाने के बाद जीवित साथी का हँसना खो जाता है, यही दिखाती है, लघुकथा ' हँसना-रुलाना' 'सूरज' लघुकथा में पत्नी की मृत्यु के बाद कमल की चिंता को दिखाया गया है कि वह अकेले कैसे समय व्यतीत करेगा। 'झिड़कोगे तो नहीं' में झिड़कने के प्रसंग को लेकर पत्नी की मृत्यु के बारे में सोचते नितेश को दिखाती लघुकथा है। 'चिज्जी' पौत्र की मृत्यु पर दादा के दुख को दिखाती मार्मिक रचना है।
     कुछ लघुकथाएँ ऐसी भी है जो कड़वे यथार्थ से परिचित करवाती हैं। 'बदतर' लघुकथा पिता से ज्यादा कुत्ते को महत्त्व देने की पीड़ा भुगतते रामपाल को दिखाती है। 'उसका चेहरा' लघुकथा दिखाती है कि पुत्र के अलग होने से पौत्र भी दादा से मोह छोड़ देते हैं। 'पर सीखे कौन' बताती है कि कोई भी किसी से सीखना नहीं चाहता, सास, बहू। 'फैमिली' में बेटे को पिता का यह कहना कि तुम्हारी फैमिली ऊपर रहेगी अखर जाता है। 'पुरुष समाज' में पतियों के अत्याचार को विषय बनाया गया, इसी कारण निशा अविवाहित रहने का निर्णय लेती है। 'क्या यह कम है' भी पति से दुखी पत्नी अमिता को लेकर लिखी गई है। वह अगले जन्म में वही पति नहीं चाहती। यह लघुकथा दिखाती है कि स्त्री ने सदियों से चली उस परम्परा से विद्रोह शुरू कर दिया है, जिसमें पति जैसा भी हो परमेश्वर होता है की मान्यता है। 'असहज' लघुकथा पुरुष के अहम को दिखाती है। 'समीकरण' लघुकथा शादी के बाद बेटों के व्यवहार में आए परिवर्तन को दिखाती है, लेखक एक आलेख के माध्यम से पात्र रतीश में यह समझ पैदा करता है कि ऐसा होना स्वाभाविक है और इस प्रकार वह उसे दुखी होने और वर्तमान से समझौता करना सिखा देता है, लेकिन यह लघुकथा वर्तमान युवा पीढ़ी को आईना तो दिखा ही जाती है। 'दो पड़ोसी' आधुनिकता को दिखाती लघुकथा है।
            पुस्तक के दूसरे भाग "कार्यक्रम में" 15 लघुकथाएँ हैं, जो साहित्यकारों, कार्यक्रम आयोजकों और मुख्य अतिथि बनने वालों लोगों की सोच को दिखाती है। 'कर्त्तव्य' लघुकथा संस्था प्रधान की निष्ठा को दिखाती है, वह खुद के बारे सोचकर दूसरों का ख्याल रखता है।
     'पहली पंक्ति' लघुकथा में नीरज के माध्यम से उन लोगों को दिखाया गया, जिनका उद्देश्य पहली पंक्ति में बैठना होता है, भले ही उन्हें बार-बार वहाँ से उठाया जाता है। पहली पंक्ति में बैठने का लालच उन्हें कार्यक्रम का आनन्द भी नहीं लेने देता। 'उस पर लिखा था' भी वी आई पी सीट पर बैठने में मोह को दिखाती है। 'भीड़ का हिस्सा' लघुकथा का एडवोकेट हिमांशु एक बार अध्यक्षता मण्डल का सदस्य बनने के बाद अगली बार दर्शक बनना सहजता से स्वीकार कर लेता है, लेखक ने इस लघुकथा में उन लोगों की तरफ इशारा किया है जो इसे सहजता से स्वीकार नहीं करते और अध्यक्ष बनाए जाने पर कार्यक्रम से दूरी बना लेते हैं। 'अध्यक्षता' लघुकथा में इस प्रवृति को पूरी तरह से उभारा गया है। अध्यक्षता मण्डल में कौन शामिल होगा, इसे बताती लघुकथाएँ हैं - सहयोग राशि, आवश्यकता। यह आयोजकों की मजबूरी भी हो सकती है, लेखकों को इसे समझना चाहिए। 'शक्ति' लघुकथा का साहित्यकार सर्वेश इस समझकर सहज रहता है। 'मौसमी-सदाबहार' लघुकथा में इन दोनों को मौसमी और सदाबहार कहा गया है। सभी अध्यक्ष एक से हों, ऐसा नहीं। 'आदर' लघुकथा एक ऐसे अध्यक्ष को दिखाती है, जो गुरु के सामने मंच पर बैठने को तैयार नहीं।
       कार्यक्रम में जाने, जाने, कार्ड पर नाम छपा है या नहीं , इस बात को भी कई लेखक अहम के साथ जोड़ लेते हैं। 'तालमेल', 'मैं तो जाऊँगा', 'आवश्यकता' जैसी लघुकथाएँ इसी विषय को लेकर रची गईं हैं। लेखक ने इनके माध्यम से विभिन्न प्रकार के लेखकों को दिखाया है। 'सुख की सांस' लघुकथा भी लेखक के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करती है, लेकिन इसका आधार आत्मप्रशंसा को बनाया गया है। कुछ लोग अपने परिचय को बढ़ाचढ़ाकर बताते हैं, जबकि कुछ लोग काम के बोलने में विश्वास रखते हैं। 'छिद्रान्वेषी' और 'तीन तरह के' लघुकथाएँ संस्था में शामिल विभिन्न प्रकार के सदस्यों को उद्घाटित करती है 'छिद्रान्वेषी' लघुकथा में संस्था के सदस्यों के बारे में कहा गया है -
"याद रखिए, संस्था चलाने के लिए टांग खींचने वाले नहीं, टांग दबाने वाले सदस्यों की आवश्यकता है।" ( पृ. - 58 )
        सफर का अपना महत्त्व है। सफर पर हम विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों का सामना करते हैं, अनेक प्रकार के लोगों से मुलाकात होती है और एक रचनाकार इनका लाभ उठाकर अनेक रचनाओं का सृजन कर लेता है। इस संग्रह का तीसरा भाग "यात्रा के बीच में" यात्रा के दौरान उपजी 11 लघुकथाओं को समेटे हुए है। 'यात्रा के बीच में' लघुकथा में चार साहित्यकार मित्र यात्रा के विषय पर चर्चा करते हैं और ढाबे पर रुकना यात्रा को पूर्ण बनाता है। 'सफर में भोजन' लघुकथा सफर के दौरान भोजन करने, चाय पीने के महत्त्व को दिखाती है। 'सफर में चाय' लघुकथा भी सफर में चाय की अहमियत को बताती है। 'आँखे नम' है तो सफर पर आधारित, लेकिन इसका मूल विषय पत्नी के बिना पति की दशा को दिखाना है। 'समझ मे नहीं आता' लघुकथा एक अनजान यात्री के प्रति मुख्य पात्र विनय की सोच को दिखाती है, वह लड़की विनय को अपनी प्रेमिका सी लगती है। वह सो नहीं रही, इसे लेकर वह परेशान है मगर वह चाहकर भी उससे पूछ नहीं पाता। 'मैं तो तरस गया था' लघुकथा में साइड की सीट को विषय बनाया गया है, लेकिन इस लघुकथा में पत्नी का गैर मर्द से हंस-हंसकर बाते करने का प्रसंग शामिल करना इसे अन्य स्तर पर ले जाता है। सुमित का सीट पर कब्जा जमा लेने की आतुरता उसकी संकीर्णता भी हो सकती है, हालांकि इसे लेखक ने पाठक पर छोड़ा है। 'इधर-उधर' लघुकथा मौसी की चिंता को दिखाती है। 'ओझल' लघुकथा अपनों के स्नेह को दिखाती है। आदर्श को उसकी मौसी का बेटा सिर्फ स्टेशन पर मिलने आता है, अपितु उसके लिए खाने का सामान भी लाता है। 'फार्मूला' लघुकथा सफर में बोर होने का फार्मूला बताती है। 'खिड़की' लघुकथा व्यवहार के महत्त्व को दिखाती है। बुरा व्यवहार करके कुछ हासिल नहीं होता जबकि अच्छे व्यवहार से मनोवांछित कार्य करवाया जा सकता है। 'जुनून' लघुकथा भी सफर को लेकर है, लेकिन इसका मूल विषय यह बताना है कि लेखन इच्छाशक्ति पर निर्भर है वरना हमारे पास हजार बहाने हैं, यह बात अन्य कार्यों पर भी समान रूप से लागू होती है।
            पुस्तक का चौथा भाग "सैर करते हुए" है, जिसमें लेखक ने सैर के दृश्यों को दिखाते हुए 6 लघुकथाएँ इस संग्रह में शामिल की हैं। 'प्रणाम' लघुकथा प्रकृति को ही ईश्वर मानने का संदेश देती है। 'आज भी' सैर के महत्त्व को प्रतिपादित करती है। 'पता नहीं' लघुकथा सैर के दौरान की जाने वाली बातचीत की व्यर्थता को दिखाती है। 'पार्क की सैर' सैर के लिए शांत वातावरण पर बक देती है। 'वक्त सैर का' लघुकथा एक तरफ बताती है कि सैर सुबह जल्दी करनी चाहिए, दूसरी तरफ तब यह एक बुजुर्ग की पीड़ा को उद्घाटित करती है, जब वह कहता है -
"आप इतनी गर्मी में यहाँ क्यों मर रहे हैं, मेरी तो और बात है, मुझे तो घर में कोई पूछता ही नहीं।" ( पृ. - 78 )
"सैर करते स्कूटर" में सोढ़ी के सैर करने जाने के लिए स्कूटर ले जाने की प्रासंगिकता को दिखाया गया है। यह सावधानी के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है।
            अंतिम भाग "और आखिर में" एकमात्र लघकथा है। यही लघुकथा पुस्तक का शीर्षक भी है। यह दोस्त की मृत्यु पर भावुक हुए दोस्त का चित्रण करती है। रत्न की मृत देह को जसवंत चूम लेता है और पूछता है -
"तुमने मुझे झिड़का क्यों नहीं?" ( पृ. - 80)
रत्न ने पूर्व में उसे इस कृत्य के लिए झिड़का था। जसवंत चाहता है कि रत्न उठे और झिड़के। यह प्रियजन की मृत्यु के उपरांत की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, जिसे लेखक ने बड़ी सुंदरता से उकेरा है।
     संग्रह की सभी लघुकथाएँ सहज-सरल भाषा में रची गई हैं। ये सब वो दृश्य घटनाएँ हैं जो हम सबके सामने घटित होती हैं। एक पारखी नजर कैसे उनमें लघुकथा को देख लेती है, इस संग्रह से इसे जाना जा सकता है। लघुकथाएँ लघुकथा के शिल्प पर खरी उतरती हैं। इस सुदर संकलन के लिए रूप देवगुण जी बधाई के पात्र हैं।

दिलबागसिंह विर्क
87085-46183

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