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बुधवार, जनवरी 30, 2019

समाज का यथार्थ चित्रण करता अनूठा कविता-संग्रह


कविता-संग्रह – दशरथ है वनवास ने
कवि – गौतम इलाहाबादी
प्रकाशक – अमृत बुक्स
कीमत – 250 /-
पृष्ठ – 96 ( सजिल्द )
गौतम इलाहाबादी द्वारा रचित “ दशरथ है वनवास में ” शिल्प के दृष्टिकोण से भले ही दोहा-संग्रह लगता हो, लेकिन है यह कविता-संग्रह ही | कवि ने भी इसे कविता-संग्रह ही कहा है, क्योंकि दस-दस दोहों को 39 शीर्षकों के अंतर्गत रखा गया है | दोहे मुक्तक होते हैं, लेकिन इस संग्रह में बहुधा दोहे तब तक समझ नहीं आते, जब तक कविता के शीर्षक को ध्यान में न रखा जाए | यथा –
करता मेहनत सर्वदा, कभी न माँगे भीख
हो सके तो आप भी, लेवें उससे सीख | ( पृ – 34 )

           पुस्तक का शीर्षक सत्य के विरुद्ध बात करता है और कवि ने इस प्रवृति को अन्य कविताओं में भी प्रस्तुत किया है | दरअसल कवि ने इसके माध्यम से वर्तमान समाज की विद्रूपताओं को दिखाया है | आज के समाज में ससुर पानी भरते हैं, बेटों के तेवर बदले हुए हैं, औरतों ने भारतीय पहरावे को त्याग दिया है, बच्चों की माँ प्रेमी संग फरार हो रही है, मन्दिर में अनैतिक काम हो रहे हैं, न्यायाधीश तक घूसखोर हैं | इसी कारण वे कहते हैं –
उलटे सारे हो रहे, आज जगत में काम
दशरथ है वनवास में, घर में रहते राम | ( पृ – 21 )
यह विरोधाभास समाज में ही नहीं, प्रकृति में भी व्याप्त है, तभी तो –
सावन सूखा बीतता, मेह फाल्गुन माह ( पृ – 22 )
आदमी और प्रकृति जैसा स्वभाव ही कान्हा का हो गया | वे गूँगे-बहरे बने हुए हैं, लुटती द्रोपदियों की उन्हें परवाह नहीं | कंस बने लोगों का दमन करने वे नहीं आ रहे | अस्त-व्यस्त समाज में नोट कमाने की होड़ लगी हुई है | नेता, अफसर के पास तो दौलत होनी ही है, चपरासी तक करोड़पति हैं | अरबपति लोगों को देश के गरीबों से कोई सहानुभूति नहीं | देश में लोकतंत्र तो है, लेकिन कवि को यह लूटतन्त्र दिखता है | वे लोकतंत्र को ढोंग कहते हैं | राजनीति में पूरी तरह अनीति का बोलबाला है | राजनीति एक ऐसी वेश्या है, जिसके पास ज्ञानी, भद्र, कुलीन जन जाना नहीं चाहता | यहाँ के नेता सेवक न होकर भूप बने हुए हैं | वे यूरिया, चारा खाते हैं | खादी पहनते हैं, मगर झूठे हैं | कुर्सी उनकी प्रेमिका है, वे पत्नी, सन्तान को छोड़ सकते हैं, कुर्सी को नहीं | वे नेता की कवि के साथ तुलना करते हुए लिखते हैं –
कवि तो अपने देश में, सदा खिलाये फूल
लेकिन नेता सर्वदा, उपजाते हैं शूल | ( पृ – 43 )
कवि देश का हाल सुधारना चाहता, लेकिन नेता इसे बदहाल करते हैं | कवि संवेदनशील होता है, जबकि नेता पत्थर दिल | नेता के साथ-साथ, वे वोटर की भी बात करते हैं | सभी की वोट एक-सा महत्त्व रखती है, लेकिन कुछ लोग वोट नहीं डालते, इसी कारण गलत लोग चुने जाते हैं | हालाँकि वे जनता के उग्र रूप को भी दिखलाते हैं जो थाने फूंकती है, रेल रोकती है | सयानी जनता के आगे सरकार तक पानी भरती है | आर. टी. आई. का अधिकार भी अब उसके पास है |  
        कवि के अनुसार यहाँ आदर्श की सारी बातें बेकार हैं | आम इंसान तो माया के वशीभूत है ही, साधू-संत भी नहीं बचे –
साधू-संत भी आजकल, खींच रहे हैं माल ( पृ – 28 )
          आज के दौर में कैसे अमीर बना जा सकता है, कवि इसकी भी बात करता है | उसके अनुसार इसका प्रमुख साधन राजनीति है | मेहनत से तो सिर्फ पेट ही भरा जा सकता है | कवि लिखता है –
करके मेहनत आज तक, कौन बना धनवान
मोची, धोबी, मिस्त्री या मजदूर किसान | ( पृ – 31 )
वे मजदूर के बारे में भी बताते है, कि मजदूर भले खाली पेट रहे मगर वह भीख नहीं मांगता | वे भारत की महानता पर भी व्यंग्य करते हुए लिखते हैं –
थोड़े यहाँ अमीर हैं, हैं ज्यादा कंगाल
घोटाले जिसने किये, हो गये मालामाल | ( पृ – 35 )
देश में मंहगाई है, आतंक है, भ्रष्टाचार है; समाज ऊंच-नीच में बंटा हुआ है | जनता भेडचाल में विश्वास रखती है | सीधे और शरीफ आदमी को कोई घास नहीं डालता | वे टेढ़े बनने का उपदेश देते हैं |
           वे खून चूसने वालों का जिक्र करते हैं | खटमल, मच्छर, जोंक, शेर, ठेकेदार, साहूकार, बाहुबली, गुंडे, नेता तो खून पीते ही हैं, पत्नी भी पति का खून चूसती है | वे पत्नी के पहले और वर्तमान रूप की भी तुलना करते हैं | पहले वह गेंदे का फूल थी, जबकि आजकल वह गोभी का फूल है | शीतल छाँव से वह गर्मी की धूप बन गई है | मीठी खीर से कडवी नीम हो गई है | माँ से पत्थर हो गई है, दूब से झाड हो गई है | इस हास्य कविता के बाद वे औरत के दूसरे पहलू को भी देखते हैं और उसे घर की लक्ष्मी कहते हैं | वे नारी के विविध रूपों का जिक्र करते हुए लिखते हैं –
राजी होती मिनट में, पल में करती क्रोध
कब हो कैसा आचरण, बता न पायें शोध | ( पृ – 63 )
नारी के आगे तो वीर पुरुष भी खुद को बेबस पाता है | वे मोटी औरत का वर्णन भी करते हैं और उसे आफत बताते हैं | औरत का वर्णन करते हुए वे उस समय रूढ़िवादी पुरुष नजर आते हैं, जब वे लिखते हैं –
औरत अपने आप में, एक बीमारी भाय ( पृ – 58 )
यह ‘ मोटी औरत ’ कविता की पंक्ति है, इसलिए यहाँ औरत से अभिप्राय मोटी औरत ही होगा, लेकिन ऐसी पंक्ति से बचा जाना चाहिए | वे दहेज़ कानून के दुरुपयोग के प्रति सचेत हैं | उन्हें लगता है कि यह नारी के पास अचूक हथियार है | वे दहेज से परहेज का संदेश भी देते हैं | वे रिश्तों पर नजर दौडाते हैं | उन्हें सारे रिश्ते झूठ नजर आते हैं | ऐसा कोई भी रिश्ता नहीं जिस पर नाज किया जा सके | पश्चिम की नकल से रिश्ते कलुषित हुए हैं | उनके अनुसार –
अब रिश्तों में न रहा, था जो पहले भाव
देते रिश्तेदार ही, तरह-तरह के घाव | ( पृ – 69 )
वे उन रिश्तों का भी वर्णन करते हैं, जिनमें तकरार रहता है | इन रिश्तों में पति-पत्नी, संतान और माँ-बाप, देवरानी-जेठानी, अधिकारी-स्टाफ, जानवर-शेर, पड़ोसी शामिल हैं | वे मानव की जात का ब्यान करते हैं | मानव सदैव चिंतित रहता है, इसका कारण उसका दिमाग है | हारी, बीमारी, पड़ोसी उसकी मुस्कान छीनते हैं | विश्वास खो जाने पर कुछ लोग टूट जाते हैं तो कुछ पुन: खड़े हो जाते हैं | गहरी चोट पाकर कुछ कवि, लेखक विद्वान बन जाते हैं | उनका मत है –
विपदा में न छोड़ता, जो भी अपना धीर
उसको कहिये आप भी, सबसे ज्यादा वीर | ( पृ – 86 )
उनके अनुसार सभी मानव एक से हैं, वे चाहे कोई दीन हो या भूप, क्योंकि सभी एक ईश की संतान हैं | वे दोस्ती की परिभाषा देते हुए लिखते हैं –
जब तक पैसा पास में, पास तभी तक यार
वरना जाये दूर वह, आपको ठोकर मार | ( पृ – 51 )
आज के दौर में पैसे से औकात मापी जाती है, पैसे के बारे में वे लिखते हैं –
पैसे की महिमा बड़ी, जाए नहीं बखान
लोग-बाग़ कहते इसे, धरती का भगवान | ( पृ – 52 )
पैसे की महत्ता दिखाते हुए भी वे नौकरी को उत्तम नहीं मानते | संभवत: वे कवि घाघ की विचारधारा से प्रभावित हैं, जो कहते हैं –
उत्तम खेती, मध्यम बान
निषिद चाकरी, भीख नादान |
गौतम जी के अनुसार –
नौकरी तो नौकरी, नौकरी है बेकार
नौकर कहलायें सभी, बेशक थानेदार | ( पृ – 75 )
वे नौकरी का विरोध इसलिए भी करते हैं, क्योंकि अफसर अजगर से होते हैं | वे अफसर और अजगर में अनेक समानताएं देखते हैं | वे मोबाईल की बुराइयां गिनाते हुए लिखते हैं, कि अच्छाई के साथ बुराई रहती ही है | वे होली के त्यौहार को नारी छेड़छाड़ का माध्यम न बनाने की बात करते हैं, बदलते हुए गाँवों के चित्र प्रस्तुत करते हैं | खजूर के पेड़ का वर्णन करते हैं और इसके माध्यम से जांबाज पुरुष का स्वभाव भी ब्यान करते हैं | वे जीवन का फलसफा बताते हुए रिश्वतखोरी से दूर रहने का उपदेश देते हैं | चोरी की बजाए कठोर यत्न पर बल देते हैं | दूसरों से तुलना न करने की सलाह देते हैं | अपनी बात कहने के लिए वे कुत्ते, हाथी का उदाहरण भी देते हैं |
        कवि ने इस संग्रह की शुरूआत माँ शारदे को नमन करते हुए की है, तो समाप्ति उलटे दोहों से | उलटे दोहे भी विरोधाभासी स्थितियों का ब्यान करते हैं –
गुस्सा जो करता नहीं, करे नहीं अभिमान
अपने जीवन में कोई, पाता न सम्मान | ( पृ – 96 )
              भाव पक्ष से यह संग्रह समाज की यथार्थ स्थिति का ब्यान करता है | भाषा सरल और सहज है | दोहा शैली होने के कारण कविताओं में लयात्मकता विद्यमान है | अपने आप में यह एक अनूठा प्रयास है, जिसके लिए कवि बधाई का पात्र है |
दिलबागसिंह विर्क
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