उपन्यास - खोया हुआ विश्वास
लेखक – आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’
प्रकाशन – शब्द-शब्द संघर्ष
पृष्ठ – 128
मूल्य – 150 /-
भारतीय समाज जातीय ढांचे में बुरी तरह फंसा हुआ है | जातियों में उंच-नीच का
भेद है और इसी कारण जाति आधारित आरक्षण लागू है | समय-समय पर भिन्न-भिन्न जातियां
आरक्षण की मांग करती हैं और इसके लिए आगजनी-लूटपाट की जाती है | इन दंगों में
शरारती तत्व भी सक्रिय होते हैं और राजनेता राजनैतिक रोटियाँ सेंकते हैं | पत्रकार
इस समय महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन चैनल निष्पक्ष नहीं | समाज के
इसी सच को दिखाया है, आनन्द प्रकाश आर्टिस्ट ने अपने उपन्यास “ खोया
हुआ विश्वास ” में |
उपन्यास का
आरंभ राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी से होता है, जिसका विषय है - ‘सरकारी नौकरियों में
जातीय आधार पर आरक्षण के लिए आन्दोलन और सामाजिक भाईचारा’ | इस उपन्यास का अंत भी
मुख्य पात्र के शोध आलेख के अंत के साथ होता है | मुख्य पात्र विश्वास अपनी कहानी
सुनाता है और ‘जन आक्रोश न्यूज चैनल’ नामक उस चैनल की कहानी सुनाता है, जिससे उसने
और उसके साथियों ने त्याग पत्र दिया है | विश्वास वास्तव में आलोक है और उसे जिसने
विश्वास बनाया वह उससे शादी नहीं कर पाता क्योंकि जाति अडचन है | इस उपन्यास का
मुख्य विषय जातिवाद से जुड़ा हुआ है, तो लेखक ने अनेक जगहों पर जाति संबंधी अपने मत
रखे हैं | उसे लगता है –
“ जाति एक श्रेणी का नाम है, न कि व्यक्तियों के समूह का | जिस प्रकार
वस्तुओं में ठोस वस्तुओं की एक अलग श्रेणी है, तरल की अलग और गैस की अलग उसी
प्रकार प्राणियों में भी मानव की अपनी एक अलग जाति है, जो मानव कहलाती है |” (
पृ. – 25 )
समाज सबसे मिल जुलकर बनता है –
“ सब जातियों के समूह का नाम समाज है |” ( पृ. – 64 )
वह अंतर्जातीय विवाह का पक्षधर है -
“ घर पति-पत्नी के मिलकर कमाने से चलता है, यदि दोनों एक ही फील्ड के हैं
और पढ़े-लिखे हैं, तो यहाँ हमें जाति ही नहीं, बल्कि धर्म को भी नहीं देखना चाहिए,
क्योंकि सब परमात्मा की सन्तान हैं |” ( पृ. – 62 )
लेकिन दुर्भाग्यवश लोग इसे स्वीकार नहीं करते -
“ अपनी जाति के लोगों में यही तो एक कमी है, जरा सा कामयाब हुए नहीं कि
अपनी जाति से बाहर शादी कर बैठते हैं, यदि अपनी जाति में शादी करें तो एक जाति के
दो घरों का विकास नहीं हो जाए क्या ?” ( पृ. – 62 )
उपन्यास का
विषय जातीय आरक्षण के लिए हुए दंगे हैं | दंगे आरक्षण के लिए कम हुए, स्वार्थी
लोगों की साजिश के चलते हुए अधिक हुए, यह दिखाना लेखक का उद्देश्य है | वह लिखता
है -
“ प्रसारण से पहले एडिटिंग टेबल से होकर गुजर रही वीडियो क्लिप बता रही थी
कि यह हिंसा जातीय हिंसा कम और लूटपाट अथवा किसी भी कारण से व्यक्तिगत रंजिश की
ज्यादा थी |” ( पृ. – 104 )
आम जनता का समर्थन आन्दोलनकारियों के साथ नहीं है, वे जोर-जबरदस्ती से समर्थन
ले रहे हैं -
“ एक तो रेल की पटरियों पर बैठे आन्दोलनकारियों के समर्थक आन्दोलन के लिए
जबरन चंदा वसूल रहे हैं और दूसरे जवान लडकों को दंगे-फसाद के लिए प्रेरित कर रहे
हैं |” ( पृ. – 67 )
लेखक यह भी दिखाता है कि समाज में भाईचारा है, लेकिन ऐसे आन्दोलन नफरत फैलाते
हैं -
“ यही हाल सरकारी कर्मचारियों का भी है, साथ बैठकर खाते-पीते हैं, मतलब कि उनमें व्यवहार के नाम पर कोई जाति भेद नहीं है, किन्तु जाति आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण के मामले में एक जाति विशेष के लोग दूसरी किसी एक नहीं, बल्कि बहुत सी जातियों के कट्टर विरोधी हैं |” ( पृ. – 103 )
“ यही हाल सरकारी कर्मचारियों का भी है, साथ बैठकर खाते-पीते हैं, मतलब कि उनमें व्यवहार के नाम पर कोई जाति भेद नहीं है, किन्तु जाति आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण के मामले में एक जाति विशेष के लोग दूसरी किसी एक नहीं, बल्कि बहुत सी जातियों के कट्टर विरोधी हैं |” ( पृ. – 103 )
लेखक कुछ जातियों की तुलना भी करता है -
“ आंधी आती है, तो इनकी झोंपड़ियाँ उड़ जाती हैं, बाढ़ आती है तो जरा सा पानी
चढ़ते ही इनका सब कुछ बह जाता है | पर इन्हें तो नहीं देखा किसी ने अपने नुक्सान के
लिए मुआवज़ा मांगने के लिए सड़कों पर उतरते हुए |” ( पृ. – 73 )
वह आजादी के समय शरणार्थी रहे लोगों की तारीफ़ करता है कि उन्होंने मेहनत पर
भरोसा किया आरक्षण की मांग नहीं की |
पत्रकारिता का सच भी
इस उपन्यास में बड़ी बेबाकी से दिखाया गया है | लेखक अच्छे और बुरे दोनों पक्षों को
लेकर चलता है | नायक विश्वास ईमानदार पत्रकार है | गीता भी पत्रकारिता का धर्म
जानती है | उनके कुछ और साथी भी इस्तीफ़ा देकर अपने पेशे के प्रति इन्साफ करते हैं,
लेकिन मालिक ईमानदार नहीं | चैनल का सच यह है -
“ कुछ ऐसा किया जाए कि चैनल पर पक्षपात का आरोप भी न लगे और पक्ष भी एक
जाति विशेष का ले लिया जाए और जाति विशेष भी वही, जो कि चैनल के मालिक की है |”
( पृ. – 37 )
लेखक मालिक के मुँह से सच उगलवाता है –
“ मैं खुद तुम्हारे केबिन में तुम्हें यह समझाने के लिए गया था कि रोहित ने
जो रिपोर्ट भेजी है उसे घुमाना है, पर तुमने मेरा इशारा नहीं समझा, विश्वास कुछ
नहीं रखा है, इन व्यर्थ के सिद्धांतों में, सरकारी जन-माध्यमों के रिपोर्टर और
एडिटर तो फिर भी यदि चाहें तो कुछ हद तक अपने सिद्धातों पर टिके रह सकते हैं
किन्तु प्राईवेट नहीं, क्योंकि प्राईवेट यदि चैनल के मालिक की इच्छानुसार काम नहीं
करेंगे, तो उन्हें रखेगा कौन और कब तक ? सोचने वाली बात यह भी है कि सब कुछ पैसे
से चलता है और आप लोगों को पैसा देने के लिए हमें भी पैसा कमाने के स्रोत तलाशने
पड़ते हैं |” ( पृ. – 49 )
निस्संदेह पैसा बड़ी समस्या है, पैसे के कारण ही पीत पत्रकारिता पैदा हो रही है
| लेकिन विश्वास जैसे कुछ पत्रकारों के बलबूते पत्रकारिता बची हुई है और जब तक वे
जन आक्रोश न्यूज चैनल में काम करते हैं तब तक मालिक चाहकर भी उनसे गलत समाचार
प्रसारित नहीं करवा पाता | अपने चैनल के बारे में विश्वास कहता है -
“ उसका चैनल कह कम रहा था और दिखा ज्यादा रहा था |” ( पृ. – 19 )
आज की पत्रकारिता आम जनता को भ्रमित करती है, लेखक इस विषय को भी उठाता है –
“ घटना एक होती है, समाचार की प्रस्तुति के रूप अनेक होते हैं, कोई न्यूज
चैनल कहता है हत्या हुई है, कोई कहता है मरने वाले ने आत्महत्या की है |” (
पृ. – 69 )
समाचार चैनलों की बहस के सच को दिखाया गया है -
“ किसी जेब कटे मुसाफ़िर की तरह जनता कभी अपने साथ घटी घटना को देखती है, तो
कभी उस घटना को लेकर किसी न्यूज चैनल से प्रसारित समाचार अथवा उस पर आयोजित
प्रबुद्धजनों की बहस को देखती है |” ( पृ. – 69 )
लेखक पत्रकार और साहित्यकार के उत्तरदायित्व को भी स्पष्ट करता है -
“ साहित्यकार हो या फिर पत्रकार, उसका काम तो समाज की
विद्रूपताओं को समझ कर उन्हें सामने लाने और लोगों की विकृत मानसिकता का ईलाज करना
और उनसे पीड़ितों के घावों पर मरहम लगाना होता है, न कि किसी ऐसी बात को बढ़ावा
देना, जो कि समाज व राष्ट्र के हित में न हो |” ( पृ. – 26 )
वह पत्रकार और लेखक के कार्य की तुलना भी करता है -
“ एक का काम पूरी तरह से सत्य को सामने लाकर सत्य की रक्षा करना है, जबकि
दूसरा यानी कि साहित्य समाज के यथार्थ को सामने लाकर उसे दिशा देने के साथ-साथ
उसका मनोरंजन भी करता है |” ( पृ. – 126 )
आरक्षण
के लिए हुए जातीय दंगे और पत्रकारिता के सच को दिखाने के साथ-साथ लेखक अनेक विषयों
पर कलम चलाता है | सोशल मीडिया के बारे में वह लिखता हैं-
“ सोशल मीडिया केवल मीडिया ही नहीं, बल्कि लोगों को देखने-परखने व समझने का
एक साधन भी है |” ( पृ. –19 )
हरियाणा में औरत की स्थिति को बड़ी सजीवता से दिखाया गया है -
“ बचपन से विजय देखता आया है कि घर की औरतें खाना पकाती हैं, किन्तु
पुरुषों से पहले कभी नहीं खाती, जब पुरुष खाना खाने बैठते हैं, तो उन्हें खाना
परोसने वाली महिला दासी की तरह खड़ी रहती है और खाने में कभी नमक ज्यादा तो कभी
मिर्च ज्यादा की शिकायतें, पुरुषों की डांट-फटकार के साथ चुपचाप सुनती रहती है |”
( पृ. – 60 )
औरतों के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास है -
“ इन महिलाओं की भी अजीब प्रवृति होती है, जब किसी से मिलती हैं, तो पल भर
में ही किसी पर विश्वास करके उससे ऐसा रिश्ता बना लेती हैं कि जैसे एक-दूसरे को
वर्षों से नहीं, जन्मों से जानती हों और जब किसी से रूठती हैं, तो अपनों से भी यूँ
रूठ जाती हैं कि जैसे उनसे कभी कोई रिश्ता ही न रहा हो |” ( पृ. – 32 )
पत्नी के स्वभाव का बखान है -
“ औरत विश्वास से पहले शक करती है अपने पति पर |” ( पृ. – 29 )
पुरुष की तुलना में उसकी सूझ-बूझ का जिक्र है -
“ पुरुष की वासना भरी नजरों को समझने की जो शक्ति स्त्री के पास छठी
ज्ञानेन्द्रिय के रूप में होती है, उसका पुरुष अनुमान भी नहीं लगा सकता है |”
( पृ. – 88 )
मानवीय व्यवहार और उसके मनोभावों को समझने का प्रयास किया गया है | ईर्ष्या के
बारे में लेखक लिखता है -
“ इसे नाम दिया गया है ईर्ष्या का | जो है तो नफरत की छोटी बहन, मगर काम
करती है, उसे भी सबक सिखाने और मौका मिलते ही बदला लेने का |” ( पृ. – 14 )
विश्वास के बारे में वह लिखता है –
“ विश्वास हमारा वो मूल्य है, जिसे अर्जित हम करते हैं, किन्तु आंकते दूसरे
हैं |” ( पृ. – 14 )
जीवन-दर्शन
संबंधी अनेक सूक्तियां इस उपन्यास में मिल जाती हैं | गाडी की रफ्तार के माध्यम से
जीवन दर्शन बताया गया है –
“ जिंदगी में यदि तेज न चलें, तो तेज़ चलने वाले हमसे आगे निकल जाते हैं और
यदि हम सेफ अर्थात सावधान होकर न चलें तो हम कभी भी दूसरों से टकरा सकते हैं |”
( पृ. – 40 )
किसी से कैसा व्यवहार किया जाए इस बारे में बताया गया है –
“ जिन लोगों के साथ हमारे संबंध अपने किसी रोजगार अथवा व्यवसाय के कारण
होते हैं, वहाँ पद को सम्बोधित किया जाता है, न कि व्यक्ति को |” ( पृ. – 35 )
अवसर का महत्त्व समझाया गया है -
“ प्रतिभा और क्षमता को भी अवसर चाहिए और जो लोग अपने सिद्धांतों के चलते
किसी हाथ आए अवसर को ठुकरा दिया करते हैं उनसे अवसर भी कन्नी काटने लगते हैं |
अवसर और उम्र का भी अपना एक गणित होता है |” ( पृ. – 107 )
लोगों की वास्तविकता बताई गई है –
“ कई बार तो बहुत बोलने वाला व्यक्ति वक्त पड़ने पर पूरे का पूरा थोथा चना निकलता
है |” ( पृ. – 25 )
कुछ कड़वे सच का ब्यान है | भारत में न्याय देर से मिलता है इस पर लेखक लिखता
है -
“ मैं क्या करूंगा उस फैसले का जिसका निर्णय आते-आते उसके नौकरी लगने की
उम्र ही निकल जाएगी ?...” ( पृ. – 68 )
नेता लोग वोट देखते हैं –
“और मंत्री ? यह भी बहुमत देखता है, न कि हकीकत |” ( पृ. – 67 )
पात्रों के
दृष्टिकोण से यह नायक केन्द्रित उपन्यास है | पूरा घटनाक्रम ‘ विश्वास ’ के
इर्द-गिर्द घूमता है | विश्वास एक आदर्शवादी पत्रकार है और इसकी झलक उसकी उसके
कार्यों में झलकती है | लेखक कहता है –
“ बाकी लोग अधिकारियों की चमचागिरी से प्रसारणों में भाग लेने के अवसर पाते
रहते, वहीं वह अनियमितताओं को ढूंढ-ढूंढ कर उन्हें सामने लाना अपना प्रमुख दायित्व
समझता था, ताकि व्यवस्था ठीक हो तो उसका लाभ भी सभी को मिले |” ( पृ. – 108 )
वह अपने बारे में कहता है –
“ गाड़ी चलाते वक्त बात करने की मुझे आदत नहीं है |” ( पृ. – 34 )
और उसके कार्यों से गीता इस सच को महसूस करती है | विश्वास के बाद गीता इस
उपन्यास की प्रमुख महिला पात्र है | उसके खुद के शब्दों से उसका चरित्र उद्घाटित
होता है –
“ वजह यही है सर कि पत्रकारिता की पढ़ाई करते वक्त सीखा था कि पैसे के बल पर
सच का गला नहीं घोंटना है, जहाँ तक हो सके उसकी रक्षा करनी है |” ( पृ. – 36 )
रामसिंह का चरित्र इन पंक्तियों से उद्घाटित होता है -
“ सुना तो यहाँ तक भी गया है कि फाईलों के साथ-साथ इस केबिन की बात उस
केबिन में और फिर सब केबिन की बात बोस के केबिन में पहुँचाने की उसकी कला को देखते
हुए ही बोस ने उसे दिल्ली से दूर-दराज के इलाके में पड़ने वाले हरियाणा के एक गाँव
से लाकर नौकरी पर रखा हुआ है |” ( पृ. – 22 )
मालिक धर्म सिंह के बारे में कहा जाता है -
“ उसमें तो बस जातिवाद और जैसे-तैसे करके पैसे कमाने की लालसा ही कूट-कूट
कर भरी हुई है |” ( पृ. – 44 )
लेखक ने चरित्र वर्णन के लिए पात्रों के कार्य, दूसरे पात्रों के संवाद और खुद
पात्र का अपने बारे में ब्यान का सहारा तो लिया ही है, उनकी वेशभूषा और पहरावे से
भी उनका चित्रण किया है | मीनाक्षी का चित्रण वो इस प्रकार करता है –
“ गोल चेहरा, आँखों पर नजर का चश्मा, गोरा रंग और सलीके से पहनी क्रीम कलर
की साड़ी और पचास पार करने पर चेहरे पर झुरियां नहीं, और बालों की जो हल्की सी
सफेदी है उसे साड़ी के पल्लू से सलीके से ढकने का अंदाज |” ( पृ. – 121 )
गीता के पहरावे का बयाँ वह यूं करता है -
“ दरवाज़े की ओर मुड़ते-मुड़ते ही उसने अपना फोन तंग जींस की जेब में रखा था |” ( पृ. – 39 )
“ दरवाज़े की ओर मुड़ते-मुड़ते ही उसने अपना फोन तंग जींस की जेब में रखा था |” ( पृ. – 39 )
रामसिंह के चरित्र-चित्रण में भी इस विधि का प्रयोग हुआ है –
“ सफेद कुरते-पजामे में रामसिंह किसी नेता से कम नहीं लग रहा था | उसे
देखकर कोई कह ही नहीं सकता कि वह किसी ऑफिस में चपरासीगिरी करता होगा |” ( पृ.
– 75 )
संवाद के
दृष्टिकोण से भी यह उपन्यास एक सफल उपन्यास है | प्राय: संवाद छोटे और सटीक हैं |
संवादों के माध्यम से चरित्र उद्घाटित किये गए हैं | कथानक को गति मिली है | मुख्य
विषय के अतिरिक्त बातों को उठाने में संवादों की अहम भूमिका है | हरियाणा में
प्रचलित अंधविश्वासों को संवाद के माध्यम से बड़ी सहजता से कहा गया है -
“ ‘हाँ-हाँ, बैठिए न आप भी, वैसे भी हम चार लोग हैं, चार लोगों का एक साथ
बैठ कर खाना अशुभ माना जाता है |’ – किश्न ने कहा था |
‘हाँ, भाभी जी आप हमारे साथ खाना खाने बैठ जाइए, वरना किश्न
तो खाना खाएगा नहीं, आप नहीं जानती कि यह पढ़ा-लिखा होकर भी कितना मानता है, इस तरह
की बातों को |’ – राजेश ने कहा था |”
( पृ. – 59 )
नौकरियों में सिफारिश के बोलबाले को भी इस तरीके से स्पष्ट किया गया है -
“ “ कैसे क्या चौधरी साहब, एक तो सरला पढ़ाई में बहुत होशियार है और दूसरे
आजकल नौकरियां मंत्रियों की सिफारिश से मिलती हैं और भगवान की दया से दिल्ली में
रह रहे मेरे छोटे भाई के एक-दो मंत्रियों से बहुत अच्छे ताल्लुकात हैं |” – सरला
के पिता जी ने कहा था |” ( पृ. – 61 )
लेखक ने
कथा कहने के लिए वर्णनात्मक और संवादात्मक शैली को अपनाया है | वर्णात्मक शैली को
अपनाते समय कहीं-कहीं विचारों का विस्तार अधिक हो गया है, जिसे लेखक खुद भी महसूस
करता है, गीता की सोच पर लम्बा आलेख लिखने के बाद लेखक गीता के मुंह से कहलवाता है
–
“ अन्यथा उसने स्वत: ही विषय विशेष से संबंधित तथ्यों पर कुछ इस तरह से
विचार कर लिया था कि जैसे उसे इस विषय पर कोई भाषण देना हो या कोई लेख अथवा निबन्ध
लिखना हो |” ( पृ. – 84 )
इसी प्रकार गीता विश्वास को कहती है -
“ “सर आप तो चुटकला सुना रहे थे |” विश्वास की बात को चुटकले की बजाए भाषण
जैसा लगते ही बीच में ही टोक दिया था गीता ने |” ( पृ. – 92 )
वर्णन के द्वारा वातावरण का चित्रण किया गया है | वातावरण के प्रभाव को दिखाया
गया है -
“ सुबह सूर्य की सामने से पड़ती किरणें नए कार्यों और नए लक्ष्यों के लिए
अपनी बाहें फैलाकर उसका स्वागत कर रही थी |” ( पृ. – 72 )
भाषा विषयानुरूप और पात्रानुकूल है | रामसिंह हरियाणा का गँवार इंसान है, अत:
वह पूरे उपन्यास में हरियाणवी ही बोलता है -
“ क्यूँ, क्यांह तैं कोनी मेरा काम, मैं इस देश का नागरिक सूं, मन्ने बी वै
सारे अधिकार सैं, जो एक आम नागरिक नै सैं |” ( पृ. – 45 )
दंगों की रिपोर्ट संबंधी बात पत्रकारिता की भाषा में है -
“ आन्दोलनकारियों ने के आरक्षण की मांग किन्तु टस से मस नहीं हुई सरकार,
उपयुक्त कार्यालय और न्यायिक परिसर में भी घुसने का किया प्रयास, तो पुलिस को करना
पड़ा बल प्रयोग, उपायुक्त और न्यायाधीश ने भी गुजारी पार्क में रात ...” ( पृ. –
18 )
लोकप्रचलित कहावतों का प्रयोग है -
“ थानेदार की घोड़ी को घास डालने वाला घसियारा भी अपने आपको थानेदार समझने
लगता है |” ( पृ. – 22 )
संक्षेप में, यह
उपन्यास समाज की ज्वलंत समस्या को उठाता है, सच दिखाता है और इसके हल का सुझाव भी
प्रस्तुत करता है | भाषा-शैली और कथानक की बुनावट के दृष्टिकोण से रोचक है, जिसके
लिए लेखक बधाई का पात्र है |
दिलबागसिंह विर्क
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