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मंगलवार, अक्तूबर 02, 2018

लड़कियों, औरतों के जीवन पर सूक्ष्म नजर रखता कविता-संग्रह


कविता-संग्रह – ये कॉलेज की लड़कियाँ
कवयित्री – डॉ. आरती बंसल
प्रकाशक – प्रगतिशील प्रकाशन
पृष्ठ – 112
कीमत – 150/-
प्रगतिशील प्रकाशन से प्रकाशित डॉ. आरती बंसल के कविता-संग्रह ‘ ये कॉलेज की लडकियाँ ’ में 70 कविताएँ हैं | कवयित्री ने लडकियाँ शीर्षक से दो कविताएँ लिखी हैं, इसके अतिरिक्त वो लड़की, परम्पराओं से बंधी लड़की, ये कॉलेज की लडकियाँ कविताएँ भी हैं, अन्य कविताओं में भी लड़कियों को विषय बनाया गया है, जिससे स्पष्ट है कि लड़कियाँ इस संग्रह का केंद्र बिंदु है | कवयित्री लिखती है –
ये कॉलेज की लड़कियां / घर से निकलते वक्त /
सहेज लाती हैं अपने साथ / दादी के दिए संस्कार /
माँ की हिदायतें / और पिता का आशीर्वाद ( पृ. – 46 )

ऐसा इसलिए है कि कॉलेज की लड़कियों पर सामज की बंदिशें हैं, परिवार की इज्जत की जिम्मेदारी है, जिनका लड़कियाँ बखूबी पालन करती हैं और इन बंदिशों को मानते हुए भी जीवन के हसीन पल चुरा लेती हैं | कक्षा में बैठे चुहलबाज़ी करती हैं | ये उनका अधिकार है, इसलिए कॉलेज की लड़कियां जब कक्षा में पढ़ाई के इतर गतिविधियाँ करती हैं, तो कवयित्री उन्हें उनकी अनुशासनहीनता न मानकर उनमें रस लेती है, आनन्दित होती है | भीख मांगने वाली उस मासूम लड़की का भी चित्रण है, जो अपनी हमउम्र लड़कियों को स्कूल जाते ललचाई नजरों से देखती है | लड़कियों के साथ-साथ लड़कियों के प्रति माँ-बाप का भी नजरिया ब्यान किया गया है | माँ जब अपनी बेटी के सपनों को पंख देती है, तो विरोधी वक्त भी सहायक बन जाता है, लेकिन कभी-कभी माँ-बाप बेटी की हर मांग को पूरा करते हुए भी, मांग के पूरे हो जाने की आदत बन जाने से डरते हैं | यह डर क्रूर समाज का है, आगे ‘न जाने कैसी ससुराल मिलेगी’ का है | ससुराल का सहयोगी न होना, नारी जीवन की सबसे बड़ी व्यथा है | इसी व्यथा का ब्यान करते हुए कवयित्री बाबा से कहती है कि वह उसकी गुडिया को कभी विदा न करे | सपने अब सपने ही रह गए हैं | वह निराश होकर कहती है कि लड़की चमकीली आँखों के सपनों को अलाव में झोंक दे |
                कवयित्री औरत की पीड़ा को भी कविताओं में ब्यान करती है | औरत की अपनी रोटी का जल जाना उसकी उलझनों को बताता है | ‘ खिड़की और वो ’ कविता में खिड़की औरत की सहेली है, क्योंकि दरवाजा उससे नाराज रहता है; इस कविता के माध्यम से वह नारी पर लगी समाज की बंदिशों को रेखांकित करती है | वह सड़क के माध्यम से नारी जीवन की पीड़ा को बड़ी खूबसूरती से ब्यान करती है | बर्तनों की आवाजें बता देती हैं कि भीतर कितना शोर है | पराया धन, पराई बेटी जैसी बातें सुनने की उसे आदत हो गई, इसी आदत ने उसे अकेले रहने का सामर्थ्य दिया है | उसे अब अपने हमसफर से भी बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं –
जाओ.../ तुम्हारी अपूर्णता के साथ ही / मैंने तुम्हें मुक्त कर दिया /
मुझे ढलने दो / मेरे एकांत और / प्रेम के सान्निध्य में ( पृ. – 16 )
अधूरापन अब उसे निराश निराश नहीं करता –
उजाले की रश्मियों को / अँधेरे में / समाए रखता है /
यूँ अधूरापन / जीने के अहसास को / बचाए रखता है ( पृ. – 21 )
चालीस पार करते ही औरत माँ की तरह सोचने लगती है | पढ़ी-लिखी औरतें दिखती कठोर हैं, क्योंकि उन्होंने जीवन का कडवा सच जान लिया है, लेकिन भीतर से वे मोम होती हैं |
                 औरत के साथ पुरुष का वर्णन होना और दोनों की तुलना होना भी स्वाभाविक है | कवयित्री कहती है कि पुरुष कभी नहीं समझ पाता कि स्त्री उसके लिए क्या करती है | वह पुरुष-स्त्री के प्रेम के अंतर को भी दिखाती है –
तुम दिल से / देह में उतर रहे थे / मैं दिल से /
रूह में उतर रही थी / यूँ प्रेम को / तुम और मैं /
अपने अपने ढंग से / जी रहे थे  ( पृ. – 50 )
                  प्रेम क्या नहीं है और क्या है, इसे भी परिभाषित किया गया है | वह प्रेम के पलों का वर्णन भी करती है –
और ज्यों ही / मेरी नर्म कलाई / को छुआ तुमने /
मेरी रूह तक में / दौड़ गई थी /
तुम्हारी छुअन / की सिहरन ( पृ. – 33 )
कवयित्री को लगता है कि हर कोई प्रतिदिन प्रेम पत्र तो लिखता है, लेकिन सही पता न मिल पाने के कारण भेज नहीं पाता | वह प्यार में फलक के सितारे, चमन की खुशबू नहीं चाहती, उसकी चाहत सिर्फ इतनी है –
मैंने तो बस / महसूस करनी चाही थी / तुम्हारी छुअन की सिहरन /
मैंने तो बस चाही थी / तुम्हारे प्यार की लाली /
क्योंकि मैं ‘मैं’ से / तुम होना चाहती थी  ( पृ. – 26 )
प्रेम है, तो इन्तजार है, यादें हैं, उदासियाँ हैं | साया ही उसे समझता है | इन्तजार में वक्त का रुक जाना घड़ी के रुक जाने सा है | याद बिना दस्तक के चली आती है | यादों भरी शाम लिखवाती है | जब मन को उदास कविताएँ अच्छी लगती हैं, तो डायरी के पिछले पन्नों पर लिखी अधूरी नज्में नए भावों के साथ तैयार होने लगती हैं, हालाँकि उसे लगता है कि कुछ कविताओं के प्रारब्ध में विधाता केवल मौन लिख देता है |
                     कवयित्री बचपन को याद करती है, बचपन को फिर से जीना चाहती है | आधुनिक दौर के छोटे बच्चे की पीड़ा को ब्यान करती है | गाँव को याद करती है, गाँव के छूटते ही बहुत कुछ छूट गया है, मन गाँव के पुराने घर की और बार-बार लौटता है | शहरीकरण से बदलते रूप को देखती है | पिता को याद करती है, रिटायर हुए पिता के दुःख को देखती है | उसे लगता है कि हम नित नए अभिनय के लिए खुद को तैयार करते हैं | हमने झूठी शानो-शौकत को अपना लिया है | जमाना हर बात में नुक्ताचीनी करता है | वह मिर्च-नीम्बू बेचने वाले दीनू का वर्णन करती है, तो कूड़ा-करकट बीनने वाली गुनिया को भी देखती हैं | काम पर जाने वाली औरतें विरोधी परिस्थियों के बावजूद जीवन को हरा देती हैं | वह शहद इकट्ठा करने वालों के आशावादी दृष्टिकोण को उजागर करती है | कवयित्री का खुद का नजरिया भी आशावादी है | वह लिखती है –
जिंदगी यदि / उतनी हसीं नहीं / जितनी हमने चाही /
तो उतनी / बुरी भी नहीं / जितनी हमने सोची ( पृ. – 29 )
सत्य का मानवीकरण करते हुए उसे लकवाग्रस्त कहती है | उसे लगता है नीति बनाने वाले जमीनी हकीकत से परिचित नहीं –
वसुधैव कुटुम्बकम / और गलोब्लैजेशन / जैसे बड़े शब्द /
रोटी के सामने / बौने लगते हैं ( पृ. – 62-63 )
                        कविता कवयित्री से संवाद करती है और ऐसे सवाल खड़े करती है, जिसके लिए कवयित्री सिर्फ दुआ कर सकती है | वह मौन को बचना चाहती है | वह तितलियों, जुगनुओं, शब्द, अर्थ और संवाद को बचाना चाहती है | वह चाहती है कि आश्वासन, देह, मैं की बजाए विश्वास, रूह, हम लिखा जाए और वो भी रेत पर नहीं, अपितु पानी पर | उसे लगता है कि मछलियाँ हों, तारे हों, चाँद हो, समुद्र हो, सबकी अपनी-अपनी चाहते हैं | वह लोगों के सयानेपन व्यंग्य करती है और विरोधी चीजों के महत्त्व को बताती है, वह अपने भीतर के कवि को विरोधी बातें लिखने को कहती है | बदलते समय के कुरूप पक्ष को उजागर करती है, सोशल मीडिया के नकारात्मक पहलू को दर्शाती है | वह अपनी चाल खुद निर्धारित करने को कहती है, अपने इरादों पर भरोसा करने को कहती है |  वह जिंदगी से एक अवसर माँगती है, ताकि प्रेमगीत लिख सके, डिबिया भर हरापन लिख सके | उसे लगता है कि सिर्फ प्रेम ही अनकहा नहीं रहता, अपितु भय भी अनकहा रह जाता है | वह देह और आत्मा के संघर्ष को दिखाती है | वह नारी की पीड़ा लिखना चाहती है, लेकिन कलम लड़की के सुनहले पंखों पर हवा लिख देती है |
                      जब रास्ते उसे रोकते हैं, तो उसके कदम रुकते नहीं, अपितु तेज हो जाते हैं | वह दिन व्यतीत करने की बजाए जीवन जीने की पक्षधर है और संस्कारों की पोटली हमें इससे रोकती है, वह लिखती है –
हम से बहुत पीछे / छूट गया है /
हमारा होना ( पृ. – 111 )
                कविता-संग्रह यहाँ लडकियों, औरतों के जीवन पर सूक्ष्म नजर रखता है, वहीं जीवन के विविध पहलुओं को भी देखता है | भाव पक्ष से विविधता लिए यह संग्रह शिल्प पक्ष से भी समृद्ध है | वर्णनात्मक शैली के साथ-साथ तुलनात्मक शैली को भी अपनाया गया है और तुलना करते हुए कवयित्री अनेक उपमाएं करती है | संवेदना की उपमा कच्ची धूप, ढलती शाम, ठंडी बर्फ से की गई है | लड़कियों की जीवन शैली का चित्रण करते हुए, उनकी उपमा नादान रश्मियों से बांधी है | संग्रह की शुरुआत मानवीकरण के सुंदर उदाहरण से होती है –
मेरी कविता / मेरे पास आकर / बैठ जाती है /
मेरी पीठ / थपथपाती है ( पृ. – 7 )
          संक्षेप में, यह कविता-संग्रह कवयित्री का सराहनीय प्रयास है, जिसका निस्संदेह साहित्य जगत में स्वागत होगा |
दिलबागसिंह विर्क
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