उपन्यास - बोलो गंगापुत्र
लेखक - डॉ. पवन विजय
प्रकाशक - रेड्ग्रेब
पृष्ठ - 112
कीमत - 99 /- ( पेपरबैक )
इतिहास हमेशा विजेताओं द्वारा लिखित होता है, इसलिए इतिहास में विजेताओं का यशोगान होना स्वाभाविक है | इतिहासकार और साहित्यकार का प्रमुख अंतर यही है कि साहित्यकार इतिहासकार की तरह हमेशा विजेताओं के पक्ष में खड़ा नहीं होता | साहित्य में प्राय: दबे-कुचले वर्गों, पात्रों का पक्ष लिया जाता है | डॉ. पवन विजय कृत उपन्यास " बोलो गंगापुत्र " महाभारत के युद्ध के बाद के दिनों में शरशैय्या पर पड़े भीष्म को युद्ध के विषय में मंथन करते और दुर्योधन के पक्ष में विचार करते हुए दिखाता है | इस उपन्यास में विजेता पक्ष पर ऊँगली उठाई गई |
साहित्य को पराजितों का पक्ष लेना चाहिए लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पराजित निर्दोष हो | विजेता सदैव आततायी होते हैं और पराजित निर्दोष, ऐसा मानकर चलना पूर्वाग्रह हो सकता है | बहुधा दूध का धुला कोई पक्ष नहीं होता लेकिन पराजित से साहित्यकार उसी तरह सहानुभूति दिखा जाता है, जैसे इतिहासकार विजेता का यशोगान करके करता है | डॉ. पवन विजय की सहानुभूति भी इसी तरह कौरवों से है | वह कई जगहों पर पांडवों को गलत ठहराता है, जैसे काल कहता है -
" ' अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो |' नामक जिस वाक्य से युधिष्ठिर का बचाव किया गया है, उस वाक्य को कहीं भी मैंने नहीं सुना, और न ही मेरे द्वारा कभी यह वाक्य अंकित किया गया |" ( पृ. - 66 )
कृष्ण के मुख से कहलवाया गया है -
" पितामह, द्रौपदी ने दुर्योधन का अपमान कभी नहीं किया | जो बातें आपको बताई गई हैं, उनमे सत्यता नहीं है |" ( पृ. - 77 )
यह लेखक का निजी दृष्टिकोण है | इसी प्रकार का दृष्टिकोण धृतराष्ट्र के उत्तराधिकारी को लेकर भी है -
" नीति अनुसार बड़ा पुत्र ही राजगद्दी पर बैठने का अधिकारी होता है, परन्तु मेरे द्वारा धृतराष्ट्र के नेत्रहीन होने की बात उठाई गई, ........
धृतराष्ट्र को उस समय यह कहकर दिलासा दिया गया, कि अभी चाहे उसका अनुज पांडू, हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी है, परन्तु अगली पीढ़ी से उसका ही ज्येष्ठ पुत्र इस राजगद्दी पर विराजमान होगा |"( पृ. - 56 )
लेखक ने इस दिशा में उस पक्ष की उपेक्षा की है जिसमें राजा भरत द्वारा अपने वंश में योग्य व्यक्ति को उत्तराधिकारी बनाने की परम्परा की शुरूआत की थी लेकिन लेखक की अपनी विचारधारा होती है और वह उसी विचारधारा को लेकर रचना करता है | यह उपन्यास कौरवों के सिंहासन पर हक को मानते हुए लिखा गया है | इस पर सहमति-असहमति हो सकती है, लेकिन लेखक जिन महत्वपूर्ण बिन्दुओं, प्रश्नों को उठाता है उन पर असहमति की संभावना कम ही है |
इस उपन्यास की कथावस्तु में भीष्म की यह जानने की जिज्ञासा है कि उसने जो कार्य किया वो कितना उचित था, हालांकि उसका अंतर्मन अब दुर्योधन से पक्षपात होने की बात स्वीकार कर रहा है | वह 58 दिन तक शरशैय्या पर रहता है | युद्ध समाप्ति के बाद वह काल, वासुदेव, अश्वत्थामा, वेद व्यास, संजय आदि से वार्तालाप करता है | इस उपन्यास को 14 अध्यायों में विभक्त किया गया है | प्रथम अध्याय में युद्धोत्तर हालात दिखाते हुए प्रश्नों के अनुत्तरित रहने की बात कही गई है | उपन्यास की कथा दूसरे अध्याय ' आह वत्स दुर्योधन ' से होती है | इस अध्याय में भीष्म और काल का संवाद है | काल प्रश्न पूछता है तो भीष्म उससे बचना चाहता है -
" मुझे प्रश्नों के उत्तर ढूँढने और देने से मुक्ति चाहिए; प्रश्नों के विषधर, जीवन भर मेरे शरीर से लिपटकर डसते रहे हैं; उनके विषदंतों की पीड़ा भोगते-भोगते मैं थक गया हूँ, मुझे उत्तर ढूँढने पर विवश मत करो काल | "( पृ. - 20 )
काल का मानना है कि अनुत्तरित प्रश्न भीष्म को दोषी बना देंगे | भीष्म का काल से प्रश्न बड़ा महत्त्वपूर्ण है -
" जो कौरवों के भाग्य में था, वह उनके साथ हुआ, जो पांडवों के भाग्य में था उन्हें मिला ... फिर इन सबके बीच में मेरा सही अथवा गलत होना कैसे आ गया ? क्या मैं इतना शक्तिशाली हो गया कि काल के कपाल पर लिखे अक्षरों को मेट डालता और उन पर नये शब्द रख देता ?"( पृ. - 22 )
तीसरा अध्याय ' विजय किसकी ' में भीष्म और वासुदेव का संवाद है | भीष्म काल के प्रश्नों का हल वासुदेव से चाहता है वासुदेव भीष्म की दृष्टि को गलत ठहराते हुए कहते हैं -
" आप वस्तुनिष्ठता के बजाय व्यक्तिनिष्ठता के आधार पर उत्तर देखने का प्रयास कर रहे हैं |" ( पृ. - 24 )
परिणाम के सन्दर्भ में कृष्ण की उक्ति लाजवाब है -
" परिणाम तो एक प्रक्रिया है पितामह; यह एक बिंदु पर ठहरने वाली वस्तु नहीं | विश्व के हर क्षण संघर्ष, और हर क्षण विजय है |" ( पृ. - 24 )
चौथा अध्याय ' काली ' भीष्म के अतीत से संबंधित है | काली वो स्त्री है, जिसकी शादी अपने पिता से करवाने के लिए देवव्रत भीष्म बन जाता है | लेखक अतीत में झांकते हुए महत्वपूर्ण बिन्दुओं को उठाता है | धर्म के बारे में वह लिखता है -
" धर्म की परिभाषा क्या है ? क्या धर्म की आवश्यकता उन बहुतायत लोगों के लिए है, जो सोचने का सामर्थ्य रखते हैं, या उनके लिए, जो सोचने की सामर्थ्य ही नहीं रखते ? क्या विश्वास ही धर्म है, जिसके ऊपर कोई तर्क नहीं चलता ? या धर्म भावयुक्त व्यक्तियों के शोषण के लिए बना है ? क्या मृत्यु का भय, धर्म की स्थापना करवाता है ? देवव्रत से भीष्म बनना धर्म है ? धर्म तो सार्वभौमिक और सार्वकालिक होने चाहिए, फिर किस धर्म की स्थापना के लिए सभी लोग आपस में लड़ेंगे ?"( पृ. - 31 )
काली के माध्यम से लेखक ने प्रेम और काम को भी परिभाषित किया है -
" उसके अंदर तो काम भी नहीं था, क्योंकि काम का वेग शर्तों के चप्पुओं से नहीं चलता...ये तो सागर की वे लहरें होती हैं, जो अपना तटबंध तोड़कर सब बहा ले जाती है | किसी की तरफ आकृष्ट होना कामवासना हो सकती है परन्तु उसके लिए अपने-आपको निछावर कर देने कि भावना प्रेम है |" ( पृ. - 34 )
' नियति और कर्म ' नामक पांचवे अध्याय में काल और भीष्म की बातचीत है | लेखक मानव की प्रकृति को परिभाषित करता है -
" श्वानों. श्रृगालों और गिद्धों में युद्ध चल रहा है | इतने शव गिरे हैं कि इनकी न जाने कितनी पीढ़ियाँ इन्हें खाकर अपनी क्षुधापूर्ति कर सकती हैं ... किन्तु लड़ाई चलती रहती है | मानव भी इन मृतमांसभक्षी प्राणियों की वृत्ति से ऊपर नहीं उठ पाया है | लड़ाई करना उसके मूल स्वभाव में है, बाकी भूमि संपत्ति इत्यादि तो केवल बहाना मात्र हैं |" ( पृ. - 36 )
इस अध्याय में भाग्यवाद को भी परिभाषित किया गया है -
" नियति किसी के कर्म कभी निर्धारित नहीं करती | आप आज क्या करोगे, यह विधाता की लेखनी तय नहीं करती; बल्कि आप जो आज करोगे, उसके अनुसार आपको कौन-सा कर्म करने को दिया जाए, या आपकी कौन-सी भूमिका बनाई जाय, यह नियति तय करती है गंगापुत्र |" ( पृ. - 37 )
लेखक इसका उदाहरण भी देता है -
" यह प्रकृति का नियम है कि गर्मी बढ़ेगी तो बारिश होगी ही होगी |" ( पृ. - 37 )
इस अध्याय में काल भीष्म को स्पष्ट करता है -
" सत्य यह है कि आपने धर्म की बजाय स्वयं का ही पक्ष लिया |" ( पृ. - 40 )
काल का यह कहना कथावस्तु को अधिक स्पष्ट करता है कि -
" कुरुक्षेत्र के महासमर में पक्ष-विपक्ष के रूप में कौरव और पांडव देखना दृष्टिदोष है | यदि अभिमन्यु की हत्या महापाप थी, तो द्रोण की हत्या भी तो उसी श्रेणी में आती है | स्वयं आपका युद्धभूमि में गिरना, धर्म के नाम पर धब्बा ही था गंगापुत्र |" ( पृ. - 43 )
छठे अध्याय में गंगा अपने पुत्र के पास आती है और महत्त्वपूर्ण उपदेश देती है -
" पुत्र देवव्रत ! अपने मूल में जो है, उसके विरुद्ध कर्म करना और उसका परिणाम दोनों ही भयावह होता है, इसलिए अपनी चेतना को प्रकृति से जोड़ो और उसे जगाओ; उसका जागना ही तुम्हारे व लोक जीवन को मंगलमय मार्ग की ओर प्रशस्त करेगा |" ( पृ. - 44 )
माँ गंगा मानव का स्वभाव भी बताती है -
" सब तरह के प्राणियों में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो अधोगामी और उर्ध्वगामी, दोनों तरह की यात्राएं कर सकता है |" ( पृ. - 45 )
इस अध्याय में लेखक का निर्णयात्मक दृष्टिकोण भीष्म के शब्दों में व्यक्त होता है -
" धृतराष्ट्र के बाद राजा दुर्योधन को ही बनना था, फिर पांडवों का अधिकार कैसे बन गया ?" ( पृ. - 48 )
इस अध्याय में भविष्यवाणी भी की गई है -
" मैं भविष्य में मैला ढोने का वाहन बन जाऊंगी |" ( पृ. - 47 )
' अमरता ' नामक सातवें अध्याय में अश्वत्थामा की दशा दिखाते हुए उसका भीष्म से संवाद है | भीष्म उसे महत्त्वपूर्ण संदेश देते हैं -
" अश्वत्थामा, भूतकाल की गलती को प्रायश्चित से सुधारा जा सकता है |" ( पृ. - 52 )
' अंतिम कौरव ' नामक आठवें अध्याय में काल और भीष्म का संवाद है | काल ' नियोग पद्धति ' को श्राद्ध की दृष्टि से अनुचित मानता है -
" जिन्हें आप कौरव या पांडव कहते हैं, वस्तुत: वे कुरुवंश से संबंधित नहीं हैं, वे तो महर्षि पाराशर के वंशज हैं | धृतराष्ट्र, पांडव या विदुर, ये सब तो महर्षि वेदव्यास की संताने हैं, जिनकी शिराओं में पाराशर के पुरखों का रक्त बह रहा है | कुरु रक्त का कौरव और पांडवों से कोई लेना देना नहीं है |" ( पृ. - 59 )
नौवें अध्याय ' सत्ता ही सत्य है ' में सत्ता धर्म की बात की गई है | मानव स्वभाव के बारे में कहा गया है -
" मनुष्य होता ही ऐसा है; हर अस्तित्व पर प्रश्न करता है, पर स्वयं पर लगे प्रश्नचिह्नों पर चुप्पी लगा जाता है क्योंकि स्वयं को अस्वीकार करने का अर्थ है, स्वयं को अप्रमाणित करना, जिसे कोई व्यक्ति जीवित रहते कभी नहीं कर सकता |" ( पृ. - 61 )
लेखक काल के माध्यम से कहलाता है -
" विजयी नायक पक्ष के गुणों और पराजित के दोषों का जोर-शोर से बखान और उनका अधिकाधिक प्रकाशन किया जाएगा |" ( पृ. - 64 )
इस अध्याय में द्रोण-द्रुपद प्रसंग और एकलव्य प्रसंग को भी उठाया गया है |
दसवें अध्याय ' दुविधा के पार ' में भीष्म-गंगा और भीष्म-कृष्ण में संवाद है | कृष्ण कहता है -
" आपको नहीं लगता पितामह कि दुर्योधन के ऊपर हर व्यक्ति ने अपनी महत्त्वकांक्षा रोपी, अपने-अपने अवसाद का विष फेंका |" ( पृ. - 73 )
कृष्ण के मुख से भी लेखक ने अपना दृष्टिकोण कहलवाया है -
" हाँ, वह अपनी जगह सही था | उसने किसी दूसरे के अधिकार पर कोई अनुचित अधिकार नहीं किया था | राज्य पर उसके पिता का शासन था, और नियमानुसार वह राज्य का उत्तराधिकारी था |" ( पृ. - 76 )
कृष्ण भीष्म और अन्य सभासदों पर आरोप भी लगाते हैं -
" आप सब ने अपना भविष्य गांधार नरेश शकुनी के हाथों सौंप दिया |" ( पृ. - 73 )
वह उनको क्या किया जाना चाहिए था, के बारे में भी बताता है -
" यदि गलत फैसले रोके नहीं जा सकते, तो कम से कम उसमें भागेदारी नहीं होनी चाहिए; जैसा कि युयुत्सु और दाऊ ने किया |" ( पृ. - 79 )
लेखक ने मानव स्वभाव को यहाँ भी स्पष्ट किया है -
" हर व्यक्ति अपना मूल्यांकन स्वयं करता है, और फिर उसकी स्वीकृति बाह्य जगत से चाहता है |" ( पृ. - 74 )
धर्म और सामाजिक व्यवहार संबंधी महत्त्वपूर्ण बातें कही गई हैं -
" धर्म व्यक्तिगत ही होता है...सामूहिक व्यवहार तो सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए बनाए गये होते हैं |" ( पृ. - 81 )
धर्म और सामाजिकता में से किसे चुना जाए इस बारे में कहा गया है -
" यदि सामूहिकता का बचाव व्यक्तिगत धर्म को त्याग कर होता है, तो यह श्रेष्ठ कृत्य है |" ( पृ. - 81 )
ग्यारहवां अध्याय ' वचनपालन या पलायन ' भीष्म के काल और वेद व्यास से वार्तालाप पर आधारित है | इस अध्याय में भी काल भीष्म को उसके कृत्यों के लिए दोषी ठहराता है -
" मन, क्रम, वचन, मान, अपमान, इन सभी से बड़ा राष्ट्र होता है; ........
स्मरण रहे, जो जितना शक्तिशाली होता है, उसका उत्तरदायित्व और जिम्मेदारी उतनी ही बड़ी होती है |" ( पृ. - 84 )
वेद व्यास के मुख से लेखक ने महत्त्वपूर्ण दर्शन ब्यान किया है -
" जिस रास्ते से समाधान मिले, समृद्धि मिले, अभाव मिले, अभय मिले; और जो रास्ता सह अस्तित्व की ओर जाए, वही सत्य है, सार्वभौमिक है, सनातन है, वही नित्य और अविनाशी है वत्स | ....
ध्यान रहे, सत्य ही तप, योग और सनातन ब्रह्म है | ....
एक बात और, वो यह कि सत्य किसी के पक्ष में नहीं होता, बल्कि लोग सत्य या असत्य के पक्ष में जाकर खड़े हो जाते हैं |" ( पृ. - 89 )
बारहवें अध्याय ' सीमा रेखा ' में काल का भीष्म से संवाद है | काल के मुख से लेखक ने बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कही है -
" यदि प्रमाणित करने वाले के मन में कोई खोट हो, तो उसके द्वारा प्रमाणित बातें कौन से सिद्धांत का निर्माण करेंगी गंगापुत्र ?" ( पृ. - 93 )
गुरु के बारे में कहा गया है -
" गुरु, मात्र प्रस्तावक होता है; प्रमाण और पुष्टि के लिए जिस तप ज्ञान ध्यान की आवश्यकता होती है, उसके रास्ते गुरु बता देता है, किन्तु कार्य तो करना ही होगा गंगापुत्र; वासुदेव ने यही तो कहा था अर्जुन से |" ( पृ. - 95 )
तेरहवें अध्याय ' बोध ' भीष्म-संजय और भीष्म-विदुर का वार्तालाप है | लेखक इस अध्याय में भी भीष्म पर आरोप निर्धारित करता है -
" मुझे ऐसा प्रतीत होता है, जितने प्राणप्रण से आपने अपने गुरु परशुराम के विरुद्ध युद्ध किया था, उतनी प्रतिबद्धता और संकल्प आपने शकुनी को हस्तिनापुर के बाहर करने में लगाई होती, तो इतिहास आज दूसरा होता | जब वचनों और सत्य की आड़ लेकर स्वार्थ सिद्धि के कार्य किये जा रहे हों, तो वहां साधनों में पवित्रता की बात गौण हो जाती है |"( पृ. - 99 )
विदुर का संकेत भी कुछ ऐसा ही है -
" दीमक यदि लकड़ी में लग जाए तो हमें दीमक के नष्ट करने का प्रयोजन करना चाहिए, न कि लकड़ी में दोष निकालना चाहिए |" ( पृ. - 101 )
इस अध्याय में भीष्म अपने दोषों को स्वीकारता भी है -
" दुर्योधन मैं तुमसे क्षमा माँगता हूँ वत्स !" ( पृ. - 100 )
अंतिम अध्याय ' महाप्रयाण ' में भीष्म शांत हैं | वह जान जाता है -
" ज्ञान, कर्तव्य और विज्ञान से भी बढ़कर है प्राणिमात्र के प्रति संवेदनाओं की अनुभूति; संवेदना के आधार पर ही सत असत का निर्धारण होता है |" ( पृ. - 107 ) लेखक ने इस कथा को पात्रों के संवाद के माध्यम से कही है, संवाद मध्यम आकार के हैं लेकिन कहीं-कहीं अत्यधिक विस्तार भी है, यथा पृष्ठ 64 से 67 तक काल का भाषण है, लेकिन इसे छोड़ दिया जाए तो संवाद रोचक हैं और कथा को आगे बढाते हैं | पात्रों के दृष्टि से यह मुख्यतः भीष्म पर केन्द्रित उपन्यास है और काल, कृष्ण. वेद व्यास, संजय, विदुर; उसके चरित्र को उद्घाटित करते हैं | भीष्म की स्वीकारोक्तियाँ भी उसके चरित्र को ब्यान करती हैं, यथा -
" हाँ, यह प्रतिज्ञा मेरी मजबूती नहीं वरन मजबूरी का द्योतक है |" ( पृ. - 48 )
लेकिन भीष्म के चरित्र में दुविधा की प्रखरता अधिक हो सकती थी | भीष्म का मोह पांडवों से क्यों था, और दुर्योधन से क्यों नहीं था, इसे उभारा जा सकता था | निस्संदेह भीष्म शकुनी पर लगाम नहीं लगा सका, दुर्योधन को अच्छा नहीं बना सका लेकिन जिस औलाद का पक्ष माँ-बाप लेता हो, माँ भाई को मानती हो तो मामे-भांजे पर लगाम लगा पाना पितामह के वश की बात कहां होता है ? इस दृष्टिकोण से भीष्म कुछ बेचारगी का हकदार था | अन्य पात्रों का चरित्र चित्रण लेखक ने विभिन्न संदर्भों में किया है | काली के बारे में काल कहता है -
" राजा शांतनु ने उस काली को पसंद किया, जो शुरू से ही महत्त्वाकांक्षी और स्वार्थी थी; जो हमेशा शर्तों के चप्पू से जीवन को खेती आ रही थी |" ( पृ. - 34 )
दुर्योधन के बारे में काल कहता है -
" केवल दुर्योधन ऐसा व्यक्ति था, जिसने यह कहने का साहस किया कि उसकी धर्म में प्रवृत्ति नहीं है | इतनी निश्छलता से इस बात को स्वीकार करना मानव के उच्च गुण को प्रदर्शित करता है |" ( पृ. - 40 )
काल कृष्ण के बारे में कहता है -
" वह एक तरफ, धर्म प्रवर्तन करने वाला चक्र धारणा करते हैं, तो दूसरी और तीनों लोकों को शान्ति और स्नेह में भिगोती बांसुरी को भी धारण करते हैं |" ( पृ. - 41 )
अश्वत्थामा के बाहरी रूप-रेखा का खांका खींचा गया है -
" तीक्ष्ण रक्त की दुर्गन्ध लिए, तथा श्वान की टांग को चबाती एक भयंकर आकृति अकस्मात भीष्म के सामने प्रकट हुई, जिसका पूरा चेहरा, रक्त और मांस के टुकड़ों से सना हुआ था, और उसके माथे के बीचों बीच एक बड़ा-सा घाव, जिससे लगातार काला लहू टपक रहा था | कंधे पर जनेऊ और होंठो पर पीड़ा का मंदराचल पर्वत रखे उस आकृति ने भीष्म के पास आकर जोर से अपने पैर पटके |" ( पृ. - 50 )
वह ख़ुद के बारे में कहता है -
" राजकुमारों के बीच रहते रहते मैं अपने को असुरक्षित महसूस करने लगा था |" ( पृ. - 52 )
इस उपन्यास का कथानक युद्ध के बाद के समय का है | युद्ध के बाद के भयावह हालातों के चित्रण में लेखक सफल रहा है | उसने अनेक जगहों पर युद्ध स्थल का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है | एक नमूना -
" रक्त की बूँदें ओस के साथ जब धरती पर गिरती तो लगता कि कोई खून की उलटी कर रहा हो | हाड कंपाती बर्फीली हवाएं रक्त को जमाती गलाती, सांय सांय करती तेजी से सांप की जिह्वा के जैसे इधर-उधर लपलपाती फिर रही है |"( पृ. - 85 )
उपन्यास की शैली प्रमुखत: संवादात्मक है | इस कथा को कहने के लिए काल नामक पात्र की रचना महत्त्वपूर्ण है | भाषा संस्कृतनिष्ठ है, लेकिन इसे कठिन नहीं कहा जा सकता | विषयानुकूल होने के कारण यह स्वाभाविक बन पाई है -
" जगह-जगह बिखरे क्षत-विक्षत शव अपने अहंकार की कहानी कह रहे हैं | गिद्धों का झुण्ड आज उनके अहंकार को अपने पंजो से नोच-नोचकर खा रहा है | युद्धसिंहों की लाशों पर शृगाल उत्सव मना रहे हैं |" ( पृ. - 17 )
साहित्यकार के नाते कौरवों के पक्ष को सुना जाना चाहिए, उठाया जाना चाहिए लेकिन युद्ध के बाद अचानक भीष्म को दुर्योधन उचित क्यों लगा इसके लिए अगर काल और भीष्म में कुछ ज्यादा तर्क-वितर्क होते, भीष्म पांडवों का पक्ष लेता और काल कौरवों का तो संभवतः यह कृति और आकर्षक बन पड़ती, लेकिन अभी भी यह प्रयास काफ़ी सराहनीय कहा जा सकता है | यह उपन्यास सिर्फ कौरव-पांडव की बात नहीं करता अपितु युद्ध, धर्म, प्रतिज्ञा, राष्ट्र की भी बात करता है जो इसका सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है | यह निष्कर्ष तो प्रत्येक युद्ध के सन्दर्भ में लागू होता है -
" यह युद्ध धर्म के एक समूह और अधर्म के दूसरे समूह के बीच नहीं लड़ा गया था, बल्कि दोनों पक्षों में धर्म-अधर्म समान रूप से विद्यमान था |" ( पृ. - 109 )
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दिलबागसिंह विर्क
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