कहानी-संग्रह - मुझे तुम्हारे जाने से नफ़रत है
लेखिका - प्रियंका ओम
प्रकाशक - रेडग्रेब बुक्स
पृष्ठ - 184
कीमत - 175/- ( पेपर बैक )
सिर्फ पाँच कहानियों का संग्रह है " मुझे तुम्हारे जाने से नफ़रत है " | पुस्तक में 184 पृष्ठ हैं और कहानियाँ पाँच तो स्पष्ट है कि कहानियाँ लम्बी हैं | अंतिम कहानी अन्यों की अपेक्षा छोटी है जबकि पहली सबसे लम्बी है | बीच की तीन कहानियाँ भी 40-40 पृष्ठ के लगभग हैं | आकार बड़ा होने की बावजूद कथानक के दृष्टिकोण से ये कहानियाँ ही हैं, लघु उपन्यास जैसा कुछ नहीं | लेखिका ने पात्रों के चरित्र उदघाटन, सजीव वर्णन और अपने ज्ञान के आधार पर विषयों को विस्तार दिया है | विषय आधुनिक जीवन और विशेषकर उन जगहों से संबंधित हैं जहाँ लेखिका रह रही है या रहती रही है |
कथानक के दृष्टिकोण से प्रथम कहानी ' प्रेम पत्र ' तीन लड़कियों - काजल, स्वाति और मीनू की कहानी है जो पक्की सहेलियाँ हैं, लेकिन ईर्ष्या जो औरत का स्वाभाविक गुण है, वह उनमें विद्यमान है और उनके रिश्ते को बिगाड़ता है | वैसे भी वे जवान हो रही लड़कियाँ हैं और इस उम्र की दोस्ती के बारे में लेखिका कहती है -
" जवानी में दोस्ती, कांच सी नाजुक होती है ... जरा सी चोट लगते ही दरक जाती है, और इश्क़, सूरज के आग-सा सब तबाह कर देता है | " ( पृ. - 59 )
कहानी का मूल विषय यहाँ इनकी दोस्ती है, वहीं इश्क के कारण उसमें दरार पड़ना भी है | लेखिका ने कहानी की शुरूआत इनकी पक्की दोस्ती के वर्णन से की है -
" तीनों, तीन तरह की लडकियाँ थीं |
असमानताओं के बावजूद तीनों में गजब का लगाव था |
लगाव क्या था, वे तीन जिस्म एक जान थीं |
एक बीमार होती तो बाक़ी दोनों भी बहाना बनाकर बीमार हो जातीं | वे अलग-अलग मुहल्ले में रहती थीं; लेकिन एक ही स्कूल में पढ़ती थीं |" ( पृ. - 11 )
तीनों की इस दोस्ती में दरार तब पड़ती है, जब मीनू को स्वप्निल से इश्क़ होता है | जब वे दोस्त थी तो लड़के उनसे डरते थे लेकिन मीनू को इश्क़ होने के बाद बाकी दो भी अपने ब्यायफ्रेंड बना लेती हैं | हालांकि स्वप्निल एक प्लान के अंतर्गत मीनू का पीछा करता है, लेकिन वह सच्चा इश्क़ कर बैठता है | मीनू भी उसकी दीवानी है, लेकिन प्रेम पत्र के जवाब में कोरा पत्र फैंकने पर दोनों दूर हो जाते हैं | स्वाति जो ईर्ष्यालु स्वभाव की है, ख़ुश है, लेकिन काजल दो प्रेमियों को मिलाती है |
इस कहानी का एक खूबसूरत पहलू यह भी है कि यह कहानी दिखाती है कि जो कुदरत ने जैसा बनाया है, वह वैसा ही रहता है, बाहर से उसे बदला नहीं जा सकता | मीनू भी लड़का बनने का भरपूर प्रयास करती है, लेकिन स्वप्निल उसे अहसास करवा देता है कि वह लड़की है | इस कहानी में लेखिका ने जगह-जगह पर महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को उठाया है | लड़कियों के मनोविज्ञान का वर्णन है -
" एक लड़की हमेशा ही ये समझ जाती है, कि देखने वाला उसे किस नज़र से देख रहा है; उसे ही देख रहा है या किसी और को |" ( पृ. - 22 )
समाज में लड़कियों के प्रति नजरिये का वर्णन है -
" खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर गिरे, कटना तो खरबूजे को ही है |" ( पृ. - 35)
लेखिका समाज के नजरिये को ठीक भी ठहराती है -
" ठीक ही स्त्री को त्रिया चरित्र कहा गया है |" ( पृ. - 64 )
लड़की-लड़के के प्रेम के अंतर का ब्यान है -
" लड़की प्रेम की खातिर सब सहती है, लेकिन लड़का बस तमाशा देखता है |" ( पृ. - 36 )
इश्क़ की प्रकृति बताई गई है -
" इश्क़ सब सिखा देता है; झूठ बोलना भी |" ( पृ. - 28 )
कहते हैं इश्क़ अंधा होता है, इसे लेखिका यूँ कहती है -
" दिल लगा गधी से, तो परी क्या चीज़ है |" ( पृ. - 69 )
लेकिन वह इश्क़ और जंग में सब जायज नहीं मानती, अपितु कहती है -
" अगर इश्क़ में ये सब जायज़ है तो फिर इश्क़ ही नाजायज़ है |" ( पृ. - 68 )
माताओं की मासूमियत का वर्णन है -
" असल में मम्मियाँ बहुत मासूम होती हैं; इन्हें इश्क़ के भूत की खबर नहीं होती |" ( पृ. - 30 )
लेखिका ने मानवीय स्वभाव का भी ब्यान किया है -
" जो नहीं मिलता, दिल उसकी कद्र जानता है |" ( पृ. - 69 )
कहानी या फिल्म जीवन से जुडी होती है, इस बारे में वह कहती है -
" फिल्म की कहानी भी ज़िंदगी से ही ली जाती है |" ( पृ. - 55 )
जीवन दर्शन का भी अंदाजा इस कहानी से मिलता है -
" ये ज़िंदगी के मजे हैं, जितना लूट सकता है लूट |" ( पृ. - 32 )
दूसरी कहानी ' और मैं आगे बढ़ गई ' में नायिका वनिता को ट्रेन में उसका प्रेमी आदित्य मिल जाता है | लेखिका फलैश बैक के माध्यम से पुराना किस्सा कहती है | आदित्य और वनिता के माँ-बाप बचपन में ही उनको पति-पत्नी मान लेते हैं | आदित्य का पारम्परिक पतियों जैसा व्यवहार वनिता को उससे दूर कर देता है | इस कहानी को सही अर्थों में नारीवादी कहानी कहा जा सकता है | यह नारी की स्वतंत्रता की हिमायती है | वनिता इसमें कामयाब रहती है | इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने कई विषयों को उठाया है | लेखिका के अनुसार फोन पर की गई बातचीत मिलने का विकल्प नहीं हो सकती | लेखिका लिखती है -
" आमतौर पर ऐसा ही होता है, कि हम जिसे मिस करते हैं, उससे बात करने की बाद उसे और ज्यादा मिस करने लगते हैं |" ( पृ. - 73 )
पुरुषों के मनोविज्ञान को समझा है -
" दो पुरुष आपस में ज्यादा देर तक बातें नहीं करते हैं |" ( पृ. - 73 )
इंसान के स्वभाव का ब्यान है -
" इंसान गुस्से में ही सच बोलता है |" ( पृ. - 90 )
स्वकेंद्रित लोगों के बारे में राय दी है -
" स्वकेंद्रित लोग अपनी सहूलियत से अपनी सोच बदलते हैं |" ( पृ. - 74 )
अध्यापकों के बारें में मत है -
" पता नहीं टीचर बनने के बाद सेन्स इतने शार्प होते हैं या सेन्स शार्प होते हैं इसलिए टीचर बनते हैं |" ( पृ. - 82 )
समाज में बच्चों सफलता-असफलता का जिम्मेदार माँ-बाप में कौन है, इसका सटीक ब्यान है -
" बच्चों की गलती की जिम्मेदार सिर्फ मम्मी होती है, और अच्छाई के जिम्मेदार पापा |" ( पृ. - 83 )
तीसरी कहानी, जो पुस्तक का शीर्षक बनी है, में लड़के-लड़की के फोन पर प्रेम होने की कहानी है | दरअसल सिर्फ लड़का लड़की को नहीं जानता, जबकि लड़की को पता है कि वह फोन पर जिससे बातें करती है, वह उसका बचपन का दोस्त है | लड़का अपनी दीदी के कहने पर लड़की से बचपन में मेलजोल बंद कर देता है, और लड़की उसकी ज़िंदगी से चली जाती है | लड़के को बाद में हकीकत का पता चलता है | अंतिम बार लड़की फिर वापस जाना चाहती है, लेकिन टीवी पर चल रहे गीत का सहारा लेकर उसे रोक ही लेता है | इस कहानी में लेखिका का मानना है -
" दो अलग-अलग लोग साथ रहते हुए एक से हो जाते हैं | " ( पृ. - 108 )
लडकियों के बारे में कहा गया है -
" लड़कियों को हमेशा कम बोलने वाले लड़के ही अच्छे लगते हैं |" ( पृ. - 134 )
चौथी कहानी " लास्ट कॉफ़ी " लेखिका के निवास स्थान ' दारे-सलाम ' में रहने वाले जर्मनी लड़के की कहानी है, जो अपने दादा से शारीरिक शोषण का शिकार होता है | लेखिका कहानी का अंत जानने को उत्सुक है | उसने काल्पनिक अंत किया है, लेकिन वह उस युवक के अनुसार ही अंत करना चाहती है | कॉफ़ी न पसंद करने वाला अडोल्फ़ जर्मन अंतिम कॉफी पीते हुए कहानी का अंत बताता है | इस कहानी में लेखिका अपने पहले कहानी-संग्रह की कहानी ' वो अजीब लड़की ' का दो बार जिक्र करती है, जिससे बचा जाना चाहिए क्योंकि हर पुस्तक स्वतंत्र है लेकिन लेखिका उस कहानी-संग्रह के मोह से निकल नहीं पाई है |
इस कहानी में भी लेखिका के अनुभव से निकले मोती मिलते हैं | वह लिखती है -
" अक्सर बढ़ती उम्र में छोटे बाल आपकी उम्र कम कर देते हैं |" ( पृ. - 144 )
महिलाओं के बारे में लिखा गया है -
" दुनिया में पुरुषों की कई किस्म होती हैं; लेकिन हम महिलाओं की एक ही किस्म होती है | जब हमें कोई देखता है, तब problem होती है, और जब कोई नहीं देखता है, problem तब भी होती है |" ( पृ. - 147 )
महिलाओं का मनोविज्ञान वह यूँ समझाती है -
" अक्सर महिलाएँ उन पुरुषों की तरफ आसानी से आकर्षित हो जाती हैं, जो उनके जीवन में पहले से मौजूद पुरुष से बेहतर होते हैं |" ( पृ. - 147 )
कहानी की निर्माण प्रक्रिया के बारे में बताया गया है -
" बातों में किस्से होते हैं, और किस्सों से कहानियाँ बनती हैं |" ( पृ. - 148 )
दोस्ती के सच को कहा है -
" ज्यादातर लोग, जिन्हें हम दोस्त कहते हैं, वे दोस्त नहीं होते हैं; कुछ और होते हैं, या कुछ नहीं होते हैं |" ( पृ. - 153 )
' दया ' के बारे में वह लिखती है -
" दया जैसी भावना टिकाऊ नहीं होती; दया वक्ती होती है |" ( पृ. - 157 )
जीवन दर्शन का ब्यान है -
" छोटे-छोटे डर को भगाने के लिए बड़े डर का सामना करना पड़ता है |" ( पृ. - 151 )
अंतिम कहानी " वी टी स्टेशन पर एक रात " स्टेशन की रात का चित्रण है | इस कहानी को पढ़कर यशपाल की नई कहानी पर की गई व्यंग्योक्ति याद हो आती है , " खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से पेट भर जाने का डकार आ सकता है तो बिना विचार, घटना और पात्रों के, लेखक की इच्छा मात्र से ' नयी कहानी ' क्यों नहीं बन सकती ? "
हालांकि इस कहानी में पात्र हैं, विचार हैं लेकिन किसी घटना विशेष का अभाव है | संभवत: यह लेखिका की घर जाते समय की आपबीती हो | इसमें लेखिका ने औरत होने को लाभ का सौदा बताया है -
" आखिर औरत हूँ, किसी न किसी को टीआरएस आ ही जाएगा |" ( पृ. - 179 )
बेचारगी पर विचार है -
" जब आपके पास कोई और चारा नहीं होता है, तब आप सिर्फ बेचारे होते हैं |" ( पृ. - 181 )
लम्बी कहानियाँ होने के कारण लेखिका के पास चरित्रों को अच्छी तरह उद्घाटित करने का पर्याप्त अवसर था | लेखिका ने पात्रों के कार्य, उनके विचार, उनके संवाद, ख़ुद के ब्यान आदि सभी विधियों को अपनाकर चरित्रों को स्पष्ट किया है | काजल का चरित्र बयां करते लेखिका लिखती है -
" काजल को स्कूल में लड़के बहनजी कहते थे | दोनों भौंह के बीच माचिस की तीली से बनी काजिल की बिंदी और आँखों में ढेर से काजल के बिना वो कभी स्कूल नहीं आती है, इसलिए लड़के उसे बहनजी कहकर छेड़ते हैं |" ( पृ. - 11 )
प्यार को लेकर उसकी सोच भी स्पष्ट की गई है -
" काजल, स्कूल के दिनों में पनपने वाले प्यार को इतना seriosly नहीं लेती | उसके लिए ये सब टाईमपास है; एक तरह का मनोरंजन है | जब तक जीवन है, प्यार-व्यार होते रहना चाहिए; experience हैं ज़िंदगी के; लेकिन अंत में मम्मी-पापा की पसंद से ही शादी करनी चाहिए |" ( पृ. - 49 )
स्वाति की सोच भी ऐसी ही है | इसे उसके कार्यों से ब्यान किया गया है -
" अब अँगुली काट ही ली थी, तो खून बर्बाद क्यूँ होने दूँ, सोचकर स्वाति ने वो लेटर राकेश को दे दिया |" ( पृ. - 53 )
लेखिका इस प्रकार आज की लड़कियों के चरित्र को अच्छे तरीके से ब्यान कर देती है |
मीनू और उसके पापा के बारे में वह लिखती है -
" मीनू का गुस्सा जितना तेज था, उससे कहीं ज्यादा उसका दिमाग तेज है | मैथ के सवाल तो वो ऐसे हल करती थी जैसे कंचे खेल रही हो; ये उसके जीन में था | उसके पापा मैथ में गोल्ड मेडलिस्ट थे | उन्होंने कैल्क्युलेटर कभी इस्तेमाल नहीं किया | मीनू भी नहीं करती | वो अपने पापा की तरह engineer बनना चाहती है | कपड़े भी पापा जैसा ही पहनती है | मोहल्ले में लोग उसे टॉम-बॉय कहते हैं, लेकिन स्कूल में सब एंग्री मैन कहकर चिढ़ाते हैं |" ( पृ. - 13 )
लेखिका तुलना का भी सहारा लेती है -
" अगर काजल पूरब थी तो मीनू पश्चिम; और स्वाति उन दोनों के बीच में खड़ी थी | कभी वो बिलकुल शांत होती, तो कभी छोटी-सी बात पर बिगड़ जाती |" ( पृ. - 14 )
स्वप्निल-अमर की बातचीत भी मीनू के चरित्र को उद्घाटित करती है -
" तुम ठीक कहते थे, वो आसान लड़की नहीं |" ( पृ. - 41 )
स्वप्निल का चित्रण भी बखूबी किया गया है -
" स्वप्निल किसी भी लड़की के सपनों में आने वाले राजकुमार जैसा था | गोरा रंग, ऊंचा क़द और हीरो जैसा स्टाइल ... लड़कियाँ तो मर मिटतीं हैं |" ( पृ. - 20 )
स्वप्निल लडकियों के इमोशन से खेलने वाला है, लेकिन उसे शरीफ दिखाया गया है -
" 'मैं लडकियों की इज्जत से नहीं, उनके इमोशन से खेलता हूँ |'
' जैसा मेरी मेमरी बहन के इमोशन के साथ ...?' अमर ने पूछा |
'ठीक समझा तुमने; वो तो बिछी पड़ी थी मेरे सामने, लेकिन मैंने ... लड़की की इज्जत की कीमत मैं भी समझता हूँ |'" ( पृ. - 19 )
ये आदर्शवादी चित्रण कहा जा सकता है, क्योंकि रोज प्रेमिका बदलने वाला आखिर किस उद्देश्य से प्रेमिका बदलता होगा |
आदित्य के बारे में लेखिका कहती है -
" ब्लू जींस और लेमन येलो फुल स्लीव शर्ट में आदित्य आज भी उतना ही हैंडसम लग रहा था; हाँ उसके घने बालों की मोटी-मोटी लतों से सफेदी झाँकने लगी थी, जिसका कारण धूप नहीं था |" ( पृ. - 72 )
आदित्य की यह व्यंग्योक्ति भी आदित्य और वनिता के बारे बताती है -
" मैं आसानी से लोगों को नहीं भूलता वाणी; जैसे तुम भूल जाती हो |" ( पृ. - 78 )
लालन, विक्रम और आदित्य का एक साथ चित्रण मिलता है -
" लालन बहुत खूबसूरत थीं | ऐसा लगता था मानो ईश्वर ने उन्हें ख़ुद अपने हाथों से बनाया था, बिना किसी सहायक के | आदित्य को गोरा रंग और तीखे नैन नक्श, लालन से ही मिले थे, और लम्बाई विक्रम अंकल से |" ( पृ. - 80 )
आदित्य की यह उक्ति उसकी सोच को स्पष्ट करती है -
" ईश्वर ने मर्दों को पैसे कमाने, और औरतों को घर संभालने के लिए बनाया है |" ( पृ. - 98 )
श्वेता का भी शब्द चित्र बनाया गया है -
" उसने हल्के बादामी रंग का चूड़ीदार और मैचिंग कार्डिगन पहना हुआ था | उसके एक कंधे पर सफेद रंग का हैण्ड बैग और दूसरे हाथ में ट्रैवलिंग बैग था | एक कलाई में सोने की चूड़ियाँ, दूसरी कलाई में घड़ी | उसने अपने बालों को बांधकर गले से थोड़ा सा ऊपर पोनिटेल बनाया था | गेहुआं रंग पर आँखों में ढेर सारा काजल |"( पृ. - 104 )
यह स्वीकारोक्ति नायक-नायिका दोनों का चरित्र ब्यान करती है -
" उसमें पास आने का सलीका है हमेशा से | मुझमें तो न दूर रहने का हुनर है, न पास आने का अदब |" ( पृ. - 124 )
दी का नायक पर कितना प्रभाव है और वह कितना दब्बू है, इसे एक पंक्ति में स्पष्ट किया गया है -
" दी ने कहा है अकेले में मिलना जुलना ठीक नहीं, तुम घर चली जाओ |" ( पृ. - 136 )
अडोल्फ़ के बारे में लेखिका लिखती है -
" उसे ज़िंदगी में दो चीजें बहुत पसंद हैं; एक समन्दर, दूसरा एकांत |" ( पृ. - 144 )
संवाद के माध्यम से चारित्रिक विशेषताओं को उभारा गया है -
" ' क्यूंकि तुम गुस्से में हो |'
' तुम्हें कैसे पता मैं गुस्से में हूँ ?'
वो हँसा था, ' तुम गुस्से में कन्फ्यूज लगती हो |'
' और जब मैं कन्फ्यूज लगती हूँ तो chocolate खाना पसंद करती हूँ |' " ( पृ. - 145 )
संवाद यहाँ चरित्र को उद्घाटित करते हैं वहीं कथानक को आगे बढाने में भी मदद करते हैं | संवाद प्राय: लघु और आकर्षक हैं | लेखिका ने वर्णनात्मक, संवादात्मक, आत्मकथात्मक शैली को अपनाया है | फ़िल्मी प्रभाव भी दिखाई देता है | पात्र अपनी बात को कहने के लिए पुस्तक भेजने का कार्य भी करते हैं लेखिका ने इस युक्ति को दो कहानियों में अपनाया है | लेखक या पात्र कभी-कभी पाठक को संबोधित करते हैं -
" क्या आपको यकीं हुआ उसकी बातों पर ? नहीं न; तो फिर मुझे कैसे होता |"( पृ. - 114 )
वातावरण के भी सजीव चित्रण हैं | स्टेशन का चित्र देखिए -
" जिस बिस्तर पर जोड़े हैं, वे एक-दूसरे की ओर पीठ किये सो रहे हैं, मानो उनके बीच अभी-अभी किसी वाकयुद्ध पर पूर्णविराम लगकर शीत युद्ध का आह्वान हुआ हो | औरतें अपने बदन को सिकोड़कर, अपनी साड़ी के पल्लू से अपने चेहरे को आधा ढककर सो रही हैं, जबकि पुरुष अपनी बांह को मोड़, उसे तकिया बनाकर सो रहे हैं |" ( पृ. - 172 )
परिवार के माहौल का भी वर्णन है -
" वह एक पुरुषवादी परिवार था; वहां औरतों को commodity समझा जाता था | वहाँ औरतों को पुरुषों के साथ खाने की इजाजत नहीं थी |" ( पृ. - 85 )
पुराने दिनों का ब्यान है -
" हाँ वो sms का जमाना था | तब facebook इतना प्रचलित नहीं था, और what's app तो था ही नहीं |
असल में वो एक अलग ही युग था | डाकिये की चिट्ठी वाले युग के बाद का युग, sms का युग | तब फ्री sms पैक हुआ करता था, जैसे आजकल नैटपैक | तब न स्मार्ट फोन था, न मोदी जी और न जियो | "( पृ. - 115 )
भाषा किसी भी रचना का महत्त्वपूर्ण पहलू है | नया साहित्य भाषा के साथ कई प्रयोग कर रहा है | फिल्मों की टपोरी भाषा का खूब प्रयोग हो रहा है | रोमन लिपि का प्रयोग हो रहा है | इस कहानी-संग्रह में टपोरी भाषा तो नहीं है, लेकिन अंग्रेजी शब्दों को कभी देवनागरी में तो कभी रोमन में लिखा गया है | जब अंग्रेजी शब्दों को देवनागरी में लिखा जा सकता है तो रोमन लिपि क्यों ? हिंदी के दृष्टिकोण से यह प्रयोग निराशाजनक है | ' लास्ट कॉफी ' में जर्मन शब्दावली का प्रयोग भी है, इससे कहीं-कहीं कहानी वाधित हुई है | कहानी लाइव कमेंट्री तो नहीं है | हिंदी में वाक्य लिखकर कहा जा सकता है कि उसने जर्मन में कहा | अंग्रेजी शब्दावली के प्रयोग को बुरा नहीं कहा जा सकता लेकिन इसका अत्यधिक प्रयोग हिंदी को नुक्सान पहुंचा सकता है, इस बारे में नए लेखकों और प्रकाशकों को सोचना होगा |
भाषा के इस पहलू को छोड़ दें तो कहानियाँ पाठक को बाँधने में सफल हैं | यह वर्तमान दौर के पात्रों को बड़ी सजीवता से ब्यान करती हैं | लड़कियों का इश्क को टाईमपास कहना, आजादी के लिए प्रेमी को छोड़ देना आज के दौर का सच है, जिसे लेखिका ने बखूबी से ब्यान किया है |
" काजल को स्कूल में लड़के बहनजी कहते थे | दोनों भौंह के बीच माचिस की तीली से बनी काजिल की बिंदी और आँखों में ढेर से काजल के बिना वो कभी स्कूल नहीं आती है, इसलिए लड़के उसे बहनजी कहकर छेड़ते हैं |" ( पृ. - 11 )
प्यार को लेकर उसकी सोच भी स्पष्ट की गई है -
" काजल, स्कूल के दिनों में पनपने वाले प्यार को इतना seriosly नहीं लेती | उसके लिए ये सब टाईमपास है; एक तरह का मनोरंजन है | जब तक जीवन है, प्यार-व्यार होते रहना चाहिए; experience हैं ज़िंदगी के; लेकिन अंत में मम्मी-पापा की पसंद से ही शादी करनी चाहिए |" ( पृ. - 49 )
स्वाति की सोच भी ऐसी ही है | इसे उसके कार्यों से ब्यान किया गया है -
" अब अँगुली काट ही ली थी, तो खून बर्बाद क्यूँ होने दूँ, सोचकर स्वाति ने वो लेटर राकेश को दे दिया |" ( पृ. - 53 )
लेखिका इस प्रकार आज की लड़कियों के चरित्र को अच्छे तरीके से ब्यान कर देती है |
मीनू और उसके पापा के बारे में वह लिखती है -
" मीनू का गुस्सा जितना तेज था, उससे कहीं ज्यादा उसका दिमाग तेज है | मैथ के सवाल तो वो ऐसे हल करती थी जैसे कंचे खेल रही हो; ये उसके जीन में था | उसके पापा मैथ में गोल्ड मेडलिस्ट थे | उन्होंने कैल्क्युलेटर कभी इस्तेमाल नहीं किया | मीनू भी नहीं करती | वो अपने पापा की तरह engineer बनना चाहती है | कपड़े भी पापा जैसा ही पहनती है | मोहल्ले में लोग उसे टॉम-बॉय कहते हैं, लेकिन स्कूल में सब एंग्री मैन कहकर चिढ़ाते हैं |" ( पृ. - 13 )
लेखिका तुलना का भी सहारा लेती है -
" अगर काजल पूरब थी तो मीनू पश्चिम; और स्वाति उन दोनों के बीच में खड़ी थी | कभी वो बिलकुल शांत होती, तो कभी छोटी-सी बात पर बिगड़ जाती |" ( पृ. - 14 )
स्वप्निल-अमर की बातचीत भी मीनू के चरित्र को उद्घाटित करती है -
" तुम ठीक कहते थे, वो आसान लड़की नहीं |" ( पृ. - 41 )
स्वप्निल का चित्रण भी बखूबी किया गया है -
" स्वप्निल किसी भी लड़की के सपनों में आने वाले राजकुमार जैसा था | गोरा रंग, ऊंचा क़द और हीरो जैसा स्टाइल ... लड़कियाँ तो मर मिटतीं हैं |" ( पृ. - 20 )
स्वप्निल लडकियों के इमोशन से खेलने वाला है, लेकिन उसे शरीफ दिखाया गया है -
" 'मैं लडकियों की इज्जत से नहीं, उनके इमोशन से खेलता हूँ |'
' जैसा मेरी मेमरी बहन के इमोशन के साथ ...?' अमर ने पूछा |
'ठीक समझा तुमने; वो तो बिछी पड़ी थी मेरे सामने, लेकिन मैंने ... लड़की की इज्जत की कीमत मैं भी समझता हूँ |'" ( पृ. - 19 )
ये आदर्शवादी चित्रण कहा जा सकता है, क्योंकि रोज प्रेमिका बदलने वाला आखिर किस उद्देश्य से प्रेमिका बदलता होगा |
आदित्य के बारे में लेखिका कहती है -
" ब्लू जींस और लेमन येलो फुल स्लीव शर्ट में आदित्य आज भी उतना ही हैंडसम लग रहा था; हाँ उसके घने बालों की मोटी-मोटी लतों से सफेदी झाँकने लगी थी, जिसका कारण धूप नहीं था |" ( पृ. - 72 )
आदित्य की यह व्यंग्योक्ति भी आदित्य और वनिता के बारे बताती है -
" मैं आसानी से लोगों को नहीं भूलता वाणी; जैसे तुम भूल जाती हो |" ( पृ. - 78 )
लालन, विक्रम और आदित्य का एक साथ चित्रण मिलता है -
" लालन बहुत खूबसूरत थीं | ऐसा लगता था मानो ईश्वर ने उन्हें ख़ुद अपने हाथों से बनाया था, बिना किसी सहायक के | आदित्य को गोरा रंग और तीखे नैन नक्श, लालन से ही मिले थे, और लम्बाई विक्रम अंकल से |" ( पृ. - 80 )
आदित्य की यह उक्ति उसकी सोच को स्पष्ट करती है -
" ईश्वर ने मर्दों को पैसे कमाने, और औरतों को घर संभालने के लिए बनाया है |" ( पृ. - 98 )
श्वेता का भी शब्द चित्र बनाया गया है -
" उसने हल्के बादामी रंग का चूड़ीदार और मैचिंग कार्डिगन पहना हुआ था | उसके एक कंधे पर सफेद रंग का हैण्ड बैग और दूसरे हाथ में ट्रैवलिंग बैग था | एक कलाई में सोने की चूड़ियाँ, दूसरी कलाई में घड़ी | उसने अपने बालों को बांधकर गले से थोड़ा सा ऊपर पोनिटेल बनाया था | गेहुआं रंग पर आँखों में ढेर सारा काजल |"( पृ. - 104 )
यह स्वीकारोक्ति नायक-नायिका दोनों का चरित्र ब्यान करती है -
" उसमें पास आने का सलीका है हमेशा से | मुझमें तो न दूर रहने का हुनर है, न पास आने का अदब |" ( पृ. - 124 )
दी का नायक पर कितना प्रभाव है और वह कितना दब्बू है, इसे एक पंक्ति में स्पष्ट किया गया है -
" दी ने कहा है अकेले में मिलना जुलना ठीक नहीं, तुम घर चली जाओ |" ( पृ. - 136 )
अडोल्फ़ के बारे में लेखिका लिखती है -
" उसे ज़िंदगी में दो चीजें बहुत पसंद हैं; एक समन्दर, दूसरा एकांत |" ( पृ. - 144 )
संवाद के माध्यम से चारित्रिक विशेषताओं को उभारा गया है -
" ' क्यूंकि तुम गुस्से में हो |'
' तुम्हें कैसे पता मैं गुस्से में हूँ ?'
वो हँसा था, ' तुम गुस्से में कन्फ्यूज लगती हो |'
' और जब मैं कन्फ्यूज लगती हूँ तो chocolate खाना पसंद करती हूँ |' " ( पृ. - 145 )
संवाद यहाँ चरित्र को उद्घाटित करते हैं वहीं कथानक को आगे बढाने में भी मदद करते हैं | संवाद प्राय: लघु और आकर्षक हैं | लेखिका ने वर्णनात्मक, संवादात्मक, आत्मकथात्मक शैली को अपनाया है | फ़िल्मी प्रभाव भी दिखाई देता है | पात्र अपनी बात को कहने के लिए पुस्तक भेजने का कार्य भी करते हैं लेखिका ने इस युक्ति को दो कहानियों में अपनाया है | लेखक या पात्र कभी-कभी पाठक को संबोधित करते हैं -
" क्या आपको यकीं हुआ उसकी बातों पर ? नहीं न; तो फिर मुझे कैसे होता |"( पृ. - 114 )
वातावरण के भी सजीव चित्रण हैं | स्टेशन का चित्र देखिए -
" जिस बिस्तर पर जोड़े हैं, वे एक-दूसरे की ओर पीठ किये सो रहे हैं, मानो उनके बीच अभी-अभी किसी वाकयुद्ध पर पूर्णविराम लगकर शीत युद्ध का आह्वान हुआ हो | औरतें अपने बदन को सिकोड़कर, अपनी साड़ी के पल्लू से अपने चेहरे को आधा ढककर सो रही हैं, जबकि पुरुष अपनी बांह को मोड़, उसे तकिया बनाकर सो रहे हैं |" ( पृ. - 172 )
परिवार के माहौल का भी वर्णन है -
" वह एक पुरुषवादी परिवार था; वहां औरतों को commodity समझा जाता था | वहाँ औरतों को पुरुषों के साथ खाने की इजाजत नहीं थी |" ( पृ. - 85 )
पुराने दिनों का ब्यान है -
" हाँ वो sms का जमाना था | तब facebook इतना प्रचलित नहीं था, और what's app तो था ही नहीं |
असल में वो एक अलग ही युग था | डाकिये की चिट्ठी वाले युग के बाद का युग, sms का युग | तब फ्री sms पैक हुआ करता था, जैसे आजकल नैटपैक | तब न स्मार्ट फोन था, न मोदी जी और न जियो | "( पृ. - 115 )
भाषा किसी भी रचना का महत्त्वपूर्ण पहलू है | नया साहित्य भाषा के साथ कई प्रयोग कर रहा है | फिल्मों की टपोरी भाषा का खूब प्रयोग हो रहा है | रोमन लिपि का प्रयोग हो रहा है | इस कहानी-संग्रह में टपोरी भाषा तो नहीं है, लेकिन अंग्रेजी शब्दों को कभी देवनागरी में तो कभी रोमन में लिखा गया है | जब अंग्रेजी शब्दों को देवनागरी में लिखा जा सकता है तो रोमन लिपि क्यों ? हिंदी के दृष्टिकोण से यह प्रयोग निराशाजनक है | ' लास्ट कॉफी ' में जर्मन शब्दावली का प्रयोग भी है, इससे कहीं-कहीं कहानी वाधित हुई है | कहानी लाइव कमेंट्री तो नहीं है | हिंदी में वाक्य लिखकर कहा जा सकता है कि उसने जर्मन में कहा | अंग्रेजी शब्दावली के प्रयोग को बुरा नहीं कहा जा सकता लेकिन इसका अत्यधिक प्रयोग हिंदी को नुक्सान पहुंचा सकता है, इस बारे में नए लेखकों और प्रकाशकों को सोचना होगा |
भाषा के इस पहलू को छोड़ दें तो कहानियाँ पाठक को बाँधने में सफल हैं | यह वर्तमान दौर के पात्रों को बड़ी सजीवता से ब्यान करती हैं | लड़कियों का इश्क को टाईमपास कहना, आजादी के लिए प्रेमी को छोड़ देना आज के दौर का सच है, जिसे लेखिका ने बखूबी से ब्यान किया है |
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दिलबागसिंह विर्क
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