कविता-संग्रह – अर्चना के उजाले
कवि – ज्ञानप्रकाश ‘ पीयूष ’
प्रकाशक – सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल
पृष्ठ – 160
कीमत – 400 /- ( सजिल्द )
जीवन कैसा है, कैसा होना चाहिए और आदर्श जीवन के लिए कैसी
जीवन शैली अपनाई जाए, इसका चिन्तन बुद्धिजीवी वर्ग करता ही है | इसी प्रकार का
चिन्तन झलकता है ‘ ज्ञानप्रकाश पीयूष ’ जी के प्रथम कविता-संग्रह “ अर्चना के
उजाले ” में | उन्होंने इस संग्रह में जीवन के विभिन्न पक्षों को छूने के साथ-साथ
वीर जवानों को श्रद्धांजलि भी अर्पित की है, भारत रत्न अब्दुल कलाम, शहीद हनुमंथप्पा
और कर्त्तव्यनिष्ठ दानामांझी के चरित्र को दिखाती कविताएँ भी लिखी हैं | वे
राष्ट्रीय युवा दिवस को याद करते हुए विवेकानन्द को याद करते हैं तो कलम के सिपाही
प्रेमचन्द को भी शब्द-गुच्छ भेंट करते हैं, लेकिन उनकी कविताओं का मुख्य स्वर
भक्ति भावना और नैतिक मूल्यों का समर्थन ही है |
कवि की
दृष्टि में नाम का महत्व है और जीव परमात्मा का ही रूप है और उसका ध्येय परोपकारी
जीवन है | अहम ब्रह्मास्मि के सिद्धांत अनुसार वे लिखते हैं –
“ है यही मेरी सच्चाई / मैं स्वयं प्रकाश ” ( पृ. – 41 )
वे व्यक्त में अव्यक्त को देखते हैं, उनकी नजर में भीतर
अखंड और अविभाजक अव्यय पुरुष है | यह जीवन परमात्मा से मिला एक तोहफा है, एक
स्वर्णिम मौका है | वे सर्वत्र परमात्मा की सत्ता देखते हैं –
“ बिना उसके / हिलता नहीं पत्ता ” ( पृ. – 72 )
लेकिन आत्मा का अहम तेरे-मेरे के द्वैत को प्रश्रय देता है,
वे लिखते हैं –
“ अहंकार के शिखर पर / जो भी चढ़ेगा /
आँखें विवेक की / खो देगा |” ( पृ. – 77 )
नाम सिमरन का महत्त्व बखान करते हुए वह लिखते हैं –
“ नाम के / उजाले ने / कर दिया / मुझे निहाल /
स्वार्थ के / तिमिर से / दिया बाहर निकाल ” ( पृ. – 32 )
वे नई पीढ़ी के लिए अर्चना के उजाले फैलाना चाहते हैं –
“ फैलाएं अर्चना के उजाले / सर्वत्र, नई पीढ़ी के नाम /
रचें, नया संगीत / जो भर सके बुझे प्राणों में /
स्पंदन /घोल सके मधुर मुस्कान /
आने वाले समय में |” ( पृ. – 37-38 )
वे बोध को शाश्वत और सत्य को सनातन मानते हैं जबकि समय
परिवर्तनशील है |
भक्ति
उनकी कविताओं का प्रमुख विषय है तो वे इसके उजले पक्ष को ही लेकर चलते हैं | वे
आडम्बरों के विरोधी हैं –
“ आओ ! त्यागें हम / कुंभपर्व के व्यामोह को /
गृह त्यागी दंभी साधुओं के / कुटिल जाल को काटें /
रचे अन्तस् का / महाकुंभ पर्व ” ( पृ. – 110 )
भक्ति
भावना के अतिरिक्त वे आज के मानव को बड़े नजदीक से देख पाने में सफल हुए हैं | वे
व्यक्ति की सोच में खोट को देखते हुए लिखते हैं –
“ भोग है / वियोग है / लूट है / खसोट है |
स्वार्थ हेतु व्यक्ति का / होता दुरूपयोग है |” ( पृ. – 53 )
स्वार्थ की इसी आँधी ने देश के विकास का मार्ग अवरुद्ध कर
रखा है –
“ खुला द्वार / पतन का |
विकास कैसे हो / वतन का ?” ( पृ. – 61 )
वे रिश्तों के सच से भी परिचित हैं –
“ फिर रिश्ते आज के / रहे कहाँ रिश्ते से ” ( पृ. –
64 )
बदलते समय के साथ
मूल्यों के पतन पर वे लिखते हैं –
“ बदल रहा है समय / हर पल, हर क्षण /
मानवीय मूल्यों का / हो रहा है क्षरण ” ( पृ. – 68 )
आधुनिक मनुष्य की समझ पर वे लिखते हैं –
“ मंगल-शनि को पहचान गया है /
अपना मंगल भूल गया पर ” ( पृ. – 71 )
वे पेड़ पर पत्थर फेंकने के प्रसंग के माध्यम से आदमी की
स्वार्थपरकता को दिखाते हैं| वे अविश्वास के महावृक्ष को उगने से रोकना चाहते हैं
क्योंकि वह विषाक्त फल देगा | लेकिन वे आशावादी हैं –
“ कहाँ है हिम्मत इतनी / अँधेरे में /
करे सामना / प्रज्वलित दीप का ” ( पृ. – 39 )
वे इंसान को इंसान मानते हैं, न वह देवता है और न ही दानव |
वे सबको जीवन की ऊष्मा से मिलने देने का अवसर देना मानव का धर्म मानते हैं | वे इस
अटल विश्वास करते हैं कि शहादत कभी व्यर्थ नहीं जाती | भारत देश के बारे में वे
लिखते हैं –
“ शान्ति प्रिय है देश हमारा /
शान्ति हमें अति प्यारी
है ” ( पृ. – 127 )
वे नैतिक मूल्यों के प्रबल समर्थक हैं
| उनकी नजर में वही इतिहास के पन्नों में अमर रहते हैं जो जन मंगल हित के लिए
प्राण भी विसर्जित कर गए हैं | जो सच्चा जीवन जीता है, जिसके हृदय में परोपकार का
फूल खिला रहता है, उसे पाप की कलुषित
छाया छू नहीं सकती | वे दलित और शोषित के पक्ष में खड़े होने का समर्थन करते हैं |
उनका मानना है कि धर्म निष्ठा का संबल भ्रमित बुद्धि को भी पथ पर ला सकता है | वे
घर को परिभाषित करते हैं और बच्चों को उन्मुक्त खेलने देना चाहते हैं |
उनकी
कविताओं में प्रकृति का चित्रण अनेक रूपों में है | प्रकृति के माध्यम से वे उनको
जो मिला उससे संतोष व्यक्त करते हुए लिखते हैं –
“ स्तुत्य है मुट्ठी भर धूप /
जो आई है मेरे हिस्से में
” ( पृ. – 97 )
प्रकृति उन्हें प्ररेणा देती है | वे लिखते हैं –
“ देख कर तुम्हें अमलतास /
जगता है आत्मविश्वास ” ( पृ.
– 95 )
उनकी नजर में प्राकृतिक सौन्दर्य सार्वजनीन है | फूलों पर
उड़ती मोहक तितली अभिसारिका सी दिखती है | प्रकृति के सुंदर रूप का चित्रण देखते ही
बनता है –
“ माघ की धूप सलौनी / बिछी है मक्खन सी /
आंगन में ”
( पृ. – 99 )
प्रकृति का मानवीकरण भी मिलता है –
“ मार दिया / फूलों का तीर /
शरारती बसंत ने ” ( पृ.
– 43 )
मुक्त
छंद की इन कविताओं में तत्सम शब्दावली की प्रधानता है, जिससे भाषा कहीं-कहीं कठिन
अवश्य हुई है, लेकिन सरस और भावानुकूल है | कवि ने कही-कहीं तुकांत का प्रयोग भी
किया है | अनुप्रास, उपमा, रूपक, मानवीकरण अलंकार का भरपूर प्रयोग मिलता है |
उल्लेख अलंकार का एक उदाहरण देखिए –
“ समुद्र सी गहराई / हिमालय सी ऊँचाई /
वसंत सी तरुणाई
” ( पृ. – 41 )
वर्णनात्मक और विश्लेषणात्मक शैली कि प्रधानता है, अनेक
जगहों पर संबोधन शैली को भी अपनाया गया | भाव पक्ष की तरह शिल्प पक्ष, दोनों
दृष्टिकोण से सफल कविता-संग्रह है और साहित्य जगत में पीयूष जी की उपस्थिति दर्ज
करवाने में सफल हुआ है |
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दिलबागसिंह विर्क
1 टिप्पणी:
पुस्तक अर्चना के उजाले की समीक्षा उच्च कोटि की हैं साधुवाद!
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