पुस्तक – मन दर्पण
लेखक – माड़भूषि रंगराज अयंगर
प्रकाशक – बुक बजूका
कीमत – 175 /-
पृष्ठ – 166 ( पेपरबैक )
माड़भूषि रंगराज अयंगर कृत ‘ मन दर्पण ’ 5 गद्य और 60 पद्य रचनाओं से
सजा संग्रह है | इन 65 रचनाओं में लेखक ने निजी पीडाओं, निजी अनुभवों और सामाजिक
मुद्दों पर अपनी लेखनी चलाई है |
गद्य रचनाओं में
लेखक ने एक कहानी, एक यात्रा के दौरान की वार्ता, एक जानाकरी भरपूर निबन्ध और दो
अन्य निबन्धों को रखा है | ‘ द्वंद्व...जारी है ’ कहानी में लेखक प्यार के बारे
में लिखते हैं –
“ प्यार कितना भी पुराना हो जाए सावन में फिर फलने-फूलने लगता है |”
( पृ. -29 )
यह प्यार होता है शीतल और आदर्श में | लेखक ने कहानी की शुरूआत घमंडी
स्नेहिल के वर्णन से की है, लेकिन बाद में उसका कोई जिक्र नहीं | कहानी शीतल और
आदर्श को लेकर चलती है और शीतल भी आदर्श को छोड़ जाती है |
कोरबा से रायपुर जाते
समय रेल में सहयात्रियों के रिटायरमेंट के विचारों को लिखते हैं | राष्ट्रीय पर्व
में वे विदेशी कम्पनियों के हमारे राष्ट्रिय पर्वों का सम्मान न करने के मुद्दे को
उठाते हैं | “ प्रतीकात्मक ” निबन्ध में भी राष्ट्रीय पर्व ही मुद्दा है | वे
इन्हें साधारण त्योहारों से अलग मानते हुए लिखते हैं –
“ हमने तो इन प्रतीकात्मक दिनों को त्यौहार सा मनाना प्रारंभ कर
दिया है | जैसे होली आई और गई, वैसे ही स्वंत्रता दिवस भी आया और गया |” ( पृ.
-76 )
उनका मत है कि साल में मनाए जाने वाले करीब 400 दिनों का यही हाल है |
हिंदी के बारे में वे लिखते हैं –
“ इस दिन, सप्ताह, पक्ष सभी लोग सच्चे मन से, ईमानदारी से हिंदी के
प्रति श्रद्धा का ( श्राद्ध का नहीं ) प्रण लें और उसे वर्ष भर निभाएं | ताकि अगले
हिंदी पर्व पर अपनी उपलब्धियां गिना सकें, दिखा सकें, जिससे अन्यों को हिंदी
अपनाने की प्रेरणा मिलेगी |” ( पृ. -75 )
इया निबन्ध में वे देश की राजनैतिक दशा पर भी लिखते हैं –
“ जो पार्टी जीत कर आती है उसी का तन्त्र चलता है, उन्हीं का ‘ स्व-तंत्र
’ है | पार्टी अपना और अपनों का हित साधती है |” ( पृ. -77 )
‘ एकान्तर कथा ’ में वे श्रीनिवासन के बेटे राधे की कथा के माध्यम से
पानी का महत्त्व प्रतिपादित करते हैं | उनका मनना है कि पीने योग्य पानी सिर्फ 5%
है, जो न संभाला गया तो एक दिन समाप्त हो जाएगा |
इस संग्रह में 60 कविताएँ हैं | वे
संग्रह की शुरूआत गणेश वन्दना से करते हैं और इसके बाद गुरु वन्दना करते हैं | वे
मानव की अमानुषिकता से दुखी हैं और उनका मानना है कि 25 वीं सदी को परिलक्षित कर
हम 12 वीं सदी की ओर बढ़ रहे हैं | वे बाबरी मस्जिद को ढहाने पर लिखते हैं -
“ बैर कर रहे हैं
एक चूने की चिनाई के लिए ? ” ( पृ. -21 )
वे लाल गंगा बहाए जाने की बजाए जो है उसे वैसा ही छोड़ देने के पक्षधर
हैं | 1984 के दंगों को याद करते हुए बदलते हालातों का वर्णन करते हैं –
“ दूध की नदियाँ कभी / बहती थी भारत देश में /
आज बहती खून की / नदियाँ उसी परिवेश में /
भेडिए ही घूमते हैं / आज मानव वेश में /
इंसानियत परिवर्तित हुई / क्लेश में और द्वेष में ” ( पृ. – 65 )
वे सभी से सवाल करते हैं –
“ होगा नहीं सर तो आज को क्यों भागते हो ?” ( पृ. -24 )
जिस तरह निबन्ध में
वे हिंदी कि चिंता करते हैं, यह चिंता कविता में भी विद्यमान है –
“ वस्तु स्थिति तो नंगी है / भले जुबानी हिंदी बोले /
करे सवाल फिरंगी है |”( पृ. – 46 )
उनके अनुसार –
“ अंग्रेजी राज हम पर करती है आज भी ” ( पृ. -62 )
राष्ट्र कि चिंता करते हुए वह लिखते हैं –
“ जहाँ डाल-डाल पर सोने की / चिड़िया करती थी बसेरा .../
वह देश आज अंतर्राष्ट्रीय बैंको के सहारे बैठा है ” ( पृ. – 137 )
तीसरे विश्व युद्ध का डर उन्हें सताता है | वे वीटो पावर का विरोध
करते हैं | बापू, को सम्बोधित करते हुए बदले जमाने की बात करते हैं | वे आज की दशा
पर लिखते हैं –
“ किसी दिन पक्ष / तो किसी दिन विपक्ष /
उन पर कीचड़ उछाल ही लेता है...” ( पृ. -153 )
वे कलयुग का वर्णन
करते हैं | उनका मानना है कि शारीरिक रावण मर गया लेकिन मन का रावण नहीं मरा
| वे लिखते हैं –
शैतान करता राज / दिन-रात हर पल यहाँ ( पृ. - 98 )
वे नए दौर का बखूबी बखान करते हैं –
“ हीरो व विलेन में अंतर / उतना ही बचा है, जितना /
हिरोइन व कैबरे डांसर में रह गया है | ” ( पृ. -41 )
वे मिथिहास के प्रसंगों से आदमी की औकात दिखाते है –
“ किस खेत की मूली हो तुम कि /झोलियाँ भर जाएँगी फूलों से तेरी /
बिन कंटीली झाड़ियों को झेलकर भी / ” ( पृ. - 107 )
रिश्ते नाते भी उनकी
कविताओं का विषय बने हैं | बहना के ब्याह को याद करते हैं | माँ के नाम चिट्ठी
लिखते हैं | बाबू जी के घरौंदे का जिक्र करते हैं | उनके अनुसार रिश्ते दो प्रकार
के होते हैं एक जन्म से और दूसरे कर्म से | वे बेटी को सोने को बात करते हैं
क्योंकि देर तक जागने से परियां उड़ जाएँगी | वे हवा से कहते हैं –
“ ऐ हवा तू शोर न कर / गुडिया को तू बोर न कर / ” ( पृ. -48 )
बिटिया की तस्वीर उनकी आँखों में उभरती है | वे उसकी राह में फूल
खिलाना चाहते हैं | वे बेटी के खून होने को भी कविता का विषय बनाते हैं | .
प्यार के विभिन्न
पक्षों को उन्होंने कविताओं का विषय बनाया है | याद रुलाई देती है | चंचल नयनों का
शोर सुनते हैं –
“ सुनाई दें मुझे / जो जुबान तेरी
कह रही /
शोरगुल जो कर रहे / तेरे ये दो चंचल नयन ” ( पृ. -74 )
वे प्यार में इन्तजार को महत्त्व देते हुए -
ताको मत तिरछी नजरों से / आ जाने दो सावन को ( पृ. – 15 )
उनका मानना है कि इन्तजार का फल मीठा होगा |
प्यार में छुअन का महत्त्व मानते है
“ अगर आदम ने हव्वा से / कहा होता कि मत छूना /
न होता सार जीवन का / न यह संसार ही होता /” ( पृ. -37 )
वे आशिकों जैसे कोरे वायदे नहीं करते, अपितु कहते हैं –
“ मांगो न चाँद मुझसे मैं दे न पाउँगा ” ( पृ. – 80 )
उनका दृष्टिकोण
भाग्यवादी भी है –
“ गर मिलना लिखा है तो ख़ुद ही मिलेगा /
न मिलना लिखा है तो नहीं ही मिलेगा ” ( पृ. – 144 )
वे सृष्टि के विभिन्न रंगों को देखते हुए विरोधाभासों का जिक्र करते
हैं –
“ विज्ञान है विनास, तो वरदान भी यही /
इंसान है शैतान, तो भगवान भी यही / ” ( पृ. -39 )
रामायण उन्हें देवादिदेव इंद्र द्वारा
रचित सोप-ओपेरा लगता है | वे राम को नारी विरोधी तक कह जाते हैं –
“ जहाँ पूजनीय है नारी / वहीं देवता बसते हैं /
किन्तु राम से देव, दैव हा !!! / अग्नि परीक्षा लेकर भी /
सीताजी को तजते हैं ” ( पृ. -83 )
उनकी कविताओं में
प्रकृति का चित्रण है |सुबह का एक चित्र देखिए –
बनकर मोती ओस की बूंदे / तरीन-तरीन पर बिछ आई है
जैसे रवि ने नभ से तारे / धरती पर बरसाए हैं ( पृ. -116 )
वर्षा ऋतु का वर्णन है –
वाह-वाह बौछारें लाई / सौंधी गंध समेट आई ( पृ. -111 )
वे एक- एक पौधा लगाने का आह्वान करते हैं | उन्हें अपने साथी से
ज्यादा पौधे के पत्तों से प्रेम है | उन्हें साथी का बडबडाना आयर पत्तों का
फडफडाना एक सा लगता है | वे फूलों की बात करते हुए उन्हें न तोड़ने का संदेश देते
हैं | वे लिखते हैं –
“ जो पिरोए माल में इनको / उन्हें धिक्कार है ” ( पृ.- 82 )
अयंगर ने मुक्त छंद कविताओं की रचना की है,
लेकिन तुकान्तक शैली को भी अपनाया है | वे हिंदी के पक्षधर हैं लेकिन कविता में
भाषा को सरस बनाए रखने के लिए विदेशज शब्दों का प्रयोग भी करते हैं | वे
प्रयोगधर्मी हैं | कहावत का नया प्रयोग देखिए –
“ खरबूजा चाकू पर पड़े या / खरबूजे पर चाकू पड़े /
पैसा कभी नहीं कटता |” ( पृ. – 87 )
वे चाटुकारिता से लेखन को बेहतर मानते हैं -
“ घिस रहा मैं कलम / कोई तलवे घिस रहा ” ( पृ. -146 )
संक्षेप में, भाव पक्ष और कला पक्ष से
उनका यह संकलन महत्त्वपूर्ण है |
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दिलबागसिंह विर्क
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