कविता संग्रह - धूप मुझे है बुला रही
कवि - रूप देवगुण
प्रकाशन - सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल
पृष्ठ - 104 ( सजिल्द )
कीमत - 250 रु -
रूप देवगुण प्रकृति के चितेरे कवि हैं | उनके कुछ कविता संग्रहों के नाम, यथा- गुलमोहर मेरे आंगन में, पहाड़ के बादल अभिनय करते हैं, दुनिया भर की गिलहरियाँ, नदी की तैरती-सी आवाज़, इस बात के द्योतक हैं | प्रकृति से इस लगाव की अगली कड़ी है कविता-संग्रह " धूप मुझे है बुला रही " |
इस संग्रह में ' मेरी ओर से ' में वे खुद स्वीकार करते हैं कि " मुझे प्रकृति का सान्निध्य अत्यंत प्रिय है और प्रकृति से संवाद तक की स्थिति तक मैं उतर आता हूँ | प्रकृति से वार्तालाप करते-करते मैं पारिवारिक, सामाजिक परिस्थितियों तक भी पहुँच जाता हूँ |" " धूप मुझे है बुला रही " कविता-संग्रह इसी आत्मकथ्य का विस्तार है | धूप, बादल, सूरज, आकाश, पहाड़, नदी, झरना, पक्षी, वृक्ष आदि मानवीय रूप में उनके सम्मुख उपस्थित होकर उनसे वार्तालाप करते हैं | धूप जीवन में गर्माहट पैदा करती लगती है | सर्दियों में जब धूप रजाई-सी बन जाती है तो वे उसका धन्यवाद करते हैं | धुंध और सूरज के माध्यम से वे कहते हैं -
" जिंदगी में / जीने के लिए / चाहिए साहस " ( पृ. - 38 )
यही साहस देती धूप कवि को बुला रही है |
वे पहाड़ों पर विचरण करते हुए अनेक मन:स्थितियों से गुजरते हैं | कभी वे खुद को पहाड़ की भांति अकेला महसूस करते हैं, तो कभी पहाड़ उन्हें साधक से लगते हैं | पहाड़ों पर आकर वे यादों में खो जाते हैं और बीते दिनों की पदचाप सुनते हैं | पहाड़ और बादल से प्रेम का अर्थ समझते हैं और इन्हीं के माध्यम से जीवन की नश्वरता का संदेश देते हैं |
मुंडेर पर बैठे कबूतर को देखकर वे उसकी सोच के बारे में अनुमान लगाते हैं | वे खुद पक्षी बनना चाहते हैं क्योंकि पक्षी शाम को घर लौट आते हैं, जबकि आदमी की बहुत दिनों तक घर वालों से बात ही नहीं होती | कभी वे परिंदों की भांति उड़ना चाहते हैं, तो कभी पक्षियों को देखकर वे अपने भीतर की झटपटाहट को देखते हैं | पक्षियों से वे सर्दी-गर्मी की पवाह न करने की प्रेरणा लेते हैं | पक्षियों के माध्यम से ही वे संदेश देते हैं कि सफलता उसी को मिलती है, जो डरता नहीं | चांदनी रात में भटके पक्षी के माध्यम से वे जीवन का कटु यथार्थ व्यक्त करते हैं -
" लोग दिखते हैं ठीक से / पर ठीक नहीं होते / बाहर से होते हैं चुप /
भीतर हैं रोते / यह चुप-सा रोना / ही दुनिया भर की /
व्यथा है / यह अकथ है / यही कथा है " ( पृ. - 16 )
उनका मानना है कि भीगे मौसम, नदियों की हलचल, पक्षियों के चहकने के सिवा जिंदगी और क्या होगी | जीने का ढंग वे बगिया के फूलों से सीखते हैं | खिले हुए फूल कहते हैं कि यही जिंदगी है | प्ले स्कूल के बच्चे उन्हें फूलों से लगते हैं | हवा और फूल की अटखेलियाँ उन्हें भाई-बहन का लड़ना-झगड़ना, खेलना लगता है | लडकी और चिड़िया को वे एकाकार कर देते हैं -
" गुडिया है चिड़िया / चिड़िया है गुड़िया " ( पृ. - 42 )
पेड़ और हवा, परिस्थितियों और दृढ इरादों के प्रतीक हैं | विचारों की गर्मी अर्थात जोश के आगे ठिठुरती सुबह बौनी पड़ जाती है | आकाश को देखकर वे सकारात्मक सोच से भर उठते हैं, हालांकि कभी-कभी उन्हें निराशा भी होती है कि पहाड़, नदी, झरने समुद्र उन्हें देखते नहीं |
वे सूरज-बादल की आँख-मिचौली का चित्रण करते हैं | चन्द्रमा उन्हें बताता है कि वह अकेला नहीं | आकाश में विचरते पक्षी, पानी में तैरती मछलियाँ निरंतर चलते रहने का रहस्य बताते हैं | घटा, सूरज, रात आदि के माध्यम से वे संदेश देते हैं कि जीवन में ठहरता कुछ भी नहीं | झूमते सफेदे के पेड़ को देखकर उनका मन भी प्रकृतिमय होकर झूम उठता है | वे खुद को मौसम-सा पाते हैं | मौसम का सन्नाटा उन्हें अपने भीतर दिखाई देता है |
" छतें है सूनी-सी / सिकुड़ी-सी, चुप-सी / पता नहीं /
सन्नाटा क्यों उगता / रहता है मेरे भीतर " ( पृ. - 88 )
कभी वे खुद को सूरज-सा पाते हैं, तो कभी नदी को अपनी माँ के रूप में देखते हैं | किसी का इन्तजार उन्हें बारिश के इन्तजार-सा लगता है, जिसमें तपन है, घुटन है | प्रेम उन्हें बंधन नहीं लगता है, अपितु वे कहते हैं -
" तुम रहो उन्मुक्त / मैं भी रहूँ उन्मुक्त "( पृ. - 56 )
इसके पीछे धरती-आकाश, नदी-पहाड़ के प्रेम का तर्क है | प्रेम में निकटता जरूरी नहीं -
" न होकर भी / हो जाएँ उसी के /
और दूर रहकर भी / नजदीकियां लाते रहें " ( पृ. - 84 )
लेकिन समर्पण जरूरी है क्योंकि समर्पण सुलझाता है जबकि उम्र, जाति, प्रतिष्ठा की झाड़ियाँ आदमी को लहूलुहान कर देती हैं |
उनका मानना है कि न सहने की आदत घरों का माहौल बिगाड़ती है | जीवन लड़ने-झगड़ने से बचाव करने में बीत जाता है | पति-पत्नी के संबंधों को वे प्रकृति के उपादानों से व्यक्त करते हैं | दोनों के बीच कभी चट्टानें, कभी पहाड़ आते हैं तो कभी नदी, झरने लेकिन ज्वालामुखी तक पहुँचने की नौबत कभी नहीं आई | ये स्थिति घर-घर की है -
" कभी-कभी / धुंध छा जाती थी / हम दोनों के बीचएव/
तो कभी सूरज / कभी चाँद का / अनुभव होता रहा " ( पृ. - 13-14 )
वे भारी बस्तों के बोझ तले बचपन की पीड़ा को महसूस करते हैं, जीवन को भाई-बहन के प्यार की मिठास से भरना चाहते हैं |
रूप देवगुण जी ने जो भी कहना चाहा है, उसे प्रकृति के माध्यम से कहा है | ऐसे में मानवीयकरण इस संग्रह का आधार बन गया है | जगह-जगह पर मानवीयकरण अलंकार के उदाहरण हैं, यथा -
" रात आई / कालिमा लाई / लगी डराने " ( पृ. - 64 )
" गुमसुम / बैठा है मौसम " ( पृ. - 91 )
इसके अतिरिक्त अनेक शब्दालंकारों और अर्थालंकारों की छटा इस संग्रह में देखने को मिलती है | मुक्त छंद की इन कविताओं में पानी की सी रवानी है | संवादात्मक, वर्णनात्मक, बिम्बात्मक शैलियों की प्रधानता है | भाषा सरल और भावपूर्ण है |
संक्षेप में यह कविता-संग्रह पाठक को पहाड़ों, झरनों, नदियों की गोद में ला बैठाता है | कमरे में बैठकर कविताएँ पढ़ते समय पाठक प्रकृति के जीवंत रूप को अपने आस-पास महसूस करता है | यही इस संग्रह की विशेषता है |
*******
दिलबागसिंह विर्क
*******
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें