कविता संग्रह - ज़िंदगी...कुछ यूं ही
कवि - सुधाकर पाठक
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन
कीमत - ₹ 225 / - ( सजिल्द )
पृष्ठ - 110
“ जिंदगी...कुछ यूँ ही ” सुधाकर पाठक जी का प्रथम कविता संग्रह है | उनकी कविताएँ इससे पूर्व “ सहोदरी सोपान – 1 ” में आ चुकी हैं, लेकिन स्वतंत्र रूप से यह उनका प्रथम प्रयास है | इस संग्रह को देखते हुए यह आभास बिल्कुल भी नहीं होता कि यह संग्रह किसी नवागत कवि का है | सुधाकर पाठक की कविताएँ पर्याप्त प्रौढ़ता लिए हुए हैं, जो यह बताता है कि कवि ने आमतौर पर नए कवियों की तरह हडबडाहट में कविता-संग्रह प्रकाशित करवाने की अपेक्षा परिपक्व होने के बाद ही कविता-संग्रह प्रकाशित करवाने का निर्णय लिया है |
“ जिंदगी...कुछ यूँ ही ” कविता-संग्रह का शीर्षक किसी एक कविता पर आधारित नहीं है | इस संग्रह में ‘ जिंदगी ’ शीर्षक से 2 कविताएँ हैं और एक कविता का शीर्षक है ‘ बस यूँ ही ’ | इन दोनों शीर्षकों से इस संग्रह का नामकरण हुआ है | यह तीनों कविताएँ जिंदगी को लेकर विचार मंथन करती हैं | सिर्फ यही तीनों कविताएँ ही नहीं, अपितु इस संग्रह की अधिकाँश कविताएँ जीवन को विभिन्न नजरियों से सोचती, विचारती हैं | हर विचारवान व्यक्ति जिंदगी को लेकर सोचता है और यह सोचना भले यूँ ही होता है, लेकिन गहरे अर्थ रखता है | कवि ने सोचने की इसी प्रक्रिया को आधार बनाया है और अपने संग्रह का नामकरण इसी सोच को दिया है, लेकिन यह ‘ यूँ ही ’ सोचना पाठकों को झकझोरता है | इस संग्रह को पढ़ते हुए जिंदगी के कई पहलू पाठक के सामने तस्वीर की भांति घूम जाते हैं |
इस संग्रह में कुल 33 कविताएँ हैं, जिनमें तीन विषयों – जिंदगी, पतंग और मन को लेकर दो-दो कविताएँ हैं | एक विषय पर दो-दो कविताएँ लिखना बताता है कि कवि एक ही विषय पर निरंतर सोचता रहता है और वह अपनी किसी सोच को लेकर जिद्द नहीं ठानता | यही बात कवि को बेहतर बनाती है और पाठक के सामने एक ही विषय के अलग-अलग पहलू उपस्थित होते हैं | कवि के चिन्तन का मुख्य बिंदु जीवन, रिश्ते आदि है, लेकिन प्रकृति के चित्रण में, मन के भीतर झाँकने में या फिर प्रियतम के शब्द चित्र बनाने में भी कवि का मन खूब रमा है | कवि का दृष्टिकोण आशावादी है, लेकिन यथार्थ का चित्रण भी उन्होंने बखूबी किया है |
कवि जिंदगी के कई पहलू देखता है | वह कभी जिंदगी की व्यस्तता से दुखी होकर स्वच्छंद होकर जीना चाहता है, तो कभी उसे लगता है कि जीने का तरीका बड़ी देर बाद समझ आया | खुशियों की चाहत में तिल-तिल घिसते जीवन के बारे में कवि लिखता है –
“ पर नहीं मिलता / मेरी खुशियों का शहर /आँख-मिचौली का यह खेल /
न जाने कब से जारी है / बस... / तिल-तिल कर / घिस रहा जीवन /
खुशियों की चाहत में / रोज... / हर रोज... / बस यूँ ही” ( बस यूँ ही, पृ. – 104, 105 )
न जाने कब से जारी है / बस... / तिल-तिल कर / घिस रहा जीवन /
खुशियों की चाहत में / रोज... / हर रोज... / बस यूँ ही” ( बस यूँ ही, पृ. – 104, 105 )
जीवन घिस रहा है, क्योंकि आदमी परिवार के लिए जीता है और परिवार के लिए जीना उससे बड़ी कीमत वसूलता है –
“ पूरा जीवन ही / ‘ अपनों के सपने ’ को /
पूरा करने में / आहूत हो गया /
और एक जीता-जागता इंसान / बस /
मशीन बन कर / रह गया ” ( सपनों की आहुति, पृ. – 41 )
जीवन के चक्कर में फंसा आदमी कोल्हू का बैल बन कर रह जाता है –
“ जो घुमाता रहता है मुझे / गोल-गोल / दफ्तर से घर /
घर से दफ्तर / कोल्हू के बैल की तरह ”( कोल्हू का बैल,पृ. – 39 )
जीवन की आपाधापी का परिणाम कवि यह कहकर दर्शाता है –
“ आदमी चुक जाता है / पर मंजिल नहीं पाता है ” ( मंज़िल, पृ. – 83)
जीना आदमी भूल ही चुका है | आदमी दरअसल दिन काटता है या कवि के शब्दों में कहें तो –
“ पर जब जीते हैं...तो / मरते हैं / एक जीवन में /
कई-कई बार ”( मौत से पूर्व मरना, पृ. – 42 )
कई-कई बार ”( मौत से पूर्व मरना, पृ. – 42 )
ऐसा नहीं कि कवि अनजाने में ही घूम रहा है बल्कि उसे ज्ञात है कि जिंदगी का यह सफर महज मृगतृष्णा है –
“ ये ऐसा सफर है / जिसमें सिर्फ चलने का / गुमान होता है /
पर पहुंचते कहीं नहीं / गोल-गोल घूमते हैं / यहाँ सब...बस.../
न कोई सफर / न कोई मंजिल /
मृगतृष्णा है जिंदगी ” ( जिंदगी-1, पृ. – 65 )
पर पहुंचते कहीं नहीं / गोल-गोल घूमते हैं / यहाँ सब...बस.../
न कोई सफर / न कोई मंजिल /
मृगतृष्णा है जिंदगी ” ( जिंदगी-1, पृ. – 65 )
कवि मानता कि आदमी जीवन के सच को समझने में अक्सर चूक जाता है –
“ नहीं जान पाया / जीवन का यह ‘ सत्य ’ /
‘ स्वाती की बूँद ’ / होती होगी /
पर मिलती नहीं ” ( प्यास, पृ. – 93 )
पर मिलती नहीं ” ( प्यास, पृ. – 93 )
कवि यह स्वीकारता है कि जीने की समझ देर से ही आती है –
“ जब.../ समझ आता है / इससे और बेहतर / तरीके से भी तो /
जिया जा सकता था इसे / तब तक मुट्ठी की / रेत की तरह /
फिसल चुकी होती है जिंदगी ” ( जिंदगी-1, पृ. – 64 )
जिया जा सकता था इसे / तब तक मुट्ठी की / रेत की तरह /
फिसल चुकी होती है जिंदगी ” ( जिंदगी-1, पृ. – 64 )
इसी को वह अन्य शब्दों में यूँ कहता है –
“ पर जब तक समझ आता / जीवन जीने का सलीका /
आ गयी / ‘ गोधूली की बेला ’ ” ( गोधूली, पृ. – 101 )
आ गयी / ‘ गोधूली की बेला ’ ” ( गोधूली, पृ. – 101 )
जीने की कला के अभाव में ही हम तन सजाते और आत्मा को मलिन करते हैं | कवि जीवन के इन विरोधाभासों को महसूस करता है –
“ तन को जितना सजाया / आत्मा उतनी मलिन होती गयी /
जिंदगी और...और / और कठिन होती गयी /
हर ऊँची छलांग गहरे दलदल / में धँसाती गई ”( गोधूली, पृ. – 101 )
जिंदगी और...और / और कठिन होती गयी /
हर ऊँची छलांग गहरे दलदल / में धँसाती गई ”( गोधूली, पृ. – 101 )
कवि आत्मा की कचहरी में खुद को अपराधी महसूस करता है –
“ मैं अपराधी बन झेलता हूँ / तीखे सवालों के वार /
गुस्सा, आक्रोश और तिरस्कार / झुका सर / डबडबाई आँखें /
होंठ बुदबुदाते हैं / पर आवाज़ नहीं निकलती है /
हर रात सज़ा / सुनाई जाती है ” ( मैं कौन, पृ. – 100 )
होंठ बुदबुदाते हैं / पर आवाज़ नहीं निकलती है /
हर रात सज़ा / सुनाई जाती है ” ( मैं कौन, पृ. – 100 )
जीवन की व्यस्तता, समाज की बेड़ियाँ, कर्त्तव्यों की अनगिनत सूलियां कभी-कभी कवि को परेशान भी करती हैं और वह अपने ढंग से जीने की मांग कर उठता है -
“ अपने खुद के बनाए रास्ते पर / चलना चाहता हूँ /
खुद के बनाए मापदंड़ो पर / खरा उतरना चाहता हूँ /
जीना चाहता हूँ अपने / जीवन को भरपूर ” ( मेरा जीवन, पृ. – 45 )
खुद के बनाए मापदंड़ो पर / खरा उतरना चाहता हूँ /
जीना चाहता हूँ अपने / जीवन को भरपूर ” ( मेरा जीवन, पृ. – 45 )
वह कहता है –
“ मन करता है / जिंदगी को एक बार तो /
करीने से सजाऊं ” ( जिन्दगी-2, पृ. – 68 )
करीने से सजाऊं ” ( जिन्दगी-2, पृ. – 68 )
कवि शायद इसलिए भरपूर जीना चाहता है क्योंकि उसे जीवन की नश्वरता का भान है -
“ आता है फिर / हवा का तेज झोंका / फूट जाता है /
पानी के / बुलबुले की तरह / हर ख़्वाब ( ख़्वाब, पृ. – 94 )
पानी के / बुलबुले की तरह / हर ख़्वाब ( ख़्वाब, पृ. – 94 )
लेकिन नश्वरता और उदासी उसे डराती नहीं, वह आशावादी है –
“ दिन भर की मायूसी / उदासी और बेचैनी को /
तकिये के नीचे दबाकर / बुनता हूँ रंगीन ख़्वाब ” ( अधूरे ख़्वाब, पृ. – 109 )
यह आशावाद पल-पल बढ़ते डर में भी आस बंधाता है –
“ यह डर / होता जा रहा है / जवान और जवान /
पर फिर भी /मन के तहखाने के किसी कोने में /
पर फिर भी /मन के तहखाने के किसी कोने में /
छुपा है एक अटूट विशवास ” ( अनहोनी, पृ. – 53 )
कवि मानता है कि उदासी उसे घेरती है लेकिन निराशा आशा को हरा नहीं पाती –
“ थकान, मायूसी, उदासी / बेचैनी से शुरू होती है हर रात
पर नहीं दे पाती / ख़्वाबों को मात ” ( अधूरे ख़्वाब, पृ. – 110 )
वह इस सच से वाकिफ है कि सुख दुःख के बाद आते हैं –
“ गहरे ‘ तम ’ से / जूझकर आता है /
प्रात: काल का / ‘ गुलाबी उजाला ’ ”( चाहता हूँ बनना, पृ. – 90 )
कवि आशावादी होने के साथ जीवन को रंगीन बनाने के लिए प्रयास भी करता है –
“ रात / फिर कोशिश की थी जिंदगी की तस्वीर में /
इन्द्रधनुषी रंग भरने की ” ( तस्वीर, पृ. – 95 )
इन्द्रधनुषी रंग भरने की ” ( तस्वीर, पृ. – 95 )
वह कोरे ख़्वाबों के सहारे नहीं रहता, अपितु जानता है –
“ मंजिल मिलती है / ‘ दृढ इच्छा शक्ति ’/
और / ‘ अटूट संकल्प ’ से ” ( चाहता हूँ बनना, पृ. – 90 )
कवि अपनी कविताओं में अनेक चित्र प्रस्तुत करता है | प्रकृति का चित्र देखिए –
“ निर्मल...स्वच्छ.../ नीला अम्बर / मंद-मंद बहती /
शीतल हवा खुशगवार मौसम की / एक मनभावन / मोहक शाम ”( पतंग-2, पृ. – 71 )
शीतल हवा खुशगवार मौसम की / एक मनभावन / मोहक शाम ”( पतंग-2, पृ. – 71 )
प्रियतमा का चित्रण इस प्रकार है –
“ माथे पर / बड़ी-सी बिंदी / सिन्दूर के ऊपर / चमकता /
मांग टीका / बड़ी-बड़ी / कजरारी आँखें ” ( हर रात, पृ. – 88-89 )
मांग टीका / बड़ी-बड़ी / कजरारी आँखें ” ( हर रात, पृ. – 88-89 )
मन को व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है –
“ कल मिला मन / अकेले में.../
...कुछ अनमना सा / सहमा-सहमा / टूटा-टूटा /
बिखरी जुल्फें / सुर्ख आँखें / सूखे होंठ /
उड़ी-उड़ी रंगत / उदास चेहरा ” ( मन-1, पृ. – 78 )
मन के सच का भी बड़ी निर्भीकता से ब्यान किया है –
“ मन / बहुत बेईमान / सुनता सबकी / करता अपनी /
जानता सब / मानता कम ” ( मन-2, पृ. – 81 )
रिश्तों का चित्रण भी बड़ी बखूबी से किया गया है –
“ काकी के हाथों की / खट्टी-मीठी कढ़ी /
चाची की बाजरे की रोटी / भाभी का सरसों का साग ”( कोल्हू का बैल, पृ. – 34 )
लेकिन रिश्ते सिर्फ सुंदर हों, ऐसा नहीं –
“ यहाँ रिश्तों में / समझौते हैं / गठबंधन हैं ” ( मन-1, पृ. – 79 )
समाज में व्याप्त स्वार्थ का बयान भी उन्होंने किया है –
“ समाज हो या रिश्ते / तब तक हैं अपने /
जब तक / तुम हो उपयोगी ”( मन-1, पृ. – 79 )
कवि बड़ी सहजता से जीवन दर्शन को भी अभिव्यक्त करता है –
“ जब मन की टूटन / तन पर उभरती है
तो दीवारों में / दरारें पड़ती हैं ” ( दरारें, पृ. – 58 )
जीवन का कडवा सच कहने से कवि चूकता नहीं –
“ पहले गति थी / प्रगति नहीं थी
अब प्रगति है पर / गति नहीं है ” ( कोल्हू का बैल, पृ. – 39 )
जीवन पतंग की डोर-सा उलझा-उलझा लगता है या फिर डोर जिंदगी-सी लगती है –
“ शेष रह जाती है बस डोर / उलझी-उलझी सी /
बिल्कुल जिंदगी की तरह ” ( पतंग-1, पृ. – 69 )
कवि ने परिवार के मुखिया की दशा को दीवार के माध्यम से बड़ी बखूबी चित्रित किया है –
“ कभी घर सजाने के नाम पर / ठोंकी जाती हैं सीने पर कीलें /
वजूद के हिस्से को काटकर / बनते हैं खिड़की /
झरोखे और द्वार ” ( दरारें, पृ. – 57 )
जनता की व्यथा को वह फुटबाल के माध्यम से व्यक्त करता है | जनता सिर्फ इस्तेमाल के लिए बनी है, फुटबाल की तरह उसका इस्तेमाल होता है –
“ महत्त्वपूर्ण हैं / माहिर खिलाड़ी /
मैच, गोल / फुटबाल नहीं ” ( फुटबाल, पृ. – 77 )
आदमी के लालच को मकड़ी के माध्यम से कहा गया है –
“ बुनने लगी एक जाल / अब कोई नहीं बचेगा /
हर वो चीज / जिसकी चाहत है उसे /
उसकी अपनी होगी अब बस ” ( मकड़जाल, पृ. – 74 )
“जिंदगी...कुछ यूँ ही ” कविता-संग्रह प्रेम कविताओं से अछूता नहीं, लेकिन कवि कोरा प्रेम नहीं दिखाता | वह प्रेम के सार को पौधे के माध्यम से बड़ी खूबसूरती से कहता है –
“ प्रेम का पौधा / माँगता है ढेर-सा प्यार-दुलार / पत्तियों का चुम्बन / तने का आलिंगन / पर इस प्रक्रिया मात्र से /
नहीं मिलेगा उसे /उसे मजबूत आधार ” ( प्रेम का पौधा, पृ. – 55 )
नहीं मिलेगा उसे /उसे मजबूत आधार ” ( प्रेम का पौधा, पृ. – 55 )
समर्पण के बिना कैसा प्रेम | समर्पण को देखिए –
“ मेरी सिद्धि भी तुम / साध्य भी तुम
राह भी तुम / और / लक्ष्य भी तुम ”( मेरा स्वप्न, पृ. – 85 )
प्रेम में ऐसी स्थिति भी बहुधा आती है जब खुद की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती –
“ कहना चाहता हूँ / वह सब बातें / जो गहरे बैठी हैं /अचेतन मन में /
जिन्हें कभी / कह नहीं पाया तुम्हें ” ( कशमकश, पृ. – 97 )
जिन्हें कभी / कह नहीं पाया तुम्हें ” ( कशमकश, पृ. – 97 )
प्रेम का वर्णन हो और बेवफाई का न हो, यह नहीं हो सकता | यह संग्रह भी इससे अछूता नहीं –
“ और फिर आयेंगे / कई और दौराहे / तिराहे, और चौराहे भी /
मुझे भरोसा है / तुम्हारी निर्णय क्षमता पर / रास्ता चुनने की / तुम्हारी कला पर /
जानता हूँ / तुम चुनोगी वही / जो होंगे चमकीले ” ( उस मोड़ पर, पृ. – 107 )
मुझे भरोसा है / तुम्हारी निर्णय क्षमता पर / रास्ता चुनने की / तुम्हारी कला पर /
जानता हूँ / तुम चुनोगी वही / जो होंगे चमकीले ” ( उस मोड़ पर, पृ. – 107 )
कवि जानने और पहचानने को भी परिभाषित करता है | वह कहता है –
“ तुम सिर्फ जानते भर हो / पर पहचानते नहीं ” ( मैं कौन, पृ. – 99 )
जानना खुद से होता है –
“ मैं कौन ? / मुझसे ज्यादा /
कौन जान सका है यह ? ( मैं कौन, पृ. – 99 )
अगर किसी को जानना है, तो वह तभी संभव है, जब हम खुद को उसकी जगह पर रखेंगे | कवि खुद को दूसरों की जगह रखने को तैयार है –
“ आज मन किया / मैं तुम्हें ‘ तुम ’ बनकर सोचूँ ” ( तुम बनकर, पृ. – 61 )
और इसका परिणाम यह होता है कि वह दूसरे को समझ पाता है –
“ जी हाँ.../ मैं वापस लौट आना / चाहता हूँ अपने आप में /
अपनी दुनिया में / पर लौटने से पहले / एक वायदा है /
अब कभी नहीं कहूंगा /
तुम्हारा डर है बेमानी ” ( तुम बनकर, पृ. – 62-63 )
तुम्हारा डर है बेमानी ” ( तुम बनकर, पृ. – 62-63 )
कवि ने भाव पक्ष को जितनी शिद्दत से ब्यान किया है, शिल्प पक्ष को भी उतनी खूबसूरती से सजाया है, हालांकि यह सजावट सहज रूप से आई है | मुक्त छंद की कविताएँ स्वाभाविक बन पाई हैं | अलंकारों का भरपूर प्रयोग हुआ है | वीप्सा अलंकार का सुंदर प्रयोग मिलता है -
“ जिंदगी और...और / और कठिन होती गयी ”
पुनरुक्ति प्रकाश के उदाहरण – “ पूरी-पूरी, अपनी-अपनी, धीरे-धीरे, एक-एक ” ये सब एक ही कविता ‘ सपनों की आहुति ’ में हैं | पूरे संग्रह में तो ये बहुतायत में हैं | इसी कविता में अन्त्यानुप्रास का भी उदाहरण देखिए –
“ आसमान में झांकते / खुली आँखों से ताकते /
इन्द्रधनुषी स्वप्न कई / देखें हैं पूरी-पूरी रात जागते ”
पद मैत्री के कुछ उदाहरण ‘ कोल्हू का बैल ’ कविता में देख सकते हैं – हरे-भरे, खट्टी-मीठी | इसी प्रकार के उदाहरण अन्य कविताओं में भी मिलते हैं | अनुप्रास अलंकार को प्रयोग तो सदैव मिल ही जाता है | कवि ने उपमाओं और प्रतीकों का भी प्रयोग किया है | फुटबाल जनता का प्रतीक है, दीवार मुखिया का प्रतीक है | बिम्बों का प्रयोग भी मिलता है | दृश्य बिम्ब देखिए -
“ गोबर से लिपे / आंगन के एक कोने में / साइकिल के बेकार पड़े टायर को /
लकड़ी के छोटे डंडे के सहारे दौडाते /खाने की पोटली और / पानी कि पुतलिया /
कंधे पर टाँगे /सरपट पहुंच जाता था / गाँव से बहुत दूर /
खेत में हल जोतते / अपने पिता के पास ” (कोल्हू का बैल, पृ. – 35 )
खेत में हल जोतते / अपने पिता के पास ” (कोल्हू का बैल, पृ. – 35 )
कवि की भाषा सहज, सरल है | उनकी कविताओं में तत्सम शब्द भी हैं, तो विदेशी भी | भाषा के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं, इसी कारण यह भावों के अनुकूल बन पड़ी है | शब्द अपनी तीनों शक्तियों के साथ मौजूद हैं | व्यंग्य का भरपूर प्रयोग मिलता है –
“हलाल और झटके में / कुछ तो फर्क होता है भाई ”( आत्महत्या, पृ. – 50 )
मन के माध्यम से बेवफाई के आरोप लगाने पर बड़ा खूबसूरत व्यंग्य है –
“ जब खुद दिल तोड़े / ... तो मजबूरी /
कोई और करे किनारा / ... तो बेवफाई ” ( मन-2, पृ. – 81 )
कवि बयान की अनेक शैलियों का प्रयोग करता है | वर्णनात्मक शैली का एक उदाहरण –
“ डर अलगाव का, बिखराव का / डर समाज का, कानून का /
डर धर्म का, जाति का / डर छोटी-सी उपेक्षा से /
अस्तित्व पर बन आये संकट का ”( तुम बनकर, पृ. – 62 )
कभी वह निवेदन करता है –
“ एक बार... / ...बस एक बार... / सिर्फ और सिर्फ / एक बार.../
ऐ जिंदगी तू मुझे / मेरी मर्जी से / जीने की / मोहलत दे दे ” ( जिंदगी-2, पृ. – 66 )
ऐ जिंदगी तू मुझे / मेरी मर्जी से / जीने की / मोहलत दे दे ” ( जिंदगी-2, पृ. – 66 )
तो कभी वह संबोधित करता है –
“ ऐ जिंदगी / तेरी मर्जी से तो / बहुत जी लिए हम ” ( मेरा जीवन, पृ. – 44 )
“ ये सब... / अकस्मात नहीं है प्रिये ! ” ( प्रेम, पृ. – 59 )
“ वाह रे मन / अनोखे तर्क ” ( मन-2, पृ. – 82 )
संक्षेप में, कविता-संग्रह “ जिंदगी...कुछ यूँ ही ” भाव पक्ष और शिल्प पक्ष की दृष्टि से एक सफल कविता-संग्रह है | इसमें जिंदगी को बड़ी गंभीरता से सोचा, देखा, परखा गया है और बड़ी सादगी से ब्यान किया गया है |
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© दिलबागसिंह विर्क
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