कवयित्री - आशा पाण्डेय ओझा
प्रकाशक - अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद
पृष्ठ - 112 ( पेपरबैक )
कीमत - 20 /- ( साहित्य सुलभ संस्करण के अंतर्गत )
बिना प्रेम के जीवन सूना है । प्रेम लौकिक भी हो सकता है और आध्यात्मिक भी । कभी-कभी लौकिक प्रेम में आध्यात्मिक प्रेम की झलक होती है । आशा पाण्डेय ओझा का कविता-संग्रह ' ज़र्रे ज़र्रे में वो है ' लौकिक और आध्यात्मिक प्रेम का संगम है । कवयित्री अपने प्रियतम को ज़र्रे ज़र्रे में देखती है ।
ज़र्रे ज़र्रे में तू है / तुझी से ज़र्रा ज़र्रा ( पृ. - 83 )
इतना ही नहीं वे खुद को प्रियतम में एकाकार पाती हैं -
मुझमें मिल गया / मेरा कंत सखी /
या कि / मैं ही कंत हो गई ( पृ. - 33 )
प्रेमी में लीन होना उन्हें अपना स्वार्थ लगता है, लेकिन इस स्वार्थ को न सिर्फ स्वीकारती हैं, अपितु बढ़ाना भी चाहती हैं -
मैं अपने स्वार्थ को / कई गुना बढ़ाना चाहती हूँ /
ताकि मैं सचमुच / तुम में लीन होने में समर्थ हो सकूँ ( पृ. - 47 )
हालांकि उसे यह निश्चित नहीं कि उसे स्वीकार कर लिया जाएगा -
क्या अपना लोगे प्रीतम / मुझ अभागी को तुम /
आ जाऊँ जो तेरे द्वार ( पृ. - 51 )
समर्पण प्रेम की पहली शर्त है, लेकिन समर्पण तभी संभव है, जब खुद को मिटाया जाए । कवयित्री यह खतरा उठाने को तैयार है -
क्या अपना लोगे प्रीतम / मुझ अभागी को तुम /
आ जाऊँ जो तेरे द्वार ( पृ. - 51 )
समर्पण प्रेम की पहली शर्त है, लेकिन समर्पण तभी संभव है, जब खुद को मिटाया जाए । कवयित्री यह खतरा उठाने को तैयार है -
समंदर में मिलना / अपना / वजूद खोना है /
पर बिन समंदर में मिले / इस जीवन नदी को /
विश्राम कहाँ ( पृ. - 86 )
इस खतरे को उठाते हुए कभी उसे संदेह होता है -
क्या मुझी में / मैं न रही अब /
या छूट गया वो कहीं / जाने अनजाने मुझमें ( पृ. - 45 )
तो कभी यह संदेह विश्वास बनता दिखता है -
धीरे-धीरे मुझसे दूर हो रही मैं / उतर रहे मुझमें तुम ( पृ. - 23 )
वह खुद को उसकी याद से भरा हुआ पाती है -
नस-नस में थी उसकी याद / हृदय में था उसका कंपन /
कानों में थी उसकी गूँज / होठों पर था उसका नाम /
आत्मा में था उसका संचार / मुझमें था वो /
रिक्त नहीं थी मैं ( पृ. - 58 )
वह खुद को उसकी याद से भरा हुआ पाती है -
नस-नस में थी उसकी याद / हृदय में था उसका कंपन /
कानों में थी उसकी गूँज / होठों पर था उसका नाम /
आत्मा में था उसका संचार / मुझमें था वो /
रिक्त नहीं थी मैं ( पृ. - 58 )
लोग दुनियारी में उलझे रहते हैं, लेकिन दीवानों को इसकी परवाह कब होती है । इस स्थिति को वे लिखती हैं -
लोग दुनियादारी की बात करते हैं / और मैं पागल
सिर्फ़ तुम्हें सोचता हूँ ज़िंदगी ( पृ. - 25 )
कवयित्री खुद को प्रियतम के बिना बावली सी महसूस करती है । वह प्रेम के बिना संसार की कल्पना करते हुए प्रेम के अक्षय रहने की दुआ करने को कहती है | कवयित्री का मानना है कि मुहब्बत कभी मरती नहीं, वह ज़र्रे ज़र्रे में है | वह यह भी मानती है कि प्यार सूर्य के प्रकाश की तरह है, जो जीवन के पोर-पोर को प्रकाशित कर देता है | मुहब्बत के कारण वह खुद को प्रेम की कवयित्री अमृता प्रीतम से जुड़ा हुआ महसूस करती हैं | उसका मानना है कि उसकी मुहब्बत से ईश्वर को भी ईर्ष्या है |
मुहब्बत क्या है ? इसे बड़े सुंदर शब्दों में ब्यान किया गया है -
करनी नहीं, / जीनी होती है मुहब्बत /
घूँट-घूँट पीनी होती है मुहब्बत ( पृ. - 74 )
पहली नजर की मुहब्बत के बजाए कवयित्री का मानना है कि -
वक्त ही नहीं सदियाँ लग जाती हैं
बुनते-बुनते मुहब्बत ( पृ. - 74 )
इस मुहब्बत का, इस मुहब्बत से मिले दुःख का अलग ही आनंद होता है -
अपना ही आनंद है / सुख मिश्रित दुःख पाने का /
अपना ही मजा है / मिटते हुए जीने का ( पृ. - 60 )
प्रेम में मिली पीड़ा का वर्णन इस संग्रह में हुआ है । यह दर्द अनवरत मिलता ही रहेगा, ऐसी उनकी मान्यता है -
सुन पागल प्रेमी !/ मिलता रहेगा प्रेम में यह दर्द /
पीढ़ी दर पीढ़ी / बिन जात-पात, लिंग भेद के ( पृ. - 53 )
प्रेम का दर्द रोने से कम नहीं होता, इसलिए वह न रोने का संदेश देती हैं -
मत रो पगली / आंसुओं से /
नहीं मिटा करते हैं / हर्फ़ मुहब्बत के ( पृ. - 22 )
आँसू और यादें मुहब्बत को ज़िंदा रखती हैं -
इस तरह मुहब्बत / ज़िंदा रहती है / आँखों की बूंदों /
और यादों की / हवाओं से ( पृ. - 22 )
याद आशा पाण्डेय ओझा के कविताओं में अनेक रूप में आई है । ' तेरी याद ' कविता में याद को परिभाषित किया गया है । कभी कवयित्री को याद बंधन के रूप में लगती है, तो कभी वह पाकीजा मुहब्बत को याद करती हुई कहती है -
कितनी पाकीजा होती थी न तब मुहब्बतें /
देह से परे / सिर्फ रूहें मिला करती थी /
और मोहताज भी नहीं थी शब्दों की ( पृ. - 18 )
याद में तडपते पलों को उन्होंने यूँ लिखा है -
जब चुभती हैं सुइयाँ तेरी याद की / ऐसे मुस्कराती हूँ मैं पगली /
प्रसव पीड़ा में भी जैसे मुस्कराती है / होने वाले बच्चे की माँ ( पृ. - 75 )
कवयित्री ने प्रेमिका की दशा को बड़े शानदार शब्दों में व्यक्त किया है | पत्नी और प्रेमिका की तुलना करते हुए वे लिखती हैं -
पत्नी सी होती है पूनम / प्रेमिका सी होती है अमा /
सुख पत्नी की मांग में / सज जाता है /
दर्द प्रेमिका के / आंचल में टंग जाता है ( पृ. - 41 )
वे नदी की तुलना प्रेमिका से करते हुए लिखती हैं -
प्रेमिका ही तरह ही तो / होती है नदी /
बिछड़ कर किसी से / मिल जाती है किसी से ( पृ. - 42 )
दुःख सहते हुए भी कवयित्री आशा को नहीं छोडती | उसकी आशा देखिए -
तू अगर अब तलक / पत्थर भी हो चुका होगा /
तो आँसुओं से पिघल जाएगा ( पृ. - 31 )
प्यार के लम्हों को जैसे वो खुद जीती है, वैसे ही उसका प्रियतम जीता होगा, ऐसी आशा वो रखती हैं -
तुम भी जीते होओगो ना / वो लम्हे आज भी
ठीक मेरी ही तरह ( पृ. - 18 )
इसी आशा के कारण वह लिखती है -
लिखना तब फिर / एक पाती मेरे नाम / जब-जब
महुआ पर पात आये / जब टेशू पर फूल आये ( पृ. - 18 )
हालांकि वह अपने आशावादी होने से बहुत खुश नहीं -
क्यों नहीं मिटती जीते जी / उम्मीदें हमारी ? ( पृ. - 55 )
उम्मीदें दुःख देती हैं, लेकिन बार-बार उन्हीं उम्मीदों से हम छले जाते हैं -
कितनी ही बार ढोते हम / दर्द की गठरियाँ /
पर जाने क्यों फिर बसा लेते हैं हम / नए मोहल्ले ( पृ. - 55 )
आशावादी होने के बावजूद कुछ डर कवयित्री को सताते हैं -
डर है मुझे / कहीं फिर न बह पड़े / ख्वाहिशों की वो नदी /
जो गम हो गई थी / एक दिन / जुदाई के कारण ( पृ. - 19 )
कवयित्री प्रेमी से शिकवे करने में विश्वास नहीं रखती, हाँ उसे खुद से शिकवा है -
जितनी परेशान नहीं / तेरे भूल जाने की आदत से /
उतनी परेशान हूँ / जालिम / अपनी याद रहने की /
इस आदत से ( पृ. - 20 )
कवयित्री हालांकि नए दौर के प्रेम पर सीधे-सीधे कुछ नहीं कहती, लेकिन वह आज के सच को बता ही जाती है -
तुम भी ठहरे मेरी ही पीढ़ी के / तब की पीढियाँ नहीं बदला करती थीं /
रोज-रोज मुहब्बत के नाम पर देह के लिबास ( पृ. - 18 )
प्रेम और बीते पल कवयित्री से लिखवाते हैं -
तेरी मेरी अबोली प्रीत की / वो मूक स्वीकृति /
आज मुखर हो उठी / कागजों पर ( पृ. - 69 )
इन्तजार भी उससे लिखवाता है -
उसकी रुबाइयों का / इन्तजार / कहलवाने लगा है /
अब तो मुझसे भी / कविताएँ ( पृ. - 84 )
और उसका मानना है कि वह तब तक लिखती रहेगी जब तक प्रियतम में मिल नहीं जाती -
जब मैं कुछ न लिखूं / तब जान लेना / मिल गई उसमें /
सदा-सदा के लिए / जिसके लिए लिखती रही ( पृ. - 54 )
' ज़र्रे जरे में वो है ' कविता-संग्रह में 125 कविताएँ हैं | आकार की दृष्टि से इसे दो भागों में बाँट सकते हैं | अंतिम 68 कविताएँ लघु आकार की हैं, हालांकि शेष 57 में भी कोई लम्बी कविता नहीं | लघु कविताओं में कुछ ग़ज़ल के शे'र जैसी रचना को पांच-छह पंक्तियों में लिखा गया है | विषय पक्ष से सभी प्रेम पगी कविताएँ ही हैं | कविताओं में देशज शब्दों की भरमार है, विदेशी शब्दों का प्रयोग भी खूब हुआ है | कहीं- कहीं कुछ विदेशी शब्द कविता को बोझिल भी करते हैं लेकिन सामन्यत: भाषा सरस है | रूपकों का प्रयोग करने में कवयित्री का मन विशेष रूप से रमा है | याद के बादल, याद के जेवर, याद का दिया, पीड का पलाश, ख्वाहिशों की नदी, जुदाई का सहरा, खेजड़ी सी जुदाई, दर्द और अतीत की चट्टानें, अतीत की तिजोरी, मन की तिजोरी, स्मृति का सुनार, स्मृति का आला आदि अनेक रूपक कविताओं के सौन्दर्य को चार चाँद लगाते हैं |
इस सुंदर संग्रह में जो बात अखरती है, वो है इसकी गलतियाँ | प्रूफ रीडिंग में भारी चूक हुई लगती है | गलतियाँ कविता के आस्वादन में बाधा बनती हैं, लेकिन अगर इसे छोड़ दिया जाए तो निस्संदेह यह एक सफल प्रेम काव्य है | इसे लौकिक प्रेम की कविताओं के रूप में भी पढ़ा जा सकता है और अगर इनके गहरे अर्थों के साथ तादात्म्य बैठाया जाए तो आध्यात्मिक प्रेम का रस पान भी किया जा सकता है |
दुःख सहते हुए भी कवयित्री आशा को नहीं छोडती | उसकी आशा देखिए -
तू अगर अब तलक / पत्थर भी हो चुका होगा /
तो आँसुओं से पिघल जाएगा ( पृ. - 31 )
प्यार के लम्हों को जैसे वो खुद जीती है, वैसे ही उसका प्रियतम जीता होगा, ऐसी आशा वो रखती हैं -
तुम भी जीते होओगो ना / वो लम्हे आज भी
ठीक मेरी ही तरह ( पृ. - 18 )
इसी आशा के कारण वह लिखती है -
लिखना तब फिर / एक पाती मेरे नाम / जब-जब
महुआ पर पात आये / जब टेशू पर फूल आये ( पृ. - 18 )
हालांकि वह अपने आशावादी होने से बहुत खुश नहीं -
क्यों नहीं मिटती जीते जी / उम्मीदें हमारी ? ( पृ. - 55 )
उम्मीदें दुःख देती हैं, लेकिन बार-बार उन्हीं उम्मीदों से हम छले जाते हैं -
कितनी ही बार ढोते हम / दर्द की गठरियाँ /
पर जाने क्यों फिर बसा लेते हैं हम / नए मोहल्ले ( पृ. - 55 )
आशावादी होने के बावजूद कुछ डर कवयित्री को सताते हैं -
डर है मुझे / कहीं फिर न बह पड़े / ख्वाहिशों की वो नदी /
जो गम हो गई थी / एक दिन / जुदाई के कारण ( पृ. - 19 )
कवयित्री प्रेमी से शिकवे करने में विश्वास नहीं रखती, हाँ उसे खुद से शिकवा है -
जितनी परेशान नहीं / तेरे भूल जाने की आदत से /
उतनी परेशान हूँ / जालिम / अपनी याद रहने की /
इस आदत से ( पृ. - 20 )
कवयित्री हालांकि नए दौर के प्रेम पर सीधे-सीधे कुछ नहीं कहती, लेकिन वह आज के सच को बता ही जाती है -
तुम भी ठहरे मेरी ही पीढ़ी के / तब की पीढियाँ नहीं बदला करती थीं /
रोज-रोज मुहब्बत के नाम पर देह के लिबास ( पृ. - 18 )
प्रेम और बीते पल कवयित्री से लिखवाते हैं -
तेरी मेरी अबोली प्रीत की / वो मूक स्वीकृति /
आज मुखर हो उठी / कागजों पर ( पृ. - 69 )
इन्तजार भी उससे लिखवाता है -
उसकी रुबाइयों का / इन्तजार / कहलवाने लगा है /
अब तो मुझसे भी / कविताएँ ( पृ. - 84 )
और उसका मानना है कि वह तब तक लिखती रहेगी जब तक प्रियतम में मिल नहीं जाती -
जब मैं कुछ न लिखूं / तब जान लेना / मिल गई उसमें /
सदा-सदा के लिए / जिसके लिए लिखती रही ( पृ. - 54 )
' ज़र्रे जरे में वो है ' कविता-संग्रह में 125 कविताएँ हैं | आकार की दृष्टि से इसे दो भागों में बाँट सकते हैं | अंतिम 68 कविताएँ लघु आकार की हैं, हालांकि शेष 57 में भी कोई लम्बी कविता नहीं | लघु कविताओं में कुछ ग़ज़ल के शे'र जैसी रचना को पांच-छह पंक्तियों में लिखा गया है | विषय पक्ष से सभी प्रेम पगी कविताएँ ही हैं | कविताओं में देशज शब्दों की भरमार है, विदेशी शब्दों का प्रयोग भी खूब हुआ है | कहीं- कहीं कुछ विदेशी शब्द कविता को बोझिल भी करते हैं लेकिन सामन्यत: भाषा सरस है | रूपकों का प्रयोग करने में कवयित्री का मन विशेष रूप से रमा है | याद के बादल, याद के जेवर, याद का दिया, पीड का पलाश, ख्वाहिशों की नदी, जुदाई का सहरा, खेजड़ी सी जुदाई, दर्द और अतीत की चट्टानें, अतीत की तिजोरी, मन की तिजोरी, स्मृति का सुनार, स्मृति का आला आदि अनेक रूपक कविताओं के सौन्दर्य को चार चाँद लगाते हैं |
इस सुंदर संग्रह में जो बात अखरती है, वो है इसकी गलतियाँ | प्रूफ रीडिंग में भारी चूक हुई लगती है | गलतियाँ कविता के आस्वादन में बाधा बनती हैं, लेकिन अगर इसे छोड़ दिया जाए तो निस्संदेह यह एक सफल प्रेम काव्य है | इसे लौकिक प्रेम की कविताओं के रूप में भी पढ़ा जा सकता है और अगर इनके गहरे अर्थों के साथ तादात्म्य बैठाया जाए तो आध्यात्मिक प्रेम का रस पान भी किया जा सकता है |
*******
दिलबागसिंह विर्क
*******
1 टिप्पणी:
लौकिक प्रेम यदि अध्यात्म से संबद्ध न होता तो उसमें इतना सुख न मिलता।
एक टिप्पणी भेजें