कविता संग्रह - कशिश
कवयित्री - डॉ. आरती बंसल
प्रकाशक - प्रगतिशील प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ - 80 ( पेपरबैक संस्करण )
कीमत - 150 / -
“ कशिश ” डॉ. आरती बंसल का प्रथम कविता संग्रह है, जो उन्हीं के शब्दों में भूत, वर्तमान और भविष्य से जुड़ा हुआ है | नारी मन की संवेदनाएँ इसमें हैं और यह भोगे हुए यथार्थ को अमली जामा पहनाने का प्रयास है | कवयित्री मानती है कि यह संग्रह सबके मन रूपी बगिया को महकाने में समर्थ होगा | इस संग्रह से गुजरते हुए यह बात सच जान पड़ती है |
इस संग्रह में 46 कविताएँ हैं | ये कविताएँ रिश्तों की बात छेड़ती हैं, बचपन को याद करती हैं, पैसे का महत्त्व बताती हैं, मन की मर्जी का ब्यान करती हैं, आंसुओं को समझती हैं | जिंदगी और नारी को लेकर दो-दो कविताएँ लिखी हैं | इन दोनों विषयों पर जितना भी लिखा जाए, वो कम है | कवयित्री इन विषयों को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखती है | अन्य कविताओं में भी ये विषय बार-बार आए हैं |
‘ एक नारी ही नारी को समझ सकती है ’, इसे डॉ. आरती बंसल की कविताओं में देखा जा सकता है | नारी अनेक कविताओं के केंद्र में है | नारी शीर्षक दोनों कविताओं में अलग-अलग नजरिया है | नारी-1 कविता में वे नारी सशक्तिकरण के नारों के पीछे पुरुषों की साजिश को देखती हैं, तो नारी- 2 कविता में ‘ नारी क्या है ? ’ के प्रश्न को उठाती हैं | कवयित्री नारी को अबला नहीं मानती | कविता ‘ पुरुष और पेड़ ‘ में नारी और पुरुष की तुलना की गई है | पुरुष बलशाली तो है, लेकिन नारी बिना अधूरा है –
“ पर ढूंढता सुख / नारी के सान्निध्य में ही ” ( पृ.- 37 )
कवयित्री की नजर में नारी न तो वो पतंग है, जिसकी डोर पुरुष के हाथ में है और न ही वह कठपुतली है, अपितु उसका अपना अस्तित्व है, वह उन्मुक्त गगन का आज़ाद पंछी है, उसके परों में जान है | वे कहती हैं –
“ नारी ही है सृजन का आधार /
नारी ही है परिवार की पतवार /
नारी ही है समाज की राखनहार ” ( पृ.- 22 )
इतना ही नहीं, नारी के तेवरों को वे यह कहकर व्यक्त करती हैं –
“ नारी जब विरोध करती है /
दुर्गा और लक्ष्मीबाई बन जाती है /
और वह जब प्रेम करती है तो /
मीराबाई बन जाती है ” ( पृ.- 23 )
वे अजन्मी कन्या की पुकार के रूप में कविता लिखती हैं, तो वेश्यावृति जैसे विषय पर भी कलम चलाती हुई समाज पर करारा प्रहार करती हैं | वे तितली रूपी कोमल, नन्हीं, भोली, माँ की लाडली को मजबूत होते भी दिखाती हैं |
कोई पुरुष हो या नारी, प्रेम की अभिलाषा हर किसी को होती है | इसी अभिलाषा को कवयित्री लिखती हैं –
“ तुम्हारी बाहों की छाया / देती जो मुझे सहारा
तो स्वर्ग से भी सुंदर / बन जाता ये जग सारा ” ( पृ.- 36 )
लेकिन यह प्यार उन्हें बांधता नहीं –
“ तुम्हारा प्यार / मेरे पैरों की बेड़ी नहीं ” ( पृ.- 39 )
वे इश्क के विभिन्न रूपों का ब्यान करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं –
“जिंदगी की शुरुआत है इश्क / और /
जिंदगी का मुकम्मल किस्सा है इश्क ” ( पृ.- 53 )
इश्क और इन्तजार आपस में जुड़े हुए हैं | इस बात को शिद्दत से महसूस करते हुए वे लिखती हैं –
“ गर देखनी हो इन्तजार की इन्तहा /
तो महबूब की आँखों में देखों ” ( पृ.- 52 )
हालांकि उनका मानना है कि इन्तजार दुखदायी होता है –
“ जीना बड़ा दुश्वार होता है /
जब किसी का इंतजार होता है ” ( पृ.- 52 )
फिर भी किसी खास का इन्तजार तो करना ही होता है –
“ बरसों इन्तजार किया करता है /
इसी उम्मीद से कि न जाने /
फिर वो मुसाफिर लौट कर आए ” ( पृ.- 56 )
अतीत को उन्होंने कई रूपों में याद किया है | वो समीर में घुली सुंगंध के माध्यम से अपने निजत्व को खोकर मिलने वाले पलों को याद करती हैं | उन्हें बचपन सुहाना भी बहुत याद आता है | कभी वे बचपन को याद करती हुई गुड़िया-पटोले के साथ खेलना चाहती हैं, तो कभी टिफिन से रोटी चुरा-चुराकर खाना चाहती हैं | बचपन की तरह के काम वे पुन: करना चाहती हैं –
“ फिर कुछ गुब्बारे हवा में उड़ाएँ /
फिर उड़ते खगों की कतारों को /
देर तक निहारते जाएँ /
फिर पिट्ठू को तोड़कर भाग जाएँ ” ( पृ.- 15 )
लेकिन इसके साथ-साथ वे जीवन को नया मोड़ देना चाहती हैं, अपनी उड़ान से सबको चकित करना चाहती हैं |
जिंदगी को भी उन्होंने बड़ी बारीकी से देखा और बाखूबी अभिव्यक्त किया है | संग्रह में जिंदगी शीर्षक की दो कविताएँ हैं | जिंदगी-1 जिंदगी के विरोधाभासों को ब्यान करती है तो जिंदगी-2 में जिंदगी को घरेलू नौकरानी, रिक्शेवाले और मैले-कुचैले बच्चों में देखा गया है | जीवन के कटु सच को उन्होंने अपनी कविताओं में ब्यान किया है | आदमी अपनी मूढ़ताओं के चलते दुःख खरीदता है, भीड़ में अकेला हंसता है, अकेला ही जीता है | कवयित्री आदमी को संकीर्णता के खतरे से अवगत करवाते हुए कहती है –
“ कहीं ऐसा न हो / इन्हीं संकीर्णताओं के पिंजरे में /
एक दिन / तुम्हारे पंख शिथिल पड़ जाएँ ” ( पृ.- 32 )
कविता के माध्यम से उन्होंने अनेक चित्र उतारे हैं | कभी वो अपनी सहेली का चित्रण करती हैं, तो कभी चपरासी का वर्णन | पिता का महत्त्व दर्शाया है, पैसे के कारण भावनाओं से भरे दिलों को रौंदने का जिक्र किया है, मन की मर्जी दिखाई है और सबके भीतर व्याप्त शून्य, विचारों के सैलाब और रिक्तता को उजागर किया है | उनकी कविताओं में खामोशियों के कई रंग हैं, भूख के कई रूप हैं, आँसुओं की गाथा है | कविताओं में यथार्थ है, तो आदर्श भी है, निराशा है, तो आशा भी है | वे भाग्यवादी दृष्टिकोण को भी अपनाती हैं और उपदेश भी देती हैं | ‘ अनहद नाद है जिंदगी ’ कह कर अध्यात्म को भी स्वीकारती हैं |
उनकी कविताओं में कहीं वर्णन है, कहीं संबोधन, कहीं व्यंग्य है | प्रतीकात्मकता का सहारा लिया गया है, मानवीकरण का प्रयोग है | मुक्त छंद की ये कविताएँ, कहीं-कहीं तुकान्तक भी हो जाती हैं और अनेक अलंकारों से सजी हैं | प्रश्नोत्तर शैली कवयित्री को विशेष प्रिय है | कविताओं के माध्यम से वे अनेक प्रश्न उठाती हैं, यथा – आँसू का क्या अर्थ होता है, क्या है नारी की परिभाषा, क्या है वेश्यावृति, माँ क्या है, दोस्ती क्या है, बेटी क्या है ? और इन प्रश्नों के उत्तर में वे अनेक परिभाषाओं को जन्म देती हैं | माँ की परिभाषा देखिए –
“ माँ तो वह कुआँ है / जिसमें जितना मर्जी निकालते जाओ /
कभी खत्म नहीं होगा / और जितना मर्जी उड़ेलते जाओ /
कभी नहीं उफनेगा ” ( पृ.- 43 )
दोस्ती, आँसू, नारी, जिंदगी की परिभाषाएं भी इसी कतार में आती हैं |
संक्षेप में कहें तो कविता-संग्रह ‘ कशिश ’ भाव पक्ष से जितनी विविधता लिए हुए है, शिल्प पक्ष से भी उतना ही मजबूत है और यह आशा जगाता है कि डॉ. आरती बंसल साहित्य को अपनी लेखनी से समृद्ध करेंगी |
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दिलबागसिंह विर्क
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4 टिप्पणियां:
बेहद प्रभावशाली समीक्षा......बहुत बहुत बधाई.....
डॉ. आरती जी की कविता संग्रह " कशिश" की सार्थक समीक्षा प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
सुंदर समीक्षा। आरती जी को पुस्तक प्रकाशन पर बधाई।
bahot sunder.............!!!!
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