संपादिका - विभा रानी श्रीवास्तव
प्रकाशन - ऑनलाइन गाथा
पृष्ठ - 134, पेपर बैक
कीमत - 100 / -
परिवर्तन जीवन का नियम है लेकिन यह नियम जितना शाश्वत है इसकी स्वीकार्यता उतनी सहज नहीं । परिवर्तन का विरोध हर स्तर पर सदा होता आया है । साहित्य भी इससे अछूता नहीं । साहित्य जीवन का प्रतिबिम्ब है इसलिए परिवर्तन का नियम इस पर भी लागू होता है और परिवर्तन के विरोध की सामान्य प्रवृति के कारण निराला की " जूही की कली " जैसी उत्कृष्ट कविता भी कभी अप्रकाशित लौट आई थी । आज हिंदी में जापानी विधाओं को लिखने का चलन बढ़ रहा है लेकिन इनको देखकर नाक-भौं चढ़ाने वाले भी कम नहीं । इसी प्रकार फेसबुक पर लिखी जा रही कविता के प्रति भी पुराने साहित्यकार वक्रदृष्टि रखते हैं । ऐसे दौर में विभा रानी श्रीवास्तव ने फेसबुक से रचनाकारों को लेकर जापानी विधाओं से संबंधित कविता संग्रह संपादित करने का जो निर्णय लिया है वह वास्तव में साहस भरा है ।
कविता में विधा महत्त्वपूर्ण नहीं होती । महत्त्व रखते हैं भाव । भावुक मन की हर रचना कविता-सा रस देती है । जापानी विधाओं में लिखना भी इसी कारण सरस बन पड़ा है । हिंदी में इस समय चार जापानी विधा की कविताएँ लिखी जा रही हैं - हाइकु, तांका, सेदोका और चोका। इसके अतिरिक्त हाइकु और चित्र मिश्रित विधा हाइगा भी प्रचलित है । हाइकु इनमें सबसे छोटी और चोका सबसे लम्बी विधा है जबकि तांका और सेदोका मध्यम आकार की विधाएँ हैं। हाइकु में महज 17 वर्ण जो 5, 7, 5 के क्रम से लिखे जाते हैं । चोका में पंक्तियों की कोई निश्चित संख्या नहीं होती और 5, 7 के क्रम को अनन्त तक बढ़ाया जा सकता है और आखिर में 7 वर्ण की पंक्ति और लिखकर इसे समाप्त किया जाता है । तांका पांच पंक्तियों की लघु कविता है जिसमें वर्णों का क्रम 5, 7, 5, 7, 7 होता है जबकि सेदोका में छह पंक्तियाँ होती हैं जिसमें वर्णों की संख्या 5, 7, 7, 5, 7, 7 होती हैं । प्रस्तुत संग्रह " कलरव " में संपादिका ने सिर्फ तांका और सेदोका को लिया है । इस पुस्तक के सभी रचनाकार फेसबुक पर हैं । यह उनकी एक सांझी विशेषता है । फेसबुक आज के दौर का नया चलन है । जिस प्रकार पुस्तक प्रकाशित करवा लेने से कोई महान साहित्यकार नहीं हो सकता उसी प्रकार फेसबुक पर लिखने से कोई बुरा या अनाड़ी कवि नहीं हो जाता लेकिन कुछ लोग फेसबुक पर रहकर भी फेसबुक पर लिखने वालों की बुराई करने से नहीं चूकते । प्रस्तुत कृति जापानी विधाओं और फेसबुक को लेकर उपजे संशयों का निवारण करने के प्रयास में एक सार्थक कदम होगी ।
यहां तक इस संग्रह का संबन्ध है । इसमें 15 रचनाकारों को लिया गया है और सभी की 21-21 रचनाएँ हैं । सभी रचनाकार फेसबुक के एक ग्रुप से जुड़े हुए हैं और एक दूसरे के रचना कर्म के साक्षी हैं । इस संग्रह हेतु तांका और सेदोको लिखते हुए वे नए प्रयोग करने के हिमायती भी हैं । सबसे प्रमुख प्रयोग तो यही है कि इस संग्रह के नाम कलरव के आधार पर हर रचना में " क " से शुरू होने वाले एक शब्द को रखना अनिवार्य किया गया है । इस दृष्टि से यह संग्रह प्रयोगधर्मी रचनाकारों की रचनाओं का गुलदस्ता है । यह संभवत: इस प्रयोग का परिणाम ही है कि ऋता शेखर जी पूरा तांका ही ' क ' को लेकर लिखती हैं । अनुप्रास अलंकार का प्रयोग आमतौर पर हो ही जाता है लेकिन इस तांका में इसकी छटा देखते ही बनती है -
काम्य की कजा / कथरी कनसाल /
कदा कनक / कन्यका कनीनिका /
करिल कर्णिकार ।
लेकिन प्रयोग सिर्फ प्रयोग के लिए ही नहीं हुआ । समाज में व्याप्त बुराइयों का चित्रण भी इस संग्रह के कवि करते हैं । बाल विवाह , घरेलू हिंसा पर इनकी लेखनी चली है ।
दीपक रौसा जी बाल विधवा का चित्र प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं -
बाल विधवा श्राप / जनता क्रूरचारी
मीनू झा जी पूरी मादा जाति के सन्दर्भ में लिखती हैं -
बच नहीं सकती / निरीह मादा
विभा रानी श्रीवास्तव जी ने नारी की आत्मा का दर्द अनुभव करते हुए लिखा है -
भोक्ता स्त्री भभोरता / फफोला आत्मा पर
जीवन के हर क्षेत्र में नारी पुरुष से ठगी गई है इस पर वह लिखती हैं -
रोज खा जीती / एतबारों पे धोखा ।
यही धोखा प्रेम में भी विद्यमान है । पुरुष के प्रेम की तुलना चाँद से करते हुए स्वाति वल्लभा जी कहती हैं -
घटता बढ़ता है / तुम्हारा प्रेम प्रिय
श्रृंगार में स्त्रियों के प्राण बसते हैं लेकिन जब दुःख आते हैं तब -
बिच्छू-सा डसे / वेणी गुथा गजरा
( विभा रानी श्रीवास्तव )
जीवन दर्शन पर भी कवियों ने विचार किया है । हिमकर जोशी जी सुख दुःख की तुलना पतझड़ वसन्त से करते हैं -
सृजन सीख / ठूँठ पर कोंपल /
दुःख पर सुख जय
सिल्विया शिखा जी लिखती हैं -
हंसा केलि करहिं /
मुकता फल चुगें / जग सरोवर
विनयशीलता का महत्व दर्शाते हुए अंकिता कुलश्रेष्ठ जी लिखती हैं -
विनयी सहृदयी / सर्वथा पाते मान
पश्चिम के प्रभाव में बदलते हुए समाज में रिश्तों का सच बताते हुए विभा रानी श्रीवास्तव जी लिखती हैं -
चाचा बुआ क्या होते /
रिश्तों से अनभिज्ञ / नाती या पोते
दिनेश चन्द्र पाण्डेय जी बच्चों की तुलना नीड छोड़ते परिंदों से करते हुए माँ की व्यथा को लिखते हैं -
अपने सब सुख / शिशुओं पर लुटा / सूनी हुई माँ
इस संग्रह में सिर्फ कड़वाहटों या बुराइयों का चित्रण हो ऐसा नहीं । माँ की ममता के चित्र, प्रकृति के चित्र, त्योहारों की छटा या देवताओं का मानवीय रूप आदि सब कुछ विद्यमान है ।
संदीप कुमार जी ने कान्हा का चित्रण कुछ यूँ किया है -
मोर पंख शीश पे / अरु बंसी कर में
पंकज जोशी जी माँ बच्चे का चित्र खींचते हुए लिखते हैं -
नन्हें से हाथ / छुएँ माँ का चेहरा /
बहते अश्रु / अंगना में पलती /
ममता की कलोल
मन्जू शर्मा जी जीवन के उजले पक्ष का बयान यूं करती हैं -
आलोकित ब्रह्माण्ड / प्रफुल्लित जीवन
सावन की फुहारें पति-पत्नी के प्रेम को कैसे उभारती हैं इसका सटीक वर्णन करते हुए मनीष मिश्रा मणि जी लिखते हैं -
भीगती भार्या / गूंजे कजरी रस
त्यौहार भारतीय जीवन का अटूट हिस्सा हैं । रंगों के त्यौहार होली पर धरणीधर मणि त्रिपाठी जी लिखते हैं -
उड़े गुलाल / लाल भये बदरा
दिनेश पारीक जी की कलम से निकला आशावादी दृष्टिकोण देखिए -
श्रृंग हिलते / मृत प्रेम हो जिन्दा
पथ नव चुनते
दिनेश पारीक जी की कलम से निकला आशावादी दृष्टिकोण देखिए -
श्रृंग हिलते / मृत प्रेम हो जिन्दा
पथ नव चुनते
संक्षेप में कलरव में अनेक प्रकार की चहचहाटें हैं जो कभी सोचने को विवश करती है तो कभी मन्त्रमुग्ध करती है । आशा ही नहीं अपितु विश्वास है कि यह संग्रह साहित्याकाश पर सितारे की तरह चमकेगा ।
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पुस्तक की भूमिका के रूप में लिखा गया आलेख
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दिलबाग सिंह विर्क
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6 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर व्याख्या की है ... आभार :)
हम सब आपके आभारी हैं
बहुत बहुत धन्यवाद आपका
सादर धन्यवाद,सुंदर व्याख्या के लिए हार्दिक आभार
सुन्दर समीक्षात्मक व्याख्या के लिए बधाई. पुस्तक के लिए विभा रानी जी को हार्दिक बधाई.
➡️S⬅️. आपकी पुस्तक निःसन्देह बहुत उपयोगी है
इतना सुदंर उल्लेख , बहुत खूबसूरत है।
हार्दिक धन्यवाद
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