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रविवार, अप्रैल 26, 2020

प्रेम और सामाजिक विषयों की कहानियों का संग्रह

कहानी-संग्रह - वो यादें
लेखिका - इंदु सिन्हा
प्रकाशक - सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल
पृष्ठ - 96
कीमत - ₹200/-
2011 में सुकीर्ति प्रकाशन कैथल से प्रकाशित इंदु सिन्हा के कहानी-संग्रह में ग्यारह कहानियाँ हैं, जो प्रेम के पलों, प्रेम में संघर्ष और समाज के विविध विषयों से संबंधित हैं। लेखिका को प्रीत और पराग नाम विशेष प्रिय लगता है, तभी चार कहानियों के पात्र यही हैं। यह भी आभास होता है कि संभवतः ये एक ही युगल है, जिसकी कहानी को लेखिका ने चार भागों में विभक्त करके कहा है। तीन कहानियाँ तो एक श्रृंखला का ही हिस्सा लगती हैं।

          इस श्रृंखला की पहली कड़ी इस संग्रह की पहली कहानी  'प्रथम प्रणय की पहली बारिश' है। यह कहानी इंतजार के पलों का सजीव वर्णन करती कहानी है। इंतजार में नायिका प्रीत की दशा कुछ ऐसी है-
"ये इंतजार! हर आहट पर इतनी बेचैनी, घबराहट, क्या करूँ मैं? ना वो आया ना फोन किया। फिर कब आयेगा? हर दस्तक मेरा दिल धड़का देती है। हर आहट पर मैं घबरा जाती हूँ।" (पृ. - 18)
प्रीत को इंतजार है पराग का, जिसने रविवार को घर आने की बात कही है, लेकिन प्रीत ने समय नहीं पूछा, इसलिए इंतजार के पल सुबह से शाम तक चलते हैं। 
          पराग प्रीत का दोस्त है। प्रीत उसकी दीवानी है। जब वह उसके साथ होती और जब वह उसका इंतजार करती है, सभी स्थितियों में यह साफ झलकता है। जब प्रीत और पराग साथ थे, उस पल के बारे में वह कहती है-
"तुमने थोड़ा नजदीक आकर दरवाज़े को ठीक से लॉक किया, उतने ही पल में तुम्हारा करीब आकर दरवाज़ा लॉक करना, वो हल्का-सा स्पर्श, वो भीनी-भीनी-सी खुशबू मेरे अंतर में उतर गयी थी।" (पृ. - 15)
इंतजार के पलों में उसके क्रियाकलाप इसे साबित करते हैं-
'ना जाने कितनी बार उसका नाम हथेली पर लिख लिख कर मिटाया। कभी धीरे से उस नाम को होंठों से स्पर्श किया।" (पृ. - 17)
प्रीत को पराग से जुड़ी हर चीज पसन्द है, प्रेम में अक्सर ऐसा ही होता है, वह भी कहती है-
"जो हमें प्रिय होता है, उसकी छोटी-छोटी बात भी हमें बेहद पसंद आती है, चाहे वो उसका मोबाइल नम्बर ही क्यों ना हो, देर तक उस नम्बर को भी निहारना कितना अच्छा लगता है। ना जाने कितनी देर तक मोबाइल पर पराग का नाम देखती है।" (पृ. - 17)
प्रीत को पराग की मुस्कान बेहद पसंद है, वह कहती है-
"आँखें थीं कि उसकी मुस्कान को देखना चाहती थीं, थक जाने की हद तक।" (पृ. - 15)
"उफ! कितनी जानलेवा मुस्कान है।"(पृ. - 16)
कहानी में यह स्पष्ट नहीं कि पराग ने प्रेम की स्वीकृति दी है या नहीं, प्रीत की शंका तो बताती है कि पराग ने स्पष्ट इजहार नहीं किया-
"क्या वो भी ऐसा सोचता है, पसन्द करता है जितना कि मैं। पता नहीं?" (पृ. - 15)
मिलने आने की बात कहकर मिलने न आना, पराग के जिस स्वभाव को दिखाता है, उसे प्रीत भी स्पष्ट करती है-
"कैसा कठोर दिल है पराग का? उसके दिल में क्या ये सब बातें नहीं आती? किस बात का घमंड है उसे? दौलत का? अपनी स्मार्टनेस का? पता नहीं किस बात पर इतनी अकड़ दिखाता है।" (पृ. - 19)
हालांकि माँ-बेटी का संवाद बताता है कि प्रीत को माँ की तरफ से स्वीकृति मिली हुई है-
"'आज सोमवार है, कॉलेज का पहला दिन। जाओ, तैयार हो जाओ।'
'नहीं मम्मी, आज मूड नहीं, पराग भी परेशान करता है। कल कहा था आने को, नहीं आया।' मेरा मूड खराब था।
'अच्छा देखो कॉलेज में मिले तो उसे डाँट देना।' मम्मी बोली।
'नहीं मम्मी, डाँट भी सुनकर मुस्करा देता है।' मैंने कहा।
'अब तू जाने और पराग। मैं चली, घर में काम भी पड़ा है।' मम्मी चली गई।"
इस कहानी की दूसरी कड़ी लगती है संग्रह की अंतिम कहानी 'प्रतीक्षा'। न सिर्फ पात्रों के नाम, अपितु व्यवहार तक वही है। बहुत सी बातों की पुनरावृत्ति देखने को मिलती है। जो नया है वो इतना कि इसमें बताया गया है कि पराग क्लासिकल सिंगर है और आजीवन शादी नहीं करना चाहता। प्रीत-पराग को लेकर एक अन्य कहानी है 'थोड़ी देर और ठहर…'। अंतिम कहानी पढ़ने के बाद लगता है कि यह कहानी भी इसी श्रृंखला की कड़ी है, लेकिन इससे अलग करके देखें तो यह काफी अधूरी जान पड़ती है। कहानी जिस तरीके से शुरू होती है उससे लगता है कि इसे प्रेम पलों के चित्रण की कहानी होना चाहिए था, लेकिन प्रीत यादों में इतनी खोई रही कि प्रेम पलों का चित्रण गौण हो गया। पूरे दो पृष्ठ तक अतीत की यादों का फैलाव है, जो प्रेमी के पास बैठे उचित नहीं लगता। प्रेमी इतनी देर तक क्यों और कैसे चुप रहा होगा यह पहेली-सा है। यह प्रेम कैसा है, प्रीत-पराग का संबन्ध क्या है ये बातें भी स्पष्ट नहीं होती, क्योंकि प्रीत कहती है-
" 'हाँ, खाना पतिदेव नहीं बना पाते हैं।' मैंने कहा।" (पृ. - 70 )
कहानी की अंतिम पंक्ति -
"क्या नाम था उन पलों का, चलो एक बार फिर उन पलों को जी लें।" (पृ. - 75 )
इस कथानक को और उलझा देता है। क्योंकि पूरी कहानी यह कहती है कि प्रीत पराग के साथ घूमते हुए अपने अतीत में खोई हुई है, लेकिन इस पंक्ति से तो यह आभास होता जैसे वह पराग के साथ को याद कर रही हो।
       प्रेम के ताने-बाने को लेकर कही गई कुछ और कहानियाँ इस संग्रह का हिस्सा हैं। 'ए-लड़की उदास नहीं होते' अनूठी शैली में लिखी गई कहानी है, जो प्रेमियों का चित्रण करती है। इस कहानी में सजीव पात्र नहीं, अपितु मांडवगढ़ महल के झरोखे, दीवारें, हवा, नर्मदा की पवित्रता बातें करते हैं। कहानी तीन रातों में हुई बातचीत पर आधारित है। पहली रात यानी 14 अप्रैल 2006 को जो बातचीत होती है उसमें इतिहासकारों द्वारा इसकी एक-एक इमारत में छुपे रहस्य तक न पहुँच पाने की बात है, अकबर के मांडवगढ़ आगमन की बात है, रूपमती और बाज बहादुर का जिक्र है। दूसरी रात यानी 16 अप्रैल 2006 को बातचीत का प्रमुख विषय पराग और उसकी प्रेमिका का है, जो एक सांवली लड़की है, जो अपने प्रेमी को सितार बजाते देखती रहती है। अंतिम रात यानी 18 अप्रैल 2006 की बातचीत में बाजबहादुर और रूपमती के प्रेम, आदमखान की बर्बरता, रूपमती द्वारा जहर खा लेने के प्रसंग आते हैं। पराग और उसकी प्रेमिका का जिक्र भी होता है। यह कहानी उन तथाकथित प्रेमियों पर प्रहार करती है, जो दीवारों पर अपने नाम खुरच देते हैं। इस तरह अमर नहीं हुआ जाता। अमर प्रेम के बारे में कहा गया है-
"यूँ ही प्रेम अमर होता है, लेकिन एक अनोखे और अनजाने आकर्षण से बंधा हुआ अलौकिक प्रेम। खामोशी से सफर तय करता है, एक दूसरे की प्रेरणा बनने के लिए।" (पृ. - 85)
यह कहानी यह भी कहती है कि साधना में रत रहने वाले कलाकार भीतर कोई दर्द छुपाए रहते हैं। पराग का यह चित्रण हर कलाकार की बात कहता लगता है-
"कभी-कभी मुझे लगता है पराग ने भी अपने भीतर कुछ छिपा रखा है जो वो बताना नहीं चाहता। वो दर्द, तड़प कहीं उसे पागल ना कर दे, कहीं इसलिए तो अपने को घण्टों तक रियाज में डुबोकर दीन दुनिया से दूर हो जाता है।" (पृ. - 84)
प्रेम और संघर्ष को दिखाती कहानी है 'संघर्ष'। इस कहानी में अंतर्जातीय विवाह के लिए लड़के-लड़की, विशेषकर लड़की के संघर्ष को दिखाया गया है। लड़का निम्न जाति का है और लड़की ब्राह्मण परिवार से। लड़की के माँ-बाप लड़की को इजाजत नहीं देते। लड़की पहले अपने पांवों पर खड़ी होती है, फिर शादी करने का अटिल निर्णय सुनाती है, हालांकि उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। यह कहानी दिखाती है कि अंतर्जातीय शादियाँ भले अभी स्वीकार नहीं की जाती, लेकिन सामान्यतः पढ़े-लिखे लोग अलग-अलग जातियों के होते हुए भी मिलकर रहते हैं-
"जहाँ मीता ब्राह्मण जाति की थी, वहीं हरेंद्र छोटी जाति का था, किंतु सम्बंधों में जाति की दीवार कभी भी बाधक नहीं बनी, खाना पीना, त्योहारों में शामिल होना तो सामान्य-सी बात थी। वहीं दोनों परिवार दुख में भी एक दूसरे का साथ देते थे, सहायता के लिए तत्पर रहते थे।" (पृ. - 61)
इस कहानी में लेखिका से थोड़ी चूक भी हुई है। लेखिका मीता से पूछती है -
"अब तो हर जन्मदिन धूमधाम से मनेगा ना।" (पृ. -60)
यह प्रश्न क्यों उठाया गया, स्पष्ट नहीं होता। मीता के जन्मदिन की पार्टी पर ही पहली बार हरेंद्र मीता की तरफ आकर्षित हुए। इसके बाद मीता को जन्मदिन मनाने से रोका गया हो, ऐसा नहीं दिखाया गया हालांकि प्रतिबन्ध लगने की बात कही गई है। इस जन्मदिन की बात करते भी लेखिका यह कहती है कि मीता जन्मदिन धूमधाम से मनाने के पक्ष में कभी नहीं रही। मीता के बारे जो सूचनाएँ दी गई हैं, वे भी मेल नहीं खाती। मीता के बारे में लेखिका कहती है-
"एम.ए. करने के बाद वह एक निजी स्कूल में शिक्षिका का कार्य कर रही थी।" (पृ. - 62)
यह हरेंद्र के प्रणय निवेदन करने से पहले की बात है क्योंकि प्रणय निवेदन करने वाले दिन हरेंद्र उसे स्कूल से ले जाता है। इसके बाद लेखिका कहती है कि प्रेम-प्रसंग का पता चलने पर मीता पर अत्याचार का दौर चला, उसके कॉलेज की पढ़ाई बन्द कर दी, लेकिन प्राइवेट पढाई जारी रखी। बाद में कहा जाता है कि उसने एम.एस. सी की पढ़ाई पूरी कर ली है। जब वह प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका थी तो कॉलेज पढ़ने से रोकने की बात व्यर्थ है। दूसरा प्राइवेट एम.एस. सी. संभव नहीं। अच्छा रहता लेखिका नौकरी छुड़वाने की बात करती। घर रहकर पर प्रतियोगिता की तैयारी करती दिखाई जाती। 'गुलाब' कहानी पूर्णतः प्रेम कहानी तो नहीं, लेकिन इसका अंत प्रेम से होता है। दरअसल यह एक ऐसी लड़की के दुख को बयान करती है, जिसे सुंदर नहीं कहा जा सकता। बार-बार लड़के वालों के सामने प्रस्तुत करना, इनकार सुनना रीमा को दुखी करता है, वह समाज से सवाल करती है-
"कैसा समाज पिताजी? जब दुख तकलीफ होती है तब ये समाज आँसू पोंछने नहीं आता। तालियाँ बजाने को तैयार रहता है। जवान लड़की की चिंता के लिए उसके माता-पिता से ज्यादा चिंता समाज को होती है। समाज क्यों शादी में ठेकेदार बन रहा है।" (पृ. - 49-50)
लेकिन कहानी का अंत सुखद है।
          इस श्रृंखला को छोड़कर कुछ सामाजिक कहानियाँ हैं। 'प्रसाद' कहानी में तथाकथित बाबाओं के सच को उजागर किया गया है और साथ ही एक नकारा पति की पत्नी की व्यथा दिखाई गई है। 'ज्ञानी' कहानी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के तनाव को दिखाती है। हिंदू एकजुट हैं और अमीर मुहम्मद को देखकर कहा जाता है-
"ये साले मुसले, सभी एक से होते हैं।" (पृ. - 57)
हालांकि मुहल्ले में पहले हिन्दू-मुसलमान मिलकर रहते हैं। मुहल्ले में ऐसी कोई घटना भी नहीं होती कि मुसलमान को दोषी कहा जाए। तनाव बाहर से प्रायोजित है और भोले-भाले लोग इसका शिकार बन बैठते हैं। समाज में यही तो होता है। साधरण घटना को हिन्दू-मुसलमान से जोड़कर साम्प्रदायिक रंग दे दिया जाता है, लेकिन यह कहानी दिखाती है कि अगर समझदारी से काम लिया जाए तो इस माहौल को सुधारा जा सकता है। माहौल सुधारने में यहाँ शुक्ला जी के प्रयास सराहनीय है वहीं अमीर मुहम्मद का त्वरित प्रतिक्रिया न देना भी प्रमुख कारण है। 
           'श्राद्ध' आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी कहानी है। तिवारी जी पंडिताई करके गुजर-बसर करते हैं। श्राद्ध के दिनों में परिवार को अच्छा खाने को मिलता है। अपनी माँ का श्राद्ध भी उन्हें करना है। बेटी श्राद्ध की व्यर्थता बताती हुई कहती है-
"आप ये भी कहते हैं, आत्मा पुराना शरीर छोड़कर नया शरीर धारण करती है। जब आत्मा ने नया शरीर धारण कर ही लिया तो खाने की, पकवानों की लोलुपता कैसी?" (पृ. - 46)
तिवारी जी कहते हैं कि उसे इतना ज्ञान नहीं, लेकिन जब मोहनलाल घायल बेटे के लिए मदद मांगता है, तो तिवारी जी को गीता का श्लोक ध्यान में आता है और वह कह उठते हैं-
"तो क्या अम्मा की आत्मा ने नया शरीर धारण न किया होगा।"
यह तो संभव है कि कोई सोच ले कि धूमधाम से श्राद्ध अगले वर्ष हो जाएंगे इस वर्ष मदद जरूरी है, लेकिन श्राद्ध पर एकदम विचारों में परिवर्तन होना अस्वाभाविक है।
      कुछ कहानियाँ कहानी के मापदंड पर खरी उतरती नहीं लगती, जिनमें पुस्तक का शीर्षक बनी कहानी भी शामिल है। 'वो यादें' कहानी कहानी न होकर संस्मरण लगती है। इसका नाम भी यही कहता है। किसी कथानक की बजाए अनेक यादें हैं जो लेखिका ने सिलसिलेवार सुनाई हैं। इनमें दादा-दादी, चाचा, पिता, माँ, नानी, सहेली, भिखारिन आदि शामिल हैं। लेखिका हर किसी का चित्रण करती है। पहले वह खुद इनके बारे में कहती है और फिर किसी घटना को याद कर उस बात को सिद्ध करती है। 'आक्रोश' कहानी, कहानी कम यात्रा-वृतांत अधिक है। इस कहानी में लेखिका अवंतिका एक्सप्रेस में सफर कर रही है। शुरूआत उज्जैन स्टेशन से होती है, इसके बाद रतलाम और गोधरा तथा अंत में बोरिवाला। इसके बाद ट्रेन मुंबई सेंट्रल की तरफ बढ़ जाती है। लेखिका पहले सामान्य कोच में बैठी है और रतलाम आकर आरक्षित कोच में चली जाती है। लेखिका ने रेलवे स्टेशनों का चित्रण किया है, भिखारियों के कृत्य, महिला भिखारिनों से छेड़छाड़, कोच में सिगरेट की गंध, मदिरापान करने वाले यात्रियों का वर्णन है। टी.टी. की सख्ती, सहयात्रियों का व्यवहार, खुद का नजरिया बताया है। आए हुए शहरों पर अपने विचार रखे हैं। एक प्रशंसक से बातचीत के दौरान बुराइयों पर विचार किया है। धर्म में पाखण्ड को बुरा कहा है। क्षिप्रा नदी में मूर्तियाँ, तस्वीरें फैंके जाने से अपनी असहमति जताते हुए लेखिका कहती है-
"नदी माता का सम्मान क्या सिर्फ़ हाथ भर जोड़ने और फूल और चंद सिक्के चढ़ाकर हम माता के प्रति कर्त्तव्य पूरा कर लेते हैं, लेकिन उसी माता में ढेर सारी गंदगी डालकर कौन-सा फ़र्ज़ पूरा करते हैं? नफरत होती है ऐसे गन्दे रूढ़िवादी थोथे रिवाजों से।" (पृ. - 25)
     कहानियों के जरिए लेखिका ने अनेक विषयों को उठाया है और उन पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ दी हैं। लेखिका ने भक्ति के तरीके पर अपनी राय रखी है-
"ईश्वर से सीधे संवाद तो एकांत में ही संभव है।" (पृ. - 22)
भगवान पर प्रश्न उठाया है-
"गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो मेरा ध्यान करता है उसे मोक्ष जल्दी मिलता है। मैं उसे अंतिम समय में तकलीफ नहीं देता, किंतु मैं आज तक इस पहेली को समझ न पायी कि नानी तो इतनी अधिक भक्ति करती थी, फिर उन्हें क्यों भगवान ने इतना अशक्त कर दिया। अंतिम समय में उठने बैठने से वो लाचार हो गयी। यहाँ तक कि मौत की दुआ करने लगी थी।" (पृ. - 40)
धर्म का मर्म समझाया है-
"किस ग्रन्थ में लिखा है कि अपने धर्म को बचाने के लिए दूसरे धर्म का अपमान करो, उसमें कमियाँ ढूँढ़ो, धर्म के नाम पर मारो, काटो। ना कुरान कहता है ना गीता कहती है, ना बाइबिल, ये ज्ञान ये कहाँ से लेते हैं?" (पृ. - 55)
मृत्यु के बाद के जीवन की बजाए वर्तमान को महत्त्व दिया है-
"भगवान को मुँह मरने के बाद दिखाओगे, जो जिंदा हैं उनकी चिंता करो।" (पृ. - 59)
सुंदरता के बारे में कहा गया है-
"मुझे लगता है चेहरे पर आँखें, होंठ विशेष होते हैं। इन्हें ही अधिक खूबसूरत होना चाहिए।" (पृ. - 17)
दोस्ती के बारे में विचार है-
"दोस्तों में ये नखरे वाली आदत तो होनी नहीं चाहिए।" (पृ. - 20) 
खामोशी के महत्त्व को समझाया गया है-
"कभी-कभी खामोश रहकर भी खामोशी को कहीं भीतर तक उतारना अपने आप में एक अलग ही सुकून देता है, जिसे कि शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।" (पृ. - 14)
वैवाहिक जीवन के प्यार का सच दिखाया है-
"यही होता है ना प्यार, औरत और मरद का। इसी के लिए शादी ब्याह। घिन आती है। ना दुलार, ना बात बस खुजेल कुत्ते जइसा, हाड़ नोंचना।" (पृ. - 31)
संघर्ष का महत्त्व दिखाया है-
"प्रेम हो या फिर अन्य कोई मंजिल संघर्ष और प्रयासों पर निर्भर करता है कि आप अपने प्रयासों में, कोशिशों में कितने सफल हैं। किसी भी कार्य को करने में मुश्किलें तो आएंगी ही। इनसे घबराना कैसा।" (पृ. - 65)
         वातावरण निर्माण में लेखिका सफल रही है। कमरे का चित्रण देखिए -
"जहाँ कोठरी में उसे पहुँचाया वहाँ लालटेन जल रही थी। एक खाट पर छींट की चादर बिछी थी। कोने में एक तश्तरी में गुड़ की दो ढेली और पानी के दो गिलास रखे थे।" (पृ. - 31)
कहानियों में प्रकृति का सपाट चित्रण भी है और उसके प्रभाव को भी दिखाया गया है। सपाट चित्रण-
"अपार्टमेंट के पीछे दूर तक घने वृक्षों की कतारें तथा हरियाली थी। बारिश की बूंदे वृक्षों के पत्तों पर ठहरी हुई थीं। किसी वृक्ष पर नन्हीं नन्हीं रंगीन जंगली चिड़िया बैठी थी, तो कहीं किसी वृक्ष की डाली पर कोई तोता चुपचाप बैठा था।" (पृ. - 13-14)
प्रकृति के प्रभाव को भी दिखाया गया है-
"बादल ऐसे लग रहे थे मानो पेड़ों के शिखर पर पसर गए हों, रात भर बरसने के बाद थककर आराम कर रहे हों। फ़िज़ा में नमी थी। इस नमी ने भी उस वातावरण को रोमांटिक बना दिया था।" (पृ. - 19)
बेजान चीजों का भी सजीव वर्णन हुआ है-
"ट्रेन किसी थके यात्री की तरह रतलाम स्टेशन पर रुक चुकी थी और साँस ले रही थी।" (पृ. - 26)
          पात्र-चित्रण की दृष्टि से भी यह कहानी-संग्रह सफल कहा जा सकता है। लेखिका ने पात्र-चित्रण के लिए अनेक विधियों को अपनाया है। पात्र खुद भी अपना परिचय करवाते हैं। प्रीत अपने शारीरिक सौष्ठव के बारे में कहती है-
"आँखें तो मेरे पास खूबसूरत हैं, कुल मिलाकर मुस्कराहट की तारीफ भी अक्सर गर्ल्स करती हैं, लम्बाई भी अच्छी है, रंग गोरा नहीं साफ कहा जा सकता है।" (पृ. - 18)
आक्रोश में लेखिका खुद कहानी सुनाती है और अपने बारे में कई जगह बताती है- 
"मुझे यूँ भी ट्रेन में बातें करना बिल्कुल भी पसन्द नहीं सिर्फ पुस्तक के पन्नों में खो जाना पसंद है या फिर ट्रेन के साथ-साथ दौड़ते हुए पेड़-पौधे, पहाड़ देखना अच्छा लगता है।" (पृ. - 22)
दूसरे पात्र के कथन से किसी के चरित्र को बयां किया गया है। नीलेश से बातचीत के माध्यम से लेखिका को जानना आसान हो गया है। नीलेश कपूर कहता है-
"मैंने कादम्बिनी में आपकी कविता, लेख पढ़ें हैं। एक बार नवभारत टाइम्स में भी फोटो देखा था, कई साहित्यिक मैगजीन में भी आपकी कविताएँ पढ़ी हैं।" (पृ. - 28)
लखमी का देवर नानू के बारे में कहता है -
"जरा भैया को कसके रखना। भैया को दो काम ज्यादा आते हैं - देसी दारू पीना और खेतन में रास रचाना, हाँ।" (पृ. - 31)
सामान्य वर्णन द्वारा, जिसे लेखिका का वक्तव्य कहा जा सकता है, भी चरित्र उदघाटित किये गए है-
"एक रात नानू जो घर से भागा, फिर लौट के नहीं आया। लखमी को क्या फर्क पड़ने का था। दो टेम की रोटी तो दे न सकता उलटे रात में मांस नोचने आ जाता।" (पृ. - 31-32)
वार्तालाप द्वारा भी चरित्र निर्माण किया गया है-
" 'अरी लखमी का काहे का महात्मा! तेरे लिए वही नानू हूँ मैं। तूने बड़े दुख झेले हैं।' कहते-कहते महात्मा ने लखमी को खाट पर लिटा दिया और उनके हाथ लखमी के कपड़े अलग करने लगे।
लखमी चीखी - 'अरे। ये क्या? पाप है। आप ठहरे महात्मा। गृहस्थी के बंधन से मुक्त कहाँ कीचड़ में?'
"अरी काहे का बंधन, कैसा कीचड़? तन के साथ वासना तो रहेगी ना पगली। ये भी ना जाने तू?' " (पृ. - 32)
तुलना द्वारा दो पात्रों का चित्रण किया है-
"लीना ने बी.कॉम. किया था, कम्प्यूटर कोर्स कर रही थी। खिलता रंग, छोटी पर तीखी नाक, तराशे बाल, भूरी आँखें, मध्यम कद। इसके विपरीत रीमा का रंग तो खिला हुआ था पर उसके नाक नक्श बिल्कुल साधारण थे, ऊपर से मोटे लैंस वाला चश्मा, जो उसकी नाक से बार-बार फिसल जाता था। दाँत भी बाहर निकले थे, जो उसे बिलकुल सामान्य बना देते थे।" (पृ - 49)
ऐतिहासिक पात्र बाजबहादुर के बारे में कहा गया है-
"इस महान प्रेमी को युद्ध और उसके नगाड़ों, तलवारों की आवाजों से कोई मतलब नहीं था। उसे प्रेम था तो संगीत से, स्वरों से, स्वर और संगीत तो उसके अंदर समाये थे। उसने युद्ध कौशल में जरा भी रूचि नहीं ली।" (पृ. - 83)
            आत्मकथात्मक, वर्णनात्मक, संवादात्मक शैली को अपनाया गया है। कई कहानियों में पात्र अपनी कहानी सुनाते हैं, जैसे - प्रथम प्रणय की पहली बारिश, आक्रोश, वो यादें, थोड़ी देर और ठहर। कहानी कहने के लिए लेखिका ने अनेक विधियों को अपनाया है। पात्र खुद से बातचीत करते हुए कथा को आगे बढ़ाता है। प्रीत खुद से बात करती है-
"इंतजार की जगह अब गुस्से ने ले ली है। मैंने क्यों नहीं पूछा कि वो कब आयेगा? काश मैंने पूछा होता।" (पृ. - 18)
बात से बात निकालकर भी कहानी कही गई है-
"कितना सुकून मिलता होगा उन्हें प्रकृति  की गोद में।
     'सुकून' मुझे कब मिला था? ये क्या? वहाँ दूर हरे घने वृक्षों के पीछे से ऐसा लगा तुम्हारा चेहरा मुस्कराया हो धीरे से।" (पृ. - 14)
'वो यादें' कहानी की शुरूआत जगजीतसिंह द्वारा गाई ग़ज़ल 'वो कागज की कश्ती…' के जिक्र से की गई है। इस ग़ज़ल के बाद यादों पर अपनी राय रखी गई है, ये यादें उसे सताती हैं-
"घर हो या ऑफिस, रात की तन्हाई हो या दिन का सूनापन, हर जगह ये यादें परेशान करती हैं।" (पृ. - 34)
लोगों के हसने पर हैरानी है और फिर लेखिका अपनी यादें सुनाना शुरू कर देती है। ग़ज़ल के द्वारा बात आगे बढ़ाने की तकनीक का प्रयोग कई जगहों पर हुआ है। पात्रों की सामान्य आदतें भी बात को आगे बढ़ाने में मदद करती हैं।
          भाषा यूँ तो सरल है, लेकिन कई जगहों पर वाक्य-विन्यास अखरता है, जैसे -
"जिन्हें ही शायद बैठने के लिए इस्तेमाल किया जाता हो।" (पृ. - 72)
यह एक अशुद्ध रूप है और ऐसे अनेक वाक्य इस संग्रह में हैं। निपात का गलत प्रयोग हुआ है-
"डाँट भी सुनकर मुस्करा देता है।" (पृ. - 20)
विराम चिह्नों का सही प्रयोग न होने से भी समझने में परेशानी होती है, लेकिन उसे प्रूफ रीडिंग की गलती कहा जा सकता है।
    संक्षेप में, कुछ बेहतरीन और कुछ सामान्य कहानियों को अपने में समेटे हुए यह एक पठनीय कहानी-संग्रह है। 

©दिलबागसिंह विर्क

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