उपन्यास - रेहन पर रग्घू
लेखक - काशीनाथ सिंह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स
पृष्ठ - 164
कीमत - 215/-
तीन खंडों के 29 अध्यायों में फैली रग्घू की कहानी दरअसल बदलाव और बिखराव की कहानी है | उपन्यास के अंतिम पृष्ठ पर अखिलेश जी का वक्तव्य " यह उपन्यास वस्तुत: गाँव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ अकेले और निहत्थे पड़ते जा रहे समकालीन मनुष्य का बेजोड़ आख्यान है ", इस उपन्यास की सटीक व्याख्या है |
उपन्यास का शुरूआती अध्याय और अंतिम से पहले का अध्याय एक ही है | रग्घू अपनी उस बहू के पास है, जो अपने पति के साथ नहीं प्रेमी के साथ है | रग्घू की पत्नी उसकी बेटी के पास है जो निम्न जातीय पी. सी. एस. से प्रेम करती है लेकिन उससे शादी नहीं कर पाती | लेखक का एक बेटा अमेरिका है और उसने अपनी पत्नी को तलाक दिए बिना दूसरी शादी कर ली है जबकि छोटा बेटा एक विधवा औरत के साथ लिव इन रिलेशन में रह रहा है | रग्घू पहाड़पुर का निवासी है, प्रोफेसर था लेकिन बड़े बेटे के कॉलेज मनेजर की बेटी से शादी न करने के कारण उसे रिटायरमेंट लेनी पड़ी | वी.आर.एस. लेने के बाद वह गाँव में है और गाँव में उसकी स्थिति तब बिगड़ जाती है जब उसके हिमायती छब्बू पहलवान का कत्ल हो जाता है | उसके भतीजे उसे आँख दिखाते हैं | इन सबके बीच रग्घू जूझता है, बदलते जीवन को और परिवार के बिखराव को देखता है | उपन्यास का पहला खंड बात को अंत से शुरू करके अलग-अलग अध्यायों में सभी का परिचय देता है | दूसरा खंड गाँव की स्थितियों से संबंधित और वहाँ से पलायन की कहानी है | अंतिम हिस्सा बनारस के ' अशोक बिहार ' के निवास के दिनों का वर्णन है |
लेखक ने रग्घू के जरिए तेजी से बदल रहे समाज का सटीक चित्रण किया है | पहाडपुर का बदलना प्रतीक रूप है -
" गाँव ही वह नहीं रहा तो वह गाँव के क्या रहते ? पहाड़पुर जाना जाता था अपने बगीचों, बंसवार और पोखर के कारण - जहाँ चिड़ियों की चहचहाहट और गायों भैंसों के रंभाने और बैलों की घंटियों की टनटनाहट से बस्तियां गूंजती रहती थीं लेकिन अब पेड़ कट गए थे, बंसवार साफ़ हो गई थी और पोखर धान के खंधों में बंट गई थी ! बगीचे के बीच से एक नहर गई थी जिसके किनारे प्राइमरी स्कूल खुल गया था ! उसी के बगल में दवाखाना के लिए जमीं भी घेर ली गई थी |" ( पृ - 61 )
इस उपन्यास में पारिवारिक बिखराब, जाति-प्रथा, गैर-जातीय प्रेम प्रसंग, आरक्षण जैसे अनेक मुद्दों को छुआ है | रघुनाथ मंडल कमीशन का हिमायती है, लेकिन बेटी के मामले में कह उठता है -
" गाँव ही वह नहीं रहा तो वह गाँव के क्या रहते ? पहाड़पुर जाना जाता था अपने बगीचों, बंसवार और पोखर के कारण - जहाँ चिड़ियों की चहचहाहट और गायों भैंसों के रंभाने और बैलों की घंटियों की टनटनाहट से बस्तियां गूंजती रहती थीं लेकिन अब पेड़ कट गए थे, बंसवार साफ़ हो गई थी और पोखर धान के खंधों में बंट गई थी ! बगीचे के बीच से एक नहर गई थी जिसके किनारे प्राइमरी स्कूल खुल गया था ! उसी के बगल में दवाखाना के लिए जमीं भी घेर ली गई थी |" ( पृ - 61 )
इस उपन्यास में पारिवारिक बिखराब, जाति-प्रथा, गैर-जातीय प्रेम प्रसंग, आरक्षण जैसे अनेक मुद्दों को छुआ है | रघुनाथ मंडल कमीशन का हिमायती है, लेकिन बेटी के मामले में कह उठता है -
" स्पेस ही स्पेस, हुहं ! स्पेस माने क्या ? ' आरक्षण ' और ' कोटा ' के सिवा भी, इसका कोई मतलब है ? यही न कि न होता आरक्षण तो यही भारती किसी न किसी का हल जोत रहा होता |" ( पृ - 54 )
उपन्यास के कथानक के आधार पर कहा जा सकता है कि पहाड़पुर में एक तरफ ठाकुर रहते हैं और दूसरी तरफ चमटोल है | अहीर, कहार, बामन, गडरिये, लुहार भी हैं | ठाकुर चमटोल में नहीं जाते | जातीय व्यवस्था कितनी कट्टर है इसका अंदाजा छब्बू के इसी कथन से लगाया जा सकता है -
" मैं सब कुछ करता हूँ लेकिन मुँह से मुँह नहीं सटाता ! अपने धर्म और जात को नहीं भूलता !" ( पृ - 72 )
छब्बू पहलवान ढोला के लिए चमटोल जाता है | छब्बू- ढोला का संबंध गाँव में मजाक का विषय बना हुआ है -
" लोग मजाक में कहा करते थे कि सिवान में झूरी पहलवान का खेत जोतता है और पहलवान चमटोल में उसका खेत ! हिसाब बरोबर |" ( पृ - 73 )
लेखक ने ढोला की बेबसी को दिखाया है -
" बेबस ढोला | मुहाल हो गया जीना ! नर्क हो गई थी उसकी ज़िंदगी ! रात भर झूरी की छाती से लग कर सुबकती रहती और गुस्से से फनफनाती रहती !" ( पृ -73 )
छब्बू इसी की सजा भुगतता है -
" अब, चमटोल के बाहरी हिस्से में एक झोंपड़े के आगे कीचड़ में चारों खाने चित्त पड़ा था वह | मरा हुआ | खुले आसमान के नीचे | एक लालटेन उसके सिर के पास थी, दूसरी पैरों की ओर | दोनों ईंटों की ऊंचाई पर - ताकि लाश पर नजर रखी जा सके | लाश ख़ुद कीचड़ और माटी में लिथड़ी पड़ी थी | पैर इस तरह छितराए हुए पड़े थे जैसे बीच से चीर दिए गए हों ! जननांग काट दिया गया था और उसकी जगह खून के थक्के थे जिन पर मक्खियाँ छपरी हुई थीं, उड़ और भिनभिना रही थीं |" ( पृ -74 )
जातीय व्यवस्था कट्टर होते हुए और दबंगई के रहते बदलाव हो रहा है और यही बदलाब दिखाना इस उपन्यास का प्रमुख उद्देश्य है | यह बदलाव यहाँ भी दिखता है -
" पुलिस अपनी तरफ से पूरी तैयारी के साथ आई थी लेकिन जिस आशंका से आई थी, वैसा कुछ नहीं हुआ - न कोई बलवा हुआ, न चमटोल फूंकी गई, न बदले की कार्रवाई हुई !" ( पृ - 75 )
बदलाव की बयार अच्छे के लिए भी बही है तो बुरे के लिए भी | परिवार का बिखराव इस बदलाव की सबसे बड़ी त्रासदी है | यह उपन्यास इसी त्रासदी का आख्यान है | रघुनाथ अपनी पत्नी से कहते हैं -
" शीला, हमारे तीन बच्चे हैं लेकिन पता नहीं क्यों, कभी कभी मेरे भीतर ऐसी हूक उठती है जैसे लगता है - मेरी औरत बाँझ है और मैं नि:सन्तान पिता हूँ | माँ और पिता होने का सुख नहीं जाना हमने ! हमने न बेटे की शादी देखी, न बेटी की ! न बहू देखी, न होने वाला दामाद देखा |" ( पृ - 89 )
इस उपन्यास में बेटों और बेटियों को एक साथ रखा है, बेटी भी उसी तरह कहने से बाहर है, जैसे बेटे | लेखक ने सिर्फ बेटों को बुरे कहने के आदर्शवाद से ख़ुद को बचाया है, जो इस उपन्यास की विशेषता है | परिवार को लेकर लेखक विचार करता है | लेखक ने बेटे और बाप की स्थिति पर दोनों के दृष्टिकोण से देखा है | सोनल के पिता सक्सेना का मत एक बेटे का मत भी हो सकता है -
" खेत भी उसे पहचानते हैं जो उनके साथ जीता मरता है | वे खेतों को क्या पहचानेंगे, खेत ही उन्हें पहचानने से इंकार कर देंगे !" ( पृ - 105 )
अपनों में परायापन मिलना इस युग का दुर्भाग्य है -
" देखो जग्गन, ' परायों ' में अपने मिल जाते हैं लेकिन ' अपनों ' में अपने नहीं मिलते | " ( पृ - 98 )
बेटों के बाहर चले जाने के कारण शहरों में भी ऐसी बस्तियों का उदय हुआ है जो सिर्फ बूढों की हैं -
" ' अशोक विहार ' उनकी कालोनी थी जो अध्यापक थे, बाबू थे, दोयम दर्जे के सरकारी गैर सरकारी कर्मचारी थे और इससे भी खास बात यह कि जो या तो रिटायर हो चुके थे या निकट भविष्य में रिटायर होने वाले थे !" ( पृ - 104 )
अकेले रहते बूढों से लूट-पाट आम है | जमीन माफिया मकानों पर कब्जा जमाता है | दबंगई के तरीके बदल गए हैं -
" ऐसे भी ठाकुरों की नई पीढ़ी के लिए देह बनाना, वर्जिश करना, कुश्ती लड़ना फालतू चीज थी | एकदम मूर्खता ! तमंचा के आगे मजबूत से मजबूत कद काठी का भी क्या मतलब ?" ( पृ -74 )
लोगों ने छोटी-मोटी नौकरी के बजाए राजनीति में हाथ आजमाना शुरू किया है | रग्घू के भतीजे यही कर रहे हैं | दरअसल यह रग्घू के भतीजों का नहीं बल्कि आम युवा का चरित्र है -
" उसके तीनों भाइयों की दिलचस्पी पालिटिक्स में थी ! देवेश सपा का कार्यकर्ता था, रमेश बसपा का, और महेश भाजपा का | यही पार्टियाँ पिछले बीस सालों से सत्ता में आ जा रही थीं और क्षेत्र में विधायक और सांसद भी इन्हीं पार्टियों के हो रहे थे ! तीनों ने बड़ी समझदारी से किसी न किसी नेता को पकड़ रखा था ! वे अपने अपने नेता के साथ रहते, घूमते, खाते पीते और जनता की सेवा करते - यानी ट्रांसफर करवाने या रुकवाने का काम करते ! छोटी मोटी नौकरी से यह बड़ा और सम्मान का धंधा था !" ( पृ - 83 )
बिहार के तथाकथित क्रांतिकारियों पर भी लेखक टिप्पणी करता है -
" बीवी की कमाई और नौकरशाहों के चंदे पर क्रान्ति करने वाले ऐसे युवकों की भरमार है बिहार में !" ( पृ - 113 )
गृहस्थी के चित्र भी इस उपन्यास में मिलते हैं | रग्घू भले कॉलेज का प्रोफेसर रिटायर हुआ है, लेकिन ठेठ ग्रामीण है | पत्नी का ज्यादा साथ उसके लिए संभव नहीं -
" रघुनाथ की व्यवस्था शीला के साथ उसी के कमरे में थी लेकिन उन्हें यह पसंद नहीं आया ! घंटे दो घंटे के लिए तो ठीक, इससे ज्यादा कभी वे बीवी के साथ सोए ही नहीं !" ( पृ - 123 )"
सोना, यही उनके दाम्पत्य का सार है, प्रेम से परहेज रहा है -
शीला के साथ रघुनाथ के रिश्ते दाम्पत्य के ही रहे, प्यार के नहीं हो सके ! यह भी कह सकते हैं कि वे शीला के साथ सो तो लेते थे, प्यार नहीं करते थे |" ( पृ - 123 )
गृहस्थी के नितांत निजी पलों को भी लेखक बड़ी संजीदगी से दिखाता है -
" हाँ, अब भी खूबसूरत थी उनकी पत्नी ! उन्हें लगा कभी ठीक से प्यार नहीं किया उसे | जब भी जरूरत हुई, उसके साथ लेटे जरूर लेकिन प्यार नहीं किया कभी ! उन्होंने हाथ बढाकर उसके ब्लाउज का एक बटन खोला - चुपके से, फिर दूसरा, फिर तीसरा | सोई हुई छातियाँ जैसे नींद से जाग गईं, कुनमुनाई और उन्हें घूरने लगीं ! बिस्तरें पर झुकीं झुकीं ! उनमें जान बाकी थी |
वे उठे और उसके बगल में लेट गए ! शीला ने जगह बनाई उनके लिए और आँखें बंद किए किए ख़ुद को उनके हवाले कर दिया !" ( पृ - 56 )
यह चित्रण बताता है कि औरत की कोई मर्जी नहीं | वह सिर्फ भोग्य वस्तु है -
" रूप रंग, हाव भाव, नाज नखरे लड़की में देखे जाते हैं, पत्नी में नहीं !" ( पृ -21 )
वैसे औरत की नजर में मर्द की स्थिति बहुत अच्छी नहीं -
" मर्द एक बैल है, जिसे मुश्तकिल खूंटा चाहिए - अपने विश्राम के लिए !" ( पृ -51 )
नई पीढ़ी की औरत भोग्य नहीं | लडकियाँ उन्मुक्त जीवन जीती हैं -
" बोली 'गोबर कहीं के ! चाहती हूँ कि अच्छी सिर्फ तुम्हारी आँखें नहीं, तुम्हारें ओंठ, तुम्हारी उँगलियाँ, तुम्हारी बाहें, तुम्हारी पूरी देह बोले !' वह एक एक करके उनकी कमीज और पैंट के बटन खोलती गई - ' अपना भी मैं ही खोलूँ कि तुम भी कुछ करोगे ?' शर्माते हुए उनके कान में बुदबुदाई !" ( पृ -150 )
रग्घू की बेटी अधेड़ प्रोफेसर से प्रेम करती है, क्योंकि यह सुरक्षित है -
" शादी के बाद तो यह विश्वासघात होगा, व्यभिचार होगा, अनैतिक होगा | जो करना है, पहले कर लो | अनुभव कर लो एक बार | मर्द का स्वाद ! एक एडवेंचर ! जस्ट फॉर फन !" ( पृ -31 )
यूँ तो यह उपन्यास एक सामाजिक उपन्यास है, लेकिन प्रेम पर चर्चा है और प्रेम के पलों का उन्मुक्त चित्रण भी है | सरला और कौशिक सर के प्रेम का चित्रण -
" वे दिल जो अब तक खंडहर के पीछे गुटर गूं कर रहे थे, कुकडू कूँ करने लगे थे भरी दुपहरिया में ! कौशिक सर ने सरला की पीठ के पीछे से हाथ बढा कर उसकी सुडौल गोलाई मसल दी ! सरला के पूरे बदन में एक झुरझुरी हुई और वह शर्माती हुई उनकी गोद में ढह गई !
अबकी कौशिक सर ने जरा जोर से मसला |
चिहुंक कर सीत्कार कर उठी सरला और आँखें बंद कर लीं - ' जंगली कहीं के !'
कौशिक सर ने सिर झुका कर उसकी आँखों को चूम लिया !" ( पृ -33 )
मीनू और कर्मा के प्रेम का चित्रण -
" मैं कुछ कहूँ, रोकूँ, टोकूं इसके पहले ही उसने मेरी साड़ी खोल दी | बोला - ' ब्लाउज खोल दो, नहीं तो बटन टूट जाएँगे |' ब्रा उसी ने खोले - हठ करके ! 'बस हिलो मत !' दो कदम पीछे हट गया उलटे पाँव और ऊपर से नीचे तक देखा | मैं अपने हाथों से ख़ुद को ढंकने की कोशिश किए जा रही थी लेकिन बेकार | ' कहो तो छू भी लूं जरा सा |' हालत ऐसी थी कि कौन कहे और कौन सुने ? थोड़ा सा झुक कर उसने अपने ओठों से छातियों की खड़ी घुंडियों को बारी बारी से दबाया, चूमा और सहलाया जीभ से |" ( पृ -40 )
पुरुष देह को सोचकर स्त्री कैसे रोमांचित होती है, उसका वर्णन है -
" मर्द की देह का भी अपना संगीत होता है | राग होता है ! उसके खड़े होने में, मुड़ने में, चलने में, देखने में | बोले-न-बोले, सुनो तो सुनाई पड़ता है ! उस राग को तुम्हारा मन ही नहीं सुनता, तुम्हारे ओंठ भी सुनते, बाहें भी सुनती हैं, कमर भी, जांघें भी, नितम्ब भी - यहाँ तक कि छातियाँ भी | ' निपुल्स ' कभी कभी ऐसे क्यों अपने आप तन जाते हैं जैसे कान लगा कर सुन रहे हों - बिना उसकी देह को छुए ?" ( पृ -40 )
औरत की देह से पुरुष जो अनुमान लगाता है उसका वर्णन है -
" यही नहीं, दुबले पतले शरीर में भी भराव और आकर्षण आ गया था | ऊबड़ खाबड़ समतल सीने पर गोलाइयां उभार के साथ पुष्ट नजर आ रही थीं | रघुनाथ का अनुभव बता रहा था कि ऐसा किसी मर्द के संसर्ग और हथेलियों के स्पर्श के बगैर सम्भव नहीं लेकिन मन कह रहा था कि ऐसा खाने पीनी की सुविधाओं और निश्चिंतताओं के कारण है | उन्होंने साड़ी ब्लाउज में खड़ी अपनी बेटी को आजमगढ़ वाले की नजर से देखने की कोशिश की |" ( पृ -50 )
प्रेम सिर्फ युवाओं की इच्छा ही नहीं अपितु बूढ़े भी कम नहीं, हालांकि उनका प्रेम प्रेम नहीं -
" बूढों में शायद ही ऐसा कोई बूढा था जिसे अपने जवां होने का भ्रम न हो और वो समय समय पर यह ' परीक्षण ' न करना चाहता रहा हो कि उसमें अभी ' कुछ ' बचा है कि नहीं ? तृष्णा का मारा हर बूढा प्यार, दुलार, पुचकार के नाम पर ऐसी छोट ले लेता था और नौकरानियां भी साबुन, तेल, नेलपॉलिश, लिपस्टिक या पन्द्रह बीस रुपए बख्शीश पाकर संतोष कर लेती थीं |" ( पृ - 145 )
प्रेम के उन्मुक्त दृश्य यहाँ हैं, वहीं प्रेम पर गंभीर चर्चा भी है -
" सुनो, प्यार एक खोज है सल्लो | जीवन भर की खोज | कभी खत्म, कभी शुरू | खोज किसी और की नहीं, ख़ुद की ! हम स्वयं को दूसरे में ढूंढते हैं, एक बिछुड़ जाता है या छूट जाता है तो लगता है ज़िंदगी खत्म | जीने का कोई अर्थ नहीं रह जाता ! आँखों के आगे शून्य और अँधेरा ! हर चीज बेमानी हो जाती है | लेकिन कुछ समय बाद कोई दूसरा मिल जाता है और नए सिर से अंखुआ फूट निकलता है ! फिर लहलह, फिर महमह !" ( पृ -42 )
हमारा समाज ऐसा है, जो प्रेम को स्वीकार नहीं करता | प्रेम का शादी तक पहुंचना और शादी के बाद प्रेम का बचा रहना मुश्किल है | इसी संबंध में मीनू कहती है -
" एक बात गाँठ बाँध लो सल्लो, तुम दोनों एक साथ कर ही नहीं सकतीं | यह समाज ही ऐसा है | प्रेम करो या विवाह करो | और जिससे प्रेम करो उससे ब्याह तो हरगिज मत करो ! ब्याह की रात से ही वह प्रेमी से मर्द होना शुरू कर देता है | अगर मुझसे पूछो तो मैं हर पत्नी को एक सलाह दे सकती हूँ | वह अपने पति को अपने से बाहर - घर से बाहर - अगर वह पति का प्यार पाना चाहती है तो - घर से बाहर प्रेम करने की छूट दे; उकसाए उसके लिए ! क्योंकि वह कहीं और किसी को प्यार करेगा, तो उसके अंदर का कड़वापन रूखापन भरता रहेगा और इसका लाभ उसकी बीवी को भी मिलेगा! बीवी ही नहीं, बच्चों को भी मिलेगा !" ( पृ -39 )
लेकिन मीनू जो तरीका समझा रही है, वह एक पुरुष की सोच अधिक लगती है | प्यार को पाना तलवार की नोक पर चलने जैसा है, लेखक ने इसे भी स्पष्ट किया है -
" प्यार बंद और सुरक्षित कमरे की चीज नहीं | खतरों से खेलने का नाम है प्यार |" ( पृ -31 )
बदलाव के दौर में प्यार भी बदला है | यह सिर्फ दिल का खेल नहीं रहा, अपितु दिमाग का खेल भी बना हुआ है -
" संजय ने प्यार किया था सोनल को ! यह प्यार किसी सड़कछाप टुच्चे युवक का दिलफेंक प्यार नहीं था, इसमें गुना भाग भी था और जोड़ घटाना भी ! जितना गहरा था, उतना ही व्यापक !" ( पृ -20 )
कोई भी उपन्यास महज आदर्श या यथार्थ का वर्णन करके सफल नहीं हो सकता | एक अच्छे उपन्यास में जीवन के प्रति नजरिये का होना बहुत जरूरी है, भले ही वह घटनाओं से उपजा हुआ हो, लेकिन विशाल परिदृश्य में प्रासंगिक हो | ' रेहन पर रग्घू ' उपन्यास में लेखक अनेक निष्कर्ष निकालता है -
" उन्होंने नतीजा निकाला कि जीवन के अनुभव से जीवन बड़ा है | जब जीवन ही नहीं, तो अनुभव किसके लिए |" ( पृ -15 और 158 )
यह निष्कर्ष सकारात्मक भी है और नकारात्मक भी -
" 'शरीफ' इंसान का मतलब है निरर्थक; भले आदमी का मतलब है ' कायर ' आदमी; जब कोई आपको ' विद्वान ' कहे तो उसका अर्थ ' मूर्ख ' समझिए, और जब कोई ' सम्मानित ' कहे तो ' दयनीय ' समझिए | " ( पृ - 86 )
जीवन महज जीने का पर्याय बन चुका है -
" लेकिन यही दुनिया का और दुनिया के चलते रहने का कायदा रहा है - कि पैदा हुए हो तो जियो | जीना तुम्हारा कर्त्तव्य है | कर्त्तव्य माने क्या ? विवशता | किसी ने यह नहीं पूछा ख़ुद से कि किसके लिए जीना है !" ( पृ - 149 )
तर्कवादियों का चित्रण है -
" जो भी गलत काम करता है, उसके पक्ष में तर्क गढ़ लेता है |" ( पृ -54 )
समाज में व्याप्त दुखों को देखकर वह कह उठता है -
" इसी दुनिया में कभी हरा रंग भी होता था भाई, वह कहाँ गया ?" ( पृ - 153 )
" रघुनाथ पहाड़पुर गाँव के अकेले लिखे पढ़े आदमी | डिग्री कॉलेज में अध्यापक | दुबले पतले लम्बे छरहरे बदन के मालिक | शुरू के दस वर्षों तक साइकिल से आते जाते थे, बाद में स्कूटर से | पिछली सीट पर कभी बेटी बैठती थी, बाद के दिनों में बेटे | कभी एक, कभी दोनों |" ( पृ -16 )
कौशिक सर -
" कौशिक सर कविता के अध्यापक | बहुत गम्भीर और चुप्पे और सिद्धांतवादी | पतले, लम्बे, आकर्षक ! अधेड़ और तीन बच्चों - बल्कि युवाओं के पिता ! अद्भुत ' सेन्स आफ ह्यूमर !'" ( पृ -30 )
सरला की पड़ोसन -
" मीनू बलकट्टी थी - कंधों तक छोटे छोटे बाल ! एकदम लाल मेहँदी से रंगे ! उम्र चालीस से ऊपर | स्वभाव से सीरियस और रिजवर्ड | एक हद तक असामाजिक | किसी के शादी ब्याह में तो नहीं ही जाती थी, आयोजनों में भी शामिल होने से बचती थी | घर से स्कूल स्कूल से घर बस यही आना जाना था | मजबूरी में ही हंसती थी | सहेली भी नहीं थी कोई जिसके साथ उठना बैठना हो ! उम्र के बावजूद उसका गोरा सुडौल बदन आकर्षक था |" ( पृ -36 )
मीनू का प्रेमी -
" माइकेल कर्मा | लम्बा पतला | ताम्बई रंग | नीग्रो जैसे उभरे कूल्हे और चीते जैसी कमर | टी शर्ट और जींस में | ठोड़ी पर थोड़ी सी दाढ़ी और सिर पर खड़े बाल !" ( पृ -40 )
धनंजय के साथ रहने वाली औरत -
" साथ में आने वाली महिला महिला नहीं, लड़की थी - के. विजया | सोनल की ही उमर की या उससे थोड़ी बड़ी | नाक में हीरे की चमकती हुई कील, कानों में झूलती हुई रिंग, जूड़े में बेले के फूल | एकदम दक्षिण भारतीय लेकिन गोरी और सुंदर !" ( पृ - 130 )
सोनल का प्रेमी -
" पहली बार सोनल के साथ एक नौजवान | लम्बा, खूबसूरत, आँखों पर नहीं, माथे पर चश्मा, कंधे पर झोला, खादी के कुरते और जींस की पतलून में | एक हाथ में लिपटा हुआ अखबार !" ( पृ -152 )
अशोक बिहार के एक पहलवान -
" पचहत्तर अस्सी साल के मन्ना सरदार अपने जमाने के पहलवान | काले, मोटे, गठे हुए ! पेट थोड़ा निकला हुआ | आज भी लाल लंगोट और छींट के गमछे में ही नंगे बदन रहते हैं और नियम से पच्छिम मुँह करके पचास डंड और पचास बैठक पेलते हैं |" ( पृ - 126 )
पहलवान के गुरु -
" तो ऐसा था ग्रू ! एक बार शाम को भांग घोंटी, उस पार गए, साफा पानी दिया, चन्दन के तिलक पर रोली लगाई, कलाई में गजरा लपेटा और डाल की मंडई ( दालमंडी ) में घुसे | मुन्नी बाई अपने बारजे से ही देख रही थी कि ग्रू आ रहे हैं | जैसे ही ग्रू उसके कोठे के पास पहुंचे कि वह अपने को सम्भाल नहीं सकी और टप से चू गई | वाह रे ग्रू !" ( पृ -127 )
सरला का एक रूप -
" दूसरों के पास ऐसा बहुत कुछ होता था जो उसके पास नहीं था लेकिन उन्हें देख कर उसमें कभी ईर्ष्या नहीं होती थी ! समभाव उसका स्वभाव था | वह तभी विचलित होता था जब वह किसी गरीब गुरबा को जरूरतमन्द और कातर देखती थी ! वह सब कुछ सह सकती थी मगर किसी की धौंस नहीं !" ( पृ - 124 )
रग्घू के बारे में बताया गया है -
" रघुनाथ की छवि गाँव वालों की नजर में झगड़ा झंझट से दूर रहने वाले जितने शरीफ आदमी की थी उतनी ही सोंठ आदमी की - एक रुपैया में आठ अठन्नी भुनाने वाले आदमी की | लोग यह भी कहने लग गए थे कि बहुत लोभ न किया होता तो यह दिन उन्हें न देखना पड़ता |" ( पृ -26 )
सोनल की यह उक्ति संजय का चरित्र उद्घाटित करती है -
" पापा, आपने ऐसा बेटा क्यों पैदा किया जो वह नहीं देखता जो उसके पास है' हमेशा उधर ही देखता है जो दूसरे के पास है - लार टपकाते हुए !" ( पृ - 140 )
सोनल संजय का चरित्र उद्घाटित करते हुए लालच और महत्त्वाकांक्षा पर भी विचार करती है -
" उसमें सब्र नाम की चीज नहीं है | वह जल्दी से जल्दी ऊँची से ऊँची ऊंचाइयां छूना चाहता है ! जैसे ही एक ऊंचाई पर पहुंचता है, थोड़े ही दिनों में वह नीची लगने लगती है ! इसे वह महत्त्वाकांक्षा बोलता है ! अगर यही महत्त्वाकांक्षा है तो फिर लालच क्या है ?" ( पृ -110 )
चरित्र वर्णन की तरह वातावरण और परिस्थियों का वर्णन भी खूब हुआ है | सारनाथ के स्तूप का वर्णन -
" सड़क के किनारे पहाड़ीनुमा ढूह के ऊपर खंडहर जैसा टूटा फूटा स्तूप ! खड़े हो जाओ तो पूरा सारनाथ ही नहीं, दूर दूर तक के गाँव गिरांव और बाग बगीचे नजर आएँ ! खाली पड़ा था स्तूप ! नीचे चौकीदार, सिपाही, माली अपने अपने काम में लगे थे ! एकदम निर्जन अकेला खड़ा था स्तूप ! ' हिमगिरी के उत्तुंग शिखर ' की तरह | कोई दर्शनार्थी नहीं !" ( पृ -32 )
उपन्यास के कथानक के आधार पर कहा जा सकता है कि पहाड़पुर में एक तरफ ठाकुर रहते हैं और दूसरी तरफ चमटोल है | अहीर, कहार, बामन, गडरिये, लुहार भी हैं | ठाकुर चमटोल में नहीं जाते | जातीय व्यवस्था कितनी कट्टर है इसका अंदाजा छब्बू के इसी कथन से लगाया जा सकता है -
" मैं सब कुछ करता हूँ लेकिन मुँह से मुँह नहीं सटाता ! अपने धर्म और जात को नहीं भूलता !" ( पृ - 72 )
छब्बू पहलवान ढोला के लिए चमटोल जाता है | छब्बू- ढोला का संबंध गाँव में मजाक का विषय बना हुआ है -
" लोग मजाक में कहा करते थे कि सिवान में झूरी पहलवान का खेत जोतता है और पहलवान चमटोल में उसका खेत ! हिसाब बरोबर |" ( पृ - 73 )
लेखक ने ढोला की बेबसी को दिखाया है -
" बेबस ढोला | मुहाल हो गया जीना ! नर्क हो गई थी उसकी ज़िंदगी ! रात भर झूरी की छाती से लग कर सुबकती रहती और गुस्से से फनफनाती रहती !" ( पृ -73 )
छब्बू इसी की सजा भुगतता है -
" अब, चमटोल के बाहरी हिस्से में एक झोंपड़े के आगे कीचड़ में चारों खाने चित्त पड़ा था वह | मरा हुआ | खुले आसमान के नीचे | एक लालटेन उसके सिर के पास थी, दूसरी पैरों की ओर | दोनों ईंटों की ऊंचाई पर - ताकि लाश पर नजर रखी जा सके | लाश ख़ुद कीचड़ और माटी में लिथड़ी पड़ी थी | पैर इस तरह छितराए हुए पड़े थे जैसे बीच से चीर दिए गए हों ! जननांग काट दिया गया था और उसकी जगह खून के थक्के थे जिन पर मक्खियाँ छपरी हुई थीं, उड़ और भिनभिना रही थीं |" ( पृ -74 )
जातीय व्यवस्था कट्टर होते हुए और दबंगई के रहते बदलाव हो रहा है और यही बदलाब दिखाना इस उपन्यास का प्रमुख उद्देश्य है | यह बदलाव यहाँ भी दिखता है -
" पुलिस अपनी तरफ से पूरी तैयारी के साथ आई थी लेकिन जिस आशंका से आई थी, वैसा कुछ नहीं हुआ - न कोई बलवा हुआ, न चमटोल फूंकी गई, न बदले की कार्रवाई हुई !" ( पृ - 75 )
बदलाव की बयार अच्छे के लिए भी बही है तो बुरे के लिए भी | परिवार का बिखराव इस बदलाव की सबसे बड़ी त्रासदी है | यह उपन्यास इसी त्रासदी का आख्यान है | रघुनाथ अपनी पत्नी से कहते हैं -
" शीला, हमारे तीन बच्चे हैं लेकिन पता नहीं क्यों, कभी कभी मेरे भीतर ऐसी हूक उठती है जैसे लगता है - मेरी औरत बाँझ है और मैं नि:सन्तान पिता हूँ | माँ और पिता होने का सुख नहीं जाना हमने ! हमने न बेटे की शादी देखी, न बेटी की ! न बहू देखी, न होने वाला दामाद देखा |" ( पृ - 89 )
इस उपन्यास में बेटों और बेटियों को एक साथ रखा है, बेटी भी उसी तरह कहने से बाहर है, जैसे बेटे | लेखक ने सिर्फ बेटों को बुरे कहने के आदर्शवाद से ख़ुद को बचाया है, जो इस उपन्यास की विशेषता है | परिवार को लेकर लेखक विचार करता है | लेखक ने बेटे और बाप की स्थिति पर दोनों के दृष्टिकोण से देखा है | सोनल के पिता सक्सेना का मत एक बेटे का मत भी हो सकता है -
" हर बेटे बेटी के माँ बाप पृथ्वी हैं | बेटा ऊपर जाना चाहता है - और ऊपर, थोड़ा सा और ऊपर, माँ बाप अपने आकर्षण से उसे नीचे खींचते हैं | आकर्षण संस्कार का भी हो सकता है और प्यार का भी, माया मोह का भी ! मंशा गिराने की नहीं होती, मगर गिरा देते हैं |" ( पृ -23 )
लेकिन यह सोच युवा वर्ग की है | कोई भी बाप इतना रूढ़िवादी नहीं हो सकता है, इसका उत्तर भी लेखक ने दिया है -
" रघुनाथ भी चाहते थे कि बेटे आगे बढ़ें ! वे खेत और मकान नहीं हैं कि अपनी जगह ही न छोड़ें ! लेकिन यह भी चाहते थे कि ऐसा भी मौका आए जब सब एक साथ हों, एक जगह हों - आपस में हंसें, गाएं, लड़ें, झगड़ें, हा-हा, हू-हू करें, खाएं-पिएँ, घर का सन्नाटा टूटे | मगर कई साल हो रहे हैं और कोई कहीं है, कोई कहीं | और बेटे आगे बढ़ते हुए इतने आगे चले गए हैं कि वहां से पीछे देखें भी तो न बाप नजर आएगा, न माँ !" ( पृ - 133)
बहू-बेटे के साथ कैसे रहना चाहिए उसका ब्यान है -
" बेटे बहू के साथ जीने का यही सलीका होना चाहिए कि न आप उनके मामले में दखल दें, न वे आपके मामले में ! सह जीवन के लिए यह समझदारी जरूरी है !" ( पृ - 128 )
लेखक ने दिखाया है कि नई पीढ़ी का जमीन से संबंध टूट चुका है - लेकिन यह सोच युवा वर्ग की है | कोई भी बाप इतना रूढ़िवादी नहीं हो सकता है, इसका उत्तर भी लेखक ने दिया है -
" रघुनाथ भी चाहते थे कि बेटे आगे बढ़ें ! वे खेत और मकान नहीं हैं कि अपनी जगह ही न छोड़ें ! लेकिन यह भी चाहते थे कि ऐसा भी मौका आए जब सब एक साथ हों, एक जगह हों - आपस में हंसें, गाएं, लड़ें, झगड़ें, हा-हा, हू-हू करें, खाएं-पिएँ, घर का सन्नाटा टूटे | मगर कई साल हो रहे हैं और कोई कहीं है, कोई कहीं | और बेटे आगे बढ़ते हुए इतने आगे चले गए हैं कि वहां से पीछे देखें भी तो न बाप नजर आएगा, न माँ !" ( पृ - 133)
बहू-बेटे के साथ कैसे रहना चाहिए उसका ब्यान है -
" बेटे बहू के साथ जीने का यही सलीका होना चाहिए कि न आप उनके मामले में दखल दें, न वे आपके मामले में ! सह जीवन के लिए यह समझदारी जरूरी है !" ( पृ - 128 )
" खेत भी उसे पहचानते हैं जो उनके साथ जीता मरता है | वे खेतों को क्या पहचानेंगे, खेत ही उन्हें पहचानने से इंकार कर देंगे !" ( पृ - 105 )
अपनों में परायापन मिलना इस युग का दुर्भाग्य है -
" देखो जग्गन, ' परायों ' में अपने मिल जाते हैं लेकिन ' अपनों ' में अपने नहीं मिलते | " ( पृ - 98 )
बेटों के बाहर चले जाने के कारण शहरों में भी ऐसी बस्तियों का उदय हुआ है जो सिर्फ बूढों की हैं -
" ' अशोक विहार ' उनकी कालोनी थी जो अध्यापक थे, बाबू थे, दोयम दर्जे के सरकारी गैर सरकारी कर्मचारी थे और इससे भी खास बात यह कि जो या तो रिटायर हो चुके थे या निकट भविष्य में रिटायर होने वाले थे !" ( पृ - 104 )
अकेले रहते बूढों से लूट-पाट आम है | जमीन माफिया मकानों पर कब्जा जमाता है | दबंगई के तरीके बदल गए हैं -
" ऐसे भी ठाकुरों की नई पीढ़ी के लिए देह बनाना, वर्जिश करना, कुश्ती लड़ना फालतू चीज थी | एकदम मूर्खता ! तमंचा के आगे मजबूत से मजबूत कद काठी का भी क्या मतलब ?" ( पृ -74 )
लोगों ने छोटी-मोटी नौकरी के बजाए राजनीति में हाथ आजमाना शुरू किया है | रग्घू के भतीजे यही कर रहे हैं | दरअसल यह रग्घू के भतीजों का नहीं बल्कि आम युवा का चरित्र है -
" उसके तीनों भाइयों की दिलचस्पी पालिटिक्स में थी ! देवेश सपा का कार्यकर्ता था, रमेश बसपा का, और महेश भाजपा का | यही पार्टियाँ पिछले बीस सालों से सत्ता में आ जा रही थीं और क्षेत्र में विधायक और सांसद भी इन्हीं पार्टियों के हो रहे थे ! तीनों ने बड़ी समझदारी से किसी न किसी नेता को पकड़ रखा था ! वे अपने अपने नेता के साथ रहते, घूमते, खाते पीते और जनता की सेवा करते - यानी ट्रांसफर करवाने या रुकवाने का काम करते ! छोटी मोटी नौकरी से यह बड़ा और सम्मान का धंधा था !" ( पृ - 83 )
बिहार के तथाकथित क्रांतिकारियों पर भी लेखक टिप्पणी करता है -
" बीवी की कमाई और नौकरशाहों के चंदे पर क्रान्ति करने वाले ऐसे युवकों की भरमार है बिहार में !" ( पृ - 113 )
गृहस्थी के चित्र भी इस उपन्यास में मिलते हैं | रग्घू भले कॉलेज का प्रोफेसर रिटायर हुआ है, लेकिन ठेठ ग्रामीण है | पत्नी का ज्यादा साथ उसके लिए संभव नहीं -
" रघुनाथ की व्यवस्था शीला के साथ उसी के कमरे में थी लेकिन उन्हें यह पसंद नहीं आया ! घंटे दो घंटे के लिए तो ठीक, इससे ज्यादा कभी वे बीवी के साथ सोए ही नहीं !" ( पृ - 123 )"
सोना, यही उनके दाम्पत्य का सार है, प्रेम से परहेज रहा है -
शीला के साथ रघुनाथ के रिश्ते दाम्पत्य के ही रहे, प्यार के नहीं हो सके ! यह भी कह सकते हैं कि वे शीला के साथ सो तो लेते थे, प्यार नहीं करते थे |" ( पृ - 123 )
गृहस्थी के नितांत निजी पलों को भी लेखक बड़ी संजीदगी से दिखाता है -
" हाँ, अब भी खूबसूरत थी उनकी पत्नी ! उन्हें लगा कभी ठीक से प्यार नहीं किया उसे | जब भी जरूरत हुई, उसके साथ लेटे जरूर लेकिन प्यार नहीं किया कभी ! उन्होंने हाथ बढाकर उसके ब्लाउज का एक बटन खोला - चुपके से, फिर दूसरा, फिर तीसरा | सोई हुई छातियाँ जैसे नींद से जाग गईं, कुनमुनाई और उन्हें घूरने लगीं ! बिस्तरें पर झुकीं झुकीं ! उनमें जान बाकी थी |
वे उठे और उसके बगल में लेट गए ! शीला ने जगह बनाई उनके लिए और आँखें बंद किए किए ख़ुद को उनके हवाले कर दिया !" ( पृ - 56 )
यह चित्रण बताता है कि औरत की कोई मर्जी नहीं | वह सिर्फ भोग्य वस्तु है -
" रूप रंग, हाव भाव, नाज नखरे लड़की में देखे जाते हैं, पत्नी में नहीं !" ( पृ -21 )
वैसे औरत की नजर में मर्द की स्थिति बहुत अच्छी नहीं -
" मर्द एक बैल है, जिसे मुश्तकिल खूंटा चाहिए - अपने विश्राम के लिए !" ( पृ -51 )
नई पीढ़ी की औरत भोग्य नहीं | लडकियाँ उन्मुक्त जीवन जीती हैं -
" बोली 'गोबर कहीं के ! चाहती हूँ कि अच्छी सिर्फ तुम्हारी आँखें नहीं, तुम्हारें ओंठ, तुम्हारी उँगलियाँ, तुम्हारी बाहें, तुम्हारी पूरी देह बोले !' वह एक एक करके उनकी कमीज और पैंट के बटन खोलती गई - ' अपना भी मैं ही खोलूँ कि तुम भी कुछ करोगे ?' शर्माते हुए उनके कान में बुदबुदाई !" ( पृ -150 )
रग्घू की बेटी अधेड़ प्रोफेसर से प्रेम करती है, क्योंकि यह सुरक्षित है -
" शादी के बाद तो यह विश्वासघात होगा, व्यभिचार होगा, अनैतिक होगा | जो करना है, पहले कर लो | अनुभव कर लो एक बार | मर्द का स्वाद ! एक एडवेंचर ! जस्ट फॉर फन !" ( पृ -31 )
यूँ तो यह उपन्यास एक सामाजिक उपन्यास है, लेकिन प्रेम पर चर्चा है और प्रेम के पलों का उन्मुक्त चित्रण भी है | सरला और कौशिक सर के प्रेम का चित्रण -
" वे दिल जो अब तक खंडहर के पीछे गुटर गूं कर रहे थे, कुकडू कूँ करने लगे थे भरी दुपहरिया में ! कौशिक सर ने सरला की पीठ के पीछे से हाथ बढा कर उसकी सुडौल गोलाई मसल दी ! सरला के पूरे बदन में एक झुरझुरी हुई और वह शर्माती हुई उनकी गोद में ढह गई !
अबकी कौशिक सर ने जरा जोर से मसला |
चिहुंक कर सीत्कार कर उठी सरला और आँखें बंद कर लीं - ' जंगली कहीं के !'
कौशिक सर ने सिर झुका कर उसकी आँखों को चूम लिया !" ( पृ -33 )
मीनू और कर्मा के प्रेम का चित्रण -
" मैं कुछ कहूँ, रोकूँ, टोकूं इसके पहले ही उसने मेरी साड़ी खोल दी | बोला - ' ब्लाउज खोल दो, नहीं तो बटन टूट जाएँगे |' ब्रा उसी ने खोले - हठ करके ! 'बस हिलो मत !' दो कदम पीछे हट गया उलटे पाँव और ऊपर से नीचे तक देखा | मैं अपने हाथों से ख़ुद को ढंकने की कोशिश किए जा रही थी लेकिन बेकार | ' कहो तो छू भी लूं जरा सा |' हालत ऐसी थी कि कौन कहे और कौन सुने ? थोड़ा सा झुक कर उसने अपने ओठों से छातियों की खड़ी घुंडियों को बारी बारी से दबाया, चूमा और सहलाया जीभ से |" ( पृ -40 )
पुरुष देह को सोचकर स्त्री कैसे रोमांचित होती है, उसका वर्णन है -
" मर्द की देह का भी अपना संगीत होता है | राग होता है ! उसके खड़े होने में, मुड़ने में, चलने में, देखने में | बोले-न-बोले, सुनो तो सुनाई पड़ता है ! उस राग को तुम्हारा मन ही नहीं सुनता, तुम्हारे ओंठ भी सुनते, बाहें भी सुनती हैं, कमर भी, जांघें भी, नितम्ब भी - यहाँ तक कि छातियाँ भी | ' निपुल्स ' कभी कभी ऐसे क्यों अपने आप तन जाते हैं जैसे कान लगा कर सुन रहे हों - बिना उसकी देह को छुए ?" ( पृ -40 )
औरत की देह से पुरुष जो अनुमान लगाता है उसका वर्णन है -
" यही नहीं, दुबले पतले शरीर में भी भराव और आकर्षण आ गया था | ऊबड़ खाबड़ समतल सीने पर गोलाइयां उभार के साथ पुष्ट नजर आ रही थीं | रघुनाथ का अनुभव बता रहा था कि ऐसा किसी मर्द के संसर्ग और हथेलियों के स्पर्श के बगैर सम्भव नहीं लेकिन मन कह रहा था कि ऐसा खाने पीनी की सुविधाओं और निश्चिंतताओं के कारण है | उन्होंने साड़ी ब्लाउज में खड़ी अपनी बेटी को आजमगढ़ वाले की नजर से देखने की कोशिश की |" ( पृ -50 )
प्रेम सिर्फ युवाओं की इच्छा ही नहीं अपितु बूढ़े भी कम नहीं, हालांकि उनका प्रेम प्रेम नहीं -
" बूढों में शायद ही ऐसा कोई बूढा था जिसे अपने जवां होने का भ्रम न हो और वो समय समय पर यह ' परीक्षण ' न करना चाहता रहा हो कि उसमें अभी ' कुछ ' बचा है कि नहीं ? तृष्णा का मारा हर बूढा प्यार, दुलार, पुचकार के नाम पर ऐसी छोट ले लेता था और नौकरानियां भी साबुन, तेल, नेलपॉलिश, लिपस्टिक या पन्द्रह बीस रुपए बख्शीश पाकर संतोष कर लेती थीं |" ( पृ - 145 )
प्रेम के उन्मुक्त दृश्य यहाँ हैं, वहीं प्रेम पर गंभीर चर्चा भी है -
" सुनो, प्यार एक खोज है सल्लो | जीवन भर की खोज | कभी खत्म, कभी शुरू | खोज किसी और की नहीं, ख़ुद की ! हम स्वयं को दूसरे में ढूंढते हैं, एक बिछुड़ जाता है या छूट जाता है तो लगता है ज़िंदगी खत्म | जीने का कोई अर्थ नहीं रह जाता ! आँखों के आगे शून्य और अँधेरा ! हर चीज बेमानी हो जाती है | लेकिन कुछ समय बाद कोई दूसरा मिल जाता है और नए सिर से अंखुआ फूट निकलता है ! फिर लहलह, फिर महमह !" ( पृ -42 )
हमारा समाज ऐसा है, जो प्रेम को स्वीकार नहीं करता | प्रेम का शादी तक पहुंचना और शादी के बाद प्रेम का बचा रहना मुश्किल है | इसी संबंध में मीनू कहती है -
" एक बात गाँठ बाँध लो सल्लो, तुम दोनों एक साथ कर ही नहीं सकतीं | यह समाज ही ऐसा है | प्रेम करो या विवाह करो | और जिससे प्रेम करो उससे ब्याह तो हरगिज मत करो ! ब्याह की रात से ही वह प्रेमी से मर्द होना शुरू कर देता है | अगर मुझसे पूछो तो मैं हर पत्नी को एक सलाह दे सकती हूँ | वह अपने पति को अपने से बाहर - घर से बाहर - अगर वह पति का प्यार पाना चाहती है तो - घर से बाहर प्रेम करने की छूट दे; उकसाए उसके लिए ! क्योंकि वह कहीं और किसी को प्यार करेगा, तो उसके अंदर का कड़वापन रूखापन भरता रहेगा और इसका लाभ उसकी बीवी को भी मिलेगा! बीवी ही नहीं, बच्चों को भी मिलेगा !" ( पृ -39 )
लेकिन मीनू जो तरीका समझा रही है, वह एक पुरुष की सोच अधिक लगती है | प्यार को पाना तलवार की नोक पर चलने जैसा है, लेखक ने इसे भी स्पष्ट किया है -
" प्यार बंद और सुरक्षित कमरे की चीज नहीं | खतरों से खेलने का नाम है प्यार |" ( पृ -31 )
बदलाव के दौर में प्यार भी बदला है | यह सिर्फ दिल का खेल नहीं रहा, अपितु दिमाग का खेल भी बना हुआ है -
" संजय ने प्यार किया था सोनल को ! यह प्यार किसी सड़कछाप टुच्चे युवक का दिलफेंक प्यार नहीं था, इसमें गुना भाग भी था और जोड़ घटाना भी ! जितना गहरा था, उतना ही व्यापक !" ( पृ -20 )
कोई भी उपन्यास महज आदर्श या यथार्थ का वर्णन करके सफल नहीं हो सकता | एक अच्छे उपन्यास में जीवन के प्रति नजरिये का होना बहुत जरूरी है, भले ही वह घटनाओं से उपजा हुआ हो, लेकिन विशाल परिदृश्य में प्रासंगिक हो | ' रेहन पर रग्घू ' उपन्यास में लेखक अनेक निष्कर्ष निकालता है -
" उन्होंने नतीजा निकाला कि जीवन के अनुभव से जीवन बड़ा है | जब जीवन ही नहीं, तो अनुभव किसके लिए |" ( पृ -15 और 158 )
यह निष्कर्ष सकारात्मक भी है और नकारात्मक भी -
" 'शरीफ' इंसान का मतलब है निरर्थक; भले आदमी का मतलब है ' कायर ' आदमी; जब कोई आपको ' विद्वान ' कहे तो उसका अर्थ ' मूर्ख ' समझिए, और जब कोई ' सम्मानित ' कहे तो ' दयनीय ' समझिए | " ( पृ - 86 )
जीवन महज जीने का पर्याय बन चुका है -
" लेकिन यही दुनिया का और दुनिया के चलते रहने का कायदा रहा है - कि पैदा हुए हो तो जियो | जीना तुम्हारा कर्त्तव्य है | कर्त्तव्य माने क्या ? विवशता | किसी ने यह नहीं पूछा ख़ुद से कि किसके लिए जीना है !" ( पृ - 149 )
तर्कवादियों का चित्रण है -
" जो भी गलत काम करता है, उसके पक्ष में तर्क गढ़ लेता है |" ( पृ -54 )
समाज में व्याप्त दुखों को देखकर वह कह उठता है -
" इसी दुनिया में कभी हरा रंग भी होता था भाई, वह कहाँ गया ?" ( पृ - 153 )
ज़िंदगी की कड़वी हकीकतें उसे बड़े तजुर्बे देती हैं -
" भ्रम और भरोसा - ये ही हैं ज़िंदगी के स्रोत ! इन्हीं स्रोतों से फूटती है ज़िंदगी और फिर बह निकलती है - कलकल-छलछल !"( पृ - 136 )
वह लिखता है -
" भगवान और ब्याह के बिना भी जिया जा सकता है, रहा जा सकता है !" ( पृ - 122 )
मृत्यु जीवन का संदेश देती है -
" आज जब मृत्यु बिल्ली की तरह दबे पाँव कमरे में आ रही है तो बाहर ज़िंदगी बुलाती हुई सुनाई पड़ रही है ?" ( पृ -13 और 156 )
तमाम निराशाओं के बावजूद वह जिन्दादिली से जीने की बात करता है -
चरित्र चित्रण में लेखक का मन खूब रमा है | इस उपन्यास के लगभग हर पात्र का, चाहे वह बहुत महत्त्वपूर्ण हो या कम, रेखाचित्र लेखक ने खींचा है | रग्घू के बारे में वे लिखते हैं -" भ्रम और भरोसा - ये ही हैं ज़िंदगी के स्रोत ! इन्हीं स्रोतों से फूटती है ज़िंदगी और फिर बह निकलती है - कलकल-छलछल !"( पृ - 136 )
वह लिखता है -
" भगवान और ब्याह के बिना भी जिया जा सकता है, रहा जा सकता है !" ( पृ - 122 )
मृत्यु जीवन का संदेश देती है -
" आज जब मृत्यु बिल्ली की तरह दबे पाँव कमरे में आ रही है तो बाहर ज़िंदगी बुलाती हुई सुनाई पड़ रही है ?" ( पृ -13 और 156 )
तमाम निराशाओं के बावजूद वह जिन्दादिली से जीने की बात करता है -
" कितने दिन हो गए बारिश में भीगे ?
कितने दिन हो गए लू के थपेड़े खाए ?
कितने दिन हो गए जेठ के घाम में झुलसे ?
कितने दिन हो गए अंजोरिया रात में मटरगश्ती किए ?
कितने दिन हो गए ठंड में ठिठुर कर दांत किटकिटाए ?
क्या ये इसीलिए होते हैं कि हम इनसे बच के रहें ? बच बचा के चलें ? या इसलिए कि इन्हें भोगें, इन्हें जिएँ, इनसे दोस्ती करें, बतियाएं, सिर माथे पर बिठाएँ ?"( पृ -12 और 155 )
हादसों में मजा लेता है -
" हादसा न हो तो ज़िंदगी क्या ? " ( पृ -12 और 155 )
हादसों में मजा लेता है -
" हादसा न हो तो ज़िंदगी क्या ? " ( पृ -12 और 155 )
" रघुनाथ पहाड़पुर गाँव के अकेले लिखे पढ़े आदमी | डिग्री कॉलेज में अध्यापक | दुबले पतले लम्बे छरहरे बदन के मालिक | शुरू के दस वर्षों तक साइकिल से आते जाते थे, बाद में स्कूटर से | पिछली सीट पर कभी बेटी बैठती थी, बाद के दिनों में बेटे | कभी एक, कभी दोनों |" ( पृ -16 )
कौशिक सर -
" कौशिक सर कविता के अध्यापक | बहुत गम्भीर और चुप्पे और सिद्धांतवादी | पतले, लम्बे, आकर्षक ! अधेड़ और तीन बच्चों - बल्कि युवाओं के पिता ! अद्भुत ' सेन्स आफ ह्यूमर !'" ( पृ -30 )
सरला की पड़ोसन -
" मीनू बलकट्टी थी - कंधों तक छोटे छोटे बाल ! एकदम लाल मेहँदी से रंगे ! उम्र चालीस से ऊपर | स्वभाव से सीरियस और रिजवर्ड | एक हद तक असामाजिक | किसी के शादी ब्याह में तो नहीं ही जाती थी, आयोजनों में भी शामिल होने से बचती थी | घर से स्कूल स्कूल से घर बस यही आना जाना था | मजबूरी में ही हंसती थी | सहेली भी नहीं थी कोई जिसके साथ उठना बैठना हो ! उम्र के बावजूद उसका गोरा सुडौल बदन आकर्षक था |" ( पृ -36 )
मीनू का प्रेमी -
" माइकेल कर्मा | लम्बा पतला | ताम्बई रंग | नीग्रो जैसे उभरे कूल्हे और चीते जैसी कमर | टी शर्ट और जींस में | ठोड़ी पर थोड़ी सी दाढ़ी और सिर पर खड़े बाल !" ( पृ -40 )
धनंजय के साथ रहने वाली औरत -
" साथ में आने वाली महिला महिला नहीं, लड़की थी - के. विजया | सोनल की ही उमर की या उससे थोड़ी बड़ी | नाक में हीरे की चमकती हुई कील, कानों में झूलती हुई रिंग, जूड़े में बेले के फूल | एकदम दक्षिण भारतीय लेकिन गोरी और सुंदर !" ( पृ - 130 )
सोनल का प्रेमी -
" पहली बार सोनल के साथ एक नौजवान | लम्बा, खूबसूरत, आँखों पर नहीं, माथे पर चश्मा, कंधे पर झोला, खादी के कुरते और जींस की पतलून में | एक हाथ में लिपटा हुआ अखबार !" ( पृ -152 )
अशोक बिहार के एक पहलवान -
" पचहत्तर अस्सी साल के मन्ना सरदार अपने जमाने के पहलवान | काले, मोटे, गठे हुए ! पेट थोड़ा निकला हुआ | आज भी लाल लंगोट और छींट के गमछे में ही नंगे बदन रहते हैं और नियम से पच्छिम मुँह करके पचास डंड और पचास बैठक पेलते हैं |" ( पृ - 126 )
पहलवान के गुरु -
" तो ऐसा था ग्रू ! एक बार शाम को भांग घोंटी, उस पार गए, साफा पानी दिया, चन्दन के तिलक पर रोली लगाई, कलाई में गजरा लपेटा और डाल की मंडई ( दालमंडी ) में घुसे | मुन्नी बाई अपने बारजे से ही देख रही थी कि ग्रू आ रहे हैं | जैसे ही ग्रू उसके कोठे के पास पहुंचे कि वह अपने को सम्भाल नहीं सकी और टप से चू गई | वाह रे ग्रू !" ( पृ -127 )
सरला का एक रूप -
" सरला - जो हमेशा समीज सलवार और दुपट्टे में रहती थी - वही सरला हरे चौड़े बार्डर की बासंती साड़ी में गजब ढा रही थी ! बार्डर के रंग का साड़ी से मैच करता ब्लाउज और माथे पर छोटी सी लाल बिंदी ! हवा उडाए ले जा रही थी आंचल को जिसे वह बार बार सम्भाल रही थी !" ( पृ -32 )
लेखक ने सिर्फ बाहरी चित्रण ही नहीं किया बल्कि आदतों और स्वभाव को भी उद्घाटित किया है | शीला के बारे में वह लिखता है - रग्घू के बारे में बताया गया है -
" रघुनाथ की छवि गाँव वालों की नजर में झगड़ा झंझट से दूर रहने वाले जितने शरीफ आदमी की थी उतनी ही सोंठ आदमी की - एक रुपैया में आठ अठन्नी भुनाने वाले आदमी की | लोग यह भी कहने लग गए थे कि बहुत लोभ न किया होता तो यह दिन उन्हें न देखना पड़ता |" ( पृ -26 )
सोनल की यह उक्ति संजय का चरित्र उद्घाटित करती है -
" पापा, आपने ऐसा बेटा क्यों पैदा किया जो वह नहीं देखता जो उसके पास है' हमेशा उधर ही देखता है जो दूसरे के पास है - लार टपकाते हुए !" ( पृ - 140 )
सोनल संजय का चरित्र उद्घाटित करते हुए लालच और महत्त्वाकांक्षा पर भी विचार करती है -
" उसमें सब्र नाम की चीज नहीं है | वह जल्दी से जल्दी ऊँची से ऊँची ऊंचाइयां छूना चाहता है ! जैसे ही एक ऊंचाई पर पहुंचता है, थोड़े ही दिनों में वह नीची लगने लगती है ! इसे वह महत्त्वाकांक्षा बोलता है ! अगर यही महत्त्वाकांक्षा है तो फिर लालच क्या है ?" ( पृ -110 )
चरित्र वर्णन की तरह वातावरण और परिस्थियों का वर्णन भी खूब हुआ है | सारनाथ के स्तूप का वर्णन -
" सड़क के किनारे पहाड़ीनुमा ढूह के ऊपर खंडहर जैसा टूटा फूटा स्तूप ! खड़े हो जाओ तो पूरा सारनाथ ही नहीं, दूर दूर तक के गाँव गिरांव और बाग बगीचे नजर आएँ ! खाली पड़ा था स्तूप ! नीचे चौकीदार, सिपाही, माली अपने अपने काम में लगे थे ! एकदम निर्जन अकेला खड़ा था स्तूप ! ' हिमगिरी के उत्तुंग शिखर ' की तरह | कोई दर्शनार्थी नहीं !" ( पृ -32 )
मौसम का वर्णन -
" शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर ! थोड़ी देर पहले धूप थी | उन्होंने खाना खाया था और खाकर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़ | घर के सारे खुले खिड़की दरवाजे भड भड करते हुए अपने आप बंद होने लगे खुलने लगे | सिटकनी छिटक कर कहीं गिरी, ब्यौंडे कहीं गिरे जैसे धरती हिल उठी हो, दीवारें काँपने लगी हों | आसमान काला पड़ गया और चारों और घुप्प अँधेरा |"( पृ -11 और 154 )
उपन्यास की भाषा विषयानुकूल है | लेखक ने देशज शब्दों का प्रयोग किया है और बहुधा उनको स्पष्ट भी किया है जैसे - भूंजा ( भरसांय में भुने गए चने, मटर, लाई, चूड़ा, भुट्टे ) | इस प्रक्रिया से विश्लेषणात्मक शैली का समावेश भी हुआ है - " रघुनाथ का घर दुआर गाँव के बाहरी हिस्से में था ! घर का अगला हिस्सा दुआर, पिछला घर | दुआर का मतलब दालान और बरामदा !" ( पृ -25 )
बोलचाल में प्रचलित आम उक्तियों का प्रयोग है, यथा - ' मंगनी की बछिया के दांत नहीं गिनते !', अहीरों की बुद्धि उनके घुटनों में होती है | लेखक ने प्रमुखत: वर्णनात्मक और संवादात्मक शैली को अपनाया है | संवाद आकर्षक और कथानक को आगे बढाने वाले हैं -
" ' अब की कैसे हुए पर्चे ?'
' बहुत अच्छा | निकाल लूँगा इस बार |'
' पाँच साल से यही सुन रहा हूँ ! हर बार निकाल लेते हो !'
' एस.सी., एस.टी.कोटा और घटी सीटों पर तो मेरा बस नहीं | उसके लिए मैं क्या करूँ !" ( पृ. - 57 )
संक्षेप में, ' रेहन पर रग्घू ' एक ऐसे व्यक्ति का महाकाव्य है, जो जीवन में अपनी औलाद के लिए सब कुछ करता है, लेकिन उसका प्रतिफल उसे नहीं मिलता | यह सिर्फ रग्घू की त्रासदी नहीं, अपितु जन-जन की त्रासदी है | वैवाहिक संबंधों का तार-तार हो जाना, नए समाज का ऐसा रूप है जो इस उपन्यास में पूरी शिद्दत से उभारा गया है |
बोलचाल में प्रचलित आम उक्तियों का प्रयोग है, यथा - ' मंगनी की बछिया के दांत नहीं गिनते !', अहीरों की बुद्धि उनके घुटनों में होती है | लेखक ने प्रमुखत: वर्णनात्मक और संवादात्मक शैली को अपनाया है | संवाद आकर्षक और कथानक को आगे बढाने वाले हैं -
" ' अब की कैसे हुए पर्चे ?'
' बहुत अच्छा | निकाल लूँगा इस बार |'
' पाँच साल से यही सुन रहा हूँ ! हर बार निकाल लेते हो !'
' एस.सी., एस.टी.कोटा और घटी सीटों पर तो मेरा बस नहीं | उसके लिए मैं क्या करूँ !" ( पृ. - 57 )
संक्षेप में, ' रेहन पर रग्घू ' एक ऐसे व्यक्ति का महाकाव्य है, जो जीवन में अपनी औलाद के लिए सब कुछ करता है, लेकिन उसका प्रतिफल उसे नहीं मिलता | यह सिर्फ रग्घू की त्रासदी नहीं, अपितु जन-जन की त्रासदी है | वैवाहिक संबंधों का तार-तार हो जाना, नए समाज का ऐसा रूप है जो इस उपन्यास में पूरी शिद्दत से उभारा गया है |
दिलबागसिंह विर्क
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