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रविवार, फ़रवरी 11, 2018

आज़ाद ख़्याली के जीवन दर्शन की बात करता यात्रा वृत्तांत { भाग - 3 }

पुस्तक – आज़ादी मेरा ब्रांड 
लेखिका - अनुराधा बेनीवाल 
प्रकाशन - सार्थक, राजकमल का उपक्रम
पृष्ठ - 204
मूल्य -  199 /-
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यात्रा वृत्तांत मुख्य रूप से यात्रा के अनुभवों की अभिव्यक्ति ही होती है | अनुराधा यूरोप यात्रा के दौरान जिन देशों और शहरों में जाती हैं उनका न सिर्फ विस्तारपूर्वक वर्णन करती है, अपितु भारत के साथ, भारतीय संस्कृति के साथ तुलना करती है और अपने विचार भी रखती है, जिससे यह यात्रा वृत्तांत सिर्फ यात्रा वृत्तांत नहीं रह जाता अपितु लेखिका के जीवन दर्शन को ब्यान करता हुआ प्रतीत होता है | वैसे तो वह ख़ुद को लिव-इन की बड़ी सपोर्टर कहती है, लेकिन आज के प्यार को भी पसंद नहीं करती | पहले के प्यार की आज के प्यार से तुलना करते हुए वह लिखती है –
महीने में एक बार चिट्ठी लिखी, अपने दिल का हाल बताया और जरूरत की बात लिखी | ये थोड़े ही पूछते होंगे – बेबी डिनर में क्या खाया ?, बेबी, रात को अकेले मत जाना, बेबी, क्या पहना है ? फोटो भेजो |, इतना छोटा टॉप क्यों पहना है ! मैं नहीं हूँ तो किसे दिखाओगी ? और ये लो जी, अभी तो जान-पहचान हो ही रही थी कि हो गया ब्रेक-अप !
भारत में यहाँ ठंडा खाना कोई नहीं खाता, इसीलिए वह तुलना करते हुए बताती है–
हम भारतीयों की तरह यहाँ लोग तीनों वक्त गर्म खाना नहीं खाते | गर्म खाना सिर्फ डिनर होता है, जब घर में सब लोग इकट्ठे बैठकर गरमा-गर्म खाते हैं | ये गर्म खाने को लक्ज़री जैसा मानते हैं | अगर आपने हॉट लंच लिया तो मतलब यह कि या तो कोई ख़ास मौक़ा रहा होगा या आप काफी पैसे वाले हैं |
ब्रस्सल्स में वह कचरे के बैग देखती है जो तीन रंग के हैं पीले, नीले और सफेद |
पीले रंग के बैग में कागज और गत्ते आदी, नीले बैग में प्लास्टिक और तिन की बोतले और सफेद बैग में बाकी बचा रोज़ का कचरा |
तब वह भारत से तुलना करते हुए कहती है –
कहने को तो हमारे घर और गाड़ियां आलिशान हैं, लेकिन समाज का सही विकास शायद इन नीले-पीले और सफेद थैलों से ही नापा जा सकता है |
फ़्रांस और भारत की संस्कृति की तुलना करते हुए वह लिखती है –
दिन के किसी भी समय बोंजोर चल जाता है, यह थोड़ा नमस्ते जैसा है |
भाषा को लेकर भी तुलना सामने आती है –
फ़्रांस में बिना फ्रेंच जाने रहना, दिल्ली में बिना हिंदी के रहने जैसा है |
लेकिन लील में वह महसूस करती है –
जहाँ फर्राटेदार अंग्रेजी आना इंटेलिजेंस का प्रतीक नहीं है |
भाषा और ज्ञान को लेकर हम भारतियों में जो हीन भावना आमतौर पर पाई जाती है, वह अनुराधा को भी है लेकिन खेडी से यूरोप तक के सफ़र के बाद वह इस निष्कर्ष तक पहुँच जाती है –
ऐसा नहीं है कि अब कुछ ज्यादा जान गई हूँ, लेकिन नहीं जान्ने को लेकर कम्फर्टेबल हो गई हूँ | जानने की कोशिश अब अच्छी लगती है | अब जैसे अपने लिए जानना है, दिखाने के लिए नहीं |
उसे पेरिस में भरतीयता के दर्शन मिलते हैं, वे चाहे भिखारियों के रूप में हो या सिगरेट पीने की आदत के रूप में |
अब सिगरेट की बात चली है तो इससे पहले कि मैं भूल जाऊं, बता दूं | यहाँ पीते सब लोग हैं, खरीदता शायद ही कोई है | अगर आप ओपन कैफे में बैठकर चाय या कॉफ़ी पी रहे हैं और चार-पांच यों ही राह चलते लोग आपसे सिगरेट मांग लें तो चौंकिएगा नहीं | यह यहाँ एकदम आम बात है |
वह वहाँ भिखारी भी देखती है लेकिन ऐसा लगता है जैसे वह अन्यों की तरह अपना काम कर रहा हो| इस बारे में वह सोचती है –
शायद कोई भी चीज अति में हो तो बेकद्री हो जाती है और इक्के-दुक्के हों तो भिखारी भी ख़ास लगते हैं |
लील के पेय पदार्थों के बारे में वह लिखती है –
यहाँ कॉफ़ी और बियर का दाम एक-सा था, और शायद स्वाद भी |
लेखिका अपने यात्रा वृत्तांत के दौरान अपने बारे में अनेक बातें लिखती है | वह अपने स्वभाव के बारे में लिखती है –
लड़कों से दोस्ती नहीं पटती मेरी | उनके साथ या तो कस के रोमांस कर पाती हूँ या जम कर लड़ाई | या तो वे मुझ पर मर-मिट जाने के दावे करते हैं, या मार ही डालना चाहते हैं | बीच का मामला नहीं जमता |
ख़ुद को मॉर्निंग पर्सन मानते हुए वह बताती कि वह देर रात बाहर जाना पसंद नहीं करती –
मुझे रात की पार्टियों से उतनी दिक्कत नहीं है, जितना कि सुबह की चाय से प्रेम है | हाँ, घर में बैठकर रात-भर गप्पिया लो, चाय पर चाय, आधी रात को मैगी बनवा लो, पर तैयार होकर बाहर मत बुलाओ, प्लीज !
वह अंग्रेजी फिल्मों की शौक़ीन है तो गाने उसे हिंदी ही पसंद हैं | वह ओशो दर्शन से प्रभावित है ही, ध्यान भी करती है | ब्रस्सल्स में मेजबान के घर रुकने पर जब उसे भीतर से डर महसूस होता है तो वह डर से बचने के लिए ध्यान का सहारा लेती है –
ध्यान करके दिमाग शांत करने की भी कोशिश की | कहते हैं, लम्बी और गहरी साँसें लेने से डर नहीं लगता |
वह शहर के अनुसार खुद को बदलती भी है –
अब शहर से दोस्ती करनी थी तो थोड़ा शहर जैसा होना था न ?
मैनीक्योर्ड के शानदार गार्डन को देखकर वह कहती है –
यह काफी दिलचस्प था, लेकिन पसंद तो मुझे बेतरतीब गार्डन ही है |
वह लोगों की तरह नहीं सोचती | ‘ मन्नेकिन पिस्स ’ को देखकर वह कहती है –
शायद यह दुनिया का सबसे फ्लॉप टूरिस्ट अट्रैक्शन होगा ! शायद इसका अट्रैक्शन भी यही होगा – लोग यह देखने आ रहे थे कि सभी इसको देखने क्यों आते हैं !
सच में यही भेड़चाल हर जगह है | अनुराधा इससे हटकर है | वह कहती है –
मुझे बस घूमना था, बिना कोई असाइंमेंट बनाए | यों ही लोगों से टकराना था | बेकाम बतियाना था | खाली रोड पर बैठकर मुस्कराना था |”  
            यूं तो यात्रा वृत्तांत में महत्त्वपूर्ण वर्णन होता है, लेकिन भाषा-शैली इसे रोचक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है | ‘ आज़ादी मेरा ब्रांड ’ में लेखिका अनेक उक्तियों के द्वारा अपने वृत्तांत को रोचक बनाने में सफल रहती है | वह लिखती है –
आर्थिक तंगी की मार सबसे पहले कला और फिर प्यार पर ही पड़ती है |
मेरा ज्ञान तेरे ज्ञान से बड़ा है – यह बहस तो बाकी चलती ही रहेगी |
हँसी की कोई भाषा थोड़े ही होती है |
आजकल की नई पीढ़ी के व्यवहार का बड़ा सजीव चित्रण उतारते हुए वह लिखती है –
यह जो कैमरे वाली नई बीमारी है, इसमें लोग देखते कम हैं, फोटो ज्यादा खींचते-खिंचवाते हैं |

            संक्षेप, ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ महज एक जीवन वृत्तांत न होकर लेखिका के जीवन दर्शन को ब्यान करता है | इस वृत्तांत में यूरोपीय देशों का महज वर्णन नहीं बल्कि वहां की संस्कृति को समझने, उसके साथ अपनी संस्कृति की तुलना करने का भाव है लेकिन हीनता का अहसास कहीं नहीं | लेखिका के जीवन में फक्कड़पन साफ़ झलकता है, यही फक्कड़पन लेखिका को ख़ास बनाता है और उसके यात्रा वृत्तांत को भी | 
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दिलबागसिंह विर्क 

1 टिप्पणी:

Sweta sinha ने कहा…

बहुत सुंदर समीक्षा लिखी है आपने आदरणीय।
सादर

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