कविता-संग्रह – मुट्ठी भर धूप
कवयित्री – अल्पना नागर
प्रकाशक – हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी
पृष्ठ – 126
कीमत – 200 /- ( सजिल्द )
77 कविताओं और 25 क्षणिकाओं से सज़ा कविता-संग्रह “ मुट्ठी भर धूप ” अल्पना नागर का पहला कविता-संग्रह है | “ मुट्ठी भर धूप ” किसी कविता का शीर्षक न होकर कवयित्री की उस आशावादी सोच का परिचायक है, जो इन कविताओं में यत्र-तत्र व्याप्त है |
ऐसा नहीं कि कवयित्री वर्तमान हालातों से निराश नहीं, लेकिन निराशा से पार जाकर वह बार-बार आशावादी सुर छेड़ती है | यह आशावादी सुर पहली कविता से लेकर आखिरी कविता तक विद्यमान है | व्यस्तताएं सीलन भरे अँधेरे कमरे हैं, लेकिन इनमें फुर्सत की खिड़की भी है, जिसमें से आने वाले झोंके गहरी नींद में सोई आत्मा को झकझोर देते हैं | उसकी आशावादी सोच कहती है –
कुछ कट्टर कुबोध / बंदूकें आतंकित हो रही हैं /
उन नन्हे फूलों से / बस्ते और किताबों से ( पृ. – 50 )
इसी आशावादी सोच के चलते उसे ज़िंदगी से मुहब्बत हो गई है | वह अरमानों के सूरज उगाना चाहती है |
एक औरत होने के नाते औरत अल्पना नागर की कविताओं का प्रमुख विषय है | वह उसकी पीड़ा को अभिव्यक्त भी करती है और उसके लिए नई राह भी सुझाती है | संस्कार के नाम पर औरत सुबह पाँच बजे से अगली सुबह के 2 बजे तक काम करने को बाध्य है | ऊपर से पुरुष का जुमला है -
पगली प्रेम करता हूँ तुझसे / दुश्मन नहीं हूँ | ( पृ. – 84 )
ऐसे ही संस्कारों के चलते कवयित्री को स्त्री के गले में पड़ा मंगलसूत्र वजनी जान पड़ता है | नारी की व्यथा को वह मिथिहास के पात्रों द्वारा वर्णित करती है | वह रौशनियों, रंगीनियों से जगमगाती हवेली में बंदी वधू के यक्ष प्रश्नों को सुनती है | वह उसकी दशा का चित्रण करते हुए कहती है –
पुष्प-सी नाजुक / अब एक ठूंठ रह गई है /
कहाँ शेष हैं पंखुड़ियां ( पृ. – 19 )
ऐसा नहीं कि नारी मुक्ति के लिए आन्दोलन नहीं चलाए गए, लेकिन उनकी वास्तविकता पर कवयित्री लिखती है –
हक़ की आँधियाँ चलती हैं / सूखे पत्ते तक नहीं हिलते ( पृ. – 93 )
औरत को समाज शुरू से दबाता आया है, लेकिन उसका वुजूद बरकरार है | इसी कारण कवयित्री को लड़कियां नागफनी-सी लगती हैं –
अदम्य जिजीविषा से / एक उदाहरण बन /
प्रस्तुत होती हैं / लड़कियां /
नागफनी जैसी होती हैं / लगभग सभी लड़कियां ( पृ. – 116 )
कवयित्री ख़ुद हैरान है कि लड़कियां किस मिट्टी की बनी हैं जो दुनिया भर का जहर पी जाती हैं | वह औरत की तुलना अमीबा से करती, वह उसे संदेश देती है –
अब अपनी दिशा ख़ुद चुन / अपना अस्तित्व ख़ुद बुन ( पृ. – 86 )
वह उद्घोष करती है –
उस तथकथित / रिक्त शंख में /
प्रविष्ट हो चुका है / चेतना का जीव ( पृ. – 81 )
कभी वह कबीर-सूर के संदर्भों को लेकर अपने वुजूद को तलाशती है –
जुटी हुई हूँ अभी तक / स्वयं को खोजने में /
नहीं जानती क्या हूँ ? / कबीर का ‘नरक कुंड़’ /
तुलसी की ‘ताड़न अधिकारी ’ / लाचार अबला /
या पहले से 10 गुना वजन ढोती /
21 वीं सदी की ‘ कार्पोरेट सबला’ ? ( पृ. – 88 )
तो कभी वह पुरुष के दिए दर्द का आभार व्यक्त करती है, क्योंकि इसी दर्द के कारण वह अपने वुजूद को पहचान पाई | वह अपने बदलते तेवरों के बारे में लिखती है –
पर मैं बदल रही हूँ / उतार कर रख दिया है /
लुभावने अवरोधों को / पहन लिया है /
बौद्धिक चेतना के / अलंकारों को ; ( पृ. – 11 )
औरत होने के बाद वह एक कवि है और कवि की पीड़ा और दशा को भी बड़ी सटीकता से ब्यान करती है | कवि एक ही समय में आशावाद और निराशावाद के चोले बदलता रहता है | कवि की अन्यमनस्कता उसे हताश करती है | कवयित्री ने अतीत और वर्तमान की तुलना अनेक रूपों में की है | आधुनिकता के कुरूप पक्ष उसे दिखते हैं, तभी तो वह लिखती है –
सब कुछ है मौजूद / इन सभी इमारतों में /
सिवाय घर में रहने की / फुर्सत के... ( पृ. – 76 )
आधुनिक प्रेम के बारे में वह लिखती है –
रोज भरभरा कर गिरते हैं / द्रव्य प्रधान प्रेम के /
नवीन ताजमहल / आखिर नींव में भरा /
अविश्वास का मसाला / और कितना चलेगा ( पृ. – 66 )
एक शहर की व्यथा को व्यक्त करते हुए वह कहती है –
फेफड़ों तक लबालब हूँ / धुएँ के सैलाब से /
बीमार-सा दिखने लगा हूँ ( पृ. – 68 )
खोते हुए बचपन की उसे चिंता है –
42 इंच के टी.वी और / 9 इंच के आईपोड में /
चिंकू मिंकू सिमट गया ( पृ. – 71 )
वह शिक्षा को बोझ बना देने वाली नीतियों पर सवाल उठाती है, तो बचपन को फिर से जीने का आह्वान करती है | उसे इंटरनेट मोबाईल की तकनीक पर सवार शहर से अच्छी लगती है अपने कस्बे की अँधेरे में लिपटी चाँद वाली रातें |
कवयित्री को लगता है कि जीवन मूल्य अब कथा कहानियों के पृष्ठों तक सिमट कर रह गए हैं | ‘ रावण ’ कविता में वह लिखती है –
रावण कहाँ जल पाता है पूरा ?
उसे तो मैं संग अपने / घर लेकर आती हूँ ( पृ. – 57 )
वह व्यक्ति के उस दोगलेपन को दिखाती है, जिसके चलते हम इंडिया गेट पर केंडल मार्च में शामिल होते हैं, लेकिन असल में हमारी स्थिति कुछ और है –
मैं चुपचाप गांधारी बन / निकल लेती हूँ
सड़क पर घायल पड़ी / नग्न युवती को देखकर ( पृ. – 56 )
वह प्रश्न करती है –
विषैले हो चुके / बीजों से /
अपंग हुए फावड़े / और कुंद हो चुकी /
खुरपी से / कैसे बनाओगे /
क्यारियाँ नवीन ?... ( पृ. – 46 )
वह आगाह भी करती है –
मगर सुन लो / तुम्हें सोने नहीं देंगी /
उम्र भर / बाहर अँधेरे में /
अलाव सी चमकती / वो रक्तिम आँखें ! ( पृ. – 70 )
आदमी की बर्बरता, इंसानियत के हार उसे सभी सभ्यताओं में दिखती है –
और हर सभ्यता की गहराई में / एक ही बात /
टूटे हुए खिलौने / प्रेमी युगल की लाश /
जली हुई औरतें / और बिखरी पड़ी हड्डियों की कतार ( पृ. – 49 )
व्यंग्य भी अल्पना नागर की कविताओं का प्रमुख सुर है | वह चापलूसों पर व्यंग्य करते हुए कहती ही –
पूंछ हिलाते कुत्ते जयघोष में व्यस्त ( पृ. – 83 )
वह चिकित्सा के पेशे के पतन का सजीव चित्रण करते हुए लिखती है –
सुना था कभी / चिकित्सक ‘भगवान ’ होते हैं !! ( पृ. – 75 )
वह उन साहित्यकारों पर तंज कसती है, जो अपने पद के बूते छपते हैं –
अफसरी ओहदे के हिसाब से / तय होती हैं किताबें /
पन्ने, जिल्द और छपाई ( पृ. – 61 )
वह मंच और नेपथ्य के अंतर को दिखाती है, वह बताती है कि मन्दिरों पर बल है जबकि प्रार्थना उपेक्षित है | वह सर्दी के सूरज का, प्रकृति का, दोपहर का, रात की बारिश का, लम्हों का, भोगी यादों भरी शाम का सजीव चित्रण करती है | धरती की पीड़ा का ब्यान करती है | उसे जीवन मृत्यु से अलग नहीं दिखता | उसे लगता है रिश्ते आसमान से बनकर आते हैं |
प्रेम को उसने अपने नजरिये से देखा है | यादों में डूबी वह अंधविश्वासी होने लगी है | प्रिय के प्रभाव से सब कुछ खुशनुमा हो जाता है | वह अपने प्रेम को शिशु के प्रेम-सा मूक और निश्छल मानती है, जिसे लेन-देन और सूदखोर स्नेह की परवाह नहीं | मिलन के क्षणों के लिए वह प्रियतम से मांग करती है –
हो सके तो / उस रोज / घड़ी की जगह
फुरसत बाँध के आना / कलाई पर ... ( पृ. – 37 )
वह उसे बताती है –
कभी फुरसत मिले तो / रुकना / यादों के किसी /
स्टेशन पर / हम आज भी / वहीं मिलेंगे /
कोई किताब हाथ में लिए / आँखों में वही कशिश /
और अपनेपन की / कटिंग चाय लये ... ( पृ. – 39 )
साथी को वह चश्मे के लैंस के रूपक में बांधती है –
मैं नहीं कहती / तुम श्वास, प्राण या /
जीने की अनिवार्य शर्त हो.. / काम चल जाता है /
तुम्हारे बिना भी / हाँ मगर धुंधला-सा नजर आता है ( पृ. – 26 )
इस लैंस पर अहम के कण चिपकने पर वह उन्हें प्रेम के शब्दकोश में डूबे रुमाल से पोंछ लेती है | मित्रता के बारे में वह लिखती है –
उसका अपना कोई रंग नहीं / हर रंग उस पर चढ़ जाता है /
उसका अपना कोई स्वाद नहीं / हर स्वाद उसी में घुल जाता है ( पृ. – 28 )
औरत का प्रेम यहाँ समर्पण का दूसरा नाम है, वहीं पुरुष हर चीज पर कब्जा जमाना चाहता है | पुरुष की इसी सोच को कवयित्री यूँ ब्यान करती है –
वो चाहता था कि / दुनिया की हर कीमती चीज की तरह /
चाँद भी उसके ‘निजी संग्रहालय’ / का हिस्सा बने ! ( पृ. – 79 )
पुरुष की यही सोच प्रेम का गला घोंट देती है |
भाव पक्ष से समृद्ध यह कविता-संग्रह शिल्प पक्ष से भी उल्लेखनीय है | कवयित्री मानवीकरण के माध्यम से अपनी बात कहने में विश्वास रखती है | उपमाओं और रूपकों से कविताओं को सजाती है | बिम्बों की भरमार है | तत्सम शब्दावली के साथ उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग भी खुलकर हुआ है, जो कविता की भाषा को सरस बनाता है | संक्षेप में, सुंदर कविता-संग्रह के लिए कवयित्री बधाई की पात्र है |
दिलबागसिंह विर्क
1 टिप्पणी:
बढ़िया समीक्षा. सुन्दर पंक्तियाँ.
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