काव्य-संग्रह - निदा फ़ाज़ली ( ग़ज़लें, नज़्में, शे 'र और जीवनी )
संपादक - कन्हैयालाल नन्दन
प्रकाशन - राजपाल
पृष्ठ - 160 ( पेपरबैक )
कीमत - 150 / -
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए ।
हिंदी-उर्दू शायरी का शौकीन ऐसा कौन है, जो इन पंक्तियों से अपरिचित होगा । इन पंक्तियों के शायर हैं - निदा फ़ाज़ली । राजपाल प्रकाशन के आज के प्रसिद्ध शायर श्रृंखला में " निदा फ़ाज़ली : गज़लें, नज़्में, शे'र और जीवनी " पुस्तक का संपादन किया है - कन्हैयालाल नन्दन ने । इस पुस्तक में शामिल रचनाओं में निदा फ़ाज़ली के फलसफे को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है ।
निदा के लिए बच्चे विशेष प्रिय रहे होंगे, तभी उनकी अहमियत मस्जिद से ज्यादा है । इतना ही नहीं बच्चों के माध्यम से उन्होंने अपने फलसफे को ब्यान किया है । अनेक दृश्यों के चित्रण में उन्होंने बच्चों को विषय बनाया है । वे शाम के फरिश्तों को सावधान करते कहते हैं -
ए शाम के फ़रिश्तो ज़रा देख के चलो
बच्चों ने साहिलों पे घरौंदे बनाए हैं ।
वे बच्चों के लिए मौला से मांग करते हैं -
गरज-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाना, बच्चों को गुड़धानी दे मौला ।
दिन-रात के वर्णन में भी वे बच्चों का रूपक बांधते हैं -
बच्चों से हुमकती शब, गेंदों से उछलते दिन
चेहरों से धुली ख़ुशियाँ, बालों-सी खुली उलझन ।
अपने भीतर की हलचल को वे बच्चों को खेल-सा मानते हैं -
साहिल की गीली रेत पर, बच्चों के खेल-सा
हर लम्हा मुझमें बनता बिखरता हुआ सा कुछ ।
वे बच्चों की शरारतों के पक्षधर हैं -
पड़ोसी के बच्चों को क्यों डांटती हो
शरारत तो बच्चों का शेवा रहा है ।
पति-पत्नी की जुदाई में वे उसे सौभाग्यशाली मानते हैं जिसके पास बच्चे होते हैं -
मुझसे पूछो कैसे काटी मैंने पर्वत जैसी रात
तुमने तो गोदी में लेकर घण्टों चूमा होगा चाँद ।
उनका मानना है कि हमारा किताबी ज्ञान ही हमारा बचपन छीन लेता है -
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद-सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे।
वह नील गगन में बैठे खुदा से कहते हैं -
चुप-चुप हैं आँगन में बच्चे
बनकर गेंद / इन्हें बहलाओ ।
' रौशनी के फरिश्ते ' नज़्म में वे बच्चों के स्कूल जाने का वर्णन बड़ी खूबसूरती से करते हैं । सूरज का उगना, सडक किनारे मुस्कराना, हवाओं का दुआओं के गीत गाना, फरिश्तों का रास्ते चमकाना बच्चों के स्कूल जाने के लिए ही है । इस नज़्म की अंतिम पंक्तियाँ देखें -
पुरानी एक छत पे वक्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
जैसे वे बच्चों को हर शै में देखते हैं वैसे ही वे नज़्म ' बेसन की सोंधी रोटी ' में माँ को हर जगह पाते हैं -
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन, थोड़ी-थोड़ी-सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी-सी माँ
।
माँ हर जगह है तो वालिद को वे अपने से अलग नहीं मानते, इसलिए उन्हें उनकी मौत की खबर झूठी लगती है और वे कह उठते हैं -
तुम्हारी कब्र में मैं दफ़न हूँ
तुम मुझमें ज़िन्दा हो
बच्चों, माँ-बाप से इतना लगाव रखने वाला शायर रिश्तों की असलियत पर दुखी तो होता ही होगा क्योंकि आज के रिश्ते स्वार्थ पर आधारित हैं और शायर इनसे वाकिफ है । वे लिखते हैं -
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम संभल सको तो चलो ।
यही स्वार्थ रिश्तों का लिवास मैला करता है -
कोई किसी से खुश हो, और वो भी बारहा हो, ये बात तो गलत है
रिश्ता लिवास बनकर मैला न हुआ हो , ये बात तो गलत है ।
उनका मानना है कि हर रिश्ते का अंत होता है -
हर रिश्ते का अंजाम यही होता है
फूल खिलता है / महकता है / बिखर जाता है
इसके बावजूद उनका जोर मिलते-जुलते रहने पर है -
मिलना-जुलना जहाँ ज़रूरी हो
मिलने-जुलने का हौंसला रखना ।
वे जब दूसरों से राब्ता रखने को कहते हैं तो खुद का आत्ममंथन करने की बात भी करते हैं -
जानेवालों से राब्ता रखना
दोस्तो, रस्मे-फ़ातहा रखना ।
जब किसी से गिला रखना
सामने अपने आईना रखना ।
सियासत और सरहदें रिश्तों को, दोस्ती को तोडती हैं इसका दुःख उनकी शायरी में झलकता है । अमरीका के व्यवहार को वे एक दोहे में ब्यान करते हैं -
सात समुन्दर पार से, कोई करे व्यापार
पहले भेजे सरहदें, फिर भेजे हथियार ।
' पासपोर्ट आफिसर के नाम ' नज़्म में माँ का कराची और बेटे का बम्बई में होना उन्हें सालता है । यह दुःख उनकी अन्य नज़्मों और ग़ज़लों में भी झलकाता है -
हिन्दू भी मज़े में है मुसलमाँ भी मज़े में
इंसान परेशान यहाँ भी है, वहाँ भी ।
नफ़रतों के लिए सियासत के साथ-साथ साहित्यकार भी दोषी हैं -
आसमाँ, खेत, समंदर, सब लाल
ख़ून काग़ज़ पे उगा था पहले ।
और इसका हल सुझाते हुए वे लिखते हैं -
गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे ।
बच्चन को जैसे मधुशाला एकता की प्रतीक लगती है, उसी तरह निदा फ़ाज़ली को तवायफ का कोठा कौमी एकता का प्रतीक दिखता है ।
शायर अधूरेपन को भी बड़ी शिद्दत से महसूस करता है -
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता ।
वैसे यह अधूरापन सबका मुकद्दर है । उनका अधूरापन पूरे में बदलता तो है लेकिन उन्हें इस बात की शिकायत है कि उनका अधूरापन दूर तो हुआ मगर देर से -
कहीं छत थी, दीवारो-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िंदगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से ।
हालांकि वे समझते हैं कि तलाश में उम्र बीत जाती है -
गुजर जाती है यूँ ही उम्र सारी
किसी को ढूँढते हैं हम किसी में ।
लेकिन वे दूसरा पहलू भी देखते हैं, कोई एक सबमें विद्यमान है -
कहीं आँखें, कहीं चेहरा, कहीं लब
हमेशा एक मिलता है, कई में ।
सब उसी का रूप दिखते हैं -
देखा था जिसे मैंने कोई और था शायद
वो कौन है जिससे तेरी सूरत नहीं मिलती ।
उनकी यही विचारधारा उन्हें रहस्यवाद की ओर ले जाती है -
तुम को देखा तो नहीं है लेकिन
मेरी तन्हाई में / ये रंग-बिरंगे मंज़र
जो भी तस्वीर बनाते हैं / वह तुम जैसी है
यही रहस्यवाद यहाँ भी झलकता है -
जानता नहीं कोई
किसका किस जगह घर है !
इसी कारण वे खुद को भी खामोशियों द्वारा अभिव्यक्त करना चाहते हैं -
मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का
मैं हूँ ख़ामोश जहाँ मुझको वहाँ से सुनिए ।
उनकी शायरी उनकी दार्शनिकता भी बयाँ करती है । कृष्ण की तरह वे खुद को सृष्टि के कण-कण में व्याप्त पाते हैं
कल भी मुझमें / आज भी मुझमें
चारों और दिशाएं मेरी
वे मस्जिद कि बजाए दिल को अहमियत देते हैं -
मस्जिदें है नमाज़ियों के लिए
अपने दिल में कहीं ख़ुदा रखना ।
मन्दिर की बजाए मीरा का पक्ष लेते हैं -
फिर मूरत से बाहर आकर चारों ओर बिखर जा
फिर मंदिर की कोई ' मीरा ' दीवानी दे मौला ।
वे समझदारी की अपेक्षा नादानी को महत्त्व देते हैं -
दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है
सोच-समझवालों को थोड़ी नादानी दे मौला ।
घर कैसा भी हो मगर एक कोना ऐसा भी हो यहाँ रोया जा सके -
घर की तामीर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की कुछ जगह रखना ।
वे आवारगी की बात तो करते हैं, लेकिन इसके लिए भी सलीका चाहिए -
बहुत मुश्किल है बनजारा मिज़ाजी
सलीक़ा चाहिए आवारगी में ।
आज के लोग सुने-सुनाए दर्शन पर विश्वास करते हैं, खुद किसी को कोई अहसास नहीं -
आँखों देखी कहने वाले पहले भी कम-कम ही थे
अब तो सब ही सुनी-सुनाई बातों को दोहराते हैं ।
वे स्वर्ग-नर्क की बात करने की बजाए कहते हैं -
यही ज़मीं हक़ीक़त है / इस ज़मीं के सिवा
कहीं भी कुछ नहीं / बीनाइयों का धोखा है
जिंदगी क्या है ? कवि बड़े खूबसूरत शब्दों में कहता है -
धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो
ज़िंदगी क्या है, किताबों को हटाकर देखो ।
जीने के अनेक तरीके वे ढूंढते हैं । जीने का ढंग बताते हुए वे कहते हैं -
बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए ।
जीने के लिए वे कतरे-कतरे से मुहब्बत का संदेश देते हैं -
सिर्फ़ आँखों से ही दुनिया नहीं देखी जाती
दिल की धड़कन को भी बीनाई बनाकर देखो ।
पत्थरों में भी ज़बाँ होती है दिल होते हैं
अपने घर के दरो-दीवार सजाकर देखो ।
वो सितारा है चमकने दो यूँ ही आँखों में
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो ।
फ़ासला नज़रों का धोका भी तो हो सकता है
चाँद जब चमके ज़रा हाथ बढ़ाकर देखो ।
वे जिंदादिली की बात करते हैं -
वही है ज़िंदा / जो चल रहा है /
वही है ज़िंदा / जो गिर रहा है, सँभल रहा है /
वही है ज़िंदा / जो लम्हा-लम्हा / बदल रहा है /
वे यकीन की बात भी करते हैं -
सफ़र को जब भी किसी दास्तान में रखना
क़दम यक़ीन में, मंज़िल गुमान में रखना ।
बिना मेहनत यहाँ कुछ नहीं मिलता -
दिल में न हो जुर्अत तो मुहब्बत नहीं मिलती
खैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती ।
लेकिन वे किस्मत को भी महत्त्व देते हैं -
सवाल तो बिना मेहनत के हल नहीं होते
नसीब को भी मगर इम्तहान में रखना ।
लेकिन तमाम बातों के बावजूद जिंदगी कभी-कभी अनजान रास्तों पर चल पड़ती है, ऐसे में खुद को भ्रम में रखकर जीना पड़ता है -
कभी-कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे, औरों को समझाया है ।
वे लोगों के जीने के अलग-अलग नजरिये को बयाँ करते हुए कहते हैं -
इस धरती पर आकर सबका अपना कुछ खो जाता है
कुछ रोते हैं कुछ इस ग़म से अपनी ग़ज़ल सजाते हैं ।
और इसी नजरिये के तहत ही वे शायरी को भी परिभाषित कर जाते हैं -
जो खो जाता है मिलकर ज़िंदगी में
ग़ज़ल है नाम उसकी शायरी में ।
लेकिन शायरी के बारे में भी उनकी रहस्यवादी विचारधारा बरकरार है -
शायरी वहाँ है / जहाँ शायरी नहीं होती
उनकी शायरी में नश्वरता का संदेश भी है -
इक मुसाफिर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया
कोई जल्दी में कोई देर में जाने वाला ।
उनकी दोस्ती भी इसी नश्वरता की भेंट चढ़ती है -
दिन सलीके से उगा रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही ।
वे आदमी की फितरत से परिचित हैं और उसका बड़ा सुंदर वर्णन करते हैं -
कुछ तबीअत ही मिली थी ऐसी,
चैन से जीने की सूरत न हुई
जिसको चाहा उसे अपना न सके
जो मिली उससे मुहब्बत न हुई ।
दूर के ढोल सदा आदमी को सुहाते हैं -
मिलने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैं...
जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है ।
वे कभी आशा का दामन थामते हैं तो कभी समझौते का । वो जो हुआ उसे भूलने की बात करते हुए कहते हैं -
उठ के कपड़े बदल, घर से बाहर निकल, जो हुआ सो हुआ
रात के बाद दिन, आज के बाद कल, जो हुआ सो हुआ ।
जब तलक साँस है, भूख है प्यास है, ये ही इतिहास है
रख के काँधे पे हल, खेत की ओर चल, जो हुआ सो हुआ ।
ये आशावाद कभी समझौते में भी बदल जाता है और जो है उसी को स्वीकार करने की बात वे कहते हैं -
जैसी होनी चाहिए थी वैसी तो दुनिया नहीं
दुनियादारी भी जरूरत है, चलो यूं ही सही ।
लेकिन वे मौला से सच की तरफ होने की मांग करते हैं -
फिर रौशन कर ज़हर का प्याला, चमका नई सलीबें
झूठों की दुनिया में सच को ताबानी दे मौला ।
शहरीकरण से बचने का संदेश देते हुए वे कहते हैं -
अच्छी नहीं है शहर के रस्तों की दोस्ती
आँगन में फ़ैल जाए न बाज़ार देखना...!
उन्हें डर है -
जिस्म में फैलने लगा है शहर
अपनी तनहाइयाँ बचा रखना ।
शहरों में भीड़ तो है, मगर साथ नहीं -
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी ।
बाज़ार का दस्तूर यह है कि कोई भी आपको समझता नहीं -
मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन ।
बाज़ार का डर उन पर इस कद्र हावी है कि न तो उन्हें अपना घर अपना लगता है -
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं ।
और न ही वे खुद को पहचान पाते हैं -
मैं उसकी परछाईं हूँ या वो मेरा आईना है
मेरे ही घर में रहता है मेरे जैसा जाने कौन ।
इसीलिए वे सबको सचेत करते हुए कहते हैं -
हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना ।
जुदाई और याद के बिना तो हर शायरी अधूरी होती है । निदा फ़ाज़ली की शायरी में जुदाई के भी अनेक रंग हैं और यादों के भी । जब कोई जुदा होता है तो सिर्फ जिस्म से ही जुदा नहीं होता, इसका अहसास जुदाई के बाद ही होता है -
उसको रुख़्सत तो किया था मुझे मालूम न था
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला ।
जुदाई के बाद बीता वक्त उम्र भर का साथी बन जाता है -
बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुजर क्यों नहीं जाता ।
शायर को पता है कि वह अकेला ही चेहरा नहीं लेकिन इसके बावजूद वह दिल से नहीं उतरता -
वो एक ही चहरा तो नहीं सारे जहां में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता ।
हर शख्स में प्रियतम का दिखना भूलने कब देता है -
कहीं-कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है
तुमको भूल न पाएँगे हम ऐसा लगता है ।
हर मौसम प्रिय की याद दिलाता है -
जब भी किसी निगाह ने मौसम सजाए हैं
तेरे लबों के फूल बहुत याद आए हैं ।
भूलने कि कोशिशें और याद दिलाती हैं -
तुमसे छूट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था
तुमको ही याद किया, तुमको भुलाने के लिए ।
इसके बावजूद कभी-कभी शायर को लगता है कि वक्त के साथ-साथ जख्म भर रहे हैं -
शायद कुछ दिन और लगेंगे जख्मे-दिल के भरने में
जो अक्सर याद आते थे वो कभी-कभी याद आते हैं ।
लेकिन भूलने की बात करते हुए भी शायर न भूलने की बात करता है, क्योंकि भूलना तो बेवफाई है, इसलिए उसका संदेश है -
जो साथ है वही घर का नसीब है लेकिन
जो खो गया है उसे भी मकान में रखना ।
वे दुखी होकर रोने-धोने में विश्वास नहीं रखते, अपितु कहते हैं -
अपना ग़म ले के कहीं और न जाया जाए
घर में बिखरी हुई चीजों को सजाया जाए ।
प्रकृति उनके इस संग्रह में हर जगह मौजूद है । मानवीकरण के खूबसूरत नमूने हैं । सूरज नटखट बालक , शाम थकी-हारी माँ और सहर मकतब में पढ़ने वाली बालिका है । निदा फ़ाज़ली को पढ़ना और ग़ज़लों में सुनना अनूठा अहसास देता है और ऐसा इसलिए कि उनके शब्द, उनके अहसास अपने से लगते हैं । उनके अल्फ़ाज़ सार्वभौमिक सच की तरह हैं -
अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी क़रीब रहे, दूर ही रहे ।
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दिलबाग सिंह विर्क
5 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर
Waah bahut sundar aalekh
बहुत सुन्दर .. सराहनीय प्रयास।
निदा फ़ाज़ली जी की ग़ज़ल बहुत-ही लाजवाब होती है..
यह संग्रह भी बहुत ही अनुपम होगा..
सुन्दर विश्लेषण..
बहुत सुंदर और विस्तार से लिखा है सब। बधाई आपको। निदा फ़ाज़ली कीी गज़ले फिर से याद करा दी। धन्यवाद
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