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सोमवार, जून 27, 2016

आशा, निराशा, अविश्वास और विद्रोह की बात करता संग्रह

कविता-संग्रह – अकुलाहटें मेरे मन की
कवयित्री – महिमा श्री 
प्रकाशक – अंजुमन प्रकाशन 
पृष्ठ – 112 ( पेपरबैक )
कीमत120/- ( साहित्य सुलभ संस्करण के अंर्तगत 20/- ) 
समाज में व्याप्त बुराइयाँ,  भेद-भाव हर भावुक इंसान को व्याकुल करते हैं | कवयित्री ‘ महिमा श्री ’ भी इसी व्याकुलता को अपने कविता संग्रह “ अकुलाहटंक मेरे मन की ” में अभिव्यक्ति करती है | समसामयिक मुद्दों को लेकर भी उनकी कलम चलती है और शाश्वत मुद्दों पर भी |

स्त्री होने के नाते स्त्री वर्ग की समस्याओं को उठाना स्वाभाविक ही है, लेकिन कहीं-कहीं वह पुरुष वर्ग के खिलाफ उग्र रूप भी धारण करती है | तेज़ाब फैंके जाने की घटना पर लिखी कविता ‘ तुम सब ऐसे क्यों हो ? ’ में वह पुरुषों को धिक्कारती है | ऐसे लगता है कि उसे पुरुष जाति के ऊपर विश्वास ही नहीं | हर पुरुष जैसे वहशी हो, तभी तो वह लिखती है – 
आदमी की भूख / उम्र नहीं देखती / ना ही देखती है / 
देश, धर्म और जात / बस सूंघती है / मादा गंध  ( पृ. – 17 ) 
इसी वहशीपन को देखते हुए वह कहती है – 
फंसना नहीं है मुझे / तुम्हारे जाल में ( पृ. – 36 )
वह पुरुष को चेतावनी भी देती है – 
स्वामित्व के अहंकार से / बाहर निकलो / सहचर बनो /
सहयात्री बनो / नहीं तो ? हाशिये पे अब / तुम होगे ( पृ. – 38 )
इस धरती पर हो रहे विनाश का कारण वह मनु-पुत्रों को ठहराती हुई उनसे प्रश्न करती है – 
अरे ओ श्रेष्ठी / बेचकर धरती की गोद / 
कहाँ अब सुख की नींद पाओगे ? ( पृ. – 88 )
उसे पुरुष का न तो देवता होना स्वीकार है, और न ही उसके साथ चलने की ललक है वह तो उसे कहती है – 
भरमाओ मत / देवता बनने का स्वांग / बंद करो /
साथ चलना है, चलो / देहरी सिर्फ़ मेरे लिए / 
हरगिज नही... ( पृ. – 37 )
पुरुष पर अविश्वास तो है ही, साथ ही दहेज, भ्रूण हत्या जैसी घटनाएं समाज में हो रही हैं | मिथिहास में वह रावण के व्यवहार, अहिल्या की प्रतीक्षा और अग्निपरीक्षा जैसी घटनाओं से व्यथित है, इसीलिए वह कहती है कि कैसे करूं मैं प्रेम ? और अगर वह प्यार करती भी है तो उसे शर्तें मिलती हैं, जो उसे स्वीकार नहीं, इसलिए वह कह उठती है – 
अब बचके चलती हूँ हर तूफ़ान से ( पृ. – 105 )
वह न सिर्फ़ प्यार से बचना चाहती है, बल्कि पिता द्वारा वर ढूंढें जाने के भी विरुद्ध है –
खर्च कर लाखों लाते हो / 
छानबीन कर एक जोड़ी अदद हाथ /
जो बनेगा तुम्हारी बेटी का जीवन रक्षक / 
पर क्या होता है सही ये फैसला हर बार ( पृ. – 39 )
वह स्त्री को उसकी वास्तविक स्थिति याद करवाती है – 
शोक गीत गाओ / भूल गयी / तुम स्त्री हो ! ( पृ. – 16 )
लड़की की दास्ताँ को दो कविताओं में ब्यान करते हुए, वह लड़की को भी चेताती है – 
उत्सव तो / अगले जन्म में नसीब होगा /
या / कई जन्मों के बाद  ( पृ. -  87 )
लेकिन वह बदलाव की तरफ इशारा भी करती है – 
समझा हमें अभी तक / अबला और ना जाने क्या-क्या / 
की हर धारणाएँ तोड़ने की / घड़ी आई है अब  ( पृ. – 67 )
वह पिता को आह्वान करते हुए कहती है – 
भरो उनमें साहस / दो उनकी उड़ान को दिशा / 
राह में मत रोको, मत टोको  / बनो मार्गदर्शक / 
जब तक नहीं बनेगी साहसी / तब तक कभी भी /
कहीं भी नहीं रहेगी सुरक्षित / समाज में बेटियाँ  ( पृ. – 39 )
समाज में पुरुष-स्त्री की दशा ही उसे विद्रोही बनाती है, और वह कह उठती है – 
मैं करूंगी प्रतिकार / तुम्हारे समाज से ( पृ. – 77 )
हालांकि उसे यह भी लगता है कि – 
परंपरा की ये थाती / मैं भी संभालुंगी एक दिन ( पृ. – 40 )
पुरुष-स्त्री संबंधों से हटकर देखें तो उसे माँ से लगाव है, माँ से जुडी यादें उसे भूलती नहीं | माँ के बारे में वह लिखती है – 
तुम्हारी गोद ही मेरा स्वर्ग है माँ / 
तुम्हारा स्नेह ही तो मेरी संजीवनी / 
माँ तुम हो तभी मैं हूँ   ( पृ. – 55 )
माँ का बताया जीवन-दर्शन उसे याद है – 
तुमने ही कहा था न माँ / चिड़िया के बच्चे / 
जब उड़ना सीख जाते हैं / तो घोंसलों को छोड़ /
लेते हैं ऊँची उड़ान / और दूर निकल जाते हैं ( पृ. – 35 )
शायद इसी दर्शन का प्रभाव है कि वह चुने हुए रास्तों पर चलना नहीं चाहती – 
रोको मत मुझे / तुम्हारी मंज़िल नहीं चाहिए /
अपना रास्ता चुन लिया है मैंने / भटकने दो, भटकूँगी /
पर वो भटकन मेरी होगी   ( पृ. – 13 )
वह उड़ना-दौड़ना चाहती है, प्रकृति को गोद में समेटना चाहती है, घने जंगलों में खोना चाहती है | वह कहती है कि रोको मत, ठहर नहीं पाऊँगी | वह सागर-सी विशाल, हिमाला-सी ऊँची, चांदनी-सी उज्ज्वल और ध्रुव तारे-सी अटल होना चाहती है | 
वह आशावाद और निराशावाद के बीच झूलती है | जीवन में आने वाले अनेक दोराहों से गुजरने की बात करती है | उसका मानना है कि भावुक लोगों को दुनिया वाले उपेक्षा का पात्र समझते हैं, क्योंकि वे वहशीपन की दौड़ में शामिल नहीं होते | ज़िन्दगी को समझना चाहती है, तो नतीजा ढाक के तीन पात मिलता है | निराशा जब हावी होती है तो – 
जीवन रीता-सा लगता है / सब रंग फीका लगता है ( पृ. – 97 )
भीतर खालीपन दिखता है – 
बतकही कितनी भी कर लूं / 
रहता है खाली खाली अन्तस का कोना ( पृ. – 31 )
इसी निराशा के कारण वह खुद को अपने भीतर समेट लेती है – 
मैंने कहीं भी नहीं खुले रखे हैं दरवाजे /
डाल रखे हैं दरवाजों पे बड़े-बड़े ताले / ( पृ. – 29 )
निराशा के कारण वह विनाश चाहती है, लेकिन इस निराशा में भी नव सृजन की आशा निहित है – 
सब खत्म हो जाने दो / तभी शायद शुरू होगा / 
सृजन का नया दौर   ( पृ. – 106 )
आशावाद की और भी बहुत-सी झलकियाँ इस संग्रह में मिलती हैं | अँधेरा तो क्षणभंगुर है – 
सूरज को तो आना है प्रतिदिन / 
घनघोर अँधेरा तो मेहमान है / कुछ पल का ( पृ. – 23 )
वह दृढ़ता पर से चलने की पक्षधर है – 
अँधेरा घना है तो क्या / रास्ते बंद हैं तो क्या /
चल पड़ो दृढ़ता के साथ ( पृ. – 96 )
वह हिम्मत न हारने का संदेश देती है –
ईश्वर ने तुम्हें गर / नर्क दिया है तो / स्वर्ग का रास्ता भी /
कहीं खुला रखा होगा / बस / हिम्मत मत हारना ( पृ. – 50 )
वह नियति को चुनौती देती है – 
इंसां जब हिम्मत से जोर लगाएगा / 
उसी पल तू हर जाएगी ( पृ. – 52 )
आशा-निराशा के अतिरिक्त वह जीवन की नश्वरता में विश्वास रखती है – 
सूरज का उदय के बाद डूबना / 
दिन के बाद रात का आना /
शायद यही सच है ( पृ. – 61 )
लेकिन इस सच से घबराना कैसा – 
है अंत सभी का एक दिन / तो फिर घबराना कैसा ( पृ. – 23 )
              इस सच को जानते हुए वह जीवन के हर पल में स्वीकृति को महत्त्व देते हुए यह संदेश देती है – 
बाँहें फैलाकर स्वीकार कर लो /
जिसे व्यर्थ समझ ठुकराया था अब तक /
क्योंकि तभी आसां हो पाएगी / 
मृत्यु के इन्तजार की अवधि ( पृ. – 32 )
और इसी स्वीकृति का परिणाम उसकी यह जीवन शैली है – 
ज़िन्दगी / कभी नदी-सी / कभी टुकड़ों की 
जैसे भी पाया / बस जी डाला  ( पृ. – 33 )
वह आदमी की त्रासदी से परिचित है –
मगर वो नहीं जानता कि / 
मृगमारीचिका की इस स्थिति में /
उसे सिर्फ़ रेत ही मिलेगी / और शायद हर आदमी की / 
यही त्रासदी है ( पृ. – 26 )
उसे कल्पना पर अविश्वास है – 
आकाश में तारे गिनने / या दिन में सपने देखने से /
होता नहीं कुछ हासिल ( पृ. –  75 )
हालांकि वह इसके दूसरे पहलू को भी देखती है – 
कल्पना के पर लग जाना ही / 
मनुष्य की सुखद स्मृतियों का /
पहला अहसास है ( पृ. – 26 )
कवयित्री भारतीय सभ्यता और संस्कृति का गुणगान करती है | सैनिकों के लिए दुआएं मांगती है | बुद्धिजीवियों पर व्यंग्य करती है | उसे लगता है सद्दाम और गांधी महत्त्वकांक्षाओं का परिणाम होते हैं | जीवन में क्या-क्या असरदार है, इसका वर्णन करती है, लेकिन वे असरदार क्यों हैं, यह नहीं बताती | उसे लगता है मृत्यु शैय्या पर लेटे आदमी के सपने छूटने लगते हैं | साथी के मौन पर दीवारें, दरवाजे मुखर हो उठते हैं | लौटना उसे मुमकिन नहीं लगता | बीतने भर से बात नहीं बीत जाती, क्योंकि बीते कल का हिसाब होता है, लेकिन साथ ही वह यह भी कहती है, कि समय के हर पल का हिसाब नहीं होता | समय भले आगे चलता है, लेकिन मन आगे भी चलता है तो पीछे भी | उसे लगता है कि सुख हवा के झोंके की भांति सरसरा कर निकल जाता है | वह चीजों को दूर नहीं पास देखने में विश्वास रखती है – 
कहीं दूर भटकने से बेहतर है / अपने पास ही ढूंढें 
वहीं कहीं हमारी जमीन मौजूद है ( पृ. – 68 )
वह अपने गाँव को याद करती है, किसानों की दुर्दशा का चित्रण करती है | सावन ऋतु का वर्णन करती है, सावन की बारिश में गरीबों की दशा को देखती है | दंगों के बाद आदमी की दुविधा का वर्णन करती है | लन्दन में गायों के कत्लेआम पर कृष्ण को पुकारती है | परेशान ज़िन्दगी से बचाने के लिए कोई तो आए, इसका निवेदन करती है | चाँद-चांदनी के माध्यम से संदेश देती है – 
एक दूसरे के बिना / नहीं चलता यह संसार  ( पृ. – 84 )
पानी का महत्त्व दर्शाते हुए लिखती है – 
जल बिन मछली मर जाए /
औ बिन जल सब मछली बन जाएँ ( पृ. – 89) 
वह नकाब रहित होने के पक्ष में है – 
दुनिया गर नाटक है तो / हम कब तक रहेंगे एक्टर 
कभी तो आने दो हमको / जो हैं हम / हम बन कर.... ( पृ. – 44 )
कविता में महत्त्व भाव का होता है या शिल्प का, इस पर एकमत नहीं हुआ जा सकता | कवयित्री की नजर में कविता क्या है, इसे वह बड़े सुंदर ढंग से कहती है – 
कविता कुछ इधर-उधर से / जोड़े गए शब्दों का / 
जमघट नहीं होता / बल्कि उसमें होता है / 
अनछुआ दर्द / एक ख़ामोशी, एक अहसास  ( पृ. – 70 )
भले ही कवयित्री शब्दों से ज्यादा महत्व अहसास को देती है , लेकिन इस संग्रह में शब्दों की कलात्मक पेशकारी हुई है | कवयित्री ने पद मैत्री, पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार का भरपूर प्रयोग किया है | विरोधी शब्द युग्म की भी भरमार है, लेकिन इससे कविता की सुन्दरता में बाधा नहीं पहुंचती, अपितु सौन्दर्य बढ़ता ही है | कवयित्री की शैली वर्णनात्मक है, लेकिन अनेक दृश्य भी आँखों के सामने उभरते हैं | संबोधनात्मक शैली का भी भरपूर प्रयोग हुआ है | छंद मुक्त है, लेकिन तुकांत के अनेक उदाहरण मिलते हैं | 
संक्षेप में, यह संग्रह कवयित्री की आकुलता को भी ब्यान करता है और उसके उग्र तेवरों को भी | भाव पक्ष और शिल्प पक्ष दोनों दृष्टि से अनेक संभावनाएं जगाता है |
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दिलबागसिंह विर्क 
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3 टिप्‍पणियां:

Mahima Shree ने कहा…

बहुत सुन्दर आ. दिलबबागसिंह जी..जितनी मेहनत से आपने पढ़ा है, लिखा इसे पोस्ट भी बहुत सुसज्जित करके किया ...हृदयतल से आभार प्रेषित करती हूँ।

Anil Sahu ने कहा…

धन्यवाद.
-अनिल साहू

शिव राज शर्मा ने कहा…

गहन विश्लेषण करती हुई पोस्ट . बहुत अच्छा लगा

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