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मंगलवार, सितंबर 04, 2018

सुन्दरता के साथ सच का परचम लहराता ग़ज़ल-संग्रह


ग़ज़ल-संग्रह – सच का परचम
ग़ज़लकार – अभिनव अरुण
प्रकाशक – अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद
पृष्ठ – 112
कीमत – 120 /- (साहित्य सुलभ संस्करण – 20 /-)
आज की ग़ज़ल मै, मीना, साकी तक ही सीमित नहीं, बल्कि वह समाज की समस्याओं को लेकर चलती है | उसके तेवर तीखे हैं | वह चोट भी करती है और आदर्श समाज हेतु समाधान भी बताती है | अभिनव अरुण का ग़ज़ल-संग्रह ‘ सच का परचम ’ भी कुछ इसी तरह का ग़ज़ल-संग्रह है | इस संग्रह में 98 ग़ज़लें हैं, जिनमें इक्का-दुक्का शे’र ही परम्परागत ढाँचे के हैं, शेष सभी तो यथार्थ का ब्यान करते हैं | शाइर ख़ुद कहता है -
मेरी ग़ज़लों में कोई छल नहीं है
समस्याएँ बहुत हैं हल नहीं है | ( पृ. – 43 )

हालांकि वह सिर्फ यथार्थ दिखाने की बात करता है, लेकिन ऐसा नहीं है कि उसने हल बिलकुल नहीं सुझाया | वह वृद्धों को प्यार करने का सुझाव देता है -
उन छूटती साँसों को दो तुम नेह भी अपना
पेंशन की रकम से ही गुजारा नहीं होता | ( पृ. – 17 )
झूठ पर प्रहार करने की बात करता है -
झूठ जब भी सर उठाये वार होना चाहिए
सच को सिंहासन पे ही हर बार होना चाहिए | ( पृ. – 26 )
सत्ता को चुनौती देने के लिए विद्रोह का संदेश देता है -
चलो विद्रोह का छेड़ें तराना
ये सत्ता राग मद के गा रही है | ( पृ. -  74 )
महाभारत के प्रसंग के माध्यम से जागते रहने का संदेश देता है –
जागो रण में नींदें भारी पड़ती हैं
अभिमन्यु ने प्राणों का बलिदान किया | ( पृ. – 101 )
अपनी ग़ज़ल को लेकर उसका मानना है कि -
हर ग़ज़ल मेरे सीने की अंगार है
मुझको लोरी सुनाने की आदत नहीं | ( पृ. – 63 )
चाँद तारा नहीं है मेरी ग़ज़ल
मैंने सूरज उगाए रक्खा है | ( पृ. – 111 )
वह इंसानियत बोना चाहता है -
मुझको हैवानियत पर रोने दे
बीज इंसानियत के बोने दे | ( पृ. – 79 )
            इस ग़ज़ल-संग्रह का नाम ‘ सच का परचम ’ है | शाइर यह परचम ख़ुद उठाए हुए है, वह सच की प्रकृति बताता है –
है मुलम्मा चापलूसी
सत्य तो कड़वा ही ठहरा | ( पृ. – 66 )
कड़वी बात कहना कभी भी आसान कार्य नहीं हो सकता –
ये सितम ख़ुद पे ढाए रक्खा है
सच का परचम उठाए रक्खा है | ( पृ. – 111 )
सच बोलना जमाने को दुश्मन बनाना है -
मेरे दुश्मन बड़ी तादाद में हैं
जुबां का मैं सदा सच्चा रहा हूँ | ( पृ. – 27 )
लोग सच बोलने वाले के खिलाफ हैं -
सच को अपनाने का जब ऐलान किया
सबने मुझ पर बाणों का संधान किया | ( पृ. – 101 )
सच की इस समाज में कद्र नहीं | सच बोलने का मतलब दुःख उठाना है | ऐसे में निराशा का आ जाना भी स्वाभाविक है | शाइर उसी निराशा के अंतर्गत यह भी कहता है –
जख्म हो जायेगा गहरा
मत पढ़ो सच का ककहरा | ( पृ. – 66 )
लेकिन यह निराशा स्थायी नहीं | शाइर मस्त जीव होता है और इसी मस्ती के चलते वह लिखता है -
हम मलंगों से पूछकर देखो
सच के व्यापार में नफा क्या है | ( पृ. – 58 )
हालांकि उसे पता है कि अंधे शहर को सच का आईना दिखाना व्यर्थ है -
आज भी शाइर ने अपनी शाइरी में सच कहा
पर इस अंधे शहर में तो आईना बेकार है | ( पृ. – 99 )
           सच की हालत खराब है, क्योंकि समाज आदर्शों पर नहीं चलता, रिश्ते स्वार्थ के हो गए हैं, राजनीति दूषित हो गई है | शाइर ने इन सभी विषयों को लेकर लिखा है | राजनीति पर कड़ी टिप्पणी करते हुए वह कहता है -
सियासत की नदी कीचड़ हुई है
यहाँ बेदाग़ कोई दल नहीं है | ( पृ. – 43 )
सभी ने अपने-अपने मानक तय कर रखे हैं, जो सर्वमान्य नहीं कहे जा सकते –
सेकुलर ख़ुद को सभी बतला रहे
सबके हैं अपने ही मानक दोस्तो | ( पृ. -  18 )
नेताओं की करनी-कथनी में अंतर है -
भाषणों में नेक नीयत के निबन्ध
आचरण में आड़ी तिरछी पाइयाँ | ( पृ. – 15 )
नेतागिरी आजकल फायदे का सौदा है –
सियासत किस कदर फलती है देखो
नया बंगला है और गाड़ी नई है | ( पृ. – 80 )
नेता भ्रष्ट हैं, वे रिश्वत लेकर नौकरियां देते हैं और वहीँ से भ्रष्टाचार का पूरा तन्त्र विकसित होता है –
भला किस पथ चलेगा तुम ही सोचो
जो रिश्वत दे के ख़ुद साहब बना है | ( पृ. – 82 )
मतलबी नेता सिर्फ भ्रष्टचार तक ही सीमित नहीं अपितु अपने मतलब के लिए वे सांप्रदायिकता का जहर फैलाते हैं और देश को दंगों की आग में झोंक देने से गुरेज नहीं करते हैं –
सब ज़बानें मज़हबी खंज़र हुई
क्या पुन: दंगों का मौसम आ गया | ( पृ. – 21 )
बांटो और राज करो की जो रणनीति अंग्रेजों ने अपनाई थी, वो उनके बाद भी भारत में मौजूद है | राजनेता बांटने का काम करते हैं –
दीवारें बन गयी हैं घर के भीतर
सियासतदां सियासत कर गया है | ( पृ. – 78 )
          नेताओं और राजनीतिक दलों को बुरा कहकर हम अपना पिंड नहीं छुडा सकते | आम जनता भी दोषी है | शाइर लिखता है -
हम सब दोषी हैं दिल्ली की घटना के
हमने कौरव के हाथों पांचाली दी | ( पृ. – 34 )
हमारा खून खौलना अब बंद हो गया है –
बहुत कुछ खामोशी से सहने लगे हम
उबलता था जो वो लहू जम रहा है | ( पृ. – 86 )
इसीलिए वह आम आदमी की चुप्पी पर सवाल उठाता है -
आप किस्सागो नहीं, मालूम है,
आपकी चुप्पी से दुश्वारी हुई | ( पृ. – 50 )
नेताओं की तरह ही आम आदमी भी दोगला हो गया है –
लबादे मुखौटे मुलम्मे
किसे हम कहें आदमी है | ( पृ. – 39 )
यह दोगला आदमी स्वार्थ से भरा हुआ है | समाज में रिश्ते भी बिखरते जा रहे हैं | हर व्यक्ति सिर्फ अपने आप को देखता है, उसके लिए रिश्ते नाते कोई अर्थ नहीं रखते -
रिश्ते सारे स्वार्थ के धागे
झूठे हैं नातों के लश्कर |  ( पृ. – 98 )
आधुनिक माँ-बाप तक स्वार्थी हो गए हैं -      
कैरियर की फ़िक्र में माँ बाप हैं
पालती बच्चों को अब हैं दाइयाँ | ( पृ. – 15 )
बेटियाँ बोझ हो गई हैं –
बोझ हैं बेटियाँ घरों में क्यों
इससे बढ़कर भला सज़ा है क्या | ( पृ. – 52 )
बेटियों को बोझ मानने के पीछे समाज भी जिम्मेदार है | रोज होते बलात्कार और विवाहोपरांत प्रताड़ना बहुत हद तक दोषी है | शाइर ने दहेज़ की दशा का बड़ी खूबसूरती से चित्रण किया है -
समाजों में सजीं रिश्तों की हाटें
कि अब लाखों में बिकते वर तो देखो | ( पृ. – 32 )    
बेटी वाले तो विवाह के नाम से घबराए होते हैं, अत: वह सही-गलत का निर्णय भी नहीं कर पाते -
बेटियों वाले सहमें होते हैं
गुण वो देखेंगे क्या भला वर में | ( पृ. – 44 )
            समाज और धर्म का गहरा संबंध है | धर्म समाज को सही रास्ते पर लाने वाला साधन है, लेकिन दुर्भाग्यवश ख़ुद धर्म भी आज भटका हुआ है | शाइर ने तथाकथित धर्मगुरुओं पर प्रहार किया है -
हाई टेक संतों की पीढ़ी आ गई
कौन ईसा कौन नानक दोस्तो | ( पृ. – 18 )
भक्तजन के घर नहीं जाते पुरोहित
ए टी एम से दक्षिणा पाने लगे हैं | ( पृ. – 33 )
आज के धर्मगुरुओं का रूप दिखाने के साथ-साथ शाइर ने वास्तविक फकीर कैसे होते हैं, उसके बारे में भी बताया है -
फकीरों को नहीं होता है गम कुछ खोने पाने का
वो यकसा रहते हैं उनकी अमीरी खानदानी है | ( पृ. – 105 )
उसे इस बात का भी दुःख है कि हमने सूर, तुलसी को भूलकर फ़िल्मी धुनों को आरती के रूप में चुना है |
          शाइर ने बदलते दौर में बदलते प्रेम को भी महसूस किया है | आज के प्रेमी न तो प्रेम के लिए मर मिटते हैं और न उनके प्रेम में पहले जैसे पवित्रता और नजाकत है | कवि पुराने दौर की आज से तुलना करते हुए लिखता है –
अब किसी रुमाल में मिलती नहीं
प्रेमिका के हाथ की तुरपाइयाँ | ( पृ. – 15 )
सबसे छुपते छुपाते पढ़ते थे
आज वो चिट्ठियाँ नहीं आती | ( पृ. – 93 )
प्रेम है तो शक कैसा क्योंकि प्रेम तो तभी घटता है जब द्वैत खत्म होता है | शाइर ने इसे प्रकृति के माध्यम से बड़ी खूबसूरती से कहा है -
है इश्क़ तो शक की दरो दीवार गिरा दो
बादल हो तो सूरज का नजारा नहीं होता | ( पृ. – 17 )
शाइर वेलेंटाइन को साजिश मानता है -
एक कारोबार, इक साज़िश है चौदह फरवरी
बिक रही है अब मुहब्बत संत जी के नाम पर | ( पृ. – 107 )
प्यार इम्तिहां लेता है, विष पिलाता है लेकिन प्रेमी के लिए विष भी अमृत होता है | शाइर ख़ुद मीरा होने की बात कहता है -
इश्क़ में पी रहा हूँ विष प्याला
ख़ुद को मीरा बनाए रक्खा है | ( पृ. – 111 )
               शाइर अपनी ग़ज़लों में आज के समाज का आईना भी दिखाता है, तो जीवन के विविध पहलुओं पर भी कलम चलाता है | वह नश्वरता की बात करता है -
कुछ होनी कुछ अनहोनी का मेला ही तो है
ये जीवन क्या माटी का एक ढेला ही तो है |
साँसों की झीनी चादर पर रिश्तों के गोटे
भीड़ में होकर भी हर शख्स अकेला ही तो है | ( पृ. – 37 )
वह हर घटना के लिए ईश्वर को उत्तरदायी भी कहता है -
जबकि सब कुछ उस खुदा का काम है
आदमी बेकार ही बदनाम है | ( पृ. – 31 )
माँ-बाप का महत्त्व प्रतिपादित करता है | माँ के बिना शहर सूना लगता है -
वर्ना अनजान शहर लगता है
माँ जो होती है तो घर लगता है | ( पृ. - 102 )
वह बाप से हौसला, माँ से आशीष चाहता है –
बाप के हौसलों का दे बिस्तर
माँ के आशीष की रजाई दे | ( पृ. – 110 )
यूँ तो एक बालक के लिए माँ-बाप दोनों महत्त्वपूर्ण होते है लेकिन डर के समय, दुःख के समय  माँ ही याद आती है | शाइर इसे यूँ कहता है –
सुख में बच्चे बाप से लिपटे रहे
दुःख में माँ के गोद की बारी हुई | ( पृ. – 50 )
घर छोटा हो या बड़ा इसे बनाने के लिए जीवन लग जाता है, इसीलिए वह घर को छोटा मानने को तैयार नहीं - 
कैसे कह दूं कि घर ये छोटा है
उम्र गुजरी इसे बनाने में | ( पृ. – 77 )
           शाइर गाँव को बरगद तो शहर को बोनसाई कहता है | गाँव से शहर विस्थापित हो जाने की पीड़ा उसकी गजलों में साफ़ झलकती है | गाँव की ढिबरी उसे बुलाती लगती है | वह कहता है कि हम जड़ों से दूर गुलदस्ते में हैं | उसे बड़े शहर की बजाए अपना इलाका पसंद है -
तुम गुडगावां के गुण गाओ
मेरे मन को भाता बस्तर | ( पृ. – 98 )
उसे गाँव की बर्फ-मलाई की चाहत है –
धूप तो शहर वाली दे दी है
गाँव वाली बर्फ मलाई दे | ( पृ. – 110 )
         वह पर्यावरण के बदलाव के लिए इंसान को दोषी मानता है | बादलों के फटने के पीछे दोषी कहीं-न-कहीं आदमी ही है -
क्यों करें बर्दाश्त बादल, आखिरश वो फट पड़े
हम हदों को लाँघते थे मौज पाने के लिए | ( पृ. – 29 )
आदमी विकास के नाम पर प्रकृति का अंधाधुंध दोहन कर रहा है | वास्तव में न विकास हो रहा है और न ही प्रकृति बच रही है | विकास के नाम पर आंकड़ों का खेल चल रहा है -
आज नेता मीडिया के कक्ष में
आंकड़ों से उन्नति को नापता | ( पृ. – 97 )
विचारधारों को मारने की साजिश यहाँ होती है, लेकिन शाइर को विश्वास है कि विचारधारा नहीं मरती –
गोली नाथू चला रहा अब तक
तो भी गाँधी में जान बाकी है | ( पृ. – 42 )
जो जमीर से जीते हैं वो हारकर भी नहीं हारते –
पुरु की हार सिकंदर की जीत पर भारी
जमीर वाले नहीं डरते हार जाने से | ( पृ. – 109 )
ऊँचाई पर पहुँचकर लोग अक्सर अपनों को भूल जाते हैं | शाइर इससे आगाह करते हुए कहता है –
इस ऊँचाई से न देखो मुझको
दूर से सौ भी सिफर लगता है | ( पृ. – 102 )
               भाव पक्ष से इस संग्रह की गज़लें यथार्थवादी हैं | कवि सच को बेबाकी से कहता है और इन्हें कहने में शिल्प का भी सुन्दरता से प्रयोग करता है | अनेक बहरों का प्रयोग हुआ है | मात्र दो रुकुन की छोटी बह्र भी है, तो कुछ लम्बी बहरें भी हैं | काफिए से शुरू होता मिसरा भी है, जो शाइर को प्रयोगधर्मी सिद्ध करता है | तरही मुशायरे पर आधारित ग़ज़लें भी हैं | प्रतीकों का प्रयोग है, यथा -  
नोयाडाओं की भरी झोली मगर
मोतिहारी आज भी गुमनाम है | ( पृ. – 31 )
एक ग़ज़ल में अ को लेकर काफ़िया बाँधा गया है, जो थोड़ा असहज लगता है
रोज गज़लें जो कह रहा होगा
दर्द की लौ में जल रहा होगा | ( पृ. – 45 )
              संक्षेप में, सच का परचम गजल-संग्रह वास्तव में सच का परचम लहराता है और बड़ी सुन्दरता से लहराता है |
दिलबागसिंह विर्क
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