कविता-संग्रह - बस तुम्हारे लिए
कवयित्री - मीनाक्षी सिंह
प्रकाशक - अंजुमन प्रकाशन
पृष्ठ - 120
कीमत - 120 /- ( पेपरबैक )
मेरी चाहतों का आसमां, यथार्थ धरातल, सुकून-ए-दर्द, रीते-रीते से पल और सकारात्मक बढ़ते कदम नामक पाँच शीर्षकों में विभक्त 68 कविताओं का गुलदस्ता है मीनाक्षी सिंह का कविता-संग्रह ' बस तुम्हारे लिए ' | इन 68 रचनाओं में 67 कविताएँ और 26 हाइकु हैं | कवयित्री ने प्रेम, दर्द, यथार्थ आदि अलग-अलग फ्लेवर की कविताओं को अलग-अलग शीर्षक के अंतर्गत रखा है |
' मेरी चाहतो का आसमां ' शीर्षक के अंतर्गत 20 प्रेम कविताएँ हैं | वह कहती है कि उसके लिखे को बस पढना, समझने की कोशिश न करना क्योंकि ये शब्द बस तुम्हारे लिए हैं | वह प्रेम में आजाद रहने की पक्षधर है और रूढ़िवादी प्रेम को छोड़कर आधुनिक दौर के फेसबुकीय प्रेम में भी विश्वास रखती हैं, जहां प्रेमी मिलते नहीं लेकिन एक-दूसरे के प्रेम में डूबकर अपनी-अपनी ज़िंदगी जीते हैं | उसे यह भी पता है कि संस्कारों की दीवार प्रेम के बीच खड़ी है, लेकिन वह प्रेम के पलों को जी लेना चाहती है | उसका मानना है कि चाहत का सैलाब रोके नहीं रुकता | उसकी मुहब्बत पाक है -
तुम एक मोड़ पर बड़ी शिद्दत से मुझे याद करोगे /
शायद उसी वक्त मैं भी तुझे याद करूंगी / उसी शिद्दत से /
क्योंकि हमारी दिली चाहत पाक साफ़ है ( पृ. - 41 )
उसे पता है कि बेचैन-सा दिल प्यार की निशानी है | वह प्रेमी का बेसब्री से इन्तजार भी करती है और सज-संवरकर उसकी नींद भी उड़ाना चाहती है | उसे अपना प्रेम धरती-आसमान में दिखता है | वह प्रेमी के साथ हर डगर पर चलने को तैयार है | वह बिछुड़ने का रोना रोने की बजाए पति को कर्मपथ पर निकलने का हौसला देती है | उसका पति उसका बचपन का दोस्त ही है जो शुरू से रूठता आ रहा है और वह नारी सुलभ गुणों के चलते उसे मनाती आई है | कवयित्री प्रियतम के इर्द-गिर्द मुकद्दर लिखना चाहती है, उसके पास लिखने के लिए फूलों की कलम है |
उसका मानना है कि दो विपरीत इंसान एक-दूसरे को अक्सर पसंद आते हैं | वह तू और मैं को छोड़कर हम होने का ख़्वाब देखती है | छोटी-सी ज़िंदगी के बारे में वह लिखती है -
इस छोटी सी ज़िंदगी को गमों में क्यों डुबाना /
नफ़रत और घृणा में इसके आनन्द को क्या गँवाना ( पृ. - 29 )
अपनी ज़िंदगी के सफ़र के बारे में वह लिखती है -
कभी अरमान जलते रहे, कभी हौसले तपते रहे /
यूँ ही हम ज़िंदगी के सफ़र पर आगे बढ़ते रहे ( पृ. - 35 )
वह प्रियतम की उस बात को याद करती है, जब उसने कहा था -
फिजा भी मदहोश होती है देखकर तेरा शबाब /
रंगों के हर शै में होती है बस तेरी ही अदा /
तेरी ही चाहत मेरे दिल की सदा / ( पृ. - 34 )
पुस्तक का दूसरा भाग ' यथार्थ धरातल ' है | इस भाग में 15 कविताएँ हैं जो जीवन की कटुता और रिश्तों के सच को देखती हैं | उसे लगता है इंसान ज़िंदगी में भी सड़क की तरह लेन बना लेता है | वह बारिश में छोटे दुकानदार, चाय के खोखे वाले और भिखारिन के दुःख को देखती है, जिससे सेठ रोटी के बदले जिस्म मांग रहा है | उसे लगता है इंसान भेड़िया है जो मानसिक विक्षिप्त लड़की को भी महज शरीर मानता है | वह लिखती है -
पीड़िता का शव नहीं यह / मानवता की अर्थी है ( पृ. - 61 )
वह नेताओं पर व्यंग्य करती है | हुक्मरानों के कारण एक से रस्मों-रिवाजों वाले लोग दो मुल्क बने हुए हैं | वह स्वहित पर सांसदों के एक हो जाने पर भी कटाक्ष करती है | उसके अनुसार असली धनवान वही है, जिसने रिश्ते संभाल रखे हैं लेकिन आज के दौर में रिश्तों में मिठास कम हो गई है | वृद्धाश्रम में मरने वाले रामू काका के माध्यम से वह संतानों द्वारा उपेक्षित माँ-बाप की पीड़ा को ब्यान करती है |
औरत होने के नाते औरत को समझती है | औरत उसे पेड़ सी दिखती है, जो दुःख सहकर सुख बांटती है | वह मालिनी की बेवफाई के कारणों की भी विवेचना करती है | एक फौजी की दुल्हन के रूप में वह चाहती है -
तुम भारत माँ के लिए जी जान से लड़ो /
वीरगति या विजय श्री को हासिल करो ( पृ. - 53 )
वह खुलकर जीने की पक्षधर है | तीसरा भाग ' सुकून-ए-दर्द ' है और इस भाग में याद और दर्द भरी 14 कविताएँ हैं | वह प्यार के सहारे जीना चाहती है -
जी भर कर जीना चाहती हूँ / हर बीते लम्हे को सहेजकर ( पृ. - 80 )
वह कभी हर याद को जेहन से भुलाकर अपनी ज़िंदगी को नए सिरे से संवारना चाहती है तो कभी यादों से ख़ुद को संवारती है, यादों का आशियाना बनाती है | उसे पता है ' तुम मर चुकी मेरे लिए ' कहने मात्र से भावनाएं नहीं मरती, प्रेम सदैव जिंदा रहता है | बिछुड़ गए साथी की यादें अनमोल धरोहर हैं | वह कहती है कि तू आज भी मेरे संग ज़िंदगी जीता है भले ही साल-दर-साल बीतने पर दर्द सिसकते रहे, इन्तजार महकते रहे |
उसे लगता है कि ज़िंदगी मुट्ठी से रेत की तरफ फिसल गई, आइसक्रीम की तरह पिघल गई | वायदों के उल्ट हकीकत कुछ और निकली -
जिसमें हम वादे करते थे / एक दूजे से चाँद-सितारे लाने की /
जान छिडकने की / सात जन्मों तक साथ निभाने की /
पर नहीं टिक पाया हमारा प्यार / नहीं निभा पाए हम साथ /
इस एक जन्म में भी ( पृ. - 74 )
संग्रह का चौथा भाग ' रीते-रीते से पल ' है | इस भाग में सिर्फ आठ कविताएँ हैं | वह कविता के जन्म के बारे में बताती है | उसके अनुसार नारी का असम्मान घर की शान्ति भंग करता है | पाजेब बंधन है, जो प्यार के अरमानों पर ताला जड़ देती है | सामाजिक मर्यादा में रहते हुए भी इस समाज के नियमों के बाहर के रिश्ते जिंदा रहते हैं -
हम तुम यूँ ही रहेंगे सदा दूर-दूर / पर दिल के सदा पास-पास /
कुछ यूँ ही रहेगा हमारा रिश्ता / जैसे नदी के दो किनारे ( पृ. - 91 )
उसके अनुसार रिश्ते अपेक्षाओं और उम्मीदों के बीच घिरे हैं | वह इस उम्मीद से जीती है कि ख़्वाब सच होंगे, वह पति की दिल की बगिया पर राज करेगी | वह उम्मीदों के पंख फैलाए जीना चाहती है |
अंतिम भाग ' सकारात्मक - बढ़ते कदम ' में 10 कविताएँ और ग्यारहवीं कविता के रूप में 26 हाइकु हैं | कवयित्री को कलम और ज़िंदगी पूरक लगने लगी है | वह चाहती है कि उसकी कलम यूँ ही चलती रहे क्योंकि रुकी कलम भोथरी हो जाती है | वह हर माँ को कोटि-कोटि प्रणाम करती है | उसकी आरजू है कि शक्ल में उसका प्रतिबिम्ब उसकी बेटी जीवन में उसका प्रतिबिम्ब न बने, वह उसे हॉउस वाइफ नहीं देखना चाहती | सफलता के शिखर पर पहुँचकर उसे उन्हीं लोगों के सिर झुके मिलते हैं जो उसे झुकाना चाहते थे | सबको बराबरी के मामले में वह भेदभाव करना स्वीकार करते हुए लिखती है -
लेकिन मैं तो भेदभाव करती हूँ / प्रतिभा के आधार पर /
परिश्रम के आधार पर / सद्गुणों के आधार पर /
सद व्यवहार के आधार पर / हाँ /
इन्हीं आधार पर मैं इंसान को तौलती हूँ ( पृ. - 109 )
धर्म के ठेकेदारों और तथाकथित महात्माओं को देखते हुए वह धर्म के उच्च शिखर पर पहुँचने की अपेक्षा इंसान बना रहना उचित समझती है | हाइकुओं में भी वह विभिन्न विषयों को छूती है | वह माँ को, सनम को याद करती है, समाज में प्रेम की दशा का चित्रण करती है तो समाज का सच भी ब्यान करती है | एक हाइकु -
पेट की भूख / मरती संवेदना /
शून्य विवेक ( पृ. - 114 )
कवयित्री ने मुक्त छंद में लिखा है, लेकिन तुकांत का प्रयोग भी हुआ है | आत्मकथात्मक, संवादात्मक. वर्णनात्मक शैली को अपनाया है | भाषा सहज , सरल और सरस है | कवयित्री अपने लेखन के बारे में ख़ुद लिखती है -
न नज्म लिखती हूँ न ग़ज़ल लिखती हूँ /
तस्वीर-ए-यार के अहसास लिखती हूँ ( पृ. - 31 )
कविता में श्रृंगार रस है तो व्यंग्य का पुट भी है, इस बारे में लेखिका की स्वीकारोक्ति देखिए -
लिखती हूँ बिंदास लेखनी / समाज के खोखले उसूलों को तमाचती हूँ मैं /
सामाजिक विषयों पर जब चलती है ये कलम / दोनों पक्षों को समाहित कर /
व्यंग्यात्मक प्रहार करती हूँ मैं ( पृ. - 72 )
संक्षेप में, यह कविता-संग्रह सिर्फ प्रेम और दर्द की ही बात ही नहीं करता, अपितु कवयित्री ने अपने सामाजिक दायित्व को भी बखूबी निभाया है | भाव पक्ष के साथ-साथ शिल्प पक्ष से भी यह संग्रह श्रेष्ठ बन पड़ा है | कवयित्री इसके लिए बधाई की पात्र है |
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दिलबागसिंह विर्क
1 टिप्पणी:
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