काव्य कृति - दिव्यांग चालीसा
कवि - डॉ. राजकुमार निजात
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जिनके लिए पहले विकलांग या अपाहिज शब्द का प्रयोग किया जाता था, उनके लिए अब दिव्यांग शब्द को अपनाया गया है । अपने आप में शब्द का कोई महत्त्व नहीं होता । दरअसल समस्या शब्द के अर्थ से नहीं, सोच से होती है । दुर्भाग्यवश हम भारतीय लोग बाहरी रंग-रूप को ज्यादा ही महत्त्व देते हैं । गोरे रंग का मोह भी इसी का एक रूप है । यदि यह कहा जाए कि ज्यादातर लोगों की सोच दिव्यांग या विकलांग है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ।
जहाँ बुराइयाँ होती हैं, वहीं बुराइयों के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले भी होते हैं । कवि, लेखक, कलाकार से बढ़कर यह कार्य कौन कर सकता है । डॉ. राजकुमार निजात जी का ' दिव्यांग चालीसा ' इसी दिशा में एक सार्थक कदम है, जो दिव्यांगजनों को - वो भी तो इंसान हैं, हम भी तो इंसान - कहकर अन्य इंसानों के समतुल्य रखते हैं, वहीँ दिव्यांगों द्वारा किए गए कृत्यों का वर्णन कर सोच से दिव्यांग लोगों को आईना दिखाने का काम करते हैं ।
अपाहिजता या दिव्यांगता सोच से संबंधित होती है, जो कोई ठान लेता है, वह हर वो कृत्य कर सकता है, जो किया जा सकने योग्य है । कवि की दृष्टि में दिव्यांगता के होते हुए एवरेस्ट फतेह करना, बिना हाथों के लिखना, एक टांग से दौड़ना, ज्योतिहीन होकर पढ़ना, चलना, गूँगा होकर राग बनाना, पंगु होकर तैरना, वायुयान उड़ाना आदि ऐसा कौन-सा कृत्य है, जो तूने नहीं किया । दुनिया तुझे देखकर हैरत में है, सिर्फ़ दुनिया ही क्यों, कवि लिखता है -
हैरत में है ऊपरवाला
सिर्फ़ शारीरिक कार्य ही नहीं, दिव्यांग लोग आई.ए. एस. बन रहे हैं, सत्ता के ऊँचे पदों तक पहुँच रहे हैं और इन सबके पीछे जो चीज काम करती है, वो है हिम्मत -
जब तू हिम्मत दिखलाता है / काम सरल तब हो जाता है ।
दरअसल जीवन में हिम्मत ही मूल मंत्र है, जो हिम्मत को अपनाते हैं, वह दिव्यांग होकर भी पूर्ण मानव होते हैं और जो हिम्मत नहीं दिखाते, वे पूर्ण मानव होकर भी दिव्यांग बनकर रह जाते हैं । यही कारण है कि -
तूने काज किए वह पूरे / जो मानव से रहे अधूरे ।
कवि ने दोहा-चौपाई की गेयात्मक शैली में लिखे इस खूबसूरत चालीसा में उन सभी कृत्यों को लिखा है, जिनको करने में दिव्यांगजनों को सामान्यतः असमर्थ माना जाता था मगर उन्होंने कर दिखाए । वर्तमान के उदाहरणों के अतिरिक्त वे मिथ्या इतिहास के पात्र अष्टावक्र का उदाहरण भी देते हैं । त्रेता युग में हुए अष्टावक्र की गीता अनुपम कृति है और यह उनका प्रताप ही है कि -
अष्टावक्र से डरा विधाता / पल में बदला उसका खाता ।
कवि का यह प्रयास एक तरफ आमजन की सोच को बदलने का कार्य करेगा, दूसरी तरफ आम लोगों की सोच से प्रभावित दिव्यांगों को खुद पर विश्वास करना सिखाएगा ।
निस्संदेह, दिव्यांगता कुदरत का या भगवान का शाप है, लेकिन ऐसा कोई कारण नहीं कि यह शाप किसी दिव्यांग के पूरे जीवन को ही ग्रस ले । कवि अंतिम दोहों में आमजन से आह्वान करता है कि अगर हम इनका सहारा बनेंगे तो नया जीवन इनके सामने होगा -
नई सुबह की रौशनी, इनको भी मिल जाय /
इनका जीवन फूल-सा, विकसित हो खिल जाय ।
कवि अपने इस श्लाघनीय प्रयास के लिए जहां बधाई का पात्र है, वहीं यह जिम्मेदारी हम सब पर छोड़ता है कि हम दिव्यांगजनों के साथ खड़े होकर उन्हें यह अहसास दिलाएंगे -
जरा ना तू कमजोर भाई / काम तेरा पुरजोर भाई
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दिलबागसिंह विर्क
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1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर प्रेरक प्रस्तुति ...
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