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बुधवार, नवंबर 16, 2016

आज़ाद ख़्याली के जीवन दर्शन की बात करता यात्रा वृत्तांत { भाग - 1 }

पुस्तक – आज़ादी मेरा ब्रांड 
लेखिका - अनुराधा बेनीवाल 
प्रकाशन - सार्थक, राजकमल का उपक्रम
पृष्ठ - 204
मूल्य -  199 /-
आज़ादी पुरुष के लिए जितनी ज़रूरी है, जितना इस पर उसका अधिकार है, यह स्त्री के लिए भी उतनी ही ज़रूरी है और इस पर उसका भी बराबर का अधिकार है लेकिन आज़ादी की मांग जब भी की जाती है, आज़ादी के लिए जब भी संघर्ष होता है, दोनों के तरीके अलग-अलग होते हैं । स्त्री अक्सर वस्त्रों के माध्यम से अपनी घोषणा करती है । " आज़ादी मेरा ब्रांड " की लेखिका ' अनुराधा बेनीवाल ' अपने यात्रा वृत्तांत के बारे में जब आखिर में अपने वतन की लड़कियों को संबोधित करती है, तो कहती है - 
" तुम आज़ाद बेफ़िक्र, बेपरवाह, बेकाम, बेहया होकर चलना । तुम अपने दुपट्टे जलाकर, अपनी ब्रा साइड से निकालकर, खुले फ्रॉक पहनकर चलना । तुम चलना ज़रूर । " 
चलने, बाहर निकलने, आगे बढ़ने का संदेश ज़रूरी है लेकिन बेहया होने, ब्रा उतारने का संदेश क्यों ? शायद इसलिए कि पुरुषों के पहरावे को लेकर कोई बंदिश नहीं रही, जबकि स्त्री क्या पहनेगी इसका निर्धारण सदा से पुरुषों ने किया है और अनुराधा का आहवान उसी का विरोध है । भले ही यह पुस्तक यात्रा वृत्तांत है लेकिन इस पुस्तक में लेखिका अपने जीवन दर्शन को बयान करती है ।
                यहाँ तक अनुराधा का सवाल है, वह हरियाणा के रोहतक जिले के खेड़ी महम गाँव में जन्मी । महिला स्वतंत्रता की दृष्टि से हरियाणा की गिनती पिछड़े राज्यों में ही होती है, ऐसे में उसका सातवीं में ही स्कूटर लेकर गोहाना की गलियों में घूमना बताता है कि उसका परिवार बहुत ज्यादा संकीर्ण सोच का तो कदापि नहीं रहा होगा । शतरंज की राष्ट्रीय चैंपियन रही यह लड़की अब लन्दन में शतरंज की कोच है । 
                 अपना यात्रा वृत्तान्त शुरू करने से पहले वह अपने शुरूआती दिनों की घुमक्कड़ी का और अपनी प्रेरणा स्रोत रमोला का जिक्र करती है । वह इंग्लैण्ड में अपने संघर्ष के दिनों का जिक्र भी करती है लेकिन साथ ही कहती है - 
" रमोना मेरे लिए बिजली जैसी थी, जो मुझे करंट दे-देकर जगा रही थी ।" 
आज़ादी की खुशबू लेखिका को उसी से मिली थी - 
" उसके थेगली लगे कपड़ों और गाँठ लगे हुए जूतों का ब्रांड अमीरी नहीं, आज़ादी था । "
वह अपनी इच्छाओं के प्रति ईमानदार थी और जीवन को भरपूर जीती थी -
" वह दुनिया भर के किस्से सुनाती । किस देश में कहाँ रुकी, कैसे रही, क्या देखा, कितने लड़कों के साथ सोई, किस देश के लड़के बिस्तर में अच्छे होते हैं, कौन-से देश के एकदम फिस्सड़ी - ऐसी बातों का तो खुला पिटारा था मानो उसके पास ।" 
तब सत्रह वर्ष की उम्र में इन बातों का असर लेखिका पर पड़ना स्वाभाविक था । रमोना की तुलना वह भारतीय समाज की लड़कियों से करती थी - 
" हमारे देश में तो अच्छी लड़कियाँ ' एसेक्सुअल ' होती हैं, उन्हें न किसी के साथ हमबिस्तर होने का मन करता है, न किसी का हाथ पकड़ने का, न किसी के होंठ चूमना चाहती हैं, न किसी की बांहों में खो जाना चाहती हैं... न ही उनके पेट में तितलियाँ उड़ती हैं...और उड़ती भी हैं तो पहले कुल गौत्र, अच्छी नौकरी, यहाँ तक कि घर-परिवार जैसी चीज़ें देखकर ही पंख खोलती हैं ।" 
अनुराधा भी ' किस ' करना चाहती है, लेकिन ' अच्छी लड़की ' की छवि उस पर हावी है । इसका समाधान उसे यही दिखता है - 
" क्या हम लड़कियों की आज़ादी मूल समाज में दूरी में है ? यह गुत्थी तब मुझसे सुलझती न थी, चाहे जैसे भी चाहूँ । हाँ, यह समझ गई थी कि दूर देश में ' किस ' तो कर ही सकती थी, किसी को क्या पता चलना था ।" 
रमोना की बातें ही नहीं, बल्कि उसका व्यवहार भी लेखिका को प्रभावित करता है । वह उसके और उसके दोस्त विकी के सामने पूरी तरह नंगी बाथरूम से बाहर आती है और बातें करते-करते वस्त्र पहनती है । इस घटना के प्रभाव के बारे में वह लिखती है - 
" मुझे अपने सामने सिर्फ़, वही लड़की नहीं दिखी थी, जो देह की इज्जत को कपड़ों में समेटकर नहीं जीती । मुझे व्यक्तित्व की ऐसी आज़ादी दिखी थी, जिसमें शरीर लज्जा और इज्जत की गड़मड़ ग्रन्थियों से परे था ।" 
                      अनुराधा इसके दस वर्ष बाद घर से बाहर घूमने निकली । अच्छी लड़की और गन्दी लड़की के बीच का संघर्ष रमोना से मुलाकात के बाद हुआ हो ऐसा नहीं । वह किशोरावस्था में पैर रखते ही इस उलझन में फँस चुकी थी । एक लड़के को भैया न कहकर नाम से बुलाना इसकी शुरूआत थी । वह समाज से डरती थी और उस लड़के को पाना भी चाहती थी -
" एक रोज मैंने आगे बढ़कर उसे ' किस ' कर ही लिया और इस तरह विदेश जाकर किस करने का मेरा एक सपना , दक्षिण भारत के ही एक शहर में पूरा हुआ "
लेकिन ' किस ' लड़के के लिए गर्व की बात थी और अनुराधा के लिए यह शर्म की बात क्योंकि इसका ढिंढोरा पीटा गया । इससे ' गलत काम ' का यकीन पक्का हुआ, वह सोचती है - 
" मेरी पवित्रता पर एक चुम्बन का दाग़ लग गया था ।"
                   लेखिका का मानना है कि भारतीय समाज में व्यक्तिगत संस्कार नाम की कोई चीज़ नहीं । बच्चों को पारिवारिक और सामाजिक मान्यताओं में ढालना ही संस्कार की शिक्षा है । भारतीय अध्यात्म जो नाक दबाना, सर के बल खड़े होने और मंदिर में घण्टी बजाने पर आधारित है, उसे पसन्द नहीं । वह ओशो दर्शन से प्रभावित है -
" अध्यात्म का मतलब है - होना । जो संभावनाएं हमारे अंदर छुपी हैं, उन्हें उभार सकना । उन्हें पूरा करने के मौक़े मिलना और ख़ुद में पूर्ण हो सकना ।" 
लेखिका आज़ादी के बारे में आत्मनिर्भरता को महत्त्वपूर्ण मानती है –
आज़ादी बड़ी अनोखी-सी चिड़िया है, यह है तो आपकी, लेकिन समय-समय पर इसको दाना डालना होता है | अगर आपने दाना उधार लिया तो चिड़िया भी उधार की हो जाती है | आत्मनिर्भरता के दाने पर पलती है यह, और इसे किसी महंगे या ख़ास दाने की ज़रूरत भी नहीं होती | बस अपना हो, अपने ख़ुद के पसीने से कमाया हुआ कैसा भी दाना | उसी में मस्त रहती है | ” 
आजादी के सन्दर्भ में वह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कहती है, जिसे तथाकथित आधुनिक लड़कियों को समझना चाहिए -
" आर्थिक आज़ादी ने काफ़ी हद तक देह को आज़ाद कर दिया लेकिन उसको पूरी आज़ादी अच्छे-बुरे की कंडीशनिंग टूटने से मिली । सिर्फ़ किसी के साथ सो सकने की आज़ादी ही नहीं, किसी के साथ ' नहीं ' सो सकने की आज़ादी भी । किसी भी तरह की हिचक और परवाह की आज़ादी ।" 
ऐसी आज़ादी की प्रेरणा अवश्य ही उसे रमोना से मिली होगी और इसका फल भी उसे मिला, भले ही लोगों ने शुरू में बुरा-भला कहा, लेकिन उसे लगता है - 
" जब भी मैंने अपने ऊपर यकीन किया है और दूसरों की परवाह किए बगैर अपनी मर्जी की इज्जत की है, तब जाने कैसे, औरों ने भी मेरी मर्जी की इज्जत की है ।"
वह रमोना से प्रभावित तो है, लेकिन रमोना की तरह हर रात पार्टनर बदलना उसे नहीं आया क्योंकि भारतीय संस्कार उसके भीतर थे । शरीर की भूख को सुलाए रखना उसने सीखा था । इससे बाहर निकलना आसान नहीं, लेकिन वह संस्कारों में जकड़ी भी नहीं रही - 
" हाँ, उस भूख को पहचानना ज़रूर सीखा मैंने । उस भूख की इज्जत करना भी मैंने सीखा । उस भूख की पवित्रता मैंने पहचानी ।"
                   दूसरों को लेकर सुखी होना, दूसरों को लेकर दुखी होना उसे अखरता है । यहाँ भी उसका नजरिया ओशोवादी है - 
" मैं तब सोचती कि क्या मैं अकेले नहीं खिल सकती, फूलों की तरह, जो बिना परवाह किए खिलते हैं कि बालकनी के गमले में हैं या बगीचे की क्यारी में या कि जंगल की तमाम धक्का-मुक्की में ।"
आज़ादी भी ज़िन्दगी की तरह पेचीदा होती है, यह आज़ादी लेखिका को उसका समाज नहीं देता । न मर्ज़ी का संसार बनाया जा सकता है, न इसमें मर्ज़ी से आया-जाया जा सकता है । इन बंधनों को मानना बाध्यता है, मानव स्वभाव नहीं ।
                       लेखिका लन्दन चली जाती है और वह आज़ादी ढूँढने नहीं आई क्योंकि आज़ादी ढूँढने ही क्या आया जा सकता है ? वह पारिवारिक कारणों से आई थी । और इंग्लैण्ड में उसे पैसा कमाना था ताकि वह घूम सके । वह हर काम करने को तैयार थी, लेकिन काम मिलना इतना आसान कहाँ था । बहुत पापड़ बेले । अंत में शतरंज ही सहायक बनी, जो वह अपनी मर्जी से खेलना छोड़ चुकी थी । अब वह यूरोप घूमने के स्वप्न देखने लगी । यूरोप के सारे देशों के लिए एक ही वीज़ा लगता है - शेंगेन । 
                 वह भारत में भी पुणे से राजस्थान एक महीने पर ट्रिप पर गई थी, यहाँ उसकी मुलाकात ब्राजील की फ्लाविया से हुई । पुष्कर में वह फर्नांदो रेनी से मिली, जैसलमेर में मार्लुस से मिली और उससे बहुत कुछ सीखा । रेन्नी जब उससे पूछता है कि भारतीय लड़कियाँ विदेशी लड़कों के साथ क्यों नहीं सोती तो वह कहती है -
" हमें तो सब लड़कों से दिक्कत है । लड़कों से नहीं, हमें यों ही कैजुअल सेक्स से दिक्कत है ।"
वह कहती है कि हम सिर्फ़ शादी के बदले सेक्स करते हैं । इस जवाब से वह खुद भी हैरान थी । 
             आज़ादी के अर्थ को समझने के बाद वह यह कहती है - 
" मैंने एक अजनबी को नम्रतापूर्वक ' ना ' कहना सीखा । बिना चप्पल निकाले, हाथ जोड़कर अलविदा बोलना सीखा । अपनी मर्ज़ी जानी और अपनी मर्जी की इज्जत करना सीखा । "
मार्लुस की माँ का यह कहना कि रेप होने पर प्रेगनेंसी से बचने के लिए पिल्स साथ रखना, अनुराधा को हैरान करता है । भारतीय माँ इस बारे में न चर्चा करती है, न बचाव का रास्ता बताती है जबकि मार्लुस की माँ का नजरिया अलग है -
" रेप भी एक एक्सीडेंट है जो नहीं होना चाहिए लेकिन होने पर शर्म की बजाए उस बारे में क्या किया जाए, यह पता होना चाहिए । "
रमोना ने जो बीज बोए थे , उन्हें इन अजनबियों ने सींचा । उसे समझ आया - 
" आज़ादी न लेने की चीज़ है, न देने की । छीनी भी तो क्या - आज़ादी, यह तो जीने की चीज़ है । " 
अनुराधा राजस्थान के घुमक्कड़ों के बारे में यह निष्कर्ष भी निकालती है -
" उन्होंने अपने जीवन की जिम्मेदारी ख़ुद ली थी । कोई और नहीं था ब्लेम थोपने के लिए इनकी लाइफ में । ये अपनी खुशी और अपने दुःख के जिम्मेदार खुद थे । और जब आप आगे बढ़कर अपनी जिम्मेदारी आप लेते हैं तो बदल पाना आसान होता है ।"
                     खुद को बदल पाने का तरीका सीख, आज़ादी का अर्थ समझ लन्दन में रहती अनुराधा बेनीवाल निकल पड़ती है यूरोप भ्रमण को । वह लंदन से पेरिस, लील, ब्रसल्स, एम्स्टर्डम, बर्लिन, प्राग, ब्रातिस्लावा, बुडापेस्ट, म्युनिक, इन्सब्रुक, बर्न होते हुए वापस पेरिस आती है ।....
( क्रमशः )
© दिलबागसिंह विर्क

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