कविता-संग्रह - रेत पर बने पदचिह्न
कवयित्री - मीनाक्षी आहूजा
प्रकाशक - बोधि प्रकाशन
मूल्य - 50 / - सजिल्द
पृष्ठ - 80
कविता का संबंध भावों से है और जो कविता जितनी भावुकता से लिखी जाती है, वह उतनी ही सफल रहती है । कविता-संग्रह " रेत पर बने पदचिह्न " की कविताएं इस कसौटी पर खरी उतरती हैं ।
कविता के लिए / शब्द ज़रूरी तो नहीं
अपितु उसका मानना है कि साँझ ढले, घर से दूर, अकेले में मन ही मन कहना महत्त्वपूर्ण होता है -
वही / अनकही / बिन लिखी
होती है कविता
वास्तव में ये अनकहे-अनलिखे भाव ही जब उफान पर होते तो कविता बन जाती है । कवयित्री ने खुद भी भावों की रौ में बहकर लिखा है और जीवन के तमाम पहलुओं को विषय बनाया है ।
नारी समस्याओं को समझना नारी होने के नाते उनके लिए ज्यादा आसान है, इसलिए उनकी कविताओं में ऐसे विषय सहजता से आए हैं | पहली ही कविता इसका उत्कृष्ट उदाहरण है | नारी जाति के लिए बगावत आसान नहीं, उसका मातृत्व, उसकी कोमल भावनाएं आड़े आ जाती हैं | कवयित्री इसे हवा-तूफ़ान के प्रतीकों के माध्यम से कहती है -
सोच कर कि / उजड़ जाएंगे / नन्हें घर
परिंदों के / चुपचाप / लौट आई
पुरुष-स्त्री संबंधों को वे कभी सूरज-धरती के प्रतीकों में देखती है, तो कभी रात-चाँद के प्रतीकों में | जहाँ सूरज धरती से फरेब करता है, दिन भर उसे तपाकर रात को उसी से सकूं की उम्मीद करता है, वहीँ रात और चाँद के प्रकृति अलग-अलग होते हुए भी वे अन्योन्याश्रित हैं -
अधूरे हैं फिर भी / रात के बिना चाँद
और / चाँद के बिना रात
औरत का रूठना व्यर्थ है, क्योंकि पुरुष रूपी छलिया किसी मजबूरी की दुहाई देकर मना ही लेता है | कहने को वह स्वतंत्र है, लेकिन वास्तविकता में नहीं | वह आज भी सत्रहवीं शताब्दी झेल रही है, उसे पुरुषों से सिर्फ कर्त्तव्यों के फेहरिस्त मिली है | वह ' स्वतंत्र ' शब्द से लिपटी ' दासता ' ओढ़कर जी रही है | ये पंक्तियाँ हकीकत बयाँ करती हैं -
घर में / दफ्तर में / निभाने को /
मजबूर / मुस्करा कर सब कुछ
इतना ही नहीं पुरुषों के प्रश्न हर स्थिति में मुंह बाए खड़े रहते है | पुरुषों की सोच में औरत महज भोगी वास्तु है, तभी तो पुरुष ऐसा कृत्य करते हैं -
दूर बैठी किसी / खामोश लडकी को /
दिव्य स्वप्न की / सेज पर / अपवित्र कर देना |
पुरुषों की ज्यादितियाँ हर पल उसे सालती हैं | जो औरत पहले पुरुष की वासना का शिकार होती है, वह बाद में परिस्थितियों से सताई जाती है -
बलात्कार करते हैं / चुभते सवाल /
अखबार व खबरें / बेतुके भाषण /
खोखले आश्वासन
पुरुषों के कारण ही वह कन्या भ्रूण हत्या का अपराध करने को विवश है | कवयित्री को यह पंगु नैतिकता दिखाई देती है | इतना होने पर भी वह निराश नहीं | वह बंधना नहीं चाहती अपितु समुद्र की लहर बनकर किनारों से टकराना चाहती है, भले ही उसे टूटना पड़े, यही उसका अदम्य साहस है | माँ बनकर उसके बचपन के सुख-दुःख छोट चुके हैं, लेकिन मातृत्व का अहसा उसे ख़ुशी देता है |
कवयित्री निजी रूप से सोचती है कि उसके भीतर की औरत को शायद जीना नहीं आया | उसे अपने अहसास मृगतृष्णा लगते हैं | उसे शब्दों की प्रेयसी बनकर चलना सहज लगता है | वह खुली सड़क पर अंतहीन यात्रा की आकांक्षा रखती है | उसके महल सपनों के हैं | वह कल-कल बहती नदी की तरह है, लेकिन कभी उसे लगता है कि वक्त ने उसके पर कतर दिए हैं | पैरों में समाज की, रिश्तों की बेड़ियाँ हैं | वह संयम की सीमाओं को लांघना चाहती है, लेकिन उसे पता है कि इन्हें लांघकर जीना सहज नहीं रह जाएगा | वह किस्मत से वफा की उम्मीद करती है ताकि -
जो मिले / तकदीर से मिले /
करना न पड़े / कभी कोई गुनाह
कवयित्री कहती है कि शब्द सशक्त नहीं, वे उसे मूक लगते हैं | " लफ्जों से सब कुछ बयाँ नहीं होता ", फिर भी जीवन का द्वंद्व लिखने के लिए प्रेरित करता है हालांकि कवि कर्म और कर्त्तव्यपरायणता के कारण अंतर्मन और बाहरी व्यक्तित्व में फासला बरकरार रहता है | उसे तृप्ति की तलाश है | चिंताएँ चिता बन जाए इससे पहले वह तृप्ति पाना चाहती है | तृप्ति के बिना जीवन सूना है -
अच्छा कहाँ लगता है / पत्तों के बिना पेड़ /
और / तृप्ति के बिना जीवन
कवयित्री कभी जिंदगी के बारे में पूछती है तो कभी कृतज्ञता जताती है | बाहरी मौसम मन की छाया मात्र है, तभी तो -
जरा सी ख़ुशी / पतझड़ को भी /
कर देती है सावन
दुःख-सुख दोनों मुट्ठी में रेत की तरह नहीं ठहरते हालांकि उन्हें अफ़सोस है कि खुशियों के पर क्यों लगे होते हैं | ये सीमित हैं | आदमी की मुस्कान उसे झूठ के पैबंद लगी ख़ुशी दिखती है, फिर भी उसे ख़ुशी का इन्तजार है |
समाज में झूठ-सच गडमड हो चुके हैं, धार्मिक पाखंडों की भरमार है, दिलों में दूरियां बढ़ चुकी हैं, इनके लिए सेतु बनाने की जरूरत महसूस होती है -
काश ! दिलों की दूरियां / मिटाने को भी /
बना पाते / कोई सेतु हम
कवयित्री को आदमी कृतघ्न लगता है क्योंकि वह जिससे छाया प्राप्त करता है, उसी को काटता है | समाज में जीने के उसे दो तरीके दिखते हैं - या तो खुद को बदलो या समाज बदल दो | विद्रोह को वह जरूरी मानती है, लेकिन विद्रोह के तरीके शब्द, लाठी हों यह जरूरी नहीं | वे निष्काम कर्म का संदेश देती है, लेकिन उसका उपदेश गीता की तरह अपितु वह कहती है -
पर त्यागना नहीं / फल की इच्छा /
बस राह पकड़े रहना / अटल, अचल, अंतहीन |
वह आदमी को हवा, दरिया, आग बनने की बजाए खुदा और धरती बनने को कहती है | उसका मानना है कि आदमी ने मोहवश सीमाएं खींच ली हैं | वह रिक्त स्थानों को भरने की कोशिश करती है, जीने के गुनाह के बाद माफ़ी की उम्मीद रखती है |
प्यार में वह ज्यादा लिखना नहीं चाहती, क्योंकि अनकहा बेहतर समझा जा सकता है | प्यार पाकर इच्छाओं को पर लग जाते हैं लेकिन दुःख प्यार का दूसरा पहलू है, तभी तो खत लिखने की कहने वाला खत का जवाब नहीं देता | ख़्वाब टूटने पर चुनरी की कोर भीग जाती है | कविता-संग्रह में 3 क्षणिकाएं भी हैं | इनमें उसने अहसास, प्यार और जीवन को परिभाषित करने की कोशिश की है | वह आशा का दामन छोड़ना नहीं चाहती भले ही उसे लगता है कि आशाएं बरसों पहले रेत पर बने पदचिह्न ढूँढने जैसी है |
जीवन में फैले विषयों को चुनने के लिए जहाँ उसने कवि-दृष्टि का प्रयोग किया है, वहीँ इन्हें कागज पर उतारने के लिए प्रकृति के प्रतीकों का सहारा लिया है | अधिकाँश कविताएँ प्रकृति के उदाहरणों या माध्यम से कही गई हैं | धरती, सूरज, आकाश, जंगल, हवा, तूफ़ान, झंझावत, आग, धुंध, धूप, ओस, दूब, वृक्ष, बसंत, पक्षी, दरिया आदि के द्वारा विषय वस्तु को रोचक बनाया है | भाषा सरल, सहज है | जहाँ संस्कृतनिष्ठ शब्दावली है, वहीँ विदेशी शब्दों शफाखाना, दराज़, इंतज़ार, हर्फों, लफ्जों आदि का प्रयोग करके हिंदी के स्वाभाविक स्वरूप को कविता का माध्यम बनाया है | विदेशी शब्दों पर हिंदी व्याकरण का प्रयोग है | मुक्त छंद की कविताएँ पर्याप्त रवानगी लिए हुए हैं, जिससे ये रोचक लगती हैं | आकार में लघु होने के कारण तीव्र असर छोड़ती हैं |
संक्षेप में, कवयित्री अपने पहले संग्रह से ऐसी उम्मीद जगाती है कि उनकी कविताओं के पद चिह्न साहित्य की जमीन पर अपने स्थायी चिह्न छोड़ने में सफल रहेंगे |
दिलबागसिंह विर्क
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1 टिप्पणी:
सुन्दर कविताएं सुन्दर आकलन ।
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