गत दिनों सुप्रसिद्ध बांगला उपन्यासकार शरतचंद्र का उपन्यास गृहदाह पढ़ा , सोचा इसे ब्लॉग पर साँझा कर लूं
गृहदाह उलझे हुए सम्बन्धों की कहानी है .ब्रह्म समाज और हिन्दू समाज का भी मुद्दा है . ब्रह्म समाज के लोगों को हिन्दू अच्छा नहीं मानते - उपन्यास की नायिका बार-बार ऐसा कहती-पूछती है ,लेकिन हिन्दू पात्रों ने कहीं भी असहिष्णुता नहीं दिखाई . हिन्दू युवा ब्राह्म लडकी से प्रेम करते हैं , अन्य पात्र उन्हें अपने से अलग तो मानते हैं ,लेकिन घृणा कोई नहीं करता . उपन्यास के अंत में जब रामबाबू अचला को वेश्या समझकर उसे असहाय अवस्था में छोड़ जाते हैं तब महिम हिन्दू धर्म पर भी प्रश्नचिह्न लगाते हुए कहता है -'' पर इस आचार-परायण ब्राह्मण का यह धर्म कौन-सा है, जो एक मामूली-सी लडकी के धोखे से तुरंत धूल में मिल गया ? जो धर्म अत्याचारी की ठोकर से आप अपने को और पराए को नहीं बचा सकता ,बल्कि मृत्यु को उसी को बचाने के लिए प्रतिपल अपनी शक्ति को तैयार रखना पड़ता है - वह धर्म आखिर कैसा धर्म है , और मनुष्य जीवन में उसकी उपयोगिता क्या है - जिस धर्म ने स्नेह की मर्यादा नहीं रखने दी , एक असहाय नारी को मौत के मुंह में छोड़कर चले जाने में जरा भी हिचक नहीं होने दी ,चोट खाकर जिस धर्म ने इतने बड़े स्नेहशील बूढ़े को भी प्रतिहिंसा से ऐसा निर्दयी बना दिया - वह कैसा धर्म है ? और जिसने उस धर्म को कबूल किया , वह कौन से सत्य को लेकर चल रहा है ?''