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बुधवार, मार्च 11, 2020

भाषायी आडम्बर से मुक्त सरल और बोधगम्य कविताओं का संग्रह

लघुकविता-संग्रह - जो मैं न कह सका कवि - रूप देवगुण प्रकाशन - सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल कीमत - ₹300/- पृष्ठ - 111 ( सजिल्द )
सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल से प्रकाशित रूप देवगुण कृत "जो मैं न कह सका" लघु कविताओं का संग्रह है। इसमें 91 कविताओं को 8 अध्यायों में बाँटकर प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक अध्याय के आगे एक लघु आलेख है, जिसमें कवि ने अध्याय के विषय में अपने विचार रखे हैं।
          पहले अध्याय "आकाश में उड़ते कबूतर" में 10 कविताएँ हैं। कवि आकाश में उड़ते कबूतर को देखता है। कोई कबूतर थक कर कुछ देर के लिए अपने झुंड़ से जुदा हो जाता है, लेकिन वापसी पर वह उनके साथ हो जाता है। कवि को साफ-सुथरे होने के कारण कबूतर प्यारे लगते हैं, वह उन्हें पकड़कर अपने पास बिठा लेना चाहता है। अलग-अलग नस्ल के कबूतर एक साथ उड़ते हैं, क्योंकि वे भेदभाव नहीं जानते। कवि कौओं और कबूतरों की तुलना करता है। कौए खेतों में जाते हैं, जबकि कबूतर आदमियों की बस्ती में रहना पसंद करते हैं। कबूतर दाने के लिए छीना-छपटी नहीं करते, जो इनके सन्तोषी स्वभाव को दिखाता है। अनाज मंडी में भी ये अनाज के ढेर पर दाना न चुगकर, बिखरे हुए अनाज को खाते हैं। कबूतर सीधा-सादा पक्षी है, जो अपने आप में मस्त रहता है। अपने भोलेपन के कारण वह बिल्ली का शिकार बन जाता है। कवि को लगता है कि उसको देखकर कबूतर का उड़ जाना उसकी सजगता है, क्योंकि सुरक्षा ज्यादा जरूरी है। कवि मुँडेर पर बैठे कबूतर का चित्रण इस प्रकार करता है -
"मुँडेर पर बैठे कबूतर / कभी देखते हैं इधर, कभी उधर /
कभी कोई उड़कर / चला जाता है कहीं ओर/
कोई बैठ जाता है / साथ वाली टैंकी पर" (  पृ. - 23 )
    दूसरे अध्याय "फूलों की बात" में 9 कविताएँ है। कवि बगिया के फूलों से रोज मिलता है। कुछ फूल मुस्कराते हुए मिलते हैं तो कुछ मुरझाए हुए। कुछ उदास, तो कुछ मृत्यु शैय्या पर पड़े होते हैं। फूलों का प्रभाव कवि पर इस प्रकार का पड़ता है -
"जिसके पास जाता हूँ / पता नहीं क्यों /
अपने आपको मैं / वैसा ही पाता हूँ " ( पृ. - 25 )
बगिया के फूल अलग-अलग प्रकार के हैं, अलग-अलग रंगों के हैं। फूलों को देखकर कवि के भीतर भी कई रंग उभर आते हैं। फूल भी कवि का इंतजार करते हैं, वे कवि से बतियाते हैं। फूल डरते भी हैं कि कहीं कवि उसे तोड़ न ले, इसलिए वे कहते हैं -
"मुझे तोड़ना नहीं / मैं अभी चाहता हूँ जीना /
अपनी मौत आप मरना चाहता हूँ" ( पृ. - 28 )
कवि बगिया के गुलाबों के बारे में बताता है कि कुछ विदेशी गुलाब हैं, जिनमें न कोई आब है, न उनका कोई लाभ है। देसी-विदेशी का यह अंतर संस्कृति के संदर्भ में गहरे अर्थ रखता है। गुलदाऊदी के फूलों के माध्यम से कवि कल की बजाए आज पर बल देता है -
"आज तो अच्छे लग रहे हैं /
कल कैसे होंगे / कुछ पता नहीं" ( पृ. - 30)
कवि को गेंदे के फूल समाज की अभिव्यक्ति करते लगते हैं। कवि गेंदे और गुलाब की बातचीत दिखाता है। गुलाब अपनी उपयोगिता की कीमत चुकाते हैं। गेंदे के एक पौधे पर अकेला झूमता फूल कवि को एकला चलो रे का संदेश देता दिखाई देता है। इस अध्याय में कवि ने मानवीकरण का सुंदर प्रयोग किया है।
        तीसरे अध्याय "संस्कृति की विभिन्न झलकियाँ" में 14 कविताएँ हैं। दरअसल ये 14 झलकियाँ ही हैं। पहली झलकी में भूखे कुत्तों का चित्रण हैं, जो रोटियाँ मिलने पर एक-दूसरे पर भौंकते हुए खा रहे हैं। दूसरी झलकी में गाय के लिए रोटी रखने की प्रथा का वर्णन है। गाय रोटी खिलाने वाले को धन्यवाद देती है। चौथी झलकी में पीपल के पेड़ के नीचे दाने खाते पक्षियों का चित्रण है। पक्षियों का झुंड कवि को पक्षियों की प्रदर्शनी लगता है। भारत की औरत कैसी है, इस बारे में वे लिखते हैं -
"ये कीड़े-मकौड़े / रहते हैं जहाँ /
एक औरत है डालती / हर रोज आटा /
और बहुत कुछ / फिर जोड़ती है हाथ /
धन्य है वह औरत / जो रखती है ख़्याल इनका /
और एहसान लादने की बजाय / उनका करती है धन्यवाद" ( पृ. - 38 )
भले ही आजकल इन्हें अंधविश्वास कहा जाए, लेकिन जीव-जंतुओं का ख्याल रखना ही भारतीय संस्कृति है और इस संस्कृति को बचाए हुए हैं भारत की औरतें। कवि ने इसी को उदघाटित किया है।  कवि राम मंदिर में पूजा का शब्द चित्र बनाता है। सब धर्मों को समान मानने वाले भारतीयों को दिखाया है। वे अपने अध्यापकों का सम्मान करने वाले शिष्य, माता-पिता का आदर करने वाली सन्तान, अतिथि सेवा से धन्य हुए मेजबान को कविता का विषय बनाते हैं। जिस घर में लोग मिलजुलकर रहते हैं वहाँ बहार ही बहार है। वे उस मोहल्ले का चित्रण करते हैं, जो एक परिवार की तरह आपस में जुड़ा हुआ है। बुजुर्ग का आदर करने का वर्णन है, दुर्घटना होने पर लोगों का सेवा भाव दिखाया है। वे देश भक्ति की बात करते हुए कहते हैं -
"किसी की नहीं कोई हिम्मत / जो देखे मेरे देश को बुरी नज़र से /
या लगाए इसे हाथ" ( पृ. - 48 )
  चौथे अध्याय "कर्मयोगी हैं ये लोग" में 9 कविताएँ हैं। इन कविताओं में कवि विभिन्न कार्यों में लगे लोगों को दिखाकर कर्म ही पूजा है का संदेश देता है। कोई भी काम छोटा नहीं होता, यह बताने के लिए वह नाई, मोची, सब्जी बेचने वाले, गोलगप्पे वाले, दुकानदार, थ्री व्हीलर के ड्राइवर, कपड़े इस्त्री करने वाले, जमादार को कविता का विषय बनाता है। इनकी ज़िंदगी बुरी तो नहीं है, इसलिए वह लिखता है -
"क्या इसे ज़िन्दगी नहीं कहते" ( पृ. - 50 )
यह सवाल नहीं, अपितु इनको हेय दृष्टि से देखने वालों को करारा जवाब है। इनके पास जाकर कवि आदमियत के और अधिक नजदीक हो जाता है, वह अपनी विशिष्टता खोकर सामान्य हो जाता है, तभी वह लिखता है -
"रेहड़ी पर खड़े होना, गोलगप्पे खाना /
मुझे बना देता है आम आदमी" ( पृ. - 55 )
इस अध्याय में कवि खुद को भी कविता का विषय बनाता है। वह अपनी मस्ती भरी जिंदगी का चित्रण करता है, जिसमें घर के कार्य करने में उसे कोई हिचक नहीं। 
   अध्याय पाँच कवि अपने पिता जी को समर्पित करता है। इस अध्याय का शीर्षक है, "कर्मठता के प्रतीक बाऊजी"। इस अध्याय में 14 कविताएँ हैं। इन कविताओं वे मृत्यु शय्या पर पड़ी माँ को भी याद करते हैं। माँ ने बाऊ जी को कहा था -
"पर मेरी संतान को / आप ही पालना /
न मेरे रिश्तेदारों के यहाँ भेजना / न अपने रिश्तेदारों के यहाँ" ( पृ. - 60 )
माँ की मृत्यु के समय बाऊ जी की उम्र 35 साल थी, लेकिन उन्होंने शादी नहीं की। सिरसा आना, नौकरी करना, कवि का दाखिला करवाना, डटकर पढ़ाना, पिता जी का फूलों से प्रेम अगली कविताओं का विषय है। कवि कहता है कि आज वह जो है, वह उनके कारण है। कवि अपने बाऊजी के बारे में बताता है कि वे मेहनत करते थे, बहुत ज्यादा गर्म कपड़े नहीं पहनते थे, उनके शरीर की पुष्टता का कारण बताते हैं। वे उनके अंतिम दिनों को याद करते हैं। इस अध्याय को पढ़कर उनके जीवन को समझा जा सकता है। 
    छठे अध्याय "मन की कन्दरा में" में 15 कविताएँ हैं। इन कविताओं के माध्यम से वे प्रतिलिंगी के प्रति होने वाले आकर्षण के कारण मन के भीतर उठने वाले भावों को कविता में पिरोते हैं। मन किसी के पास बैठना चाहता है, उससे फोन पर बात करना चाहता है, लेकिन वे खुद को रोक लेते हैं। वे लिखते हैं -
"सहज नहीं होता / कुछ कहना /
दबे रह जाते हैं / शब्द /
मन की / कन्दरा में" ( पृ. - 82 )
पुस्तक का शीर्षक भी इसी अध्याय से लिया गया है और इस कविता में भी वे खुद को अभिव्यक्त नहीं कर पाए। खुद को रोकना, कह न पाना, उनके स्वभाव को उदघाटित करता है। उनका मानना है कि मन की भावनाएँ दबी रह जाती हैं। वे खुद कुछ नहीं कहते, लेकिन चाहते हैं कि सामने से इजहार हो -
"तुम्हारी खामोशी / कब टूटेगी /
और मुखरित हो / कहोगी मुझे /
वह सब कुछ / जो लगता है मुझे अच्छा" ( पृ. - 85 ) 
वे सपनों में भी खुद इजहार नहीं करते अपितु ऐसे सपने ही देखते हैं कि वह उससे कुछ कह रही है। वे बस, रेलगाड़ी में मिली अनजान लड़की के प्रति आकर्षण को दिखाते हैं, वे एक तरफा प्रेम का चित्रण करते हैं। वे शिष्टाचार वश की जाने वाली नमस्ते का जिक्र करते हैं। बरसात में भीगती लड़की की बात करते हैं। 
   सातवाँ अध्याय "बहिन-भाई का पवित्र रिश्ता" में 12 कविताएँ हैं। उनका मानना है कि बहिन-भाई के रिश्ते में जो आत्मीयता है, वह शायद अन्य रिश्ते में नहीं। बहिन या भाई का न होना जीवन का खाली-खाली-सा होना है। भाई अपनी बहिन के लिए कुछ भी कर सकता है। विवाह के बाद मायके आई बहिन पुराने दिनों को याद करती है, वे हँस-हँस कर बातें करते हैं। बड़ी बहिन कभी-कभी माँ बन जाती है। माँ विहीन भाई खुद काम करता है, इसे सोचकर बहिन रोती है। विदेश में रहती बहिन फोन पर ही बात करती है। इस अध्याय की कविताओं में उनके निजी प्रसंग भी हैं, इसका उल्लेख उन्होंने कविताओं के पूर्व के पाठ में भी किया है। वे बहिन से कहते हैं -
"आती रहना बहिन / तेरे बगैर मेरा नहीं /
लगता है मन" ( पृ. -101 )
    इस पुस्तक का अंतिम अध्याय "सर्दी के मौसम में" है। इस अध्याय में 8 कविताएँ हैं। दीवाली का आगमन सर्दी के आगमन का सूचक है और वे खुश होते हैं, क्योंकि अब गर्मी की तपिश चली जाएगी। इस मौसम के कारण उन्हें गर्म कपड़े, गर्म खाने का मजा मिलता है। इसी मौसम में लोहड़ी का त्योहार आता है, इसी मौसम में फूल खिलते हैं। धुंध, धूप में चाय की चुस्कियाँ, टोमैटो सूप, कॉफ़ी का अलग ही मजा है। वे पतझड़ और बहार का भी जिक्र करते हैं। उनका मानना है कि सर्दी में योगाभ्यास और सैर से शरीर को चुस्त रखा जा सकता है। जैसे दीवाली सर्दी के आने का सूचक है, वैसे ही होली इसके जाने का सूचक है। सर्दी के जाने का उन्हें दुख होता है।
     इन 8 अध्यायों में कवि निजी जीवन का भी चित्रण करता है और प्रकृति का भी। वह समाज पर भी लेखनी चलाता है और मन में उठने वाले कोमल भावों को भी बेहिचक बयान करता है। सभी कविताएँ भाषायी आडम्बर से मुक्त हैं। लघु आकार की ये कविताएँ अपनी सरलता और बोधगम्यता के कारण पाठक तक सहज ही पहुँच जाती हैं। 
©दिलबागसिंह विर्क
87085-46183

1 टिप्पणी:

Jyoti Singh ने कहा…

पुस्तक के बारे में पढ़कर लेने की इच्छा जाग उठी, क्या मुझे मिल सकती है ?बहुत ही बढ़िया ,बधाई हो आपको

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