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बुधवार, मार्च 18, 2020

प्रदूषित हो रही गंगा के प्रति चिंता दिखाता संग्रह

लघुकविता-संग्रह - मासूम गंगा के सवाल कवयित्री - शील कौशिक प्रकाशक -साहित्यसागर, जयपुर पृष्ठ - 128 कीमत - ₹200/-
मासूम गंगा के सवाल" गंगा पर केंद्रित 108 लघुकविताओं का संग्रह है और इस अनूठी कृति की रचना की है शील कौशिक ने। साहित्यसागर, जयपुर से प्रकाशित इस कृति के बारे में कवयित्री का खुद का कहना है -
"मैं केवल आस्तिकता या अंधविश्वास का ढोल गले में बाँधकर नहीं पीट रही, बल्कि यह काव्य कृति गंगा को मानवीय दृष्टि से देखने का प्रयास मात्र है।" ( पृ. - 6 )

       निस्संदेह यह संग्रह गंगा के प्रति चिंता जाहिर करता है, गंगा के बहाने समस्त नदियों के प्रदूषित होने की समस्या को उठाता है, लेकिन कहीं-कहीं गंगा को धार्मिक दृष्टिकोण से भी देखा गया है। जैसे -  बेटे ने अम्मा की पुकार नहीं सुनी, इसलिए वह मारा-मारा फिर रहा है। जो गंगा में आस्था नहीं रखता वह खाली हाथ रह जाएगा। कवयित्री के अनुसार गंगा प्रातः स्मरणीय है। तीर्थों में तीर्थ है। यह पाप-ताप से मुक्ति दिलाती है। गंगा की महिमा का गान भी इस संग्रह में उभरकर आया है। कविता-संग्रह में 108 कविताओं का होना भी इसे आस्तिकता के रंग में रंगता है, लेकिन इसे कोई दोष नहीं कहा जा सकता। गंगा से हर भारतीय की आस्था जुड़ी हुई है, कवयित्री भी इसका अपवाद नहीं, हालाँकि संग्रह का मुख्य स्वर नदियों की बदतर हो रही दशा का चित्रण है। कवयित्री गंगा का वर्णन करने के लिए खूब अध्ययन करती है और यह महसूस करती है -
"कब कोई जान पाया तुम्हें / समूची कब उतार पाया भावों में / 
मेरा शब्दकोष भी / कुछ हो जाता है गरीब-सा" ( पृ . - 105 )
कवयित्री ने हाशिये छोड़ रखे हैं, जिन पर अभी और कुछ कहा जा सकता है। कवयित्री के अनुसार गंगा नदी की विरल कथा कभी बाँची नहीं गई। उसकी फरियाद सुनी नहीं गई। वह खुद का गंगा के साथ एक अनाम अव्यक्त रिश्ता महसूस करती है। उसके और अपने प्रेम को अनूठी हस्तलिपि में लिख रही है। 
     कवयित्री के अनुसार गंगा सिर्फ नदी नहीं है। वह एक आत्मा है, वह करोड़ों लोगों की आजीविका है। गंगा को जन्म से ही जीवनदायिनी बनने की, बिना भेदभाव अमृत बाँटने की, चुपचाप बहने की कठोर दीक्षा मिली है और यही नदी की संस्कृति है। गंगा का जल उदासियों, बेचैनियों को हर लेता है। गंगा में उतरने से पहले कोई इजाजत नहीं मांगता। गंगा सबको अपने ऊपर कब्जा करने देती है। गंगा स्वयं सबको अपने भीतर उतरने के लिए पुकारती है। उसकी चुलबुली लहरें आमंत्रित करती हैं। 
       कवयित्री के अनुसार गंगा भूलोक के अतिरिक्त स्वर्ग और पाताल में भी बहती है, इसलिए वह त्रिपथगामिनी है। गंगा अपना परिचय यूँ देती है -
"स्वर्गिक वरदान हूँ मैं / देवभूमि की शान हूँ /
भारत की आन हूँ / बहती अविराम हूँ" ( पृ. - 86 )
वह उस दृश्य को याद करने को कहती है, जब महाशिव ने मानव जाति के कल्याण के लिए अपनी जटाओं से धरा पर उतारा होगा। वह गंगा मैया की आरती के अद्भुत दृश्य का चित्रण करती है। आरती के समय के वैभव को सूर्य भी हैरानी से देखता है। आरती के समय गंगा में बहते दीप जलजलों में जिंदा रहने की कला बाँचते दिखते हैं। लहरों पर कतार में छोड़े दीप देखकर उसे लगता है -
"जैसे लहरों सँग बह चली हैं /
उन सबकी इच्छाएँ/आकांक्षाएँ /
पूर्णता पाने की ओर" (पृ. - 61 )
गंगा तट पर जुटी भीड़ उसे आस्था का समंदर लगता है। इस भीड़ में उसे पुरखों का वसुधैव कुटुम्बकम का विचार देखने को मिलता है। गंगा में डुबकी लगाने पर माँ की छवि सामने आ जाती है, खाली मन आनन्द से भर जाता है और माँ और गंगा मैया के आशीर्वाद से वह अंदर तक भीग जाती है। गंगा को देखकर उसे अहसास होता है कि मृत्यु कर बाद उसकी अर्थियों का भी यहीं प्रवाह होगा। 
          कवयित्री के लिए गंगा नारी रूप में है। इस रूप में वह सिर्फ अबला ही नहीं, अपितु कभी-कभी वह मनचले युवकों को भी सबक सिखाती है। पहाड़ियों पर गंगा शिशु रूप में होती है। सावन में उसका यौवन गदरा जाता है, वृद्धावस्था में वह शांत, गंभीर हो जाती है। समुद्र से मिलने जाती गंगा कवयित्री को षोडशी नज़र आती है। अक्षय तृतीया पर उसकी विदाई होती है। सोमेश्वर गंगा का भाई है। गंगा भैया दूज पर मुखवा गांव चली जाती है। गंगा की सहायक नदियाँ कवयित्री को गंगा की छोटी बहनें लगती हैं। 
        कवयित्री गंगा से सवाल-जवाब करती है। कवयित्री को लगता है कि किनारे से बंधे होना उसे अच्छा नहीं लगता होगा लेकिन गंगा कहती है कि वह उसी लय को पाने के लिए बंधी है, जिसमें ऋतुएँ और धरती बंधी हुई है। सबसे बड़ी इच्छा पूछे जाने पर वह समुद्र की बाँहों में सिमट जाना चाहती है। समुद्र में क्यों समाना चाहती है वह, के जवाब में वह पलटकर कवयित्री से पूछती है -
"नित्य ही, तुम क्यों सजाती हो /
सिंदूर माँग में" ( पृ. - 23 )
गंगा भी कवयित्री से सवाल करती है। गंगा के सवाल कवयित्री को निरुत्तर कर देते हैं। गंगा सागर से भी बातचीत करती है और उससे पूछती है - 
"नाराज हो मुझसे" ( पृ. - 93)
सागर गंगा से मिठास पाता है और गंगा भी समझती है कि अब उसकी झोली में पानी कम और कचरा अधिक है। कई बार सागर सचमुच में खफा होता है और वह कहता है -
"नहीं दे सकती अगर मिठास / तो न दो मुझे कचरा /
और दुर्गन्धयुक्त पानी" ( पृ. - 121 )
नदी की पीड़ा को सागर भी समझ नहीं पाता।
            कवयित्री को गंगा माँ-सी लगती है, जो सबको आश्रय देती है। वह उदारमना है और सबकी प्रार्थना को स्वीकार कर लेती है। कवयित्री उसे माँ-सी लाचार मानती है, जिसकी कद्र कोई नहीं जानता। जिस प्रकार अकारण माँ क्रोधित नहीं होती, उसी प्रकार गंगा भी अकारण क्रोधित नहीं होती, लेकिन जब गाद जमाकर गंगा का रास्ता मोड़ा गया तो उसके कोप का भाजन बनना पड़ रहा है। कवयित्री नदी के कचरा-गाद की उपमा धमनियों में जमे वसा से बाँधती है। बाढ़ और सूखे का कारण उसे गंगा माँ का सम्मान न करना लगता है। 
         गंगा का हाल पूछने पर वह कहती है कि मैं 'रिवर ऑफ लाइफ से' 'रिवर ऑफ डैथ' बन गई हूँ। मानव की अकल्पनीय धूर्तता और कृतघ्नता बताते हुए उसकी आँखें छलछला आती हैं। गंगा तट पर बैठी कवयित्री को गंगा अपने जन्मदिवस गंगा दशहरा पर कातर स्वर में कहती है -
"कर दो मुक्त मुझे / मैले के कहर से /
प्रदूषण के जहर से" ( पृ. - 41 )
वह कवयित्री को कहती है कि मेरी सलामती के लिए दुआ लिखना। वह फिर से अक्षय गंगा बनने के सपनों के बीज बोती है।   
         गंगा की लहरें उसे बताती हैं कि सभी को कर्म करना होता है। गंगा में नहाने मात्र से पाप से मुक्ति संभव नहीं, इसलिए वह लिखती है -
"पर जान-बूझकर किए पाप /
छोड़ते नहीं पीछा उम्र भर" ( पृ. - 97 )
कवयित्री को लगता है कि गंगाजल की चमत्कारी शक्ति खो गई है। लोग गंगाजल हाथ में लेकर अपनों के लिए जीवन माँगते थे, लेकिन आज प्रदूषित गंगा खुद जीवनदान मांग रही है। अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है। कवयित्री मनुष्य को सोचने के लिए कहती है -
"मरती (जलहीन) नदियाँ /
कैसे देंगी जीवनदान तुम्हें " ( पृ. - 39 )
            कवयित्री हरिद्वार में आने के अपने उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखती हैं -
"मैं तो मन में जिज्ञासा लिए /
पूछने आई हूँ तुम्हारा हाल-चाल" ( पृ - 26 )
कवयित्री को लगता है कि गंगा अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़ रही है। वह सबको कहती है -
"यदि तुम अब भी नहीं जागे / तो मैं ही नहीं /
खो देगा देश भी अपना पानी / फिर केवल तुम्हारी आँखों में ही /
बचेगा पानी" ( पृ. - 32 )
कवयित्री के अनुसार गंगा वेंटीलेटर पर है, उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया है, परिणामतः -
"राम नाम सत्य है कि तरह / गंगा नाम सत्य है /
बस यही / रह जाएगा एक दिन" ( पृ. - 78 )
             कवयित्री समस्त नदियों के संबन्ध में कहती है कि नदियों के जल का अपना संगीत होता है, जो मन को झंकृत कर देता है। नदी के साथ प्रेम में होना जीने के मायने पा लेना है। ये अपना सब कुछ बाँटने को आतुर रहती हैं, लेकिन नदियों को पानी देने वाली बारिशें अब नहीं होती, वह सवाल करती है -
"किसने बदली है / अपनी प्रवृति /
और नदी की नियति" ( पृ. - 62 )
वह नदी की सेहत को दुरस्त कर अल्लामा इक़बाल के तराने को जीवित रखने को कहती है। उसके अनुसार केदार घाटी और चेन्नई के विनाश के लिए नदियाँ दोषी नहीं। जीवन का पर्यायवाची नदी का जल काल रूप बन गया क्योंकि हमने ही वनों का विनाश कर अंधाधुंध कंक्रीटीकरण किया है। नदियों को उफनने के लिए हमीं ने मजबूर किया है। नदियों का काम पानी ढोना था, लेकिन हमने कचरा ढोना बना दिया है। कवयित्री हमें बदलने को कहती है क्योंकि अगर हम ठाले बैठे रहे तो नदियां कोहराम मचाती रहेंगी। वह नदियों को संवारने के आह्वान करती है। वह कहती है -
"वृक्षारोपण के साथ-साथ / करें जल रोपण-शोधन भी /
और रखें नदी को स्वच्छ" ( पृ. - 103 )
        नदी के सफर के माध्यम से कवयित्री जीवन-दर्शन का बयान करते हुए लिखती है -
"सभी को तय करने होते हैं /
अकेले ही अपने-अपने सफर" ( पृ. - 76 )
कवयित्री खुद को और गंगा को बन्धन में बंधा पाती है। वह लिखती है -
"काजल की सीमाओं में / बंधी मेरी आँखें /
और किनारों में बंधी तुम / ये बंधन हमारी किस्मत में /
क्यों बदा है सखी" ( पृ. - 115 )
कवयित्री उसको अपने पास पाती है, जिसके नाम की डुबकी वह गंगा में लगाती है। वह उन सभी के नाम की भी डुबकी लगाती है जो यहाँ आ नहीं पाते, लेकिन जिनकी आकांक्षा सदा रहती है। 
          इस संग्रह में प्रकृति का विशुद्ध चित्रण भी मिलता है। पहाड़, नदियाँ, हवाएँ, वन्य जीव, झरने यही स्वर्ग बना देते हैं। एक चित्र देखिए  -
"नदी के जल में फूटती लालिमा /
झलकती परिंदों की छवियाँ /
दिखता नीला निरभ्र आकाश" ( पृ. - 79 )
पूरा कविता संग्रह मानवीकरण पर आधारित है। गंगा नारी है, सागर उसका प्रियतम है और इसी रूपक पर सारी कविताएँ कही गईं हैं। कवयित्री ने प्रकृति के अन्य तत्त्वों का भी मानवीकरण किया है, यथा -
"अस्ताचल का सूर्य /
देखता है आँखे मिचमिचाकर" ( पृ. - 52 )
उपमा, रूपक का भी भरपूर प्रयोग हुआ है।
   संक्षेप में, कवयित्री ने गंगा नदी की पीड़ा को लघु कविताओं में बड़ी सरल शैली से बयान किया है। वह मानव को नदियाँ बचाने का आह्वान करती है। पूरे संग्रह में एक ही विषय होने के कारण कविताओं का यह संग्रह प्रबन्ध काव्य का अहसास देता है। इस अनूठे प्रयास के लिए कवयित्री बधाई की पात्र है। 
©दिलबागसिंह विर्क
87085-46183

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