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शनिवार, फ़रवरी 29, 2020

कोहरे को सूरज से उड़ा देने की चाहत से सराबोर संग्रह


कविता-संग्रह - कोहरा सूरज धूप

कवि - बृजेश नीरज
प्रकाशन - अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद
कीमत - 120/-
पृष्ठ - 112

अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद की साहित्य सुलभ योजना के अंर्तगत प्रकाशित बृजेश नीरज का कविता संग्रह "कोहरा सूरज धूप" अपने नाम के अनुरूप प्रकृति के चित्रण से भरपूर है, लेकिन कवि ने प्रकृति के मनोहारी चित्र कम ही खींचे हैं। प्रकृति के अवयव उद्दीपन का काम करते हैं। कवि निराश है, हालांकि वह हताश नहीं, उसके भीतर आक्रोश है और इसे बयान करने के लिए वह प्रकृति का सहारा लेता है। 

       कवि कविता-संग्रह की शुरूआत माँ से प्रार्थना करते हुए करता है। वह जब कहता है -
"तुम ही तो हो/ जिसने गढ़ी यह देह/
दिए भाव, विचार/" ( पृ. -23)
तब लगता है कि वे उस माँ से प्रार्थना कर रहे हैं, जिसने उसे जन्म दिया, लेकिन कविता के अंत में जब वे शब्द और अर्थ की माँग करते हैं तो यह प्रार्थना सरस्वती वंदना की तरह हो जाती है, फिर भी यह कविता पारम्परिक सरस्वती वंदना से हटकर है। 
         कवि के भीतर गहरी जिज्ञासा है। कवि को यह जानने की इच्छा है कि नीले आकाश के पार क्या होगा? और इसे जानने के लिए वहाँ जाना होगा और जाने के लिए पंख चाहिए जो उसके पास नहीं इसलिए वह गरुड़ को ढूँढने की बात करता है। कवि की जिज्ञासा इस बात को लेकर भी है कि मैं क्या हूँ? वह शब्द से भी पूछता है और पेड़ से भी, और पाता है कि एक चक्र विद्यमान है। कवि अपने बारे में सोचता है। वह भीड़ में अपना चेहरा ढूँढता है, हालांकि वह अपने चेहरे को पहचानता नहीं, फिर भी वह इसके प्रति चिंतित है, क्योंकि इसके पिघलने का खतरा मौजूद है। वह अपने लेखन के बारे में कहता है -
"कुछ है जो / कहने से रह जाता है हर बार /
कोई सत्य है / अब भी समझ से परे /" ( पृ. - 73 )
वह शहर की बड़ी दीवार पर लोकतंत्र लिख देना चाहता है, लेकिन उसका कायर दिमाग अनुमति नहीं देता। उसे पूर्व में किये कवि के एक प्रयास की भी याद आ जाती है। वह यह भी मानता है कि आज का कवि मजबूर है। मुक्तिबोध धूल फांक रहे हैं, त्रिलोचन, निराला भी नहीं बचे। कविता की हालत भी अच्छी नहीं -
"कविता कराह रही है गली के नुक्कड़ पर पड़ी" ( पृ. - 83 )
      वह विरोध का पक्षधर है, लेकिन वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट है। मोमबत्तियाँ जलाकर किया गया विरोध प्रदर्शन उसको बहुत सार्थक नहीं लगता। उसको लगता है - 
"अँधेरा गहराता जा रहा है" ( पृ. - 30 )
वह अपने आप से भी पूछता है कि सब चुप हैं तो वह क्यों चिल्ला रहा है? उसे पता है कि लालटेन लिखने के लिए खुद लालटेन होना होगा लेकिन वह अभी तक अँधेरा है। वह अकर्मण्य धारण किये हुए लोगों से कहता है -
"मुँह ढक लेने से / पश्चिम से नहीं उगेगा सूरज/" ( पृ. - 50 ) 
कवि लोगों की तुलना उल्लू और चमगादड़ से करता हुआ कहता है, कि सूरज तो रोज उगता है, लेकिन लोगों ने खिड़कियाँ बन्द कर रखी हैं और वे अँधेरा सहेजने लगे हैं। बाहर का तापमान बढ़ गया है, लेकिन शिराओं में बहता रक्त ठंडा है।
           "आज़ादी" कविता में वह लिखता है कि हम आजाद हैं, लेकिन हालात बहुत बेहतर नहीं, सत्ता का चेहरा बदला है,चरित्र नहीं। जहाँ जन के मन की बात कोई नहीं सुनता, हालांकि उसे जन-गण-मन गाना अच्छा लगता है। कवि 'सब आज़ाद है' कहकर वर्तमान हालातों पर तंज कसता है। ज़िन्दगी में अनेक रंग हैं और इन रंगों में भूख से कुलबुलाती आँतों का पीलापन भी है, खाली खेत की मिट्टी का रंग भी है। उसे अहसास की जमीन बंजर होती दिखाई देती है। प्रश्न-बीज अनेक बार बोये गए हैं, लेकिन वे उग नहीं पाए। इसके लिए बरसात न होना भी एक कारण है। वह चौराहे पर गाड़ियों के शीशे साफ करके पैसों के लिए हाथ फैलाते बच्चों का चित्रण करता है। इन बच्चों का बचपन व्यवस्था के पहियों से दमित हो गया है और अब वयस्क होने को बेचैन है। गर्मी के माध्यम से वह एक मजदूर की दशा और उसके जीवट को बयान करता है। आदमी, पेट, भूख ये तीन शब्द हैं, जो कवि के कंधे पर लदे हुए हैं और ये कब उतरेंगे इसकी उसे जानकारी नहीं। बच्चे के हिस्से की रोटी कौन खा गया, इस विषय पर पूरा गाँव खामोश है।
             कवि नीरसता भरे माहौल का चित्रण करता है -
"न शहनाई, न मातम /
न बरता है दिया / देहरी पर /" ( पृ . - 41 )
वह वातावरण में व्याप्त भय को दिखाता है। अँधेरा उसे अपना-सा लगता है। कभी वह बैठे-बैठे सोचता है कि आसमान टूटकर गिरेगा और धरती का रंग बदल जाएगा। आँखों में कोई सपना नहीं, भले वह उस बन्द सड़क को देख रही है, जो संसद को जाती है। सतर में अर्थ की तलाश है। जीवन में अपना चाहा हुआ नहीं होता।  कवि को आधुनिक शहर वीराने से लगते हैं, जिसमें समकोण पर काटती सड़कों पर एक जैसे घरों में घर तलाशना मुश्किल हो गया है। गाँवों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं। कवि जब अपने गाँव जाता है तो उसे बदला हुआ पाता है। वह लिखता है -
"अब कुछ भी नहीं / आम, जामुन, कटहल /
अम्मा, बाग / कुछ नहीं / सिर्फ़ हैं /
ईंटों के मकान / सरपत और बबूल /
ढेर सारे /" ( पृ. - 81 )
"धारा ठिठकी सी" कविता में कवि ने उस गंगा के दुख को प्रकट किया है, जो मैल से बने प्रच्छन्नता के द्वीपों के बीच सहमी, सिकुड़ी हुई बह रही है। वह अपने जन्मदाता से कभी-कभार सवाल पूछती है -
"हे भगीरथ! / तुम मुझे कहाँ ले आए?" ( पृ. - 27 )
           कवि पूरी तरह से निराश हो गया हो, ऐसा भी नहीं, उसे लगता है कि जड़ों से विलग शाख फिर हरी हो सकती है, इसके लिए जमीन की तलाश है। रात अपनी गहनता का अहसास तो कराती है, लेकिन वह पल-पल गुजर रही है और सुबह होने को है। वह निरंतर चलने की बात करते हुए लिखता है -
"बाँस में टँगी लालटेन/ आस में जल रही है /" ( पृ. - 72 )
उसका मानना है कि कुतुबमीनार पर चढ़कर चीखने से हालात कुछ तो ज़रूर सुधरेंगे। वह कहता है -
"इस कौंधते अंधकार में / ढूँढ़नी ही होगी /
प्रकाश की किरण /"( पृ. -85 )
वह कुम्हार के माध्यम से समाज निर्माता को आह्वान करता है -
"यह सोने का समय नहीं" ( पृ. - 95 )
उसका मानना है कि वर्तमान हालातों में रामायण जैसे हालात पैदा हो गए हैं। आसुरी प्रवृतियाँ परजननशील हैं। रावण के सिर बढ़ते जा रहे हैं, ऐसे में वह राम से कहता है-
"राम! तुम कहाँ हो?" ( पृ. - 112 )
       कवि जीवन के बारे में कहता है -
"पटरी रखकर/ तो नहीं खींची जा सकती/
ज़िन्दगी की लकीर/" (पृ. - 33 )
और बिना पटरी लकीर सीधी नहीं खिंचती, यही जीवन का कटु सत्य है। वह ज़िंदगी को सहेजने के प्रयास करता है मगर वह हर बार दूर छिटक जाती है। हाथ की लकीरें त्वचा के स्याहपन में गुम हो जाती हैं। समय से कवि का साथ कभी नहीं निभा।
          प्रेम कविताओं का विषय कम ही बना है, फिर भी इक्का दुक्का रंग विद्यमान हैं। प्रेम में उसका आकाश अधिक विस्तार पा गया है, प्रेमिका के स्पर्श ने उसकी धरा को असीमता दी है। प्रेमिका का होना कवि की आवश्यकता बन गया है। वह प्रेमिका के लिए तारे तोड़ना चाहता है, लेकिन उसका कद बौना है। 'विछोह' कविता में वियोग के दो चित्र हैं। कवि अपनी प्रेमिका की आवाज सुनने, उसके दीदार को पाने के लिए बेकरार है, जबकि वह अपने घर में खुश है। दूसरे चित्र में वह कहता है कि सब कुछ पहले जैसा है बस उसी की कमी है। कवि जब अंदर से बिखरा हुआ महसूस करता है, तो प्रियतम के कदमों की आहट उसे समेट देती है। 
          आकार की दृष्टि से अधिकांश कविताएँ सामान्य आकार की हैं, लेकिन कुछ कविताएँ छोटी हैं जबकि एक कविता सामान्य आकार से थोड़ी लम्बी है। लघु कविताएँ पाठकों को सोचने के लिए विवश करती हैं। कवि धरती आकाश के बीच खुद को अकेला पाता है। हवा के कारण खुली किताब उसे अतीत में ले जाती है। वह बढ़ती आबादी और आवाजाही के साधनों के बीच खाली जगह नहीं ढूँढ पा रहा, यहाँ सुकून से बैठा जा सके। उसे सपनों को हरे करने वाली बारिश की तलाश है। खाली बाल्टी में टपकते पानी को भौंचक्का होकर देख रहा है। पेड़ो को छीलकर प्रेम पत्र लिखना हाथी के दाँत निकालकर मूर्ति बनाने जैसा ही है। इन छोटी कविताओं के विपरीत "बहुत दिन बाद आए" एक लंबी कविता है, जिसमें कवि के मित्र को देर से मिलने जाने के प्रसंग में बदले हुए गांव का चित्रण किया गया है।
           प्रकृति का चित्रण तो अधिकांश कविताओं में है ही। एक उदाहरण - 
"आसमान खामोश / हर तरफ सन्नाटा /
सूरज की तपती किरणों में / पिघलती सड़क /" ( पृ. - 44 )
'प्रातः' कविता प्रातःकालीन समय का सुंदर चित्र है, जिसमें कवि को अरूणोदय में कुमकुम दिखता है।
             भाव पक्ष से ये कविताएँ जीवन को देखती, समाज की स्थिति पर चिंतन करती हुई हैं। वहीं शिल्प पक्ष से कविता के मापदंडों पर खरी उतरती हैं। हालांकि कवि का कहना है कि वह शिल्प की बजाए भाव को महत्त्व देता है, उसे सत्य की तलाश है, छंद, अलंकार तो अनायास ही उसकी कविताओं में समाहित हो जाते हैं। ये अनायास शामिल हुए बिम्ब, अलंकार कविता को और सुंदर बनाते हैं। अनेक रूपक हैं जिनमें संबंधों के कुएँ हैं, कटुता की मिट्टी है, बीते कल की गीली लकड़ी है। उपमा है -
"आँधियाँ दौड़ती हैं / दूर जब /
रेलगाड़ी जैसी" ( पृ. - 108 )
संबोधन का प्रयोग है -
"नीरज, बहुत दिन बाद आए" ( पृ. - 98 )
बिम्ब हैं -
"कभी हँसती-खेलती / इठलाती पगडंडी /
आज उदास, खामोश है / घास के बीच /
दुबली-पतली लकीर सी /" ( पृ. - 40 )
मानवीकरण के अनेक उदाहरण हैं, यथा -
पेड़ चले गए हैं कहीं / छाँव की तलाश में /
घास तलाश रही है / धरती में सिर छुपाने की जगह /" ( पृ . - 42 )
कविताएँ मुक्त छंद में हैं, लेकिन शून्य कविता का अंत दोहे से किया गया है -
"भाव मिले जब शून्य हो, मन में ज्ञान समाय
तन माटी से ऊपजा, तन माटी में मिल जाय ।" ( पृ. - 105 )
          संक्षेप में, "कोहरा सूरज धूप" समाज में व्याप्त कोहरे और अंधेरे को सूरज, धूप के माध्यम से उड़ा देने की सोच से रचा गया सुंदर कविता-संग्रह है। इसके लिए बृजेश नीरज जी बधाई के पात्र हैं।
© दिलबागसिंह विर्क
8708546183

3 टिप्‍पणियां:

Ravindra Singh Yadav ने कहा…

जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (02-03-2020) को 'सजा कैसा बाज़ार है?' (चर्चाअंक-3628) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव

Onkar ने कहा…

सुन्दर समीक्षा

Sudha Devrani ने कहा…

लाजवाब समीक्षा

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