BE PROUD TO BE AN INDIAN

बुधवार, नवंबर 01, 2017

जीवन को करीब से देखती ग़ज़लें

ग़ज़ल-संग्रह – ये कभी सोचा न था
शायर – डॉ. रूप देवगुण
प्रकाशक – पूनम प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ - 80
कीमत – 125 /- ( सजिल्द )
रूप देवगुण कविता, लघुकथा, कहानी के प्रमुख हस्ताक्षर हैं, लेकिन ग़ज़ल वे सामान्यत: नहीं लिखते लेकिन “ ये कभी सोचा न था ” ग़ज़ल के क्षेत्र में उनका प्रथम प्रयास है | वे स्वयं लिखते भी हैं -
लघुकथा, कविता, कहानी तो लिखी मैंने बहुत
पर ग़ज़ल भी कह सकूंगा ये कभी सोचा न था | (पृ. – 37 )
भले ही यह ग़ज़ल के क्षेत्र में उनका प्रथम प्रयास है लेकिन उन्होंने काफिया, रदीफ़ को बखूबी संभाला है | ग़ज़लों में गेयता भी है | भावों में नजाकत देखिए -
सीढ़ी से वो यूँ उतरी हौले-हौले
जैसे सीढ़ी को ही उतरते देखा है | (पृ. – 60 )

भाव पक्ष से उनकी गज़लें सशक्त हैं | ग़ज़लों में तमाम विषयों को समेटा गया है | प्रेम तो गजलों का प्राण है, रूप देवगुण की गज़लें भी इससे अछूती नहीं | वे प्यार की प्रकृति का ब्यान करते हैं -
उलटे ही ढब का है देखो, प्रेम नाम का सागर भी
इसमें जितना डूबे उतना पार उतर जाते हैं लोग | (पृ. – 15 )
प्रेम में प्रेमियों की दशा का सटीक वर्णन है -
कोई मरा, कोई घायल, कोई टूटा
इश्क़ में ये सब कुछ तो होता रहता है | (पृ. – 27 )
प्रेमी के लिए उसके प्रिय का साथ ही जन्नत है, इसके बारे में लिखते हैं -
हर घड़ी दिल चाहता है कैद क्यों होना
यार, जादू सा, तेरी बांहों में कुछ तो है | (पृ. – 38 )
            प्रेम के बाद दोस्ती और रिश्तों पर भी उन्होंने शे’र कहें हैं | इनमें उन्होंने उजले और काले दोनों पक्ष  को लिया है | दोस्त उन्हें भगवान-सा लगता है –
भाई कभी, दिलदार कभी, भगवान कभी लगते
यार तेरी यारी को मैं उपहार मानता हूँ | (पृ. – 45 )
दोस्ती में वे विश्वास को महत्त्व मानते हैं -
शक दोस्ती के वास्ते है इक जहर समान
पाला है दिल में प्यार, तो विश्वास को जानो | (पृ. – 47 )
वे उस तरह के दोस्तों का बयां करते हैं जो बदल जाते हैं –
उसने हमको देखा भी पर अपनी धुन में निकल गया
ऊँची पदवी पाकर, अपना आज हुआ बेगाना था | (पृ. – 13 )
पीठ पीछे बुराई करने वालों को कहते हैं -
अपने भीतर भी कभी वो झाँक कर देखे जरा
पीठ पीछे दोस्तों की जो बुराई करता है | (पृ. – 34 )
            रिश्ते, परिवार भी उनका विषय बने हैं | उनकी नजर में घर सिर्फ वही हैं जहाँ प्यार है –
प्रेम छोटों से, बड़ों का मान जिस घर में नहीं
एक दिन वो आएगा जब घर मकां हो जाएगा | (पृ. – 11 )
लेकिन आजकल घरों में दीवारों का उठना आम है, इस पर वे कहते हैं -
भाई-भाई थे कभी ये आज बात वो कहाँ
घर के बीचो-बीच की दीवार को तो देखिए | (पृ. – 63 )
हालात सिर्फ घरों के लिए नहीं बदले, अपितु समाज के भी बदले हैं –
बोलचाल, खानपान सब का सब गया बदल
आज इस समाज के आचार को तो देखिए | (पृ. – 63 )
लेकिन इस बदलते दौर में बुरे हालात नहीं बदल रहे -
वही पुराना पहनावा है, वही पुरानी चाल
सुनते तो थे द्वार पर नया साल आया है | (पृ. – 76 )
            मकां की बजाए घर को चाहने वाले देवगुण जी घर के बड़ों का सम्मान चाहते हैं, इनके चरणों को छूना उन्हें मन्दिर जाने से अच्छा लगता है -
कौन जाए पत्थरों को पूजने
पाँव छूना भी तो एक बन्दगी है | (पृ. – 40 )
वे घर के बड़े की मृत्यु पर कह उठते हैं -
उम्र भर वो धूप से हमको बचाता मर गया
जिस्म उसका आग में अब हम जलाएं किस तरह | (पृ. – 33 )
लेकिन अमूमन घरों में बुजुर्गों के साथ जो व्यवहार होता है, वह भी उनसे छुपा नहीं -
उसकी खटिया कभी इधर तो कभी उधर सरकाते हैं
घर का मालिक नहीं हो जैसे घर का इक सामां है वो | (पृ. – 68 )
            भावुक मन के कवि की कलम बच्चों पर कुछ न लिखे हो ही नहीं सकता है | इन गजलों के अनेक अशआर बच्चों के लिए हैं | वे लिखते हैं -
वो घर की शान है, रौनक है सूने आंगन की
वो एक बच्चा है, बांहों में झुला लो उसको | (पृ. – 53 )
बच्चों को प्यार की ही भूख होती है –
कब से रो रहा है बच्चा प्यार का मोहताज है
उसके सारे आँसुओं का प्यार ही इलाज है | (पृ. – 77 )
बच्चों के बैग का बच्चों से भारी हो जाना उन्हें दुखी करता है –
बोझ किताबों का ऊपर से चश्में का नम्बर
ऐसे चेहरे फूल कमल सा बन, कब खिलते हैं | (पृ. – 62 )
            प्यार, घर-परिवार के अतिरिक्त अनेक सामयिक विषयों पर उनकी कलम चली है | वे भारत की गुलामी की पीड़ा को समझते हैं -
यूनानी, यवनी, अंग्रेजी शासक झेले हैं
पराधीनता क्या है, हिन्दुस्तान से पूछो | (पृ. – 46 )
जाति-धर्म के सहारे जीतने वालों की जीत को वे हार मानते हैं -
जाति-धर्म का जाल बिछाकर, धन का देकर लालच
जीत गया वह बेशक हमसे, हम तो मात कहेंगे | (पृ. – 9 )
वे ऐसे राजनैतिक दल की कामना करते हैं, जो पढ़ा-लिखा हो -
होवें पढ़े लिक्खे सभी नेता जहाँ
ऐसा भी कोई दल तो होना चाहिए | (पृ. – 18 )
उनका मानना है कि हालात किसी को चोर बना देते हैं -
कई दिनों से भूखा था, सो रोटी लेकर भागा
चोर नहीं वो, इसको हम उसके हालात कहेंगे | (पृ. – 9 )  
किसान की दशा का चित्रण करते हैं –
सारी खेती पिछले कर्जे में ही निकल गई
क्या बोया, क्या काटा कोई किसान से पूछो | (पृ. – 46 )   
भ्रष्टाचारी की यहाँ मौज है –
यूँ ही नहीं दस बीस कार कोठी बनती
लगता है ऊपर की बहुत कमाई है | (पृ. – 64 )
            इसके बावजूद उनका दृष्टिकोण आशावादी है | वे अतीत की बजाए वर्तमान को महत्त्व देते हैं -
दादागिरी में वो पेश-पेश था कभी
पर आज संत है ये बदलने की बात है | (पृ. – 50 )
वे अपनी नजर निशाने पर रखने का संदेश देते हैं -
आँख मंजिलों पे रख, न देख राह की तरफ
चढ़ना है पहाड़ तो, ढलान को न देखिए | (पृ. – 30 )
ढलता दिन भी उन्हें निराश नहीं कर पाता -
आज का दिन ही नहीं है आखिरी दिन उस उम्र का
फिर सुबह आएगी, सूरज ढल रहा है, ढलने दो | (पृ. – 12 )
शरीर की कमजोरी भी इरादों को डिगाती नहीं -
पंख कट गए तो क्या, हैं दिल में वलवले बहुत
चाहतों को देखिए, उड़ान को न देखिए | (पृ. – 30 )
उनकी सोच है कि प्रयास करते रहना चाहिए. भले ही आप निपुण न हों –
मानता हूँ गले में वो दम तो नहीं
फिर भी तन्हाई में गुनगुनाया करो | (पृ. – 44 )
वे जीवन को आनन्द के साथ जीने के पक्षधर हैं -
बंद रहते हो कमरे में क्यों हर घड़ी
चाँदनी में भी आकर नहाया करो | (पृ. – 44 )
वे दिखावे के विरोधी है -
लालसा है नाम खुदवाना दरो-दीवार पर
दान क्या करता है वो, कैसी भलाई करता है | (पृ. – 34 )
उनका मानना है कि काम आत्मसंतुष्टि के लिए किया जाना चाहिए –
काम अगर करना है तो कर आत्मा के वास्ते
क्यों लगा रहता है औरों को दिखाने के लिए | (पृ. – 20 )
            आत्मकथात्मक शैली में उन्होंने बहुत से अशआर कहे हैं, जिनसे उनके व्यक्तित्त्व का भी पता चलता है -
मानना बुरा नहीं किसी का भी
अपनी ज़िंदगी का ये असूल है | (पृ. – 70 )
वे सबसे प्यार से रहना चाहते हैं –
गाली नहीं, गोली नहीं, झगड़ा न कोई
बस प्यार से ही पार पाना चाहता हूँ | (पृ. – 78 )
आत्म मूल्यांकन के लिए वे एकांत चाहते हैं –
अब मेरा दरवाजा न कोई खटखटाए  
मैं अपने भीतर ही समाना चाहता हूँ | (पृ. – 78 )
और आत्म मूल्यांकन के बाद कभी उन्हें लगता है -
नाम ही परिचय था मेरा एक वो भी दौर था
नाम भी पैदा करूंगा ये कभी सोचा न था | (पृ. – 37 )
तो कभी सोचते हैं -
बेकार ही गुजार दी हमने ये ज़िंदगी
कुछ काम भी न आए किसी को न भा सके | (पृ. – 19 )
वे महसूस करते हैं -
है सफ़र जैसे मेरी तकदीर का हिस्सा
टिक नहीं पाए, मेरे पांवों में कुछ तो है | (पृ. – 38 )
            जीवन का मजा तब ही लिया जा सकता है जब शरीर स्वस्थ हो, इसलिए वे सबको सेहत पर ध्यान देने की बात कहते हैं
खा-खा के इस तरह न मोटापा बढ़ाइए
गर सेहत चाहते हो तो उपवास को जानो | (पृ. – 47 )
जीवन की नश्वरता का उन्हें भान है, ये जीवन उन्हें रेन बसेरा लगता है -
जीवन है इक सफ़र, मौत जिसकी अंतिम मंजिल होगी
सुबह सभी उठ चले जाएंगे, दुनिया रैन बसेरा है | (पृ. – 55 )
             रूप देवगुण जी ने जीवन को करीब से देखते हुए उसे अपनी गजलों में पिरोया है, इसलिए उनके रचनाएँ आकर्षित करती हैं, मन को भाती हैं | आशा है अन्य विधाओं की तरह इस विधा पर भी उनकी पकड़ पुख्ता बनेगी और साहित्य को उनसे बेहतरीन ग़ज़ल-संग्रह मिलेंगे |

दिलबागसिंह विर्क 
      ******              

1 टिप्पणी:

रश्मि शर्मा ने कहा…

बहुत बढ़ि‍या। रचनाकार और आप टि‍प्‍पणीकार दोनों बधाई के पात्र हैं।

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...