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बुधवार, अक्तूबर 04, 2017

श्रृंगार के विरह पक्ष को ब्यान करता संग्रह

कविता-संग्रह – सिर्फ तुम से ही
कवयित्री – विम्मी मल्होत्रा
प्रकाशन – समर पेपरबैक्स
पृष्ठ – 102
कीमत – 110 /- ( पेपर बैक )
प्यार और इन्तजार की बात करती कविताओं का गुलदस्ता है ‘ विम्मी मल्होत्रा ’ का प्रथम कविता-संग्रह “ सिर्फ तुम से ही ” | पुस्तक का शीर्षक ही विषय वस्तु को ब्यान करता है | इस संग्रह में इस शीर्षक की कोई कविता नहीं, लेकिन सभी कविताएँ जिस अज्ञात को समर्पित हैं, जिस प्रिय को कवयित्री ने अपनी रचनाओं का आधार बनाया है, उसी को शीर्षक के माध्यम से दर्शाया है | हालांकि प्यार से इतर विषयों पर भी कवयित्री ने कलम चलाई है, लेकिन इस संग्रह का मुख्य स्वर प्यार ही है |

                   वह मुहब्बत को परिभाषित करते हुए कहती है –
रंग मुहब्बत का है ये छूटे से ना छूट पाएगा /
जितना उतारोगे ये और सुर्ख होता जाएगा /( पृ - 95)
वह अपने प्रियतम को आँखों में बसाकर दिल में छुपा लेना चाहती है | वह प्रियतम को कहती है –
कभी मौन की परिभाषा जान लिया करो /
क्या है छुपा खामोशी में पहचान लिया करो( पृ – 91 )
वह उसे सलाम करती है –
जब भी तुम्हारा नाम लूं / तुझको सलाम दूं /
वादे और मुहब्बत की / एक ज़िंदा मिसाल दूं |( पृ – 24 )
वह खुद को बेरंग तस्वीर मानती है जो प्रियतम के स्पर्श से संवर सकती है | प्रियतम सीने में छुपा राज है -
बताना भी मुश्किल छिपाना भी मुश्किल /
सीने में पलता वो राज हो तुम /( पृ – 82 )
कभी वह प्रियतम का नाम लिखकर सब राज खोलना चाहती है, लेकिन वह ऐसा कर नहीं पाती –
नाम तेरा पुकारा है / दिल में उभरती सांसों ने /
सोचती हूँ लिख ही दूं / फिर कलम अब मौन क्यों है ?( पृ – 81 )
              कविताओं में प्यार का वियोग पक्ष अधिक उभर कर आया है | कवयित्री को इश्क़ की समझ ठेस लगने पर ही आती है और अब दिल के टुकड़े समेटने के सिवा कुछ नहीं बचा है | कवयित्री इसी से उपजी उदासियों को लेखन का कारण भी मानती है –
जब भी उदास होती हूँ /
अक्षरों की माला में ख़ुद को पिरो लेती हूँ |( पृ – 71 )
प्रियतम उसे सपना लगता है –
अजनबी सा था वो / अपना कब था /
वक्त की राहों पर / सपना सा था ( पृ – 53 )
दोस्त दुश्मिन निभा गया है | वह जहर देकर उसका असर पूछता है | उसे लगता है कि उन दोनों के बीच कांच की दीवार है | कभी वह ख़ुद से कह उठती है कि
काश! उसने मेरा दिल न तोडा होता
काश! रब ने दिल मेरा पत्थर का बनाया होता
काश! किस्मत ने ना मुझे उससे मिलाया होता ( पृ – 37 )
वह प्रियतम से सवाल भी करती है –
बुझाने ही थे चिराग़ मुहब्बत के / तो जलाए ही क्यों थे /( पृ – 67 )
प्रियतम की याद दबे पाँव चली आती है | उसे जब प्रियतम की याद सताती है तो चाँद मुँह चिढाता हुआ लगता है | यादों की हवा जख्मों को हरा कर देती है | उसकी नींद उड़ गई है क्योंकि यादें गम के सिरहाने आकर सो गई हैं | वह लिखती है –
लहू का इक-इक कतरा / तेरी याद बन गया ( पृ – 57 )
फिर भी वह दिल की दहलीज पर यादों के दिए जलाती है
कवयित्री उसे कहती है –
दर्द क्या होता है / किसी रोज बताएंगे तुझे /
दर्द के पन्नों पर लिखी / कविता सुनाएंगे तुझे /( पृ – 26 )
वह साथी से ख़ुद को भुलाने की चुनौती देती है –
अगर हो मुमकिन आप से तो / भुला दीजिए मुझे /
पत्थर पर पड़ी लकीर हूँ / मिटा दीजिए मुझे( पृ – 19 )
वह प्रियतम से कहती है –
फर्क बस इतना है तेरी और मेरी चाहत में /
मैंने टूटकर चाह है और तुमने इसे तोड़ा है |( पृ – 59 )
विरह की आग उसे जलाती है, वह प्रियतम को कुछ तरस खाने को कहती है | उसे लगता है कि वह रिश्तों का कर्ज किश्तों में चुका रही है | वह कह उठती है -
दर्द का कारवां / गुजर क्यों नहीं जाता /( पृ – 61 )
वह रातों को दोष नहीं देना चाहती क्योंकि प्रियतम तो दिन के उजालों में खोया है | कभी वह गम में डूब जाती है तो कभी ख़ुद को तस्सली देती है -
 “ फूल चाहतों का / खिला नहीं / फिर भी सनम /
हमें तुमसे / कोई गिला नहीं ...|( पृ – 29 )
              प्यार के अतिरिक्त अन्य विषय भी कवयित्री की कलम की नोक पर आते हैं | वह माँ के इन्तजार का वर्णन करती है | 16 दिसम्बर को याद करते हुए वह कहती है –
कोई तो करो शंखनाद ( पृ – 10 )
उसका मानना है –
कुरूप विचार होते हैं / चेहरा कुरूप होता नहीं( पृ – 51 )
बेटी को कल मानते हुए वह लिखती है –
बेटी नहीं बचाएंगे / तो /
परिवार कैसे / बढ़ाएंगे /( पृ – 12 )
बेटी को वह कमजोर नहीं मानती | बेटी कहती है –
आपकी लाठी बन / खड़ी हो गई /
हाँ पापा मैं बड़ी हो गई...( पृ – 15 )
             वह ख़ुद को धरा के रूपक में बांधती है | बूढा बरगद का पेड़ उसे बुजुर्ग-सा लगता है | वह आह्वान करती है कि हरी घास पर कुलांचें भरें, नीले आंचल से मोती चुनें, शब्दों में मिश्री भरें और मौन को स्वीकार करें | वह आँखों की व्याख्या करती है | वह जिन्दगी को परिभाषित करते हुए कहती है –
अंधेरों में रौशनी कि एक किरण ज़िंदगी /
वक्त के थपेड़ों को आजमाती ज़िंदगी /
क्षण क्षण प्रतिक्षण दौड़ती भागती ज़िंदगी |( पृ – 35 )
गरीबी का चित्रण करते हुए वह लिखती है –
प्रतिदिन बुझा है / चूल्हा /
हर घर की / थाली खाली है |( पृ – 43 )
प्रकृति का चित्रण देखिए –
आम के बगीचे में / पेड़ों की टहनियों पे /
झूले पड़ते जाएँ /( पृ – 63 )            
                 संग्रह में कुल 78 कविताएँ हैं, जो मुख्यत: मुक्त छंद में हैं, लेकिन कहीं-कहीं ग़ज़लनुमा शैली को अपनाने का प्रयास जरूर किया है, लेकिन इन्हें मुक्त कविताएँ ही कहना ज्यादा उचित है | हाँ, तुकांत का प्रयोग कवयित्री ने हर जगह अपनाने का प्रयास किया है | भाषा सरल और सहज है | अलंकारों का प्रयोग भी अनायास ही हुआ है | विरह में डूबी कविताएँ पाठकों को बाँधने का सामर्थ्य रखती हैं | पुस्तक का आवरण आकर्षक है और छपाई सुंदर है | कवयित्री का यह पहला प्रयास है जो यह उम्मीद जगाता है कि उनकी कलम आगे और बेहतर कविताओं की सृजना करेगी |
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दिलबागसिंह विर्क 

1 टिप्पणी:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुन्दर समीक्षा।

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