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बुधवार, अप्रैल 06, 2016

प्रयोगों की भेंट चढ़ती स्कूली शिक्षा

शिक्षा और समाज अन्योन्याश्रित होते हैं। समय के साथ-साथ समाज की ज़रूरतों में बदलाव होता रहता है। ऐसे में शिक्षा में भी परिवर्तन ज़रूरी है। विभिन्न शैक्षणिक आयोगों की स्थापना, शिक्षा नीति का निर्माण इसी उद्देश्य से किया जाता है, लेकिन यह बदलाव जितने ज़रूरी हैं, उतना ही यह भी ज़रूरी है कि बदलाव सिर्फ बदलाव के लिए न हो, क्योंकि हर पुरानी विचारधारा बुरी नहीं होती और हर नई विचारधारा उपयोगी होगी, यह भी ज़रूरी नहीं। दुर्भाग्यवश हरियाणा में शिक्षा में पिछले दो दशक से ऐसे-ऐसे बदलाव हुए हैं कि शिक्षा इन प्रयोगों की भेंट चढ़ गई है।

                         शिक्षा क्षेत्र में सबसे बुरा प्रयोग 1995 में डी.पी.ई.पी. की शुरुआत से हुआ। डी.पी.ई.पी. के सिद्धांत बुरे हों ऐसा नहीं लेकिन परिस्थितियों ऐसी नहीं थी कि इनका सार्थक उपयोग हो पाता। बच्चों और अध्यापकों का अनुपात सही न होना , इसकी असफलता का प्रथम और सबसे बडा कारण था। डी.पी.ई.पी. खेल खेल में शिक्षा पर बल देती थी। पारम्परिक रूप से भाषा गणित का ज्ञान इसमें नहीं दिया जाता था। कक्षा में बच्चों की संख्या 50 के लगभग होने पर खेल खेल में शिक्षा से खिलवाड हो गया और डी.पी.ई.पी. के अंतर्गत पाँचवी पास करने वाले बहुत से छात्र ऐसे थे जिन्हें हिंदी पढ़नी नहीं आती थी। जब इसकी जानकारी हुई तो पुनः पारम्परिक पाठ्य पुस्तकों पर लौटना पड़ा, हालांकि बहुत सारे बच्चों का भविष्य खराब किया जा चुका था। डी.पी.ई.पी. की पाठ्य पुस्तकें तो विदा हो गई लेकिन डी.पी.ई.पी. जाते-जाते बहुत सारे अवशेष छोड़ गई। हमारी पारम्परिक शिक्षा कहती थी - 
पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब 
खेलोगे कूदोगे होओगे खराब।
डी.पी.ई.पी. के बाद पाठ्य सहगामी क्रियाओं पर अत्यधिक बल दिया गया। सर्वांगीण विकास के लिए पाठ्य-सहगामी क्रियाओं और खेल का विशेष महत्त्व है, लेकिन दुर्भाग्यवश हमने एक अति को छोडकर दूसरी अति को पकड लिया। पहले पढ़ाई पर अत्यधिक जोर दिया जाता था, अब सारा ध्यान पाठ्य सहगामी क्रियाओं पर हो गया। अनुशासन के मामले में भी ऐसा ही हुआ। पुराने समय में अध्यापकों की मार पुलिस के थर्ड डिग्री प्रयोग जैसी थी, अब बच्चों की तरफ आँख उठाकर देखना भी गलत हो गया। शिक्षा में बीच के रास्ते को न अपनाया जाना शिक्षा के गिरते स्तर के लिए उतरदायी कारणों में प्रमुख कारण है।
                       पिछले कुछ समय से सेमेस्टर प्रणाली ने भी शिक्षा की बुरी दशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दोष सेमेस्टर प्रणाली का नहीं, भारतीय जलवायु का हो सकता है। पहले सेमेस्टर में पढ़ने के लिए गिनती में भले ही पर्याप्त दिन होते थे, लेकिन वास्तविकता इससे अलग रही। अप्रैल से सत्र की शुरुआत होती है और जून में ग्रीष्मावकाश। इन दो महीनों में पढ़ाई अपनी रफ़्तार नहीं पकड पाती थी, क्योंकि दाखिले की अवधि रोज बढ़ाना यहाँ का सामान्य नियम है। अध्यापकों पर इन दिनों में अधिक से अधिक दाखिले करने का दवाब होता है और उनका ज्यादातर समय स्कूल की बजाए गाँव की गलियों बीतता है। सितम्बर में पहले सेमेस्टर की परीक्षा से पूर्व दो महीने जुलाई और अगस्त ही होते थे, लेकिन इनमें भी खेल कूद और अन्य गतिविधियाँ भी चलती रहती हैं। सेमेस्टर की परीक्षा और मूल्यांकन में भी डेढ़ महीने की वर्बादी होती थी, जो दूसरे समेस्टर की पढाई को प्रभावित करती थी। वर्तमान समय में सेमेस्टर सिस्टम को समाप्त कर दिया गया है। 2016-2017 के सत्र से सभी कक्षाओं के लिए वार्षिक परीक्षा प्रणाली को अपनाया जाएगा, लेकिन इसी से सारी समस्याओं का समाधान हो गया हो ऐसा नहीं, अपितु अब नई समस्या खड़ी कर दी गई है, वो है- मासिक परीक्षा। मासिक परीक्षा समय की बर्बादी का प्रमुख कारण बन रही है, हालांकि सिद्धान्तगत यह कहा गया है कि मासिक परीक्षा का आयोजन प्रार्थना सभा के दौरान किया जाएगा और इससे पढ़ाई बाधित नहीं होगी, लेकिन यह सोच वास्तविकता के धरातल पर खरी नहीं उतरती क्योंकि सरकारी स्कूलों में अधिकाँश बच्चे ऐसे परिवेश से हैं, जिनके घरों में पढ़ाई का कोई माहौल नहीं होता । परीक्षा के दिनों में पेपर की तैयारी स्कूल में ही करवानी पडती है, ऐसे में 25 दिनों में 7 दिन हर महीने परीक्षा के नाम पर खर्च होते हैं। शिक्षा की बुरी दशा में ये कारण तो उत्तरदायी हैं ही, इन सबसे अधिक उत्तरदायी है शिक्षक को शिक्षण के अतिरिक्त अन्य कार्यों में लगाना। पाठ्य सहगामी क्रियाओं में अध्यापक की ऊर्जा खपाई गई, स्कूल सौन्द्रियकरण, मध्याह्न भोजन और अतिरिक्त ड्यूटियों से अध्यापक अध्यापक न रहकर क्लर्क बन गया है, रही-सही कसर ऑनलाइन कार्यों ने पूरी कर दी। ये सभी कार्य महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन शिक्षकों से शिक्षण कार्य छीनने की कीमत पर इन्हें पूरा नहीं किया जाना चाहिए।
                  वर्तमान सरकार नई शिक्षा बना रही है, लोगों की राय का नाटक रचा गया है। नई शिक्षा नीति की प्रश्नावली के प्रश्न हैं कि क्या आपके स्कूल के अध्यापक समय पर आते हैं ? उन्हें समय पर लाने के लिए क्या किया जाना चाहिए ? अध्यापकों का समय पर आना न आना प्रशासनिक समस्या तो हो सकती है, शैक्षणिक नहीं। शिक्षा नीति का प्रमुख मुद्दा तो होना चाहिए क्या पढाया जाए ? कैसे पढाया जाए ? मूल्यांकन प्रक्रिया क्या हो ? और इस संबंध में अगर आपको राय चाहिए तो शिक्षकों और शिक्षाविदों से पूछा जाना चाहिए न कि ग्राम सभा से। 
                    निस्संदेह बहुत सारी कमियाँ हैं, कमियाँ गिनाना आसान है, लेकिन समाधान ढूँढना मुश्किल। कुछ समाधान इस प्रकार के हो सकते हैं -
               वार्षिक परीक्षा लागू हो चुकी है। अब मासिक परीक्षा प्रमुख समस्या बनी हुई है। ऐसे में मासिक परीक्षा की बजाए पुराने समय की तरह सितम्बर और दिसम्बर में घरेलू परीक्षाएँ हों, आंतरिक मूल्यांकन के नाम पर जो 20 अंक प्रोजेक्ट और मासिक परीक्षा के आधार पर दिए जाते हैं, इन दो घरेलू परीक्षाओं के आधार पर दिए जाएँ।  पाठ्य सहगामी क्रियाओं हों, लेकिन इन्हें अक्टूबर तक सीमित कर दिया जाए। नबम्वर से फरवरी तक सिर्फ पढाई हो। शिक्षक को शिक्षण कार्य के लिए स्वतंत्र किया जाए। उसका मूल्यांकन उसके परिणाम से हो अर्थात् सीधा नियम हो- हम आपको पढ़ाने का समय देंगे, आप प्रणाम दिखाएँ, लेकिन इसके लिए कुछ इन्तजार तो करना ही होगा। 20 साल से पटरी पर से उतरी शिक्षा एक ही झटके में पटरी पर नहीं चढ़ेगी। हाँ, बदलाब का असर दिखना शुरू हो सकता है। अध्यापकों की संख्या तो पर्याप्त हो ही, स्कूल में मुखिया, क्लर्क, डाटा आपरेटर, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी होना अनिवार्य शर्त हो, क्योंकि इनकी मौजूदगी के बाद ही अध्यापक अध्यापन कार्य के लिए स्वतंत्र हो सकता है। अनुशासन पर पुनः विचार होना चाहिए। वर्तमान में अध्यापक बच्चों के सामने जिस प्रकार से असहाय नजर आता है ,उस माहौल में शिक्षा संभव नहीं ।
                      समाज को दी जाने वाले सुविधाएं एक तरफ होती हैं और शिक्षा दूसरी तरफ, अगर आप समाज को शिक्षित नहीं कर पाए तो आपके सारे कृत्य व्यर्थ हैं। ऐसे में शिक्षा के पतन को रोकना जरूरी है, पतन रुकने के बाद विकास की बात सोची जा सकती है। शिक्षा का विकास ही समाज और देश को विकासपथ पर अग्रसर करेगा। वैसे तो काफी देर हो चुकी है, लेकिन जब जागो तभी सवेरा के अनुसार यदि अब भी संभल जाया जाए तो बुरा नहीं ।

दिलबागसिंह विर्क 
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( न्यूजबल्क के दिसंबर - जनवरी अंक में प्रकाशित )

2 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

बहुत सुन्दर .. नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-04-2016) को "मुँह के अंदर कुछ और" (चर्चा अंक-2311) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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