BE PROUD TO BE AN INDIAN

बुधवार, नवंबर 25, 2015

पंजाबी से अनुवादित कहानियों का गुलदस्ता

पुस्तक - पंजाबी की श्रेष्ठ कहानियाँ
संपादिका - विजय चौहान 
प्रकाशक - राजपाल, दिल्ली 
पृष्ठ - 136
कीमत -  95/ - ( पेपरबैक )
" पंजाबी की श्रेष्ठ कहानियाँ " विजय चौहान द्वारा संपादित कहानी संग्रह है । इसमें पंजाबी के प्रमुख अठारह कहानीकारों की एक-एक कहानी संकलित है । ये कहानीकार पंजाबी कहानी के प्रथम दौर से तीसरे दौर के हैं । अलग-अलग दौर के कहानीकार होने के कारण विषय और शिल्प की दृष्टि से इस संग्रह में पर्याप्त विविधता है । सभी कहानीकारों ने अपने नजरिये से पंजाब को देखा है और इस प्रकार पाठक के समक्ष कई दृष्टिकोण उभरकर आते हैं । समाज की दशा, बदलते दौर के प्रभाव, साहित्यकारों की व्यथा और दशा, लोगों की सनक, प्रेम आदि विषयों को लेकर इन कहानियों का ताना-बाना बुना गया है ।

                 कथानक के दृष्टिकोण से अमृता प्रीतम की कहानी ' एक गीत का सृजन ' एक कमजोर कहानी है । दरअसल यह कहानी कम एक कथात्मक निबन्ध अधिक है । लेखिका बताती है कि रवि नज़्म लिखकर कैसा महसूस करता है और किस प्रकार के ख्याल उसे घेरते हैं । हालाँकि लेखिका मोना नामक पात्र का सृजन करती है लेकिन कथा आगे नहीं बढ़ती । यह सार्त्र की विचारधारा पर लेखिका के विचार मात्र बनकर रह जाती है । अन्य कहानियों में कम से कम ये कमी नहीं । 
               इस संग्रह की पहली कहानी पंजाबी कथा जगत को दिशा प्रदान करने वाले कथाकार नानक सिंह की है । ' ताश की आदत ' कहानी में नानक सिंह ने कथनी और करनी के अंतर को विषय बनाया है । यह कहानी पंजाब पुलिस के चरित्र को भी दिखाती है । कहानी का मुख्य पात्र शेख अब्दुल हमीद सब इंस्पेक्टर है और वह अपने पुत्र बशीर को ताश न खेलने की नसीहत देता है लेकिन कहानी का अंत इस बात पर होता है कि वह रिश्वत लेकर मेले में जुआखाना लगाने की इजाजत देता है । गुरबख्श सिंह की कहानी ' भाभी मैना ' जैन परिवार की विधवा की कहानी है, जो सिखों के मुहल्ले में रहती है लेकिन मुहल्ले से उनका कोई मेल-जोल नहीं । मैना अपने बालों से बेहद प्यार करती है । उसके जीवन के दो आधार हैं एक तो लम्बे और सुंदर बाल तथा दूसरा सामने के मकान का लड़का जिससे उसकी कभी बात नहीं होती । लड़के को देखने तक की बंदिश जब लग जाती है तो वह साध्वी बनने को तैयार हो जाती है लेकिन मुंडन करवाना उसके लिए संभव नहीं अतः वह ख़ुदकुशी कर लेती है । ' ला बोहीम ' देविन्दर सत्यार्थी की कहानी है । इसमें मुख्य पात्र रोजी है जो नीलकण्ठ के लिए लन्दन छोड़कर भारत आती है लेकिन नीलकंठ के पास उसके लिए समय नहीं । ला बोहीम में वह लेखक, मल्होत्रा और नागपाल के साथ बैठती है । यह कहानी एक यूनानी लोककथा के माध्यम से आगे बढ़ती है । रोजी और नागपाल के आपसी आकर्षण को सांकेतिक तरीके से इसमें व्यक्त किया गया है । 
                    यह कहानी संग्रह करतार सिंह दुग्गल को समर्पित है और इस संग्रह में दुग्गल की कहानी " म्हाजा नहीं मरा " शामिल है । म्हाजा तांगेवाला है । अकेला रहता है । उसका घोडा ही उसका एकमात्र साथी है, जिसे वह पुत्र कहकर पूरी कहानी में संवाद करता है । बदलते दौर में लोग ताँगे की सवारी नहीं करते इसलिए वह अपने घोड़े को मसाला भी नहीं खिला पाता, जिसका उसे दुःख है । कहानी पुलिस के चरित्र को भी बयान करती है लेकिन यह म्हाजा की चरित्र कथा ही है । इसके बाद अमृता प्रीतम की कहानी ' एक गीत का सृजन ' है जिसमें लेखिका ने रवि के मन में उठने वाले ख्यालों को बयान किया है । बलबन्त गार्गी की कहानी ' माता जी ' एक बनारसी साध्वी की कथा है जो असफल प्रेम के बाद साध्वी बनती है । बनारस के घाट पर विदेशी युवकों के अध्यात्म के लिए नशे में धुत रहने का चित्रण इस कहानी का एक अन्य पहलू है लेकिन यह कहानी साध्वी के उसके प्रेमी से भेंट होने पर अपना आश्रम छोड़ जाने पर समाप्त होती है । 
                  सन्तोख सिंह ने ' मंगो ' नामक गाय के पात्र के माध्यम से ईर्ष्या और अपनी अहमियत कम होने के बाद होने वाली प्रतिक्रिया का चित्रण है, जिसका उद्देश्य दूसरे का बुरा नहीं होता लेकिन बुरा हो जाने पर पश्चाताप होता है । ' खूमानियाँ और बादाम ' कहानी में लेखक महिंदर सिंह सरना ने रचनाकारों की व्यथा का चित्रण किया है । साहित्यिक पुस्तकें कोई नहीं खरीदता इसीलिए क्रांतिकारी कवि अब रूप-बसन्त लिखने का फैसला करता है । अजीत कौर की कहानी ' माँ का दिल ' एक मर्द के स्त्री पर जमाए गए आधिपत्य पर रोष व्यक्त करती है लेकिन औरत मार खाकर पति को नहीं छोड़ पाती क्योंकि वह ममता के कारण विवश है । 
                    ' इंटरसेकटिंग लाइंज ' जसवंत सिंह विरदी की कहानी है जो बन्धनों की छटपटाहट को बयान करती है । लेखिका बनने के लिए अकेलापन जरूरी है इस धारणा के आधार पर पमा विकास से तलाक ले लेती है । लेखक सोचता है कि उसकी पत्नी भी जब से कविता लिखने लगी है वह अंतर्मुखी होती जा रही है । जसवंत सिंह कंवल पंजाब की क्रांतिकारी लहरों से जुड़े विषयों को चुनता रहा है । ' वफादारी ' कहानी भी इसी विषय को लेकर है लेकिन यह वास्तव में आज और कल के अंतर को बयान करती है । आज क्रांतिकारियों में न वफादारी है, न प्रतिबद्धता यह दिखाने के लिए वह बीते अतीत की कहानी सुनाता है कि किस प्रकार कामरेड अंडर ग्राउंड के जमाने में वफादारी निभाते थे । गुलजरसिंह संधू की कहानी ' उसकी ओट ' ट्रक ड्राइवर बग्गा सिंह की कुशलता की कथा है लेकिन वह अपनी कुशलता को परमात्मा की मर्जी मानता है, लेकिन एक बरसाती रात में परमात्मा उसको तो नहीं बचाता लेकिन ट्रक पर टँगी ' उसकी ओट ' लिखी पट्टी सुरक्षित रहती है ।
                 ' दिल की जगह ताला ' नामक कहानी में नवतेज सिंह ने वकील साहब के सनकी और शक्की स्वभाव का वर्णन किया है, जिसकी सजा भुगतती है उसकी पत्नी सुखजिंदर । गुरबचनसिंह भुल्लर अपनी कहानी ' रेशम और टाट ' में सीरी ( खेतिहर मजदूर ) और जमीन मालिक के संबंधों को दर्शाता है । साथ ही इस कहानी का दूसरा पहलू यह भी बताता है कि अत्याचारी लोग कितनी जल्दी टूट जाते हैं । 
                       ' हार ' कुलवन्त सिंह विर्क की मानवीय स्वभाव को दर्शाती कहानी है । मनोहरलाल और उसकी पत्नी बचत करके खुश हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वे बड़ा महान कार्य कर रहे हैं लेकिन जब उन्हें लगता है कि उनकी बचत बड़ी मामूली है तो वे खुद को हारा हुआ महसूस करते हैं । मोहन भंडारी अपनी कहानी ' माँ-बेटी ' में माँ द्वारा बेटी पर लगाई जाने वाली बन्दिशों पर केंद्रित है जिसे बेटी स्वीकार नहीं करती । वह स्वप्नों में भी विरोध करती है लेकिन जब सपने के कारण उसकी नींद टूटती है तो पाती है कि उसकी माँ बिस्तर पर नहीं और पड़ोस वाली दीवार पर कपड़ों के दो जोड़े हवा में लहरा रहे हैं, जिनमें नीचे वाला उसकी माँ का था ।
                 ' कुत्ता और आदमी ' कहानी पंजाबी के सबसे अधिक चर्चित लेखक गुरदयालसिंह की है । यह मालवे के निम्न मध्यवर्गीय वर्ग का दुखांत है । ईसर चंदी को खरीदकर लाता है लेकिन वह काफी सालों बाद उसे और उससे पैदा हुए बेटे घुन्ने को छोड़कर भाग जाती है । चंदी के भाग जाने के बाद ईसर की दशा और विचार इस कहानी का कथानक है । रामस्वरूप अनखी की कहानी ' सोया नाग ' इस कहानी संग्रह की अंतिम कहानी है जो प्रेम में औरत की दिलेरी और बदला लेने के विषय पर केंद्रित है । जीतो मुकंदे की पत्नी है लेकिन वह शेरू नामक माली से प्रेम करती है । मायके जाकर वह रात के समय शेरू को मिलने जाती है । मुकन्दा उसके पीछे जाता है और शेरू का वध कर देता है । जीतो को पता नहीं चलता कि उसके प्रेमी की हत्या किसने की लेकिन कई सालों के बाद जब उसे पता चलता है कि उसका पति ही उसके प्रेमी का कातिल है तो वह अपने पति का वध कर देती है । 
              कथानक में विवधता के साथ-साथ शिल्प की दृष्टि से भी इस संग्रह में कई अंग हैं । कहानी को आगे बढ़ाने के लिए अलग-अलग कहानीकारों ने अलग-अलग विधियों को अपनाया है । नानकसिंह कहानी में संवाद का सहारा लेते हैं हालांकि ज्यादातर हमीद अकेला ही बोलता है, बशीर कोई प्रतिक्रिया नहीं करता । जरूरत के हिसाब से वर्णन भी किया गया है, जैसे - 
" एक कोने में मोटी, पतली, कानूनी और गैर कानूनी किताबें और कागजों से भरी कई फाइलें पड़ी थीं । बीचों-बीच कलमदान और उसके पास ही आज की डाक पड़ी थी; जिसमें पाँच-छह लिफाफे, दो-तीन पोस्टकार्ड और एक-दो अखबारें भी थीं । " ( पृ. - 9 )
चरित्र को उभारने पर बल है । हमीद के संवाद उसे एक कड़क पुलिस वाले के रूप में प्रस्तुत करते हैं । अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस किस प्रकार की विधि अपनाती है, इसकी तरफ भी इशारा है । 
" यह तो तुमसे क़बूल करवाने का तरीका था । हम बहुत-से मुलजिमों को इसी तरह बकवा लेते है । " ( पृ. - 10 )
बशीर के चरित्र को उसके क्रिया-कलापों द्वारा बड़े सुंदर तरीके से उभारा गया है । 
" कलमदान में से उंगली पर स्याही लगाकर बशीर एक कोरे कागज़ पर चील-घोड़े बना रहा था । खरबूज़े का नाम सुनते ही उसने उंगली को मेज़ की निचली पट्टी से पोंछकर बाप की तरफ इस तरह देखा जैसे कोई सचमुच हाथ में खरबूजा लिए बैठा हो ।" ( पृ. - 10 ) 
कहानी कथनी करनी का अंतर दिखने के उद्देश्य को लेकर लिखी गई और इसके लिए उपदेशक पिता का दूसरा पहलू दिखाने के लिए वे नौकर का प्रवेश करवाते हैं । वह बताता है - 
" जी वही बुद्धी बदमाश के आदमी, जिन्होंने दशहरे के मेले में जुआखाना लगाने की अर्ज की थी ।" ( पृ. - 12 ) 
उसका अपने मालिक से वार्तालाप कहानी को बांछित अंत प्रदान करता है । गुरबख्श सिंह कहानी की शुरुआत खुद वर्णन करते हुए करते हैं- 
" शहर की गली के आमने-सामने दो घरों के बीच मुश्किल से तीन-साढ़े तीन गज का फासला होगा । " ( पृ. - 13 )
संवाद और पात्रों के आत्मकथ्य द्वारा आगे बढ़ते हैं । संवाद छोटे और सटीक हैं -
" ' लेकिन माँ, हम लोग तो मांस नही खाते ।'
' ये तो समझते हैं कि सारे सिख मांस खाते है । ' "( पृ. - 14 ) 
मैना को अपने बालों से बहुत प्यार है और पूजनी बनने में सबसे बड़ी बाधा यही है । आखरी क्षण तक उसका द्वन्द्व चलता रहता है - 
" मुझे पता था । मैं बाल कटवा लूँगी .... लेकिन .....लेकिन काटने का वक्त अब आया है । मुझे लग रहा है कि मेरे बाल जिन्दा है .... ये मेरे प्राणों में से उगे हैं । " ( पृ. - 22 ) । 
बालों का यही प्रेम उसके अंत का कारण बनता है । विधवा जीवन के दुखांत को दिखाना ही इसका उद्देश्य है । लेखक ने मैना के दुःख और चरित्र को काके, काके की माँ और खुद मैना के द्वारा दिखाया है । देविन्दर सत्यार्थी मैं पात्र की मौजदूगी से आत्मकथ्य का समावेश अपनी कहानी में करता है लेकिन संवाद को मुख्य आधार बनाया गया है । लेखक ने रोजी के मन को उसके खुद के शब्दों द्वारा बयान किया है - 
" नीलकण्ठ के लिए मेरे पास लन्दन में भी टाइम था, लेकिन मेरे लिए नीलकण्ठ के पास दिल्ली में भी वक्त नहीं है, चाहे मैं नीलकण्ठ के पास ही ठहरी हूँ । " ( पृ.- 27 )
लेकिन वह नीलकण्ठ की मजबूरी को भी समझती है - 
" शायद नीलकण्ठ की उतनी गलती नहीं है । वह एक सच्चे आर्टिस्ट की तरह अपने नए नाटक की रचना में व्यस्त रहता है । " ( पृ. - 28 )
रोजी नीलकण्ठ के साथ रहकर भी स्वप्न लोक में रहती है - 
" मेरा वह सपना पूरा होकर रहेगा, और मैं रोम की उस गली में जाकर रहूँगी, जिसमें माइकल ऐंजलो रहता था ।" ( पृ. - 32 ) 
कहानी मूलतः रोजी पर केंद्रित है लेकिन लेखक ने इस कहानी के बहाने भारतीय और पाश्चात्य समाज का तुलनात्मक अध्ययन किया है - 
" हमारे देश में तो कोई ऐसी परंपरा नहीं । कोई नहीं कह सकता कि यह वही जगह है जहाँ बैठकर अमीर खुसरो कविता और संगीत की साधना किया करता था । " ( पृ. - 26 )
करतारसिंह म्हाजा की उसके घोड़े से बातचीत के आधार पर कथानक को आगे बढ़ाते हैं । यह उद्देश्यपूर्ण कहानी है । इसका उद्देश्य गरीबी में भी म्हाजा के ईमान न डोलने का बयान करना है । म्हाजा खुद भी अपने क्रिया कलाप बताता है लेकिन इसे अमली जामा पहनाते दिखाया है कहानी के अंत में । दिन भर उसे कोई सवारी नहीं मिलती लेकिन जब मिलती है तो वह उसे उतार देता है क्योंकि वह सवारी किशोरीलाल की बेटी है, जिसे वह कभी स्कूल लेकर जाता था । आज वह किसी अंग्रेज साथी के साथ है और नशे में है । वह कह उठता है - 
" हाय, कैसा अंधेर ! यह लिली थी ? लिवलीन ! ज़माने को क्या होता जा रहा है ? आग लग गई है । आग लग गई है ......" ( पृ. - 45 )
बदलते दौर का वर्णन तो पूरी कहानी में है ही । लोगों जीवन शैली पर भी लेखक कलम चलता है - 
" इसी तरह कंजूसी कर-करके तो ये चार पैसे बचाते हैं और फिर चाँदनी चौक पर जाकर सुर्खियों और पाउडरों पर बर्बाद कर आते है । " ( पृ. - 35 )
या फिर 
" ये आजकल के लोग इतना तेज दौड़-दौड़कर वक्त बचाते हैं, तो फिर उस वक्त का क्या करते हैं ? सिनेमा का टिकट खरीदने के लिए घण्टों तक लगातार लाइन में खड़े रहते हैं, डाकखाने में टिकट लेने के लिए लाइन लगती है, सुबह दूध लेने जाओ तो लाइन में खड़ा होना पड़ता है, छोटे-बड़े सभी लाइन में खड़े होते हैं । इधर वक्त बचाते हैं उधर लाइनों में खड़े होकर वक्त बर्बाद करते हैं । " ( पृ. - 38 ) 
पुलिस के चरित्र को भी इसमें बड़ी खूबसूरती से दिखाया गया है । अमृता प्रीतम की कहानी का नायक खुद कई दृष्टिकोण से सोचता रहता है । कवि की मनोदशा का चित्रण इस कहानी की विशेषता है । कविता क्या है इस पर कई दिशाओं से सोचा गया है -
 " फिर रवि को ख्याल आया कि हर नज्म ख़ामोशी की औलाद होती है । जब आदमी एक तरफ से इतना गूँगा हो जाता है कि एक शब्द भी नहीं बोल पाता, तो उसे अपनी खामोशी से घबराकर कविता लिखनी पड़ती है । " ( पृ. - 48 )
बलबन्त गार्गी मैं पात्र के रूप में कहानी में विद्यमान रहता है । वह माता जी और उसके शिष्यों को अपनी आँखों से देखता भी है और उनसे संवाद भी करता है । संवाद द्वारा ही माता जी का इतिहास उदघाटित किया जाता है और संवाद द्वारा ही इसका अंत निर्धारित होता है । शब्द चित्र इस कहानी को निखारते हैं - 
" भगवा धोती लपेटे, पैरों के भार बैठी माता जी हथेली पर गाँजा मल रही थीं  जिस्म भी मश्क़ जैसा, गीला, कमाया हुआ चमड़ा, चेहरे पर उम्र का तजुर्बा, माथे पर त्रिशूल का निशान, सर पर जटाओं का दोबुर्जा " ( पृ. - 53 )
डेरे के माहौल की सृजना भी लेखक करता है - 
" बम बम बम बम !
अलख निरंजन ! 
मसान का देवता !
सब दुःख भंजन ! " ( पृ. - 53 )
संतोखसिंह मानवीय स्वभाव को गाय के माध्यम से व्यक्त करते हैं । मंगो गाय खुद से बातें करती है और इसी से कहानी आगे बढ़ती है ।
" हाय रे, मेरी पहलौठी, कबूतरी जैसी बछिया । बदन पर गोरे-गोरे दाग़ । माथे पर सूरज जैसा फूल । खसम की सती ने सुनकर ठूठी जैसा मुँह बना लिया । कहने लगी, बछड़ा नहीं दिया । जट्टी को अपनी ग़र्ज़ प्यारी है । बछड़ा होता तो हल के आगे जोड़ते । " ( पृ. - 65 ) 
यह पंक्तियाँ गाय की आत्माभिव्यक्ति तो हैं ही, तात्कालीन जरूरतों का भी सटीक अंकन करती हैं । ईर्ष्यालु आदमी ईर्ष्या करते हुए बहुत बार बुरा नहीं चाहता, यही दिखाना इस कहानी का उद्देश्य है -
' " हैं....!" मंगो पूनी की तरह हो गई । " सोमा सचमुच मर गई.....?" मंगो पत्थर की तरह चुप खड़ी थी । एक दहशत-भरी कंपकंपी उसके शरीर को चीर गई । " यह क्या हो गया ! ऐसा तो उसने कभी नहीं सोचा था । दो बर्तन होते हैं तो आपस में टकराते ही हैं । लेकिन यह क्या हो गया....!" ( पृ. - 70 )
महिन्द्रसिंह व्यंग्य के माध्यम से बात कहता है । - 
" साथ में जलेबियाँ खाओ, साथ में कविता पढ़ो । एक टिकट में दो मजे । खूमानियाँ भी खाओ, बादाम भी । " ( पृ. - 76 )
लोगों की नजर में अदब की स्थिति को इस वार्तालाप से बखूबी समझा जा सकता है -
' " मैं कहता हूँ, यह लटरचटर क्या होता है ?" हलवाई ने पूछा ।
" लटरचटर नहीं, " धमियालवी ने अनावश्यक खीझ से कहा, " लिट्रेचर, अदब, साहित्य ।" ( पृ. - 76 )
लोगों को क्या पसन्द है, इस पर वे धमियालवी से कहलाते हैं - 
" बस पढ़नेवाली तो दो ही चीजें हैं । रूप-बसंत का किस्सा और बलराम डाकू का किस्सा । " ( पृ. - 77 )
अजीत कौर आँखों देखी घटना के रूप में कहानी लिखती हैं, जिसमें महिला पर अत्याचार होते देखकर वह महिला से संवाद करती है । यह कहानी माँ की ममता के साथ औरत की स्थिति का भी बयान करती है -
" गुस्से में काँपता हुआ वह मर्द कह रहा था, ' हमारा अउरत है...हम मारें, पीटें जो करें ! हमरा अउरत है । ' 
          मेरी भैंस है, मेरी गाय है, मेरे जो जी में आए मैं इसके काम ले सकता हूँ । जैसे जी में आए रख सकता हूँ । मेरी कुर्सी है, मेरा मेज़ है, चाहे मैं इसे तोड़ूँ - टुकड़े-टुकड़े करके चूल्हे में जला दूँ, चाहे मैं इसे झाड़-पोंछकर रखूँ; जो जी में आए करूँ, किसी को क्या ? " ( पृ. - 79 )
कहानी का अंत बड़ा संकेतिक है - 
" गाय बूचड़खाने की तरफ जा रही थी - खुद अपने पैरों से दौड़ती हुई । उसके गले में कोई रस्सी भी नहीं थी, लेकिन वह दौड़ती जा रही थी । क्योंकि ताँगे में, उस आदमी के पैरों में उसका बछड़ा बैठा था । " ( पृ. - 80 )
इंटरसेकटिंग लाइंज में लेखक मैं पात्र के रूप में घटनाओं को विश्लेषण करता है और अंत में उसे वही कुछ खुद के साथ घटने की आशंका होती है । - 
" पमा के बारे में सोचते-सोचते, एक अज्ञात भय ने मुझे घेर लिया - अब रमा भी कविता लिखने लगी थी और दिनोंदिन अंतर्मुखी होती जा रही थी । " ( पृ. - 87 )
जसवन्तसिंह कंवल फ्लैश बैक तकनीक का प्रयोग करता है । एक अक्खड़ कामरेड का चित्रण इसमें हुआ है - 
' " मैं गिर जाऊँगा, ओए किराड़ा, तेरी माँ की...." मोजी ने शोर मचा दिया । ( पृ. - 93 )
कहानी का अंत तुलना करते हुए किया जाता है । गुलजारसिंह वर्णनात्मक शैली को अपनाता है । बग्गा सिंह की कुशलता और भगवान के प्रति आस्था का बयान किया जाता है - 
" लेकिन बग्गासिंह को ख़ुदा पर बहुत भरोसा था । उसने ट्रक पर ' तेरी ओट ' लिखवा रखा था और यह वाक्य अपने दिल में अच्छी तरह से अंकित कर रखा था । नहीं तो वह कौन होता था इतने मोड़ों वाले बीहड़ रास्तों में से इतनी सफाई से गाड़ी निकालने वाला ? " ( पृ. - 97 ) 
लेकिन ओट और कुशलता का कोई प्रमाण नहीं दिखाया जाता अपितु ओट के उल्ट अंत होता है । अंत में व्यंग्य भी निहित है - 
" रब्ब बड़ा ज़बरदस्त है । अलग पड़ी तख़्ती को किस तरह फूल की तरह संभाले बैठा है । " ( पृ. - 98 )
नवतेज सिंह वकील साहब की सनक को बड़ी खूबसूरती से बयान करते हैं - 
" तीन-चार बार ऐसा भी हुआ है था कि इन तालों की कतार को कितनी बार बन्द करने और यह शक दूर करने में, कि शायद कोई खुला न रह गया हो, वकील साहब को गाड़ी पकड़ने में देरी हो गई थी । " ( पृ. - 104 ) 
आधुनिकता से उन्हें इतनी चिढ़ है कि वे गुलामी तक को स्वीकार करने को तैयार हैं - 
" उफ़ ! औत्तर जाए ऐसी क़ौम - आज़ादी न मिलती तो अच्छा होता ! " ( पृ. - 102 ) 
और वकील साहब की यही सनक उस समय चरम पर पहुँच जाती है जब वह दाँत के डाक्टर को उसकी पत्नी के चेहरे पर हाथ लगते देखते हैं । कहानी का अंत यथार्थवादी है । गुरबचन सिंह रेशम और टाट शीर्षक को दो तरीकों से बयान करता है । पहले सीरी की स्थिति है - 
" राह में उसे महसूस हुआ कि जैसे उसके जिस्म पर टाट जैसे खद्दर की जगह रेशम पड़ गया हो - मुलायम रेशम । और वह मुस्करा पड़ा । उसके मन को आज उसी तरह की गहरी शान्ति महसूस हो रही थी जैसी वह हर साल तलवंडी की वैसाखी का तीर्थ-स्नान करके महसूस किया करता था । " ( पृ. - 111 ) 
और दूसरी बार मालिक की - 
" चौबारे की सीढ़ियाँ उतरते वक्त उसे लगा, जैसे संगू ने उसकी बनी-बनाई सरदारी का रेशम उतारकर अपमान के टाट का खुरदरा पल्लड़ पहना दिया है । " ( पृ. - 112 )
हार कुलवन्तसिंह विर्क की मनोवैज्ञानिक कहानी है । यह कहानी यह भी बताती है कि गरीबी और बुरी दशा देखकर इस पर चिंता करने वाले लोगों की कमी नहीं । अनेक घटनाएं दिखाई गई हैं जो मनोहरलाल की संवेनशीलता को व्यक्त करती हैं लेकिन हर आदमी प्रसिद्धि चाहता है । नेकी कर कुएँ में डाल जैसी धारणा का न होना ही दुःख का कारण बन जाता है । इस कहानी का अंत भी इसी निराशा को दिखाता है - 
" मनोहरलाल की बीवी को मेहनत से बचाई अपनी चवन्नियाँ, दवन्नियाँ तुच्छ मालूम होने लगीं । " ( पृ. - 117 )
मोहन भंडारी औरत की दशा का चित्रण करता है - 
" औरत भागती बाद में है, हाँफना पहले से ही शुरू कर देती है । " ( पृ. - 123 )
लेखक ने संवाद के माध्यम से कहानी को आगे बढ़ाया है -
" ' विद्या.....!!!'
' हाँ, माँ '
' कौन था यह लफंगा-सा ? क्या कह रहा था तुझे ? मुस्टंडा कहीं का । रोज़ इसकी हरक़तें देखती हूँ मैं । '
' कितनी प्यारी मुस्कान थी उस लड़के की ! ' लड़की का दिल धड़का । " ( पृ.- 121 )
गुरदयालसिंह ईसर को कभी बेटे से तो कभी खुद से संवाद करते दिखाते हैं । चंदी के साथ आया कुत्ता डब्बू भी कहानी को चरम तक ले जाने में मुख्य भूमिका निभाता है । औरत के प्रति नजरिये को भी बयान किया गया है - 
" लेकिन कमज़ात कहीं के, इस पर यक़ीन न करना । चाहे लाख बस गई हो, लेकिन औरत ज़ात..." ( पृ.- 130 )
रामस्वरूप अनखी वर्णात्मक शैली को अपनाता है - 
" असौज-कार्तिक का मौसम था । मुकन्दा बाकी परिवार से अलग जाकर सो गया । आधी रात जीतो को महसूस हुआ कि मुकन्दा गहरी नींद में सो गया है । वह चुपके से उठी । उसने मुकंदे की छाती पर हाथ रखकर देखा । वह न हिला-डुला । जीतो को यक़ीन हो गया, लेकिन मुकन्दा दरअसल नींद का बहाना किए पड़ा था । " ( पृ. - 133 ) 
हालांकि यह स्पष्ट नहीं किया गया कि मुकंदे ने नींद में होने का बहाना क्यों किया । कहानी का अंत करने के लिए मिलती-जुलती परिस्थितियां पैदा की गई हैं - 
" तब नहीं डर लगता था जब आधी रात उठकर माली के पास गई थी । " ( पृ. - 136 )
          यह पुस्तक राजपाल जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन से प्रकाशित हुई है, लेकिन प्रूफ संबन्धी गलतियां हैं । कहानी संग्रह का नाम पंजाबी की श्रेष्ठ कहानियाँ है । सभी कहानियाँ अच्छी हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं, लेकिन श्रेष्ठता का कोई मापदण्ड नहीं होता, इसलिए इस संग्रह का नाम " पंजाबी की चुनिंदा कहानियाँ " होता तो ज्यादा बेहतर था, फिर भी गुरमुखी न पढ़ पाने वालों के लिए पंजाबी कहानी को पढ़ने और पंजाबी समाज को समझने का बेहतरीन अवसर प्रदान करती हैं । संपादिका विजय चौहान इसके लिए बधाई की पात्र हैं । 
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© दिलबगसिंह विर्क
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2 टिप्‍पणियां:

Asha Joglekar ने कहा…

पढनी पडेगी यह किताब। सुंदर और विस्तृत समीक्षा।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-11-2015) को "मैला हुआ है आवरण" (चर्चा-अंक 2175) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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