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सोमवार, नवंबर 21, 2011

क्या यह चोरी नहीं ?


सुधि पाठकों के सामने दो लघुकथाएँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. एक लघुकथा मेरी है, जो अक्षर खबर पत्रिका के लघुकथा अंक में सितम्बर 2005 में प्रकाशित हुई थी, दूसरी लघुकथा श्रीमती इंदु गुप्ता जी की है, जो 21 नवम्बर 2011 को दैनिक जागरण के सांझी अंक में प्रकाशित हुई है। इन दोनों लघुकथाओं को पढकर बताइए क्या यह चोरी का मामला है या नहीं ? यहाँ मैं यह भी बताना चाहूँगा कि अक्षर खबर पत्रिका के जिस अंक में मेरी लघुकथा प्रकाशित हुई थी, उस अंक में इंदु गुप्ता जी की लघुकथाएं भी प्रकाशित हुई थी । 

                               *  * * * *
                    गरीबी ----- दिलबाग विर्क 

'अरे कल्लू मजदूरी पर चलेगा' - मैंने कल्लू से पूछा, जो अपने झोंपड़े के आगे अलाव पर तप रहा था. वैसे आज ठंड कोई ज्यादा नहीं थी । हाँ, सुब्ह-सुब्ह जो ठंडक फरवरी के महीने में होती है, वह जरूर थी । कल्लू ने मेरी ओर गौर से देखा और कहा - ' अभी बताते हैं साहिब ' और इतना कहकर वह खड़ा हो गया और झोंपड़े के दरवाजे पर जाकर आवाज दी - ' अरे मुनिया की माँ, घर में राशन है या ... ?' उसके प्रश्न के उत्तर में अंदर से आवाज आई - ' आज के दिन का तो है । '
                यह सुनते ही कल्लू, जो मुझे लग रहा था कि वह काम पर चलने को तैयार है, पुन: अलाव के पास आकर बैठते हुए बोला - 'नहीं, साहिब आज हम नहीं जाएगा ।'
'क्यों ?'
क्यों क्या ? बस नहीं जाएगा । ठण्ड के दिन में काम करना क्या जरूरी है ?'
' अगर घर में राशन न होता तो ?'
' तब और बात होती, अब आज के दिन का तो है न ।  
उसके इस उत्तर को सुनकर मैं गरीबी के कारणों के बारे में सोचते हुए नए मजदूर की तलाश में चल पड़ा ।   

                  संतुष्टि ----- इंदु गुप्ता 

बरसात के बाद घर के बाहर की कच्ची जमीन को दुरुस्त करवाने हेतु मजदूर की आवश्यकता थी, इसीलिए पास की झुग्गी में रहने वाले राधे को काम के लिए बुलाने की मन में ठानकर निकली । दिसम्बर माह की मीठी, गीली, हल्की और सिहरन भरी ठंडी सुब्ह थी ।लोग ढके-लिपटे से अपने काम के लिए निकल रहे थे । 
              मैं राधे की झुग्गी के पास पहुंची ।  वह बाहर खुले में आग जलाकर बैठा हुआ था ।  मैंने उसे काम पर आने के लिए पूछा तो उसने ' अभी बताता हूँ' कहकर झुग्गी के भीतर झांककर आवाज दी - ' मंगलू की माँ, घर में राशन है या...?'
          उसकी बात काटती एक मद्धम सी आवाज आई-' आज के दिन का तो है । '
         राधे मेरी तरफ देखकर पुन: आग की तरफ बढ़ते हुए बोला, ' बहन जी आज हम किसी हाल में भी काम पर नहीं जाएंगे ।'
' क्यों क्या हुआ ?'
' क्यों क्या ! इस ठंड के दिन में काम करना जरूरी है क्या ?'
' और अगर घर में राशन न होता तो ?- मैं हैरान होकर बोली । 
' तब देखी जाती. जब आज के दिन का राशन मौजूद है तो क्यों जाऊं मारा-मारी करने ? कल की कल देखी जाएगी । '
उसका जवाब सुनकर और परम संतुष्टि देखकर मैं दूसरा कामगर ढूँढने चल पड़ी । 
 इंदू गुप्ता का पता- 
मकान नंबर- 348, सैक्टर- 14, फरीदाबाद-121002 
                        * * * * *
सुधि पाठकों से निवेदन है कि एक रंग में लिखे दोनों लघुकथाओं के हिस्से को पढ़ें और बताएं की यह सचमुच में चोरी है या मेरा भ्रम ।  वैसे मैं इसे इत्तेफाक मान सकता था अगर इंदु गुप्ता जी ने मेरी लघुकथा पढ़ी न होती ।  अगर यह चोरी है तो मुझे क्या करना चाहिए, यह अवश्य बताएं । आपकी प्रतिक्रिया का बेसब्री से इंतजार रहेगा.
दोनों रचनाओं का स्कैन रूप---

*********
दिलबागसिंह विर्क 
**********

24 टिप्‍पणियां:

Pallavi saxena ने कहा…

पढ़ने से तो लग रहा है कि यह चोरी ही है, क्यूंकी बकुल एक से विचार वो भी कहानी के रूप में दो लोगों के मन में एक साथ नहीं आसकते। मगर अब किया क्या जा सकता है। क्यूंकि अब तो दोनों ही रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। तो मेरा सुझाव तो यह है, कि एक बार माफ कर दीजिये यदि दुबारा भी ऐसा कुछ होता है, तब कोई निर्णय लेने के बार में सोचिये गा।

Sunil Kumar ने कहा…

बस ख्याल भिड़ गए जाने भी दो यारों :):)

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

सिर्फ ख्याल भिड़ते तो कोई बात नहीं थी, यहाँ तो शब्द तक भिड़ रहे हैं, फिर अकस्मात लिखा जाता तो ओर बात थी, इंदु गुप्ता जी के पास तो निश्चित रूप से पत्रिका का वह अंक होगा जिसमें मेरी लघुकथा प्रकाशित हुई थी

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

यहाँ ख्याल भीड़ जाने से ज्यादा ...नक़ल नज़र आ रही है

वैसे कहानी का मूल रूप ज्यादा अच्छा है ...

Urmi ने कहा…

बहुत बढ़िया लगा! शानदार प्रस्तुती!

Unknown ने कहा…

दिलबाग जी, मुझे इस तरह की चीजों से बहुत नफरत है. वैसे सांझी के एडिटर मेरी जान-पहचान के हैं. मैं आज उनसे इस बारे में बात करूंगा और उन्‍हें ईमेल पर भी इसके बारे में जानकारी दूंगा.
क्‍या आपके पास आपकी मूल लघुकथा की कटिंग है. अगर है तो हमारा पक्ष और भी मजबूत होगा.

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आ. मलखान सिंह जी
सादर प्रणाम
आप मेरे लिए प्रयास कर रहे हैं, यह जानकर अच्छा लगा. आप अपनी तरफ से कोशिश कीजिए, वैसे मैं भी प्रकाशित लघुकथा की फोटो प्रति संपादक को भेज रहा हूँ.

tips hindi me ने कहा…

दिलबाग विर्क जी,
अच्छा हॉट तो आप विस्तार से मय सबूत इसे अपनी पोस्ट पर प्रकाशित करते | एक उदाहरण आप यहाँ भी देख सकते हैं | इस सच को तस्वीर के माध्यम से सभी ब्लॉगर व पाठकों के साहमने रखें | इन्होने नाम तो बदले हैं | लोग तो इतनी भी जहमत गवारा नहीं करते |

टिप्स हिंदी में

आनन्द विश्वास ने कहा…

किसी भी कवि से मौलिक चिन्तन की अपेक्षा की जाती है
ऐसा करना निश्चय ही निंदनीय है. आपने बे- नकाब कर
एक अच्छा कदम उठाया है.
धन्यवाद.
आनंद विश्वास

Gyan Darpan ने कहा…

propagate moral values के नाम पर दूसरे ब्लॉग से लेख उठाकर छापने के लिए जिद करने वालों को क्या जबाब दें ?

कल एक सज्जन मेरे ब्लॉग से propagate moral values के नाम से लेख लेकर अपने ब्लॉग पर छापने के लिए जिद कर रहे थे , भला अब उन्हें कौन समझाए कि भाई मेरे लेखों से propagate moral values बढती है तो जिनकी आपने moral values बढ़ानी है उन्हें मेरे ब्लॉग पर ही भेज दिया करों ताकि वे पढकर अपनी moral values बढ़ा लेंगे|

हद है चोरी की भी| कई लोगों ने तो पुरे ब्लॉग ही चोरी की सामग्री से बना रखें है|

vandana gupta ने कहा…

ये तो गलत बात है आपको इसका विरोध करना चाहिये।

अनुपमा पाठक ने कहा…

दोनों कहानियों को पढ़ने वाले पाठक स्पष्ट जान जायेंगे कि दूसरी कहानी हू बहू नकल है पहली कहानी की... दूसरी कहानी को पढ़ने वाला इसे मूल लेखक की कहानी मान कर ही पढ़ेगा... नकल करने वाले का नाम स्वतः दब जायेगा! लेकिन जो भी हो, यह दुखद तो है ही...

आपकी लघुकथा बेहद सटीक है... एक मर्म जो अनायास पाठकों को छूता है!

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

रचना कार के मन में रचना का जन्म वैसा ही है जैसे एक माँ अपने बच्चे को जन्म देती है.... अगर मेरे मन की जमीन उर्वर नहीं है तो उसे उर्वर बनाने का प्रयास करना मेरे लिये बेहतर होगा न कि किसी के पाले पोषे पौधे को चोरी कर रोपना... ऐसा करना उस पौधे की हत्या ही है क्योंकि उर्वरता का अभाव उसे जीने नहीं दे सकता साथ ही ऐसा करना उस रचनाकार के साथ घोर अन्याय है जिसने उसे जन्म दिया है...
स्पष्टतया यहाँ खयालों का साम्य नहीं बल्कि खयालों का हरण दृष्टिगोचर होता है...

इसी परिप्रेक्ष्य में एक घटना याद आयी कि कुछ दिन पूर्व एक सज्जन ने “नव्या” वेब पत्रिका में जनाब बशीर बद्र की गज़ल से कुछ शेर उठा कर अपने नाम से मुक्तक के रूप में छपवा लिया था... सूचित करने पर संपादक आदरणीय पंकज त्रिवेदी जी ने उस रचना को रिमूव किया... बड़ा ही दुखद है यह सब देखना...

निंदनीय कृत्य के विरुद्ध यथासंभव समुचित कार्यवाही की ही जानी चाहिये....

Suman Dubey ने कहा…

namaskaar, dilbag jii bahut hi nindniiy kraty hai.

Ashok Kumar pandey ने कहा…

विशुद्ध चौर्य कर्म है...इसे स्वरचित नहीं स्वचुरित कहते हैं...:)

मनोज कुमार श्रीवास्तव ने कहा…

Log kiske liye likhte hain , Pata nahi..... Yadi aatmsantusti ke liye likhte hain.....to nischit hi chori aatmsantusti pradaan nahi karti..... Mujhe Grina si hui aisi kartoot jaan ke...... Afsos ki ye log sachhe sahityakaar hone ka dam bhi bharte hain.... Vicharo ma milna ek baat hai aur Shabdo ka doosra.......

Manoj

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) ने कहा…

स्पष्ट: नकल है.निंदनीय कृत्य.
जहाँ सुबरन है वहीं तो चोरी होगी पुरानी कहावत चरितार्थ हो गई:-
सुबरन को खोजत फिरैं कवि,कामिनी अरु चोर...

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

hai

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

hai

News And Insights ने कहा…

दिलबाग जी ये सारे फैसले आप पर निर्भर हैं कि आप क्या करेंगे? लेकिन आप यह भी कह रहे हैं कि उन्होंने मेरी कहानी पढ़ी है तो निश्चित रप से ये सही बात नही है लेकिन चूँकि दोनों कथाओं के प्रकाशन में लगभग ६ साल का अंतर है तो यह भी सकता है कि इंदु जी के मन में ऐसी कोई बात न हो और यह महज एक संयोग हो। कोई भी कदम उठाने से पहले आप इंदु जी से संपर्क करें। बात करें देखें वो क्या कहती हैं और अगर उन्हें अपनी गलती का एहसास है तो बेवजह का ड्रामा खड़ा करना भी उचित नही है। हालाँकि ऐसा किन परिस्थितियों में हुआ यह पता नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि यह पता करना चाहिए और अगर जानबूझकर सस्ती लोकप्रियता के लिए ऐसा किया गया है तो फिर वाकई इसपर एक्शन लीजिए।

devendra gautam ने कहा…

ise kahte hain khoon lagaakar shaheed banna. lekhak kahlaane ka itna hi shauq hai to kisi zarooratmand lekhak ko paisa dekar likhwate. uska kuchh bhala ho jaata... hairat hai indu ji ne is mamle me'n koi safaai nahi'n dee.

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

बेहद शर्मनाक है ये. लेखिका से अवश्य बात करें. कई बार शब्द-शब्द पूरी की पूरी रचना चोरी हो जाती है और पता भी नहीं चल पाता है. ये अच्छा है कि आपको पता चल गया.

बलराम अग्रवाल ने कहा…

मुझे लगता है कि सर्जनात्मक कार्य करने वाले लोग ऐसी हरकतों से दूर रहते हैं। इस तरह के लोगों में करेंट नहीं होती है और ये ज्यादा दूर चल पाने वाली चीज़ भी नहीं होते--यह मान लीजिए। एकाध चीज़ इधर-उधर से उड़ाकर अपने नाम से छपवायी और क्लबों/महफिलों में वाह-वाही लूट ली, बस। इससे ज्यादा अभिलाषा मुझे इनकी लगती नहीं है। आप, पूर्ववत सृजन से जुड़े रहिए, इन्हें इनके हाल पर छोड़ दीजिए। हो सके तो अपना लघुकथा संग्रह इन्हें भेज दीजिए कि यह लो, और लिखो, और छपो।

Unknown ने कहा…

अफसोसजनक। इंदु गुप्ता जी का लिंक भी उपलब्ध कराएँ जिससे इन्हें मित्रता सूची में न रखा जाए।

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