शिक्षा आज की सबसे बड़ी जरूरत है । शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत प्रयास हो रहा है । हर बच्चा शिक्षा प्राप्त करे इसके लिए शिक्षा का अधिकार लागू किया गया है । साक्षरता की दर संभवत: बढ़ी भी है, लेकिन शिक्षा को लेकर जो स्थिति अब भी भारत में है वह बहुत संतोषजनक नहीं ।
भारत के सभी राज्यों के हालात मैं नहीं जनता । हाँ, अपने राज्य हरियाणा की स्थिति से परिचित हूँ और मेरा अनुमान है कमोबेश यही स्थिति पूरे भारत में होगी । हमारे देश में वास्तविक सुधार की अपेक्षा आंकड़ों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है । शिक्षा का अधिकार भी इसी की भेंट चढ़ रहा है । इस अधिकार के अंतर्गत सबको शिक्षा अनिवार्य है । अत: सरकार की तरफ से आदेश आता है कि इलाके के सभी बच्चों के नाम स्कूल में लिखे जाएँ । आदेशों की पालना होती है ।जिस बच्चे को न घर वाले स्कूल भेजने को तैयार हैं, न बच्चा किसी तरीके से स्कूल आ रहा है, उसका सिर्फ नामांकन होता है । आंकड़ों में संख्या बढती है, वस्तुस्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता ।
इतना ही नहीं यदि कोई बच्चा समझाने-बुझाने के बाद स्कूल में आने लगता है तो वह शिक्षित नहीं हो पाता । कारण - नीतिगत दोष । नीति के अनुसार बच्चे को उसकी आयु के हिसाब से कक्षा में दाखिल करना है, यथा-तेरह वर्ष का बच्चा कक्षा सात में ही दाखिल होगा भले उसने प्रथम कक्षा भी पास नहीं की । अब आप खुद ही देखिए क्या वो बच्चा पढ़ सकता है। नहीं, वो खुद पढने की बजाए दूसरे बच्चों को अपने तेरह साल की आवारगी के अनुभव सुनाकर स्कूल का माहौल खराब करता है । ऐसे में शिक्षा का स्तर गिरना अवश्यंभावी है ।
यह सच है कि अनपढ़ बच्चों को शिक्षा दी जानी चाहिए, लेकिन उनके लिए अलग से व्यवस्था होनी चाहिए । सामान्य बच्चों के साथ उन्हें तभी बैठाया जा सकता है जब वे आधारभूत ज्ञान रखते हों । ब्रिज कोर्स की योजनाएं सुनी अवश्य गई हैं, लेकिन धरातल पर ऐसी कोई योजना लागू नहीं । बच्चे को यह नहीं पता कि उसके हाथ में किस विषय की किताब है लेकिन उसे उम्र के हिसाब से पहले दाखिला दिया जाता है, फिर आठवीं पास का प्रमाण-पत्र । यह प्रमाण सभी को देना अनिवार्य है, क्योंकि आठवीं तक किसी भी बच्चे को फेल घोषित नहीं किया जाएगा । ऐसा स्पष्ट निर्देश दिया गया है ।
प्रथम से लेकर आठवीं तक परीक्षा का प्रावधान नहीं रखा गया । तर्क है कि परीक्षा मानसिक दवाब डालती है, लेकिन जब आगे चलकर हर मोड़ पर परीक्षा देनी होगी तब वे बच्चे कैसे उसका सामना करेंगे जिन्होंने आठवीं तक परीक्षा दी ही नहीं । दवाब से भागकर क्या दवाब से बचा जा सकता है ? दवाब को झेलना सिखाना ही तो शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए था, लेकिन आज की शिक्षा इससे दूर जा रही है । परीक्षा का न होना शिक्षा के स्तर को गिराएगा, विशेषकर सरकारी स्कूलों में । सरकारी स्कूलों में आमतौर पर उन परिवारों के बच्चे आते हैं जो शिक्षा के प्रति जागृत नहीं । उनके बच्चे ने स्कूल में क्या पढ़ा, क्या सीखा, यह जानने का न तो उनके पास समय है और न ही वे जरूरत समझते हैं । बच्चे अपने बचपने के कारण शिक्षा में रुचि नहीं रखते. अध्यापक को परिणाम का डर नहीं । ऐसे में शिक्षा के प्रति वह गंभीरता स्कूल में नहीं बन पाती जो परीक्षा होने पर होती थी । इस नीति का नुकसान अनपढ़ और गरीब परिवारों के बच्चों को अधिक है ।
इस प्रकार शिक्षा का स्तर दिनों-दिन गिर रहा है । आंकड़ों में साक्षरता बढ़ रही है, लेकिन वास्तविक स्थिति उससे बहुत अलग है। शिक्षा आज के दिन प्रयोगशाला बनी हुई है । हर रोज नए प्रयोग हो रहे हैं और इन प्रयोगों की भेंट चढ़ रहे हैं आज के बच्चे ।बच्चों के पास डिग्रियां आती जा रही हैं लेकिन ज्ञान से उनकी पहुँच से दूर होता जा रहा है ।
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दिलबागसिंह विर्क
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8 टिप्पणियां:
ek gambheer samsya ko darshaati post.vicharniye hai.
एक अध्यापक की पारखी नजर से हमें भी जानकारी मिली!
शिक्षा की नीतिगत दुर्दशा के प्रित जागरूक करने के लिये धन्यवाद.वैसे तो देश आंकडों पर ही चल रहा है.
"प्रथम से लेकर आठवीं तक परीक्षा का प्रावधान नहीं रखा गया."
सरकारें ये खेल इसलिए खेल रही हैं ताकि वो अपने आंकड़ों में दिखा सकें कि साक्षरों की संख्या तीव्र गति से बढ़ रही है.
ये सब राजनीति का खेल है,विर्क जी.
एक गंभीर समस्या पर प्रकाश डालती हुई चिंतनिय पोस्ट ....
सोचने को मजबूर करता आपका लेख
ये शिक्षा आज की सबसे गंभीर चिंता का विषय है
गंभीर समस्या
सही मुद्दे को लेकर आपने बड़े ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! बहुत ही गंभीर समस्या है और जल्द से जल्द इसके बारे में सोचना चाहिए!
मेरे नये पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
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