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बुधवार, मई 20, 2020

दाम्पत्य में आई संवादहीनता का परिणाम दिखाता उपन्यास

उपन्यास - कोई फायदा नहीं
उपन्यासकार - श्याम सखा श्याम
पृष्ठ - 120
(त्रैमासिक पत्रिका मसि-कागद के अंक के रूप में प्राप्त)
हरियाणा साहित्य अकादमी से पुरस्कृत उपन्यास 'कोई फायदा नहीं' हरियाणा साहित्य अकादमी के पूर्व निदेशक डॉ. श्याम सखा श्याम द्वारा लिखा गया है। इस उपन्यास को उन्होंने 'स्त्री-पुरुष संबंधों की विडम्बना पर आधारित' कहा है। ये कहानी है कुलश्रेष्ठ दम्पति की, जिनका दाम्पत्य जीवन बड़ा दुखदायी रहा। रत्ना का यह कहना -
"क्या, विवाह मजबूरी ही रहेगी हमेशा?
" (पृ. - 84)
इसके कथानक को स्पष्ट करती है। वैवाहिक जीवन क्यों दुखदायी बना, इसको विस्तार से बताया गया है। यह घट चुकी घटनाओं का बयान है, इसलिए क्यों का उत्तर मिल पाता है। घट चुकी घटनाएं डायरी के द्वारा प्रकट होती हैं। एक डायरी नरोत्तम कुलश्रेष्ठ की है और दूसरी डायरी उसकी पत्नी रत्ना की। ये दोनों डायरियाँ मिलती हैं शेखर गोस्वामी को। शेखर कर्णधार की भूमिका निभाता है। 
         इस उपन्यास की शुरूआत मुंबई से होती है, यहाँ शेखर रूबी के साथ लिव-इन-रिलेशन में रहता है। रूबी के यूरोप चले जाने पर वह जबलपुर चला जाता है और वहाँ पहले सिंधी दम्पति नथवानी के घर रहता है और फिर व्यास दम्पति के। व्यास दम्पति के साथ एक वृद्ध रहता है जो सिर्फ एक वाक्यांश बोलता है, 'कोई फायदा नहीं'। व्यास दम्पति की अनुपस्थिति में वह एक दिन पूरा वाक्य बोलता है -
"ठीक कहा, बेटे! सचमुच इस दुनिया में जीने का कोई फायदा नहीं।" (पृ. - 21)
यह वाक्य कहते ही उसकी मृत्यु हो जाती है। इसके बाद शेखर को उस बुजर्ग की डायरी मिलती है। डायरी के अनुसार अध्यापक पुत्र नरोत्तम एक प्रशासनिक अधिकारी बनता है, लेकिन वह ईमानदार और साफ चरित्र का होकर भी अपनी एक गलती, जिसमें दोषी वह न होकर उसके हालात हैं, की सज़ा भुगतता है। उसकी पत्नी उसे सजा देने के चक्कर में पूरे परिवार को बर्बाद कर देती है। इस घटनाक्रम में उसकी साली खलनायिका बनकर उभरती है। 
            इस डायरी को पढ़कर शेखर दूसरे पहलू को जानना चाहता है और रत्ना की तलाश में दिल्ली और वहाँ से फरीदाबाद जाता है। फरीदाबाद में नरोत्तम की सास से मिलता है और वह उसे मथुरा ले जाती है और रत्ना की डायरी सौंपती है। अब रत्ना के नजरिये से इस कहानी को देखा जाता है। डायरी पढ़ने के बाद वह फिर दिल्ली जाता है। व्यास और रत्ना की माँ से मिलता है और वापिस मुंबई आ जाता है। वापिस मुंबई आने पर रूबी और रूबी की मौसी का राज खुलता है। उपन्यास का अंतिम अध्याय है, 'कहानी अभी खत्म नहीं हुई है'। रूबी उर्फ सपना कुलश्रेष्ट और शेखर गंदर्भ विवाह करने के बाद जगदलपुर के आदिवासी इलाके में रहने को चले जाते हैं, क्योंकि -
"प्रकृति और आदिवासी ही हमें ढंग-से जीना सिखला सकते हैं। वही इस धरती के असली वारिस हैं।" (पृ. - 120)
        कहानी एक प्रशासनिक अधिकारी की है तो प्रसाशनिक अधिकारी के जीवन को भली-भांति से इसमें देखा जा सकता है। प्रशासनिक अधिकारी राजसी जीवन जीते हैं। सरकारी सुविधाओं के अतिरिक्त सुविधाएं भोगते हैं - 
"जमादारनियाँ, जो कमेटी से ड्यूटी काटकर, यहाँ भेजी जाती थीं, माली, दरबान, रसोइये, दफ्तरी, घरेलू नौकरों की आलतू-फालतू फौज होती है, हम अफसरों के घर में, जिन्हें तन्ख्वाह तो दफ्तरों में काम करने की मिलती है, परन्तु जूठन वे अफसरों के घरों में माँजते हैं, भैंस नहलाते हैं, बच्चे खेलाते हैं, उन्हें स्कूल-ट्यूशन के जाते-आते हैं। स्कूल में गरमागरम लंच देकर आना ही नहीं, बच्चे के आगे हाथ जोड़कर, पाँव पकड़कर उसे खाना खिलाना, जिससे उन्हें साहिब लोगों से डांट न पड़े, उनके कामों में शुमार होता है। लगभग हर अफसर को कोई-न-कोई जमींदार मुफ्त में गाय, भैंस दे जाता है, चारा भी भिजवाता है, साल भर। दूध देना बंद करने से पहले ही नई भैंस, गाय बदलने के दसियों इसरार आ जाते हैं, इन अफसरों के पास।" (पृ. - 25)
प्रशासनिक अधिकारियों की पत्नियों की भी मौज होती है -
"बिना किसी पोस्ट के क्लस्टर की बीवी रैडक्रास आदि अनेक सरकारी-सहकारी तथा समाज-सेवी संस्थाओं की प्रधान बना दी जाती थी। जाओ फीते काटो, फोटो खिंचवाओ।" (पृ. - 82)
ऊपर से भले इनका जीवन शाही हो, लेकिन टाँग खींचने की प्रवृति इनमें भी मौजूद रहती है। इनके जीवन के दूसरे पहलू से भी लेखक ने अवगत करवाया है -
"पार्टियाँ प्रशासनिक सेवा का एक घिनौना, मगर आवश्यक अंग हैं। जो अफसर पार्टियाँ नहीं करता वह न्यौता भी नहीं जाता। उसे असभ्य करार दिया जाता है। हालांकि इन पार्टियों में एक-दूसरे की छिछलेदारी की जाती है, नियुक्तियों के, ए. सी.आर के षड्यंत्र रचे जाते हैं, एक-दूसरे की बीवियों पर निगाहों से व्यभिचार होता है, बूढ़े अफसरों द्वारा अपनी बिगड़ैल साहिबजादियों के लिए दूल्हे खरीदे जाते हैं, फिर भी ये पार्टियाँ होती रहती हैं।" (पृ. - 24)
         यह समाज ऐसा है कि ताकत की पूजा की जाती है, जब आप ताकत खो देते हैं, तो आपको कोई नहीं पूछता। प्रशासनिक अधिकारी की पत्नी को फिर कौन पूछे। रत्ना के साथ भी यही होता है - 
"पहले कभी मैं पीहर आती तो खबर मिलने पर यहाँ के अफसरों की पत्नियाँ डिनर पर बुलाती थीं, अब तो वे सभी पहचानने से भी इंकार करती हैं।" (पृ. - 82)
यह उपन्यास भले ही प्रशासनिक अधिकारी से संबंधित है, लेकिन प्राइवेट शिक्षक संस्थाओं का सच भी उदघाटित करता है -
"प्रिंसिपल, मैनेजमेंट यहां तक कि सहकर्मी पुरुष भी हर स्त्री से देह-सुख की आशा, अपेक्षा करते हैं।" (पृ. - 82)
स्त्री की दशा पर रत्ना कहती है -
"सचमुच बीसवीं सदी खत्म हो रही है, मगर स्त्री अभी तक अबला ही है।" (पृ. - 77)
पति के अच्छे व्यवहार को भी शंकालु स्त्रियाँ गलत समझ लेती हैं। सुरेखा का यह कथन यही इंगित करता है-
"जब पति आवश्यकता से अधिक प्रेम जताए, बिना बात तोहफे लाए, तो पत्नी को समझ जाना चाहिए कि उसका इंट्रेस्ट किसी और स्त्री में हो गया है तथा वह गिल्टी कॉन्शियस है तथा अपना गिल्ट छुपाने के लिए पत्नी के प्रति ज्यादा स्नेहिल व दयालु हो गया है।" (पृ. - 61)
भारत और यूरोपीय जीवन का तुलनात्मक अध्ययन भी इस उपन्यास में मिलता है। एंडी और मार्था से मिलकर रत्ना सोचती है-
"मगर मार्था के व्यवहार से लगा कि स्त्री-पुरुष के संबन्ध नर और मादा के अलावा कुछ और भी हो सकते हैं तथा जितने ये अमेरिकी लोग यौनाचार में स्वछंद हैं, उतने ही रिश्तों के प्रति ईमानदार भी हैं।" (पृ. - 101)
वह भारतीयों के बारे में सोचती है- 
"हम हिंदुस्तानी संबंधों-भावनाओं की बात करते हैं, मगर कितने अव्यावहारिक ढंग से? हम संबंधों से, मात्र प्राप्ति की सुख-सुविधा की प्राप्ति की अपेक्षा करते हैं। उसके भीतर निहित कर्त्तव्य को अनदेखा करते रहते हैं।" (पृ. - 88)
रत्ना को खुद की गलती का भी अहसास होता है-
"मुझे लगता है कि मैंने नरोत्तम को ठीक-से नहीं समझा। अगर नरोत्तम के साथ कोई महिला मित्र या आफिसर यूँ सप्ताहांत घूमने जाती, जैसे मैं एंडी के साथ गई हूँ तो भला मैं क्या करती?" (पृ. - 101)
लेखक ने आदमी के स्वभाव को भी चित्रित किया है-
"पता नहीं क्या अजीब फ़ितरित है इंसान की, कि जिसके अमंगल की सोच से भी हम भयभीत हो उठते हैं, उसे मानसिक यातना पहुँचाने में हमें कोई कष्ट नहीं होता, अपितु एक अवर्णनीय पारलौकिक आनन्द ही प्राप्त करते हैं, हम।" (पृ. - 34-35)
उपन्यास का कर्णधार मुंबई में रहता है, इसलिए मुंबई का वर्णन इस उपन्यास में प्रमुखता से है। दिल्ली, चंडीगढ़ के बारे में भी राय दी गई है। मुंबई के बारे में शेखर कहता है- 
"लगा कि मेरी जगह मुंबई में ही है, क्योंकि यहाँ हर व्यक्ति अपना अतीत भूलकर वर्तमान में जीता है तथा भविष्य के सपने देखता है। यहाँ हर व्यक्ति अपने पिछले जीवन से नाता तोड़ चुका होता है।" (पृ. - 111)
मुंबई के कल्चर का बयान है -
"आल लेडीज क्लब, यानी उसकी मैंबर सिर्फ महिलाएँ थीं। वे भी अधेड़ होती करोड़पति महिलाएँ। आज का शो था, मेल स्ट्रिपरीज। शो, जिसमें अनेक उभरते, जवां मॉडल, रैम्प पर अपने जिस्मों की नुमाईश करनेवाले थे, ठीक उसी तरह जिस तरह लड़कियाँ करती हैं। शो आरंभ हुआ, ये अधेड़ उमरजादियाँ, अपने-अपने पैग लिए बैठी रैंप पर 'कैट वाक' करते लड़कों को इस लोलुपता से घूर रही थीं कि जैसे कच्चा चबा जाएँगी। इतनी बेशर्मी से तो मर्द भी लड़कियों को नहीं घूरते। शो खत्म होते-होते तो उनकी कामुकता चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी, जो फब्तियाँ, चीत्कार, सीटियाँ वे बजा रही थीं, एक-दूसरे के गले से लिपटकर चूम रहीं थीं, जाँघों पर चुटकियाँ काट रही थीं - ऐसी हरकतें तो फिल्मों में चवन्निया सीट पर बैठनेवाले या नौटंकी देखनेवाले भी नहीं करते।" (पृ. - 13)
जिगोले, पुरुष रखैल की प्रवृति को दिखाया गया है-
"आप कनॉट पैलेस में पालिका बाज़ार के आस-पास शाम के सात-आठ बजे खड़े हो जाएँ। बस, संभावित खरीददार आपको ढूँढ लेंगी। वे आपको फाइव स्टार होटल में ले जाएँगी और ऐसी ऐश करवाएंगी कि आप ज़िन्दगी-भर याद रखेंगे।" (पृ. - 16)
         अनेक ऐसी उक्तियाँ हैं जो जीवन-दर्शन का सार कही जा सकती हैं- 
"घर की लड़ाई में जीत किसी की भी नहीं होती, अपितु सबकी, सारे परिवार की हार ही होती है।" (पृ. - 33)
"आदमी जब अपनी बीवी की नजरों में गिर जाता है तो बच्चों की नजरों में भी गिर जाता है।"(पृ. - 37)
"स्त्री अपने अपमान को कभी नहीं भूलती।" (पृ. - 28)
           इस उपन्यास में नरोत्तम, रत्ना, सुरेखा उर्फ मिसिज दत्त, रूबी उर्फ सपना, शेखर, मि. व्यास आदि प्रमुख पात्र हैं। नरोत्तम और रत्ना की डायरी से उनके बारे में पता चलता है। मि. व्यास भी उनके बारे में बताता है। लेखक ने अनेक विधियों से पात्रों के चरित्र को स्पष्ट किया है और इनमें प्रमुख विधियाँ आत्मकथन, दूसरे पात्र द्वारा बयान और खुद के कृत्य हैं। शेखर अपने बारे में बताता है-
"टिक कर बैठना, कई लोगों की प्रकृति नहीं होती। मैं भी उनमें से एक हूँ। कहीं भी रहूँ, एक अजीब-सी बेचैनी बनी रहती है। शायद इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है। मेरी दादी कहती थी कि मेरा जन्म ही ऐसे नक्षत्र में हुआ है।" (पृ. - 7)
रूबी के बारे में शेखर बताता है -
"रूबी एक रहस्यमयी लड़की है, होगी लगभग बीस-बाईस वर्ष की, सुंदर, बला की सुंदर। देहयष्टि भी कमाल की है। आँखें झील-सी गहरी हैं, चेहरे पर एक उदास रहस्यमयी मुस्कान-सी लिपटी रहती है।" (पृ. - 9)
मि. व्यास रत्ना के बारे में कहता है -
"रत्ना एक सहृदय एवं साफ दिल की महिला थी, बातचीत के दौरान वह अपनी गलती भी मान लेती थी तथा फिर न करने का वायदा भी करती थी। मगर धीरे-धीरे उनमें एक अजीब मानसिक विकृति आने लगी थी।" (पृ. - 108)
मि. व्यास का यह वक्तव्य रत्ना और सुरेखा के चरित्र को स्पष्ट करता है-
"इन सब हालात के पीछे मौसी से कहीं अधिक सुरेखा का हाथ था। सर ने एक बार मुझे बतलाया था कि रिपु, नारी कितनी मधुर, कितनी सरल, कितनी शीतल, कितना सुख दे सकती है, यह तो रत्ना को देखकर लगता है और नारी कितनी कुरूप, कितनी भयंकर, कितनी जालसाज़ हो सकती है, यह सुरेखा को जानकार जाना जा सकता है।" (पृ. - 108)
सुरेखा का यह कथन उसके अपने बारे में स्पष्ट करता है -
"तुमने मेरे साथ घर नहीं बसाना चाहा था क्योंकि मैं कुल्टा थी, क्योंकि मेरे संबन्ध तुम्हारे किसी विद्यार्थी से थे तो तुम कौन-से दूध के धुले थे। मौसी को भूल गए थे।" (पृ. - 103)
मिसिज दत्त को उसके इस कथन से जाना जा सकता है -
"वाह! मर्द कितना भी बूढ़ा हो, उसे सोलह साल की लड़की चाहिए और औरत यह इच्छा क्यों नहीं कर सकती? मैं जब सोलह साल की थी तो सबसे पहले मुझे एक बूढ़े रिश्तेदार ने ही खराब किया था और वैसे भी दुनिया में एक ही रिश्ता होता है। नर और मादा का और इस वक्त इस फ्लैट में तुम अकेले नर हो और हम दो मादाएँ, ऐश करो। मुझसे मस्ती मारने के पूरे दस हजार तथा डेजी फोकट में मिलेगा - कम ऑन।" (पृ. - 15)
डेजी का पुलिस को दिया गया बयान मिसिज दत्त के चरित्र को स्पष्ट करता है-
"मिसिज दत्त एक विकृत दिमागवाली महिला थी तथा पति की मृत्यु के पश्चात कुछ दिन अपनी बेटियों के साथ अमेरिका रही - फिर वापिस दिल्ली आ गई थी। डेजी को वह घरेलू सहायक बनाकर गोवा से लाई थी तथा जवान लड़कों को फँसाकर न केवल अपनी काम-पिपासा शांत करती थी, अपितु पैसों के लालच से डेजी के साथ प्राकृतिक-अप्राकृतिक सहवास करवाकर, उसकी वीडियो फ़िल्म गुप्त कैमरों से बनाकर विदेशों में बेचती थी।" (पृ. - 118)
नरोत्तम इस उपन्यास का प्रमुख पात्र है। वह बेबस है। गरीब परिवार से उठकर प्रशासनिक अधिकारी बनता है। वह मौसा के अहसानों से दबा हुआ है। इन अहसानों की कीमत उसे चुकानी पड़ती है। उसकी बेबसी इस वक्तव्य में स्पष्ट झलकती है-
"ऐसे में कई बार सब-कुछ छोड़-छाड़कर घर भागने की इच्छा हुई थी, परन्तु एक तो उस घर के मालिक तथा रिश्ते में मेरे मौसा का स्नेहिल व्यवहार, दूसरे उनका पिछले पांच-छह सालों में मेरी हॉस्टल की पढ़ाई पर किया गया उपकार तथा पिताजी की मुझे प्रशासनिक अधिकारी देखने की इच्छा ने, मुझे बेबस कर रखा था।" (पृ. - 22)
मौसा के घर रहते ही उसके संबन्ध मौसी ( सगी मौसी नहीं) से बनते हैं, लेकिन बाद में वह संभल जाता है। उसकी मजबूती को उसके इन शब्दों के माध्यम से जाना जा सकता है-
"घर जाकर भी मैंने दोबारा वे संबन्ध कायम नहीं होने दिए, हालांकि दूसरी ओर से अनुनय-विनय, रोना-पीटना, धमकियाँ आदि, बहुत कुछ मिलीं।" (पृ. - 23 ) 
          उपन्यास में वर्णन की प्रधानता के कारण संवाद कम ही हैं, लेकिन यहाँ हैं, वहाँ काफी महत्त्वपूर्ण हैं। रत्ना पुत्र और पुत्रवधू के इस संवाद को सुनकर सच को जान पाती है-
"उपमा - तो उस बुड्ढी को बुला लो, एक लाख रुपये टिकट पर किस लिए कहर खर्चा है, उस पर। सारा दिन ऐश ही तो करती रहती है घर में।
प्रभाष - प्लीज उठो, मेरा बहुत काम पड़ा है, मुझे आज रात ही नेट पर जर्मन भेजना है और मम्मा को नहीं बुलाते तो बेबीसिटर पर पाँच-छह लाख खर्च आ जाता।" (पृ. - 96)
वातावरण के चित्रण में भी लेखक सफल रहा है-
"कमर लगभग पन्द्रह फुट चौड़ा और लगभग इतना ही लम्बा था, जिसमें एक पुराना खूबसूरत बेड था। दो कुर्सियाँ एक कॉफ़ी टेबल थी जिस पर क्रोशिए का मेजपोश था।" (पृ. - 45)
    लेखक ने अनेक उक्तियों, लोकोक्तियों, प्रचलित वाक्यों, प्राचीन प्रसंगों के सहारे अपनी बात कही है। 
"का बरखा जब कृषि सुखाने" (पृ. -35)
"रहिमन इक दिन वे रहे, बीच न सौहें हार" (पृ. - 30)
"जदपि जग दारुन दुख नाना/ सबतें कठिन जाति अपमान" - तुलसी (पृ. - 41)
"घोड़े तथा मर्द की उम्र नहीं, कद,काठ देखी जाती है।" (पृ. - 24)
"जो समझना नहीं चाहे उसे तो भगवान भी नहीं समझा सकता। भगवान शंकर स्वयं अपनी अर्द्धांगिनी सती को राम-प्रसंग में नहीं समझा पाए थे।" (पृ. - 32)
            भाषा रोचक है। अंग्रजी शब्दों का भी भरपूर प्रयोग हुआ है, लेकिन अंग्रेजी वाक्यों के हिंदी अर्थ भी दिए गए हैं। डायरी शैली का प्रयोग हुआ है। दो डायरियाँ इसमें हैं। दोनों अलग-अलग शैली में लिखी हुई हैं। नरोत्तम ने कहानी लिखी है, जबकि रत्ना की डायरी दिनांक अनुसार है। आत्मकथात्मक और वर्णनात्मक शैली की प्रधानता है। यह उपन्यास दिखाता है कि किस प्रकार एक सुखी दाम्पत्य में तक़रार पैदा की जा सकती है और पति-पत्नी के संबंधों में आई दरार किस प्रकार उनके स्वयं के और उनके बच्चों के जीवन को तबाह कर देती है। हालांकि यह उपन्यास सिर्फ समस्या को दिखाता ही नहीं, अपितु समाधान पर भी विचार करता है। लेखक संबंधों की कड़वाहट का हल सयुंक्त परिवार में देखता है। शेखर सपना को कहता है- 
"तुम जान गई हो कि लोगों के बीच पति-पत्नी तथा सन्तानों के बीच एक नॉन कम्युनिकेशन की दीवार खड़ी हो जाती है और यह दीवार तोड़ पाना उनके लिए संभव नहीं होता, जब तक कोई दूसरा व्यक्ति, जो उनसे संबंधित न हो, उन्हें दूसरे पक्ष का सही आकलन न करवाए।" (पृ. - 115)
©दिलबागसिंह विर्क

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

संक्षिप्त और सारगर्मभित समीक्षा

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